बोतल का पानी / इन्दिरा दाँगी

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चोरी का रोमांच सेक्स-कामना जैसा उत्तेजक होता है ।

नहीं, मैं पेेशेवर चोर नहीं हूँ ! न ग़रीब-ज़रूरतमन्द चोरकट और न ही रईस-मानसिक बीमार क्लेप्टोमेनियक। मैं इंजीनियरिंग का छात्र हूँ; पापा का ‘अच्छा बच्चा’ जिसकी कॉलेज फ़ीस भरने के लिये उन्होंने बैंक से लोन लिया है। बुरा हो जाने की सहूलियतें मेरी निम्न मध्यमवर्गीय ज़िन्दगी ने कभी मुहैया कराई नहीं, सो मुझे तो अच्छा निकलना ही था ! हा ऽ ह! और मैं अच्छा हूँ -- परिश्रमी, परिपक्व और पढ़ाकू !

सतपुड़ा की विशाल पार्किंग में टहल रहा हूँ। भोपाल के वल्लभ भवन को अगर मध्यप्रदेश का प्रषासनिक हृदय कहा जाता है तो सतपुड़ा भवन प्रशासन की रगों में बहता रक्त है। मेरे एक दोस्त को यहाँ ज़रूरी तौर पर आना था; और मैं साथ में, सादर आमन्त्रित नहीं जबरिया आयोजक की तरह आया हूँ। दरअसल यहाँ के लिए दोस्त मेरी मोटरसाईकिल माँगने आया था और मेरी ये जान, सेकेण्डहैण्ड मोटरसाईकिल जिसको ख़रीद पाने में पापा की बचाई और मम्मी की छिपाई सब बचत न्यौछावर हो गई थी; मैं अपनी ये बहुत क़ीमती चीज़ उसके हाथ में ऐसे कैसे पकड़ा देता? लेकिन अगर ‘न’ कहता तो पुरानी यारी से हाथ धोता ...सो मुझे तो झक मारकर साथ आना ही था और पार्किंग में उल्लू की मानिन्द आँखें फैलाए यहाँ-वहाँ वक़्त काटते प्रतीक्षा करनी ही थी।

और मैं यहाँ हूँ। दूर तक गाड़ियों की कतारें हैं; मोम पेन्सिलों से खींची गई टेड़ी-मेढ़ी रंगीन रेखाओं-सी मोहक ! लड़कियों के दिलपसन्द रंगों वाली लाल-गुलाबी-नारंगी स्कूटियाँ, ...नौजवानों की सुर्ख-स्याह-स्टाइलिश बाइक्स, ...निरीह चतुर्थ श्रेणी कर्मियों की रौनक उड़ी साइकिलें, ...क्लर्काें के घिसे स्कूटर, ...छोटे अधिकारियों की खिलौनों-सी नन्ही कारें, ...बड़े अफ़सरों की पीले मुकुटवाली लम्बी कारें, ...दबंग आगन्तुकों की रफ़-टफ़ जीपें, ...आम लोगों के धुले-पुछे दुपहिए-फोर व्हीलर्स: हर वाहन अपने मालिक के ज़िन्दगीनामे का जिंगल गीत है !

और यह जगह पार्किंग स्थल कम सरकार हुजूर का बाग़ ज़्यादा है। बूढ़े-बड़े दरख़्तों के नीचे चौड़े चबूतरे हैं, जहाँ बहुतेरे लोग जिनमें से अधिकांश यहीं के कर्मी हैं -- क्योंकि ये लंच के बाद वाली सरकारी फुर्सत है -- पत्ते खेल रहे हैं। अनगिनत जनता आ-जा रही है। हर चेहरा एक कहानी है। इधर छरहरे-युवा पेड़ मामूली हवा में भी झूम रहे हैं जैसे अपने युवत्व का उत्सव मना रहे हों। जवान होना भी अपनेआप में एक महान उपलब्धि है। चटख-नर्म फूलों और नन्हे-सजावटी पौधों की पंक्तियों से चौड़े रास्तों के किनारे सजे हैं। रेलिंगों पर फूलों से भरी-भरी लताएँ ख़ुशबू बिखेर रही हैं और सतपुड़ा का पूरा माहौल किसी सुन्दर कामकाजी स्त्री की मुस्कुराहट जैसा सौम्य है।

