बोलो न निर्झर!: बहुआयामी कविताएँ / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
प्रयोक्ता के रूप में कवि का चिन्तन-मनन, भाव-सरणि और कल्पना के रंग मिलकर एक नया संसार सृजित करते हैं। जो भाषा कवि प्रयोग करता है, वह केवल शब्द, पद या वाक्य नहीं है, अपितु वह जीवन- अनुभव की काव्य के रूप में सृजित एक नवीन सृष्टि है। कवि स्वय को जितना सम्प्रेषित करता है, आवश्यक नहीं कि पाठक या श्रोता उसे उसी रूप में स्वीकार करे। पाठक के अपने अनुभव होते हैं अतः उसकी ग्राह्यता सृजक से भिन्न हो सकती है। रचना छोटी है या बड़ी, उसका ग्राह्यता और प्रभाव का आकार से कोई सम्बन्ध नहीं है। रचना की वास्तविक ऊर्जा, उसकी वास्तविक व्यापकता इसमें है कि वह रसज्ञ के पास कितनी पहुँचती है और किस रूप में।
सुदर्शन रत्नाकर जी का काव्य-संग्रह ‘आसमान मेरा भी है’ 2001 , पढ़ा था। पिता पर केन्द्रित एक लम्बी कविता थी-‘बदलाव’ आद्यन्त बाँध लेने वाली। कन्धों पर बिठाकर घुमाने वाले पिता की तस्वीर और कमजोर कन्धों वाले पिता की बुढ़ापे वाली स्थिति। बोलो न निर्झर! छोटी कविताओं का संग्रह है। इसे लघु कविता की अलग श्रेणी में रखना उचित न होगा; क्योंकि आकार उसकी प्रभविष्णुता का मापदण्ड नहीं है। निर्झर किसी के बनाए किनारों में नहीं बँधता, वह अपने किनारे स्वय निर्मित करता है। उसे किस नदी में समाकर अर्थ के किस समुद्र में विलीन होना है, वह स्वयं ही निर्धारित करता है। प्यार के स्पर्श का अछूता प्रभाव ‘प्यार’ कविता में देखिए-
प्यार से छू लो तो/ कलियाँ/ निखर आएँगी/ मौसम की/पत्तियाँ हैं/पतझड़ /आने पर/ स्वयं ही/ बिखर जाएँगी।
‘प्रतीक्षा’ में हिमखण्ड-सी पिघलकर नदी बनने की लालसा अपने सुख के लिए नहीं, बल्कि अँजुरीभर प्यार सबमें बाँटते हुए बहना और अन्ततः सागर की गहराइयों में खो जाना है। खो जाना, नष्ट होना नहीं , बल्कि एकाकार होकर सागर में विलीन हो जाना ही जीवन-धारा की मुक्ति है-
और मैं भी हिमखंड -सी पिघलती/ नदी बन जाऊँ/ निरन्तर गतिशील बहती/ अँजुरी -अँजुरी प्यार बाँटती/ सागर की गहराइयों में/ कहीं खो जाऊँ ।
एक और भी नदी है, जिसे सुदर्शन जी ने ‘एक नदी एहसास की’ कहा है। एहसास और रिश्तों को गहन अनुभूति के साथ इस कविता में व्याख्यायित किया है। हमारे भीतर नदी की तरह ही द्वीप हैं। हमारे जीवन में जो बन्धन हैं, उनमें अगर काँटों-जैसी चुभन है , तो इसी के साथ वे प्यारे रिश्ते भी हैं, जिनमें फूलों की सुगन्ध है। वे रिश्ते स्वतः नहीं उगे, उन्हें प्रयासपूर्वक उगाया गया है। इस कविता में जीवन के यथार्थ को कम से कम शब्दों में मोती की तरह पिरो दिया है। दुःख झेलने पर भी दूसरों को केवल सुख ही बाँटा है। यही तो जीवन की उदात्त भावभूमि है-
मैंने जीवन में जो बोया है/ उसको ही काटा है/ दुख झेला है, सुख बाँटा है/ अपनों का दिया विष पी-पीकर/ अमृत के लिए मन तरसा है।
समय सर्वाधिक शक्तिशाली होता है। मिलना-बिछुड़ना,आह्लाद-विषाद वही निर्धारित करता है। उसे कोई मुट्ठी में नहीं बाँध सकता। ‘तुमने कहा था’ से बिखरकर हृदय को तरल करने वाले झरने की फ़ुहारें अन्तर्मन को भिगो जाती हैं-
मृगमरीचिका के पीछे भागते -भागते जान पाई/ जिस वक्त को मैंने मुट्ठी में बाँधा था/ वह तो कब का,/ मेरी गिरफ़्त से निकल/ मेरे चेहरे की झुरियों में समा गया है।/ पर तुम नहीं आए।
प्रकृति, सृष्टि का शाश्वत सौन्दर्य है। मन की सतरंगी किरणें जब प्रसार पाती हैं , तो कवयित्री की शब्द -साधना से चाक्षुष बिम्ब ही नहीं; बलिक ध्वनि बिम्ब भी लघुकाय कविता –‘नन्ही बूँदें’ में निर्मित होते देखे जा सकते हैं। ये बूँदें मात्र न होकर, सावन की परियाँ हैं। रत्नाकर जी की यह अवधारणा मधुर और मोहक है-
