बोक / सुशील कुमार फुल्ल
प्राण!
सितम्बर लौट आया है। लेकिन तुम ऐसे गये कि कभी लौटने का नाम ही नहीं लिया। बादलों की घटाएँ धमाचौकड़ी मचाने लगी हैं। मौल-खड्ड गर्माने लगी है। याद है तुम्हें जब मैं पहली बार तुम्हारे मौलखड्ड वाले कबाड़खाने में प्रविष्ट हुई थी तो तुम ने कहा था- छवि! मौलखड्ड की छल-छलाहट, इसका भड़का हुआ रूप मुझे बहुत प्रिय है। यौवन का ज्वार। और तुमने फिर मेरे यौवन की तुलना मौलखड्ड की खरमस्ती से कर दी थी।
मैं डर गयी थी। अथाह जल-राशि। रात भर पानी का दहाड़ना। और बीच में गीदड़ों की सहमी-सी मरी हुई-सी आवाजें! मानों प्राणरक्षा के लिए व्याकुल जीव कोई शरण ढूँढ रहे हों। मैं कभी खड्ड के किनारे रही नहीं थी। मुझे भला नींद कैसे आती। तुम्हारा दुलार प्यार शायद विश्वस्त कर पाता! तुम्हारा प्यार कथन- ‘‘ छवि क्या नये सम्बन्धों की गर्माहट के कारण तुम्हें नींद नहीं आती!’’ अब तक शायद समझ गये होगे कि तुम्हारा यह कथन कितना मूर्खतापूर्ण या कहो अज्ञानपूर्ण था। सम्बन्धों की गर्मी और नींद न आए। वास्तव में सम्बन्धों की गर्मी हमें आश्वस्त करती है निरस्त नहीं! मैं तुम्हें भुलाने के लिये कह देती। बिल्कुल ठीक। मैं इसे भोगना चाहती हूँ। और तुम उल्लू की तरह छाती फुला कर मेरी बात को सच मान लेते हो। नर्म-नर्म गद्दों पर सुरक्षित कमरों में सोने वाली छवि को पत्थर की स्लेटों से ढकी छत के नीचे, लहराती-गहराती खड्ड के किनारे नींद कैसे आती?
फिर कुछ दिनों बाद मैंने यह जताना भी चाहा था परन्तु तुम्हारे पास कोई विकल्प नहीं था। अतः खड्ढ की प्राकृतिकता के गुणगान करके मुझे बहलाया करते। चण्डीगढ़ से उखड़कर आने वाली लड़की के लिए धौलाधार का आँचल तथा खड्डों की सरसराहट निश्चित रूप से मनमोहक थी परन्तु तुम क्या जानो कि मैं उन दिनों कितनी भयभीत थी। साँपों की सर्र...सर्र! और तुम थे कि एक दिन डेढ़ गज़ साँप पूँछ से पकड़ कर उठा लाए थे! तुम्हें याद होगा तुमने साँप झुला दिया था और मेरी चीख निकल गई थी। मैं कितनी ही देर बेहोश रही थी।
लेकिन मैं अब पहले वाली छवि नहीं हूँ। मैंने साँपों में रहकर साँप होना सीख लिया है। अब साँप मुझसे डरते हैं क्योंकि पता नहीं मैं कब उन्हें काट छीलकर कढ़ाही में डाल लूँ लेकिन प्राण! तुम तो साँपों के भी बाप निकले। तुम्हें महासाँप कहूँ तो तुम खुश हो जाओगे। प्रशंसा सुनना तो तुम्हारी आदत रही है, भले उस प्रशंसा में तुम्हारे नकारात्मक गुणों का ही आख्यान हो।
महासाँप संज्ञा को तुम सहज ही स्वीकार कर लोगे, ऐसा विश्वास है। तुम मुझे उखाड़ कर नहीं लाए थे, बल्कि खदेड़ कर। जबकि मैंने कहा था- प्राण! पहले अपने माँ-बाप की सहमति ले लो।
