बोतल और चिराग से निकले जिन्न / जयप्रकाश चौकसे

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बोतल और चिराग से निकले जिन्न
प्रकाशन तिथि :28 अगस्त 2017


नायिका पहाड़ पर एक गुफा में कैद है। नायक अपने हाल ही में बने मित्र के साथ नायिका को स्वतंत्र कराने जा रहा है। यह मित्र एक बोतल में बंद जिन्न था, जिसके मायावी अधिकार निरस्त हो चुके थे, क्योंकि उसने एक आम आदमी से दोस्ती कर ली है। यह शापित अधिकार वंचित जिन्न और नायक पहाड़ चढ़ रहे हैं। दोनों कष्ट में मानवीय पसीने से तरबतर हैं। जिन्न कहता है कि उसे आज मालूम पड़ा कि साधारण व्यक्ति होकर जीना कितना कठिन है। यह शम्मी कपूर निर्देशित फिल्म 'बंडलबाज' का दृश्य है। उन्नीसवीं सदी के अंतिम दशक में सर रिचर्ड बर्टन नामक व्यक्ति ने भारतीय एवं खाड़ी देशों के इतिहास, साहित्य व समाज का अध्ययन किया और कुछ किताबों के अंग्रेजी अनुवाद भी किए। 1882 को उन्होंने लंदन में अभियान चलाकर अनुवाद कार्य के लिए धनसंग्रह किया। सर रिचर्ड बर्टन ने वात्स्यायन की लिखी 'कामसूत्र' का अंग्रेजी भाषा में अनुवाद भी किया और 'लव वाॅर एंड फैन्टसी' नामक किताब भी लिखी थी। बोतल में बंद जिन्न एवं चिराग घिसने पर उससे निकले जिन्न की कथाएं अत्यंत लोकप्रिय हैं। चिराग से निकले जिन्न का पहला वाक्य होता है, 'क्या हुक्म है मेरे आका।' दिए गए हुक्म को वह बजा लेता है और चिराग या बोतल, जिसके कब्जे में हो वह उसका आका अर्थात मालिक होता है। किंवदंतियां ऐसी भी हैं कि जिन्न आका के खिलाफ विद्रोह भी करता है। भारत में तांत्रिकों और धर्म की व्याख्या करने वाले महात्माओं की परम्परा अत्यंत पुरानी है। कहते हैं कि अंग्रेजों ने भारत पर शासन करते समय अपने गुप्तचरों को इन तांत्रिकों और धर्म के ठेकेदारों के प्रवचन पर निगाह रखने के लिए महकमा बनाया था अौर इन सभाओं की रिपोर्ट शिमला में स्थापित एक विभाग को भेजी जाती थी। 1857 और उसके तीन वर्ष पूर्व भी हुकूमत का तख्ता पलटने की योजना बनी थी, जिसकी अग्रिम जानकारी मिलने के कारण अंग्रेजों ने विद्रोह को दबा दिया। तांत्रिकों और स्वयंभू महात्माओं से अंग्रेजों के गुप्तचर जानकारियां प्राप्त करने थे। यह उनकी हुकूमत के बने रहने का आधार स्तंभ था।

उन्हें अवाम के आक्रोश का अध्ययन करना आवश्यक लगता था। इस तरह की रिपोर्ट के सात खंड शिमला के गुप्तचर दफ्तर में मौजूद थे। उन गुप्तचरों की संख्या तीस हजार थी, जिनकी जानकारियों के आधार पर तीस करोड़ की आबादी वाले मुल्क पर हुकूमत की जाती थी। भारतीय असंतोष का एक पुस्तकालय 1878 में विद्यमान था परंतु भारत छोड़ने के पहले अंग्रेजों ने उसे नष्ट कर दिया। अंग्रेज शोधार्थी वेंडरबर्न लिखते हैं कि खतरों की चेतावनी धार्मिक महात्माओं और मठों से प्राप्त होती थी और इनके लाखों शिष्य पूरे भारत में फैले थे। स्वतंत्र गणतंत्र व्यवस्था स्थापित होने के बाद भी भारत की सरकारों ने गुप्तचर विभागों की व्यवस्था पर करोड़ों रुपए खर्च किए परंतु अवाम के अवचेतन की कोई जानकारी वे प्राप्त नहीं कर पाए, क्योंकि इच्छाशक्ति का अभाव था। हाल ही में हुई घटनाओं की आशंका जजों ने पहली ही सरकार को दे दी थी परंतु सरकार अपने चरित्र के अनुरूप सोई रही। भारतीय राजनीति और प्रशासन अवाम के दर्द के प्रति अत्यंत उदासीन हैं। बकौल साहिर लुधियानवी 'मिट्‌टी का तो है कुछ मोल, मगर इंसानों की कीमत कुछ भी नहीं।' सरकार तांत्रिकों की तरह अपना कार्य कर रही है। मान्यता है कि तांत्रिक श्मशान में आधी रात को अलख जगाते हैं। हमारे नेता दिन के समय संसद व विधानसभाओं में तांत्रिकों की तरह तर्कहीनता का उत्सव मनाते हैं। वे मुुतमईन हैं कि उनका राजपाट जा नहीं सकता, क्योंकि देश में तांत्रिक परम्परा जारी है। मौजूदा हुक्मरानों ने धार्मिक भावनाओं को उभारकर सता प्राप्त की है। उन्होंने बोतल और चिराग से जिन्न को जगाया है और कोई जिन्न बोतल या चिराग में वापस नहीं जाता। उसके तांडव का एक नमूना अभी उजागर हुआ है, जो मात्र प्रस्तावना है।

ज्ञातव्य है कि बाबा राम रहीम ने अपने मठ के इर्द-गिर्द हजारों दुकानें अपने भक्तों को दी हैं और उन्हें व्यवसाय करने के लिए बिना ब्याज धन भी उपलब्ध कराया है। यही आर्थिक आधार है उस जुनून का कि अाग राजधानी तक पहुंची है और रेल तक जलाई गई है।

कालेधन को उजागर करने के प्रयास में नोटबंदी की गई, जिसमें Rs.14 हजार करोड़ का खर्च आया कालाधन तो धार्मिक स्थानों पर चढ़ावे के रूप में आता है। हुक्मरान द्वारा जगाए जिन्न अब उन्हें ही कष्ट दे रहे हैं। विधि का व्यंग्य देखिए कि एक सजातीय दंगे करने वाले को जमानत पर रिहा कर दिया और नया फसाद अन्य स्थान पर सामने आ गया। जैसा बोया है वैसा ही उपज रहा है।