उतर रही हैं/ आसमान से / नन्ही-नन्ही बूँदें/ पैंजनियाँ झनकातीं/ परियाँ हों जैसे/ सावन की।
शब्द अपने आपमें महत्त्वपूर्ण नहीं, महत्त्वपूर्ण है , उसके पीछे छुपा हुआ आवेश और आवेग। शब्द केवल संकेतभर होते हैं कि हमें किस ओर मुड़ना है। मुड़ना तो व्यक्ति को ही है। उसके मन में मुड़ते समय किस प्रकार की सजगता है, आतुरता है, वही उसका गन्तव्य प्रशस्त करती हैं। भीतर का आवेग ही शब्द को अर्थवत्ता प्रदान करता है। ‘गौरैया’ कविता में जीवन को आशान्वित करने वाली पंक्तियाँ देखिए-
रोज़ आती है/ गौरैया पेड़ पर/ गीत गाती है/ कोई भाषा नहीं/ पर मन में बसी एक आशा है/ जीवन बहुरेगा/ मौसम बदलेगा/ फूल खिलेंगे/
‘बोलो न निर्झर!’ कविता जीवन के फलक पर खिंचा वह चित्र है, जिसमें विविध रंगों की छटा विखरी हुई है। पथ- अवरोधों को पार करते हुए, चोटिल होने पर भी झरना किसी अज्ञात प्रेरणा से आगे ही बढ़ता है। टकारना उसका स्वभाव है, बिखरना उसकी नियति। टकराकर वह बिखरता ही नहीं निखरता भी है। यही रत्नाकर जी के काव्य का सौन्दर्य है-
बोलो न निर्झर / दूध-सा नीर लिये/ सँकरे गलियारों से निकल/ कहाँ से आते हो तुम उत्तुंग शिखरों के उस पार/ कौन रहता है तुम्हारा/…पत्थरों की चोटें सहते हो/ फिर भी हमारे लिए बहते हो।
टकराना ही जीवन की गतिशीलता है। संघर्षरत रहकर भी सपने देखना बुरा नहीं, बल्कि उलझनों के बीच से ही जीवन के धागों की गाँठें सुलझानी हैं। ‘सपने’ कविता में सन्देश है कि सपनों को सुलाना नहीं-
बुनती रही सपने ज़िंदगी भर/ पर धागे सदा उलझते रहे/ न ही गाँठ खुली और न धागे सुलझे/ सपने आँखों में रहे, पर…/और सपने/ लोरियाँ सुन- सुनकर/ आँखों में सोते रहे।
प्रकृति सामान्य भाषा में कहें, तो जड़ है; लेकिन अनुभूति के स्तर पर प्रकृति जीवन्त है। जीवन्त ही नहीं, प्राणियों का जीवन भी है। लोभवृत्ति वालों का एकमात्र लक्ष्य है, इसका दोहन। लाभ की क्रूरता का यह गणित अमानवीय तो है ही, साथ ही पूरे संसार के लिए विनाशकारी भी है। ‘उस रात’ कविता में बूढ़े बरगद की पीड़ा पूरी प्रकृति की पीड़ा है, जिसे रत्नाकर जी ने मार्मिक रूप में अभिव्यक्त किया है। ‘कुल्हाड़ी की तेज धार’ का प्रहार, यह आज के मानवहन्ता की वह करतूत है, जो आने वाली पीढ़ी के लिए आसन्नमृत्यु के द्वार खोल रही है। पक्षियों का न सोना गहन पीड़ा का संकेत है -
वह रोया था/ बरगद का बूढ़ा पेड़/ रात भर/ पक्षी नहीं सोये थे / उस रात चाँद भी नहीं निकला था/ आया था एक झंझावात/ कटती रहीं बरगद की जड़ें और वह जड़वत हो सहता रहा/ कुल्हाड़ी की तेज धार।
नारी का जीवन बहुत सुन्दर होगा , तो घर -परिवार, समाज -देश सब खूबसूरत हो जाएँगे; लेकिन यह सब किताबी सत्य है। कलुषमना पुरुष को देखा जाए, तो उसने नारी के सामाजिक शोषण को विभिन्न रूप धारण करके अंजाम दिया है। राजनीति, धर्म और मज़हब की दुकानों में छुपे ढोंगी भेड़िए, मंचों पर नारी स्वतन्त्रता की आड़ में अपनी धूर्तता को खाद -पानी देते ये प्रपंची समाज के लिए नासूर बन गए हैं। मधुर गीत से जीवन को रसप्लावित करने वाली मैना मानवनिर्मित पिंजरे में बन्द कर दी गई है। कवयित्री ने ‘पिंजरे में बंद मैना’ कविता के माध्यम से मुखौटाधारियों की कलई खोली है-
जब भी खुलता है पर्दा/ सामने वाली खिड़की का/ दिखता है एक चेहरा/ बेचारगी-भरा।
सुदर्शन रत्नाकर जी ‘बोलो न निर्झर!’ की बहुआयामी कविताओं से सुख -दुःख की गहन अनुभूतियों के छीँटे मारकर हमारी संवेदनाओं को झिंझोड़ देती हैं।
नोएडा, 28-12-2023