‘‘शादी मैंने करनी है, माँ-बाप ने नहीं। उनका जमाना निकल गया है।’’ तुम फुंफकार रहे थे। ‘‘फिर भी।’’ ‘‘फिर भी क्या। मैं नये जमाने का नयी विचारधारा वाला हूँ।’’ ‘‘अच्छा।’’ मैंने चुस्की ली थी। ‘‘तुम्हारे विचार इतने घटिया हैं, मैं नहीं जानता था।’’ ‘‘चलो अब तो जान गये।’’ ‘‘हाँ, जान गया हूँ।’’ ‘‘लेकिन सही ढंग से पहचाने नहीं।’’ ‘‘बको मत। मैं शादी करूंगा अपने ढंग से। कोई मन्दिर नहीं, मस्जिद नहीं, पुजारी-मुल्ला नहीं, कोई बाराती नहीं, कोई कचहरी जज नहीं।’’ न तुमसे कोई बोलने लगा था। याद है। ‘‘तो फिर।’’ मैंने पूछा था।
‘‘मैं तुम्हें चुपचाप बकरी की तरह हाँककर ले जाऊंगा।’’ ‘‘तुम्हारा सामन्त अभी मरा नहीं। मैं बकरी हूँ और तुम दुर्गन्ध सने बोक। वाह रे प्राण! मैं तुम से हरगिज शादी नहीं करूंगी।’’
‘‘ मैंने तो यों ही कहा था। दरअसल मुझे बकरी और बोक शब्द बहुत अच्छे लगते हैं। इनसे कम ऊर्जा का अहसास होता है। चलो मैं तुम्हें अपनी गाय समझकर ले जाऊँगा।’’ और तुम मुस्करा दिये थे। मैं जानती थी आदमी के अन्दर का अहं बार-बार किसी प्रतीक के माध्यम से बाहर निकल रहा था। और तुम्हारे अहं ने भी झुकना नहीं सीखा लेकिन याद है जब मैं तुम्हारे साथ समाज के विधि-विधान ठुकराकर आयी थी तो तुम ने नाक रगड़ का सात बार कहा था- हे मेरी बकरी! मुझं अपने साथ ले चल! हे मेरी गाय, मेरी जीवन साथी बन! इस प्रकार वास्तव में तुम मेरे साथ आये थे, मैं तुम्हारे साथ नहीं।
परन्तु नहीं! तुम में तो सात काढ़ियों जितना गुस्सा भरा था तुम्हारा सामन्त तो कछुए की तरह सिमट गया था, उसने कुछ ही दिन में अपने पैर फैलाने शुरू किसे! तुम हर रोज कहते थे- खड्ड के किनारे घर किसका।
मैं कहती... मेरा...मेरा। ‘‘नहीं, मेरा और तेरा... तेरा... मेरा... यानि सच में मेरा और झूठ में तेरा। छवि तुम नहीं जानती! आदमी महान होता है। औरत.... औरत तो साधन है जीवन की सुखमय एवं मनोरंजक बनाने का। ‘‘औरत खिलौना है?’’ ‘‘खिलौना कहो। इसे खूबसूरत सेब कहो.... केला कहो या चाहो तो भुट्टा कह लो। ‘‘तुम पागल हो गये हो! मैं चिल्लायी थी- मैं तुम्हें यहां लायी थी, तुम्हारे साथ नहीं आयी थी। तुम्हारा दरिन्दा जाग उठा था। देखो- चाहे तुम लाई थीं या तुम मेरे पास आई थीं। जो सच्चाई है, वह सच्चाई। सेब पर छुरी या छुरी पर सेब। बात एक ही है! अब फैसला तुम कर लो कि छुरी हो या सेब, फैसला कर लेने से भी अर्थ नहीं बदल पाएँगे, यह मैं जानता हूँ।
तुम्हारा असली रूप प्रकट होने लगा था। तुम चाहते थे कि मैं मध्यकालीन नायिकाओं की भान्ति किसी राजकुमार के लिए किले में बन्द रहती। मेरा पिंजरे से बाहर निकलना तुम्हें बिल्कुल नहीं सुहाता था। दरअसल तुम संकीर्ण होते जा रहे थे! मैं समझ नहीं पायी थी कि जो व्यक्ति समाज के विधि-विधानों को ठुकराकर मुझे बकरी की भांति हाँककर लाया था, वह मुझे बकरी-सा स्वच्छन्द जीवन क्यों नहीं जीने देना चाहता था। वैसे मैंने कभी ऐसा चाहा भी नहीं था कि किसी अन्य पुरुष से सम्बन्ध स्थापित करूँ परन्तु शंकालु मन बार-बार मुझ पर आरोप लगाता था.... मुझे छेक डालना चाहते थे।