मैंने मोटरसाईकिल जहाँ रोकी है, पटियों के फर्श पर धूल की सौंधी परत है जो अपराह्न की गाढ़ी धूप में इतनी सुनहली दिख रही है जैसे किसी अदृश्य ने फ़र्श पर पिसा सोना लीप दिया हो। पिसे सोने-सी लिपी धूल पर मैं निरउद्देश्य टहलने लगा हूँ। सोचने को कुछ ख़ास है नहीं। मुक्त दिमाग़ से यहाँ-वहाँ देख रहा हूँ: ...युवा पीपल की डाल पर घोंसला बसाती कमसिन चिड़िया को, ...अधखिली कलियों और यायावर भँवरों को, ...उड़ान-नृत्य में लीन एकाकी तितली को, ...आशंकित-आशान्वित चेहरे से भीतर जाते किसान को, ...ऊब रहे सुरक्षाकर्मी को, ...और सेलफ़ोन पर शर्माती लड़की को। ओह! कैसा मीठा समय है; अब भले दोस्त दो घण्टे बाहर न आए! दरअसल इन्तज़ार मुझे कभी नहीं उबाता; मैं कभी अकेला होता ही नहीं हूँ। सिमोन द बोवुआर की इस बात का मैं पक्का भक्त हूँ कि अपने आप में होना तो जश्न मनाने जैसा है !

अब जश्न हो और भला संगीत न हो; अपनी मनपसन्द नज़्म गुनगुना रहा हूँ ...


कहीं एक लड़की, बहुत ख़ूबसूरत मगर साँवली-सी ऽ ...

लड़की तो नहीं, एक ख़ूबसूरत कार पर नज़र ठिठक गई है; चमचमाती स्लेटी और इतनी नई; मुझे लगा अभी तक पहली सर्विस भी नहीं हुई होगी। झिलमिलाती धूप में नई-नई एलीट कार यों सुहानी दिख रही थी मानो किसी कुलीन दुल्हन ने शादी की रिशेप्सन पार्टी में स्लेटी लँहगा पहना हो और उसके हीरों जड़े ज़ेवर रह-रहकर दमकते हैं। मैं यों ही आकर्षित होकर उसकी ओर चला गया। फिर मेरी नज़र पिछले मँहगे पारदर्शी काँच के पार सोफ़े जैसी सीट पर पड़ी ...नहीं, दरअसल सीट पर नहीं, सीट पर पड़ी मिनरल वॉटर की दो सीलबन्द बोतलों पर, जो ब्रान्डेड हैं। क़ीमती पानी को देखकर अचानक से मुझे न जाने क्या-क्या याद आने लगा :

-- हमारी बस्ती में -- जिसे गर्मियाँ शुरू होते ही नगर निगम पानी देना अक्सर ही भूल जाता है -- जब पानी का टैंकर आता है, बिना बर्तन-कपड़े धोए, बिना नहाए हुए लोग पानी-पानी-पानी जुटाने के संघर्ष में सिर-फुटौव्वल को खड़े हो जाते हैं, जबकि टैंकरवाला किसी सुन्दर लड़की को एक्स्ट्रा पानी देने के दौरान, एक ओर ले जाकर यहाँ-वहाँ छू भी लेता है !

