बोल तेॅ बेटा.... तों केकरा सें बीहा करभैं? / रंजन

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लगभग पाँच सौ वर्गफुट के चित्रशाला में चाहे जखनी जाहो, बिहान हुवेॅ कि दुपहर, साँझ हुवेॅ कि रात, कोय-न-कोय रचनाकार, संगीतकार, रंगकर्मी, अभिनेता, संस्कृतिकर्मी या संत-आ-साधु तोरा मिलिये जैथौं।

महर्षि मेहींदास, योगी सान्याल महाशय, इंदुभूषण गोस्वामी, देवी शकुंतला गोस्वामी जैन्हों योगी, महर्षि आरो राष्ट्रीय स्तर के रामायणी सें लै-करी-केॅ आचार्य चतुरसेन शास्त्री, फनीश्वरनाथ रेणु, राष्ट्रकवि दिनकर आरो गोपाल सिंह 'नेपाली' नांखी रचनाकार आरो कवि तक चित्रशाला में कभी भी देखलोॅ जाबेॅ सकै रहै।

हेकरोॅ लिस्ट लम्बा छै।

पृथ्वीराज कपूर, हुनको पिता दीवान साहब, पृथ्वी थेटर के सब्भे ठोॅ कलाकार आरो वादक शंकर जयकिसन के अलावे बंगला कथाकार बनफूल, हंसकुमार तिवारी, शायर कौश, कवि उमाशंकर वर्मा, द्विजेन्द्र आरो अनुपलाल मंडल नांकी नाम भी वै में शामिल छै।

यही चित्रशाला के खुल्लोॅ छतोॅ पर दस गुणा बारो फुट के एक खपरैल कोठरी में महीना-महीना भर रही केॅ आचार्य चतुरसेन शास्त्री नें आपनोॅ प्रसिद्ध ग्रंथ 'वैशाली की नगरवधू' शारदा प्रेस सें प्रकाशित करैनें रहै, आरो यांही स्टूडियो के ग्रीन रूमों में बैठी केॅ दिनकर नें 'परशुराम की प्रतीक्षा' के अंश लिखलेॅ रहै। छतोॅ के यही उपरला कोठरी में रेणु आरो नेपाली रं लोगें रात काटलेॅ छेलै।

यही खुल्ला छतोॅ पर महाकवि द्विजेन्द्र जी रोॅ गोष्ठी होय रहै, जेकरा में बीड़ी मजुर गरीब शायर कौश केॅ भी दाद मिलै छेलै आरोॅ ई शहर के प्रखर कवि उमाशंकर वर्मा केॅ भी प्रशंसा आरो प्रतिष्ठा मिलै रहै।

एक इतिहास छै जे गुजरी गेलै, मतर याद छै जे कभी गुजरतै नै।

तहिया हम्में भागलपुर के काॅलेजियट स्कूलोॅ में पढ़ै रिहै। तखनी हमरोॅ छोटोॅ भाय तेॅ कोय छेलै नै, सिरिफ दू ठोॅछोटी बहिने रहै, रेखा आरो नीलम।

स्टेशन चौकोॅ पर हमरोॅ एक्के कमरा के, खपड़ा के घोॅर छेलै, जैमें हमरी विधवा दादी, माय, दू बहिन आरो आपनोॅ दू बेटी साथें हमरी बुआ भी रहै छेलै।

अही कारण सें अपनोॅ बाबा साथें हमरोॅ भी रात, कभी चित्रशाला के छतोॅ पर तेॅ कभी बाहर सड़क किनारी में चित्रशाला के पिंडा पर, आरो जौं वर्षा बुन्नी पडेॅ लागै तेॅ अंदर स्टूडियो में कटै रहै। चित्रशाला के सभ्भे करमचारी आरो शहर में एैलोॅ गेलोॅ साहित्यकार-सिनी भी हमरार के साथैं वहीं सुतै रहै।

चीन्है तेॅ हम्में सबकेॅ रिहै, मतर केकरोॅ जानै नै छेलियै, हमरोॅ नजरोॅ में एक आम आदमी आरो पुर्णिया के रेणु में कोय अंतर नै छेलै।

स्टूडियो में जखनी हमरोॅ बाबा हरिकुंज नें महर्षि मेंहीदास रोॅ फोटो खीचलेॅ रहै तेॅ बैकग्राउण्ड में स्पाॅट लाइट फेंकै वक्तीं हमरा की पता रहै कि हौ एक ऐतिहासिक क्षण छै।