सिडनी तुम्हारा दोस्त था, मेरा नहीं लेकिन धीरे-धीरे तुमने मुझे विवश कर दिया कि मैं सिडनी को अपना दोस्त स्वीकार कर लूं! सिडनी ने कहा भी था- भाभी! प्राण को क्या हो गया है। सनकी हो गया लगता है। इसके नये विचारों के पीछे इसकी संकीर्णता छिपी है। कोई इसकी पत्नी को देखे तक न, छुए तक न, बतियाएं तक न! ‘‘कौन पत्नी? किसकी पत्नी?’’ ‘‘भाभी।’’ ‘‘मर गयी भाभी! छवि ने फिर जन्म लिया! प्राण की पत्नी मर गयी।’’ ‘‘भाभी ऐसा मत कहो।’’ ‘‘सिडनी! खबरदार! जो मुझे भाभी कहा, चाहो तो बराबरी के रिश्ते में मुझे छवि कह सकते हो।’’ सिडनी काँप गया था। फिर तुम्हें बुला लाया था! लेकिन तुम्हारी गीदड़-भभकियाँ सिर्फ अपनी नंपुसकता को दबाने के लिए थीं। दरअसल शरीर के मर्द होकर भी मन से तुम मर्द नहीं थे! तुम्हें औरत होना चाहिए था! औरत जो अन्धकार से डरती है, औरत तो हर मर्द से मन-ही-मन भयभीत रहती है। और तुम हो कि मुझे चण्डीगढ़ से उठा कर ले आए! मैं सोचती थी अपना संसार बुनेंगे! कोई छल-कपट नहीं होगा लेकिन तुम तो कुछ ही महीनों में फिसल गये थे.... तुम्हारा प्रेमी मर गया था। तुम्हारा काम शान्त हो गया था! तुम्हें सारा मिल चुका था! तुम्हें गर्व होना चाहिए था परन्तु तुम में हीनता की ग्रन्थियों ने घर कर लिया था। अपनी सामन्ती प्रवृति को तुमने फिर भी नहीं छोड़ा था! कहा था- तुम माँ बनने वाली हो! सन्तान का क्या होगा। तुम्हारा क्या होगा? ‘‘तुम्हें क्यों इतनी चिन्ता है?’’
‘‘वह सन्तान हम दोनों की होगी!’’ ‘‘लेकिन मेरी सन्तान तुम्हारे जैसी डरपोक नहीं होगी! अपने आप जी लेगी!’’ ‘‘फिर भी! छवि! दुनिया बड़ी भंयकर है। चलो, एक वायदा कर लेते हैं! यदि लड़की हुई तो मैं ले लूंगा। लड़का हुआ तो तुम रख लेना। तुम्हारा सहारा हो जाएगा। तुम दानवीर बन गए थे, युधिष्ठर का अभिनय करने लगे थे!’’ ‘‘तो हमारा परस्पर सम्बन्ध टूट गया!’’ ‘‘नहीं, जब तुम्हारी इच्छा हो मेरे पास आ जाओ! मेरी इच्छा होगी तो मैं उपस्थित हो जाऊंगा!’’ ‘‘इकट्ठे समझो! खड्डे के किनारे एक कमरे में तुम, एक में मैं!’’
मुझे कोई इतराज नहीं था लेकिन मैं इसके पीछे की घटनाओं से परिचित थी! सिडनी की बीन क्लाइडा पर तुम्हारा मन फिसल रहा था! सिडनी ने तुम्हें बढ़ावा दिया। बहन को भी बहकाया- प्राण, तो देवता है! छवि से उसकी कभी शादी नहीं हुई पत्नी कैसे हो गयी। इतना अच्छा लड़का है! जल्दी ही कहीं नौकरी लग जाएगी। पैसा काफी है! और फिर तुम प्राण को संभाल लोगी तो सारे जिन्दगी मज़े करोगी।
फिर तुम पर क्लाइडा का रंग चढ़ने लगा था! मेरे प्रसव के दिन नज़दीक आ रहे थे और तुम क्लाइडा के साथ धौलाधार के जंगलों में खो जाने का अभिनय करते! प्रतिदिन कोई बहाना बनाकर बाहर निकल जाते! फिर क्लाइडा की देह भरने लगी थी! सिडनी मेरे इर्द-गिर्द मंडराता रहता। पता नहीं क्यों! मैंने उसे कभी प्रोत्साहित नहीं किया! वैसे नारी का शरीर कांई तरकारी नहीं है, जो किसी भी ग्राहक के सामने परोस दिया जाए! शायद! प्राण! तुमने कभी इस तथ्य को महसूस नहीं किया!