-- उस रात मैं एक दोस्त के घर से लौट रहा था; देखा, मँहगी कॉलोनी के गेट पर रखी पीने के पानी की टंकी से कुछ लोग पानी चुरा रहे हैं; कुछ आदमी, औरतें और बच्चे ! मैली प्लास्टिक बोतलों और टूटे बर्तनों में चुल्लू-चुल्लू पानी भरते सशंकित-थरथराते वे लोग सड़क पार की कचरापेटी ज़मीन पर पड़े खानाबदोश मज़दूर थे जिनके पन्नी-तिरपाल के टुकड़ों से बने घरों और टूटी-फूटी गृहस्थियों की क़ीमत उनके जीवनों की क़ीमतों के आसपास ही लगी मुझे, तब जबकि कॉलोनी का डण्डाधारी गार्ड गालियाँ बकता हुआ दौड़ा और भागते स्त्री-पुरुषों के बीच से वो पाँच-छह साल का नन्हा बच्चा पिछड़कर गिर पड़ा, जिसके नंगे-काले बदन पर सिर्फ़ एक चड्डी थी। औंधे गिरे बच्चे के मुँह से ख़ून की बूँदें झरने लगीं। वो रोया या नहीं, ये मैं नहीं देख पाया; बस देख पाया तो ये कि उसने अपने हाथ का पानी का बर्तन नहीं छोड़ा। गालियाँ बकता, डण्डा ठोकता गार्ड पीछे था, पानी चुराकर भागता लहूलुहान बच्चा आगे और ...पॉश कॉलोनी के द्वार से लेकर सड़क पार कूड़ा-ज़मीन की मज़दूर बसाहट तक पानी की छलकती बूँदों के साथ ख़ून की बूँदें भी लगातार बहती गई थीं ...प्यासी आवाम और जीवनरक्षक पानी के बीच की ख़ून भरी खाई !

-- गंदा पानी पीने से एक पूरा गाँव बीमार हुआ। आधा दर्ज़न लोग मर गए। कुछ की हालत गम्भीर है ...क्योंकि गाँव के हैंडपम्प कई बार की शिकायतों के बाद भी सुधारे नहीं गए थे ...क्योंकि एकमात्र कुएँ का पानी सरकारी तौर पर कभी साफ़ नहीं किया गया ...क्योंकि राजधानी के एक हिस्से, इस गाँव में पेयजल की समुचित व्यवस्था कभी की ही नहीं गई ।

...क्योंकि ! ...क्योंकि ! ...क्योंकि !

और मेरी आँखों में एलीट कार में चमचमाती मिनरल वॉटर बोतलें हैं !

सिर-फुटौव्वल और बलात् स्पर्श को बर्दाश्त करने की विवशताएँ ! ...फ़र्क़ों की ख़ून भरी खाईयाँ ! ...गंदगी पीने की मार्मिक व्यथाएँ ! ...और इस एक कारवाले के पास दो-दो बॉटल्स फ़िजूल-सी पड़ी हैं !!

दिल चाहा, कार के काँच पर ज़ोर का मुक्का मार दूँ पर... मैंने बताया ना, बुरा हो जाने की सहूलियतें मेरी निम्न मध्यमवर्गीय ज़िन्दगी ने कभी मुहैया कराई नहीं, सो भीतर से आता ज़ोर का मुक्का बाहर आते-आते झिझकते स्पर्श में बदल गया; शून्य पलों में मैंने कार का दरवाज़ा हल्के से छुआ।

अरे ! नहीं !! ऐसा होता है क्या ? कार का दरवाज़ा तो लॉक ही नहीं है ! ग़लती से खुल गया दरवाज़ा मैंने झट से बंद किया और तुरन्त पलट आया। माथे पर पसीने की बूँदें हैं। उफ्, कहीं कोई देख लेता तो क्या सोचता, मैं चोरी के इरादे से कार खोल रहा था !!