दिनकर जी सें जिद करी केॅ हम्में आपनोॅ ग्रीनरूम में 'रश्मिरथी' के पाठ सुनलेॅ रिहै आरो मने-मन अपनोॅ शिक्षक श्री उपेन्द्र नारायण चैधरी सें दिनकर के तुलना करलेॅ छेलियै। उपेन्द्र बाबू तहिया स्कूलोॅ में 'रश्मिरथी' पढ़ावै छेलै।

आपनोॅ अही मासूमियत में एक दिन हम्में नेपाली जी सें रूसी गेलोॅ रिहै। बचपन के हमरोॅ ई संस्मरण ऐन्होॅ छै जे याद ऐला पर आइयो हमरा शरमाय दै छै।

ऊ रात चित्रशाला के प्रधान डार्क रूम में शशिधर चंद्र तपस्वी (जे अखनियो जायसवाल स्टूडियो में काम करै छै) चित्रशाला के कोठा पर खाना पकाय रहलोॅ छेलै आरो वांही शंकर टाॅकिज के मालिक महेन्द्र गुप्ता, हमरोॅ बाबा आरो नेपाली जी दरी पर बैठलोॅ गप्प करी रहलोॅ छेलै।

विभाजन के बाद शायर इकबाल, पाकिस्तान चल्लोॅ गेलोॅ छेलै। नेपाली जी पहिलेॅ सिनेमा के गीत लिखतेॅ रहलोॅ छेलै। एक दफे मशहूर शायर इकबालें नेपाली जी केॅ एक गीत पर हुनका बधाई में कहलेॅ छेलै कि अर्थी पर ऐहनोॅ सुन्दर गीत, खाली नेपालिहैं लिखै सकै छै।

गीत के बोल छेलै-'भगवान तेरे घर का शृंगार जा रहा है।'

महेन्द्र चाचा के सिनेमा हाॅल में वही दिन वैजयन्ती माला आरो प्रदीप कुमार फ़िल्म 'नागीन' लागलोॅ छेलै। चित्रशाला के मुख्य शो केश में फ़िल्म के कट-आऊट्स लगैलोॅ गेलोॅ छेलै आरो छतोॅ के ऊपर चौराहा दिस लागलोॅ सफेद पर्दा पर हौ फ़िल्म के स्लाइड शो देखैलोॅ जाय रहलोॅ छेलै।

रिलीज हुवै के पहिलैं सें है फ़िल्म के धूम मचलोॅ रहै आरो हौ दिन चूंकि ई फ़िल्म टाॅकिज में लगी गेलोॅ रहै, यही सें हम्में दिन्हैं सें होकरा देखै के जिद करी रहलोॅ छेलियै। हमरा लै जाय लेॅ कोय तैयार नै होलै यही वास्तेॅ तखनी हम्में मुंह फुलैनें हुनका सिनी के यही बात सुनी रहलोॅ छेलियै।

तहिया अंतिम शो राती साढ़े नौ बजे शुरू होय छेलै। आधे घंटा समय बचलोॅ छेलै। मतर समस्या छेलै कि हमरा सिनेमा हाॅल तक लैकेॅ जैतै के? सब लोग तेॅ अपने गप्प में फँसलोॅ छेलै। महेन्द्रो चाचा भी तेॅ वांही खाय के मोॅन बनाय चुकलोॅ छेलै। अही सें हमरा फुसलाय के, सब गोटा आपनोॅ गप्पोॅ में लागी गेलोॅ रहै। आरो हुन्नें शशिधर-चा तेॅ खुदे रसोइया रोॅ कामों में फँसलोॅ छेलै।

आबेॅ हम्में की करौं-यही सोची केॅ हम्में गोस्सा सें मुँह फुलाय केॅ वांही दरी के दोसरोॅ छोॅर पर जाय केॅ बैठी गेलियै। बस तखनिये हमरोॅ बाबा आरो महेन्द्र चाचा केॅ बात करतें छोड़ी केॅ नेपाली जी हमरा लग आबी केॅ बैठलै। हुनी हमरोॅ मनोभाव समझी गेलोॅ रहै आरो यहू बूझी गेलोॅ रहै कि हम्में कैन्हें रूसी केॅ बैठलोॅ छियै। यही सें हुनी हमरा फुसलाबै लेली शशिधर-चा सें कहलकै, 'शशधर! पहिलेॅ जरा रज्जू केॅ चिखाभैं नी।' एतना कही केॅ हमरोॅ माथा के बाल हँसोतते हमरा दुलार करलकै आरो फिरू पुचकारी केॅ कहलकै, 'आय आबेॅ छोड़ी दे... कल के पक्का रहलौ रज्जू, हम्में जैबौ तोरा साथ।'

हमरा ई आदमी अच्छा लागलै। बाबा के आरो कोइयो मित्र केॅ सोॅर सिनेमा सें कोय सोर सरोकार नै छेलै मतर है आदमी? ... हम्में खुश होय गेलियै।

कहलियै, 'आय कहिने नी?'