सुरभि के जन्म पर तुम्हें कोई खुशी नहीं हुई थी। बल्कि तुमने कहा था- इसे चुपचाप मौलखड्ड में बहा देते हैं। पता नहीं तुम्हारा दरिन्दा क्यों बार-बार बाहर आ जाता था! मैंने तुम पर थूक दिया था। कहा था- मैं रखूँगी सुरभि को! सुरभि मेरे शरीर का अंश है! मैं उसे तुम्हारी दुर्गन्ध से दूर रखूँगी! तुमने मुझे भुला दिया था! क्लाइडा दीवार बन गयी थी! तुम क्लाइडा के शरीर की गन्ध की प्रशंसा किए न थकते थे! फिर वह दिन! हा... हा... तुम्हारे सामन्त के दमन का दिन..... अहँ का साँप कुचला जा रहा था! मैं अपने कमरे में थी! तुम्हारा कमरा खाली था! तुम कहीं बाहर जाने वाले थे! सिडनी मेरे पास गया था! किसी सोच-विचार में उलझा हुआ था। मैंने ही कहा था- सिडनी! मुर्दनी क्यों छाई है? ‘‘मैं परेशान हूँ।’’
‘‘क्यों?’’ ‘‘क्लाइडा की वजह से।’’ ‘‘उसकी पटने लगी है। प्राण तो उस पर प्राण न्योछावर करता है।’’ ‘‘लेकिन वह ऊब गई है।’’ ‘‘तुम भी अच्छे छछून्दर हो, सिडनी!’’ ‘‘क्यों?’’ ‘‘तुम अपनी चिन्ता करो।’’ ‘‘लेकिन क्लाइडा नरेश को चहाने लगी है!’’ ‘‘तो भी क्या है!’’ ‘‘छवि, तुम कह रही हो?’’ ‘‘हाँ, मैं कह रही हूँ। आदमी कई औरतों से प्रेम का ढोंग रच सकता है तो औरत क्यों नहीं! क्लाइडा प्राण को न छोड़ती तो प्राण छोड़ देता।’’ ‘‘तो औरत मधुमक्खी है जो कभी एक फूल पर कभी दूसरे फूल पर बैठकर रस का सेवन करती है! मुझे बड़ा अटपटा लगता है!’’ ‘‘अटपटेपन की क्या बात है! आदमी भी भवरें की भाँति कभी एक कलिका पर कभी दूसरी पर मुग्ध होता है!’’ ‘‘तो बात बराबरी की है! चलने दें?’’
‘‘चलने क्या? यह स्वाभाविक है! क्लाइडा ही प्राण को सबक सिखा सकती है!’’ अचानक तुम आ गए थे। तुम सिडनी को मेरे पास बैठा देखकर भड़क उठे थे। और बोल उठे थे- हरामज़ादे। उल्लू के पट्ठे ! तुम अपनी माँ के पास बैठै क्या कर रहे हो? ‘‘इस हिसाब से तो मैं तुम्हारी भी माँ हुई।’’ ‘‘बको मत! नागिन! मैं तुम्हें क्या समझा कर लाया था!’’ ‘‘रखैल?’’ ‘‘नहीं... धर्मपत्नी!’’ ‘‘तो क्लाइडा तुम्हारी क्या लगती है?’’ ‘‘मेरी होने वाली बीवी!’’ ‘‘होने वाली! वाह रे मजनँू! वह तुम्हारी बीवी नहीं होगी।’’ सिडनी ने भी तभी तुम्हारा मोह भंग किया था। ‘‘क्योंकि अब यह मुझे चाहने लगी है! मैं इसे बहुत दूर ले जाऊंगा!’’
