बोझ / एक्वेरियम / ममता व्यास
हम दो मुसाफिर थे। मंजिलें हमें खुद नहीं पता थी। दोनों के सर पर अपने-अपने बोझ थे। तुम अपने अवसाद, अतीत और अकेलेपन के गठ्ठर अपनी पीठ पर लादे हुए थे। बोझ से तुम्हारी कमर दोहरी हुई जाती थी। मैं अपनी पीड़ा दर्द और शापों की गठरी उठाये चल रही थी। किन्हीं उजाड़ ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर चलते-चलते किसी दिन किसी मोड़ पर हम दोनों मिले थे। दोनों ने एक-दूजे के चेहरों से पहले एक-दूजे के बोझ देख लिए थे और उसी दम एक-दूजे के प्रति खिंचाव महसूस किया। चेहरा तो बहुत बाद में दिखाई दिया, जब हम पास-पास आये। दोनों के पास इतना ज़्यादा बोझ था कि तुम्हारी पीठ और मेरी गर्दन दिखाई ही नहीं देती थी। जैसे स्नेल अपने आकर से कई गुना बड़ा खोल ढोने को अभिशप्त हो, कुछ ऐसे ही हम दिखाई देते थे। पास आने पर हम दोनों ही दर्द भरी मुस्कान से मुस्काए थे और पलभर को दोनों ने एक-दूजे के बोझ को उतारने में उत्सुकता दिखाई और सहायता की।
उस दिन पहली बार तुम ठीक से खड़े हो पाए. पहली बार मैंने भी महसूस किया कि देह पर सर जैसी या गर्दन जैसी भी कोई चीज होती है। कोई हल्की-सी चीज जो आस-पास घुमाई जा सकती है।
बोझ उतरते ही तुमने जाना कि पीठ पर लदे बोझ से तुम्हारी चाल बदल गयी थी और मैंने भी माना कि भारी बोझ से मेरी गर्दन अकड़ गयी थी। मैं अब अपनी गर्दन को घुमाकर चारों तरफ देख सकती थी। तुम अब कभी भी झुक के नहीं चलोगे। तुम्हारी रीढ़ की हड्डी अब हमेशा सीधी रहेगी। हम फिर चल दिए. एक-दूजे का साथ होने पर हमें ये बोझ बहुत हल्के लगने लगे थे। हम दोनों ने तय किया कि अगले मोड़ पर ये बोझ हम छोड़ जायेंगे, ताकि हम अपनी खोयी हुई चाल फिर से पा सकें। हमने एक-दूजे की आंखों में देखा मुस्काए और अपने-अपने बोझ उस नीली झील में फेंक दिए.
अब हम तेजी से चलने लगे थे। हम फिर बहुत देर तक चलते रहे, बातें करते रहे। हमारी बातों से हजारों फूल रास्तों में बिखर-बिखर जाते थे। हमारी हंसी से नहरें भर-भर जाती थीं और मुस्कानों से ठूंठ हो चुके वृक्षों पर उम्मीद के पत्ते उगने लगते थे।
हमने बहुत कम समय में बहुत लम्बा रास्ता तय किया। हमने दर्शन, मनोविज्ञान, प्रेम और अध्यात्म पर बात की। हम कभी भी दूसरों पर नहीं हंसे क्योंकि हमें खुद की मूर्खताओं और गलतियों पर हंसने से कभी निजात ही नहीं मिली। अक्सर हम अपने अतीत को याद करके रो भी पड़ते थे। हमारे पास यादों के अनगिनत जुगनू थे, जो स्याह रातों में हमें रोशनी देते थे। हमारे पास सुन्दर बातों के सुगन्धित गजरे थे जो हमें तपती दुपहरी में ताजा रखते थे।
चलते-चलते अचानक किसी मोड़ पर आकर हमारे रस्ते अलग हो गए. हम हंसते-हंसते अचानक से उदास हो चुके थे, जबकि हम शुरू दिन से ही जानते थे हमें अलग-अलग दिशा में जाना है। फिर भी मन बहुत भारी था उस दिन। हम न रोये, न हमने एक-दूजे को शुभ यात्रा की दुआएँ दीं। बस तुम पूरब और मैं पश्चिम की तरफ मुड़ गयी। हम दोनों धीरे-धीरे चले जा रहे थे और बढऩे वाला हर कदम हमारे बीच दूरियाँ बढ़ा रहा था।
दूर जाते हुए हम दोनों ने महसूस किया एक, सूनापन एक खालीपन और निर्वात हमारे चारों तरफ भर गया है।
हमारे आसपास अब कोई बोझ नहीं था। न अतीत, न अवसाद और न अकेलेपन के ग_र, न दु: ख पीड़ा की गठरियाँ। लेकिन फिर इतना बोझ क्यों लग रहा था सर पर? और पैरों में इतनी थकन। अपने-अपने बोझ तो हम उस गहरी नदी में डुबो आये थे न फिर क्यों लगता है कि सारा आसमान हमारे ही सर पर रखा हो। धरती एक दलदल बन गयी और उसमे पैर धंसे जा रहे थे। कहीं ऐसा तो नहीं कि बिछडऩे से पहले हमने एक-दूजे से कोई बात छिपाई हो।
ऐसी बात जो कहना बहुत ज़रूरी था। जो होंठों के किनारों पर आज भी छिपी है। वह एक जरा-सी बात, वह अनकहा भारी बोझ बनकर सीने में अड़ गयी है। ये दिल का बोझ एक कदम भी चलने नहीं दे रहा। सुनो! मुझे तुमसे कुछ कहना है अभी इसी वक्त।