थोड़ा आगे आकर फिर मुड़कर देखने लगा हूँ ...एक आदमी के पास दो बॉटल्स ...ज़रूरत से दोगुना पानी ! अगर एक बोतल मैं चुरा लूँ तो ?? उफ् ! सोचने भर से ही देखिए, साँसों की रफ़्तार बढ़ गई है। हथेलियाँ पसीजने लगी हैं और धड़कनें आकाशवाणी की तरह मेरे विश्व में गूँजने लगी हैं

लव डव लव डव

नहीं वे ! कैसे फ़िजूल ख़याल है ! मैं अपनी मोटरसाईकिल तक लौट आया; बेचैनी में इधर-उधर फिरने लगा हूँ। रगों में बहता रक्त रफ़्तार पकड़ रहा है। बेचैनी की बेख़याली में फिर इसी कार की तरफ चला आया हूँ;

नहीं !!

भीतर से किसी ने टोका जबकि अब तक तो मैंने कोई साफ़ इरादा भी नहीं किया था। आत्मा कितने सूक्ष्म स्तरों पर हमें पकड़ती है; बिल्कुल वैसे जैसे माँ अपने बच्चे के चेहरे से ही जान जाती है कि हालात क्या हैं ! माँ हमारी आत्मा ही तो होती है; या शायद हमारी आत्मा, माँ की आत्मा का एक टुकड़ा होती है ! ...जबकि मेरी आत्मा मुझे टोक रही है; मैं याद करने की कोशिश कर रहा हूँ, पिछले इक्कीस साला जीवन में क्या मैंने कभी चोरी की है ? ...पिछली चोरी ? ...नहीं, सच्ची-कल्पित कोई याद नहीं ! शायद मैंने कभी चोरी की ही नहीं अलबत्ता झूठ ज़रूर कुछ दफ़ा बोले हैं जो अन्ततः हर बार गुनाह बेलज़्ज़त ही साबित हुए हैं ।

-- जब मम्मी से पॉकेटमनी के इतर रुपये लेने थे, दोस्तों की देखा-देखी ख़र्चने के लिए, कॉलेज की नई फ़ीस-फ़ण्ड की गप्प मारी थी; बाद में पता चला, मम्मी बहुत दिनों से वे रुपये मेरे लिये बचाए हुए थीं, आने वाले जाड़ों में नया स्वेटर ख़रीदकर देने के लिए।

-- एक दफ़ा एक दोस्त को अपनी बाइक नहीं देना चाहता था तो शायद मैकेनिकल ख़राबी या रिश्तेदारों की आमदगी का बहाना बनाया था; बाद में उसे न जाने कैसे पता चल गया और सालों में रची किताब-सी वो मित्रता लम्हों में जलकर राख रह गई।

-- स्कूली दिनों का एक वाक़या है। पापा को मेरी किसी -- बकौल उनके -- आवारगी की ख़बर लगी थी; मैंने प्याज़ काँख में दबाकर ख़ुद को बुखार चढ़ा लिया था और दिन-दो दिन लेटा रहा था लेकिन जब पापा अपनी चढ़ी आस्तीनें उतारकर ख़ालिस-परेशान पापा बन गए तो मैं अपने आप में इतना शर्मिन्दा हुआ कि उनसे सब कुबूल कर बैठा !

यों झूठ ही बहुत साल गए हैं ... और आज चोरी ?

देखूँ तो !

नहीं !

देखूँ तो !

नहीं !

देखूँ तो !

...

कशमकश में हूँ; यों मैं नैतिकता-अनैतिकता, पाप-पुण्य, नेकी-बदी की द्वन्दात्मक अभिव्यंजनाओं में बहुत पड़ता नहीं हूँ। जीवन का मेरा अपना एक फ़ण्डा है, अन्ततः वही करता हूँ जिसकी सहमति भीतर से आती है और वो कभी नहीं करता जिस पर भीतरी मनाहियाँ ध्वनित हो रही हों। मैं ज़िन्दगी को सरल बनाने में यक़ीन रखता हूँ और सब तरह की बेईमानियाँ अन्ततः मुश्किलें ही होती है। (इतने बेलज़्ज़त अनुभवों ने इतना तो सिखा ही दिया है।)

...लेकिन ये चोरी की इच्छा ! ज़िन्दगी सब फ़िलासफियों से बड़ी होती है शायद ! भीतर से डर रहा हूँ तो भी कार के पास आ खड़ा हुआ हूँ; सारे साहस अन्ततः डर का ही चरम रूप होते हैं। मैंने चारों ओर देखा है, किसी का ध्यान मुझ पर तो नहीं ?