नरेश ने क्लाइडा की गाल थपथपाते हुए तुम्हारे मुँह पर तमाचा मार दिया था! मैं बहुत खुश हुई थी! तुम्हारे चेहरे के रंग बदलने लगे थे। सिडनी कुप्पा हो गया था! ‘‘मैं तुम्हें छोडूँगा नहीं!’’ तुमने धमकी दी थी और फिर जब पुलिस तुम्हें पकड़ने आई तो तुम बिल्कुल बुझ गए थे। गिड़गिड़ाने लगे थे! तुम्हारा सामन्त एकाएक परिचर बन गया था! तुम्हारे सम्बन्ध की गर्मी बर्फ की तरह जम गयी थी! तुमने कातर नज़रों से मेरी ओर यदि मैं पैरवी न करती तो तुम्हें पता नहीं क्या सज़ा मिलती! क्लाइडा नरेश के साथ खो गयी थी! उन्होंने विदेश में जा कर घर बसा लिया था। अभी कुछ महीने पहले यहाँ आए थे। उनके तीन गोलमटोल बच्चे बहुत ही सुन्दर लगते थे! क्लाइडा तुम्हारी कायरता को याद कर रही थी। पूछ रही थी- तुम्हारा नपंुसक सामन्त कहाँ विश्राम कर रहा है? ‘‘क्यों मिलना चाहती हो?’’ मैंने पूछा था! न भाई न वह क्लाइडा को भगा ले जाए! नरेश ने कहकहा था।
मेरे मन मस्तिष्क में बकरी को हाँकने वाले बोक का चित्र उतर गया था। और तेईस वर्ष पुरानी छवि मन में उभर आई। मैं रस विभोर हो गयी। बड़ी इच्छा हुई कि सुरभि की शादी में तुम्हें बुलाती लेकिन शायद तुम्हारा सामन्त फुँफकार उठता...कि शायद शादी में व्यय के लिए आमन्त्रित कर रही है। इसलिए नहीं लिखा। सुरभि की शादी विधिवत हो चुकी है, वह खुश है। समाज के बन्धन... ‘‘प्रतिबन्ध संयमति करते हैं...हमारे अहं का स्वच्छ विचरण... तुमने मेरे साथ करके देख लिया खैर... कोई किसी के अनुभव से नहीं सीखता... लेकिन फिर भी बच्चों को सही ढाँचे में ढालना माँ-बाप का फर्ज तो है ही। मैंने अपना कर्तव्य पूरा किया है... और साथ ही तुम्हारा भी! सुरभि चली गयी है! सिडनी को मैंने कभी चाहा नहीं बहुत वर्षों तक आवारा कुत्तों सा मण्डराता रहा परन्तु छवि का शरीर यों ही पिघल-पिघल नहीं पड़ता। हाँ... तुम इस बात को नहीं मानोगे... ना मानो... तुम्हारे मानने से न मानने से कोई विशेष अन्तर भी नहीं पड़ता! मैं जानती हूँ तुम दिल्ली की गन्दी नालियों में सड़ रहे हो... शायद तुम छोटा-मोटा काम भी करते हो.... ठीक है तुम्हें पश्चाताप होगा.... वह तो तुम्हारी निजी बात है! किसी तुमने बकरी को हाँकने का प्रतीक प्रयुक्त किया था। शब्द तो भ्रमजाल पैदा करते हैं। मौलखड्ड के किनारे सुरभि के साथ रहते हुए मुझे समय का पता ही न चला। अब निन्तात अकेली हूँ। सुरभि के जाने के बाद यह पहला सितम्बर आया है।
अब खड्ड का गहराना, गर्भाना गर्वित कर जाता है, भयभीत नहीं करता! मेरी धमनियों में पर्वतीय बारिश की धड़कन समा गयी है। हाँ, शायद तुम्हें भय लगेगा। इसलिए लिखो तुम्हें आकर कब ले आऊँ? मैं तुम्हें सहारा दूँगी। क्या नए विधि-विधान के अनुसार रहने का अपना वचन पूरा नहीं करना! अब तो शरीर की आवश्यकताएँ भी नहीं भड़कातीं। शायद तुम्हारा शरीर भी संयमित हो गया होगा! बादल फिर घुमड़ने लगे हैं। मैं अकेली.... खड्ड गहराने लगी है... सच, प्राण.... तुम आ जाओ तो फिर से हम..... हम दोनों अपने बिखरते हुए सपनों को एक नया रूप देने का प्रयत्न करेंगे! देखना कहीं फिर सामन्ती फुँफकार से मुझे दुत्कार न देना.... बकरी को हाँकने वाला बोक।
तुम्हारी ही
छवि