दो-तीन कर्मचारी खाली टिफ़िनों और खिली हँसियों के साथ मेरे पास से गुज़रे हैं। एक गार्ड बीड़ी का सुट्टा मारता हुआ दूसरे की ओर चला जा रहा है। एक हैरान-परेशान आदमी स्टार्ट न कर पाने पर, स्कूटर को धकेलता लिए जा रहा है। आनेजाने वाले आम लोग मानो शून्य में ताकते चले जा रहे हैं। परेशान आदमी अपने आसपास से, किसी ध्यान-लीन योगी की तरह कट जाता है।

तो मेरी ओर किसी का ध्यान नहीं है सिवाय उस अदृश्य के जो मेरे भीतर है। एक तरफ़ मेरा इनरसेल्फ़ मुझे रोक रहा है, दूसरी तरफ़ इच्छा उन्माद बनती जा रही है। सबकी नज़रों के डर से आश्वस्त हुआ ही हूँ कि अगला भय सामने है -- यों तो कोई नहीं देख रहा; पर कहीं किसी ने चोरी करते पकड़ लिया तो ? या कार का मालिक ही अचानक आकर मुझे रंगे हाथों धर ले ?

ये सोचना भर था कि मैं थर-थर काँप गया। डर के ठीक सौ प्रतिशत विपरीत भीतर से कोई चीख़ा,

ये साला एलीट क्लास !

ठीक इसी पल उत्तेजना अपने चरम पर पहुँची और मैं सारी स्पष्टताएँ खो बैठा। दरवाज़ा खोला-एक बोतल उठाई -- फिर दरवाज़ा बन्द किया और वहाँ से हट गया। कुल पाँच-आठ सेकेण्ड्स ही लगे मुझे इस सब में; पर इन पाँच-आठ सेकेण्ड्स में न मेरा दिल धड़का, न साँस गई-आई और न रक्त में रफ़्तार ही बची; मौत सरीखे रोमांच में मैंने जीवन की पहली चोरी को अंजाम दिया। तेज़, लड़खड़ाते क़दमों आकर अपनी मोटरसाईकिल से टिक गया हूँ और अब हाथ में चुराई हुई बोतल थामे जीवित बच गए व्यक्ति की तरह हाँफ रहा हूँ। रगों में रक्त अब तलक थरथरा रहा है। दिमाग़ सुन्न है। मेरा मन पलकें मूँद लेने को करने लगा है।

और कुछ पलों के विचित्र शून्य के बाद मैं जैसे होश में लौटा हूँ ...सहसा ही पापा के ‘अच्छे बच्चे’ का सिर ग्लानि से झुकने लगा है। अब रक्त धमनियों में ऐसे निढाल ढुलक रहा है जैसे चढ़ी हुई ड्रिप की नली में मरा-मरा-सा जीवन बहता है। भीतर कुछ टूट गया लग रहा है ...मेरी परवरिश का कोई हिस्सा ! ...कोई अदृश्य पवित्र चीज़ ! और ये ग्लानि अकेली नहीं आई है; रंग बदलकर डर भी साथ हो लिया है। अचानक ही मुझे लगने लगा है कि पूरी दुनिया मेरे हाथ की मिनरल वॉटल को व्यंग्य, घृणा और उपहास की आँखों से घूर रही है: बीड़ी के सुट्टों के बीच ठहाका लगाते वे सुरक्षाकर्मी कहीं मुझ पर ही तो नहीं हँस रहे ? ...चबूतरे पर पत्ते खेलते वे कर्मचारी मेरे ही बारे में तो कानाफूसी नहीं कर रहे ? ...वो आदमी अपने सेलफ़ोन से किसका नम्बर डॉयल कर रहा है ? क्या उसने मुझे चोरी करते देख लिया है ? ...युवा पीपल की वही कमसिन चिड़िया अपना काम भूलकर मुझे क्यों घूर रही है ? ...और मेरा दोस्त ??

जैसे ही मुझे अपने दोस्त का ध्यान आया; मैं सिहर गया हूँ। वो लौटता ही होगा और यकींनन उसे सब पता चल ही जाएगा ! भले ही मैं कहता रहूँ कि ये बोतल मैंने ख़रीदी है; वो पूरा मामला मेरे चेहरे से ही ताड़ लेगा और तब मेरे पास सच-सी आस्था के साथ बोल सकने लायक कोई झूठ होगा ही नहीं ! या शायद मैं उसे देखते ही कुबूल कर बैठूँ ! ...फिर ख़ास-ख़ास दोस्तों को पता चलेगा, ...फिर कॉलेज के सब यारों को, ...फिर मम्मी-पापा को, ...फिर रिश्तेदारों को ...और आखिरशः मेरी गर्लफ्रेंड को जो मुझे राम जैसा नायक कहा करती है !

अपराह्न की ठण्डी धूप में भी मैं पसीना-पसीना हो चुका हूँ; चोरी करते वक़्त मौत-सा रोमान्च था ...अब मौत-सी ग्लानि है ।

दोस्त आता ही होगा, मैं जैसे जागा हूँ। उन्माद में कमज़ोर पड़ गईं भीतरी आवाज़ें अब धारदार हथियारों-सी पैनी होकर लौटी हैं ।

-- जाओ, बोतल वापिस रख आओ ! ...जाओ भी !!

-- बर्दाश्त करने की विवशताएँ ! ...ख़ून भरी खाइयाँ ! ...गंदगी पीने की मार्मिक व्यथाएँ ! ...और एलीट क्लास को हासिल सुखों की अतिरिक्तताएँ !

नहीं ! बोतल वापिस तो नहीं रखूँगा मैं ! ...लेकिन दोस्त आता ही होगा !

अब ??

दिमाग़ी धुंधलके में, परिसर से बाहर की ओर चल रहा हूँ और इस बीच मुझे मीठे समय वाले कहानियों-से लोग, फूल, तितलियाँ, लताएँ, दरख़्त सब उपस्थितियों से ज़्यादा कुछ महसूस नहीं हुए हैं; सौन्दर्य सिवाय एक विशेष मानसिक स्थिति के और कुछ नहीं !

सामने एक भिखारी दिखा और मेरी दिमाग़ी धुन्ध एकदम से हट गई ! मैं उस अधेड़ को ग़ौर से देखने लगा। इसकी पूरी उम्र लेकर भारत ने अपने इस नागरिक को क्या दिया: तार-तार कपड़े, ...ख़ून झलकातीं दरारों वाले तलबे, ...घिनौने बाल, ...मैला चेहरा, ...गंदी दाढ़ी, ...भूखी आँखें ...और हड्डी-हड्डी बदन! चालीस की उम्र में पचास का हो गया भिखारी मुझे देखते ही गिड़गिड़ाने लगा। मुझे एक अमूल्य मानवीय जीवन के यों गरिमाहीन हो जाने का दर्द हुआ।

इस आदमी ने अपने पूरे जीवन गुणवत्ताहीन पानी पिया होगा !

मैंने बोतल झट उसे थमा दी और बिना दया दिखाए सख़्त चेहरे से कहा,

‘‘तुरन्त भाग जाओ यहाँ से !’’

अवाक् भिखारी को समझ कुछ नहीं आया सिवाय अपने हित के; और वो तुरन्त भाग लिया। मैं चारों ओर डर, सन्देह और विभम्र के सब संस्कारों से देख चुकने के बाद अचानक ही सहज फ़ील कर रहा हूँ।

...भूल जाइए कि मैंने कभी चोरी की थी।