'कल चलबै नी, अभी तेॅ सिनेमा शुरू होय गेलोॅ होतै।'

'नै, तोहें चलोॅ हमरा साथ। मशीन रूमोॅ में हमरा बैठाय केॅ तों चल्लोॅ ऐहियो।' हम्में लाड़ जतैतें कहिलयै।

हम्में जबेॅ भी शंकर टाॅकिज आ पिक्चर पैलेस जाय रिहै, हमरा प्रोजेक्शन रूम में एक उच्चोॅ स्टूल पर बैठाय देलोॅ जाय रहै। हम्में वाहीं बनलोॅ चैखुट्टा झरोखा सें सिनेमा देखै छेलियै।

मतर नेपाली जी यै बातोॅ सें परिचित तेॅ छेलै नै, यही सें हुनी चैंकी उठलै। कहलकै, मशीन रूम में? वहाँ की करभैं? '

नेपाली जी के अकचकैलोॅ ई प्रश्न सुनी केॅ शशिधर-चा हँसलै आरो मशीन रूम के रहस्य खोली देलकै।

नेपाली जी मुस्कुराबेॅ लागलै। तहिया नेपाली जी केॅ हम्में गोपाली चाचा ही कहै छेलियै।

नेपाली जी ने उठी केॅ बाबा सें कुछ बात करलकै आरो फिनु लौटी केॅ हमरा समझावै लगलै कि 'आज मानी जो बेटा, कल जौं रहलियौ तेॅ हम्में तोरा लेॅ जैबौ आपनोॅ साथ।'

' ओॅयानि कि हिनकोॅ बातोॅ में खाद छै-कल रहलियौ तेॅ! हेकरोॅ माने कि मामला गड़बड़ छै। हम्में सोचलियै। हमरा लागलै, हिनियोॅ हमरा झुट्ठे-फुस्से कही केॅ फुसलाय रहलोॅ छै। बहुत गोस्सा ऐलोॅ हमरा।

हम्में उठी केॅ सीधे शशिधर-चा लग गेलियै आरो हुनकोॅ कान में फुसफुसाय केॅ कहलियै, 'गोपाली चाचा केॅ नै खिलैहियो।'

शशिधर चाचा ठठाय केॅ हँसी उठलै। आरो बस हमरोॅ गुप्त मंत्रणा के भेद खुली गेलै।

नेपाली जी अचानके गंभीर होय गेलै। आय सोचै छियै तेॅ हमरा लगै छै कि नेपाली जी कुछ बेसियै संवेदनशील छेलै।

हुनी उठलै आरो हमरोॅ बाबा आरो महेन्द्र चाचा सें कहलकै, 'हम्में रज्जू केॅ लैकेॅ जाय छिहौं।'

फिरू हमरो औंगरी पकड़ी केॅ कहलकै, 'चलें हमरो साथ।'

' गेलोॅ तेॅ छेलै हुनी कि शंकर टाॅकिज में बैठाय केॅ वापिस आबी जैतै मतर जबेॅ पहुँचलै तेॅ बैठी गेलै हमरोॅ साथे आरो इत्मीनान सें भुखले-पेट मजा लै केॅ सौसें फ़िल्म देखी लेलकै।

ऊ रोज हुनी हमरा साथें अधरतिया के बादे खाना खैलकै।

ऊ फ़िल्म में एक गीत छेलै-

'जादूगर सैंयां, छोड़ मेरी बहियां हो गई आधी रात अब घर जाने दो।'

यही गीत के अंतरा पर नेपाली जी मोहित होय गेलोॅ रहै जेकरोॅ जिक्र हुनी लौटला पर हमरोॅ बाबा सें करलोॅ छेलै।

अंतरा छेलै-'टूटा हुआ गजरा, छूटा हुआ कजरा, कह देगी सारी बात, अब घर जाने दे।'

आबेॅ नेपाली जी जहाँ अंतरा पर मोहित छेलै, वहीं हम्में मोहित होय गेलोॅ रिहै वैजयंतीमाला पर, आरो सिनेमा देखी केॅ लौटती बेरिया ई बात हम्में नेपाली जी केॅ कहियो देलियै कि-'हम्में होकरे सें बीहा करभौं।'

बस फेरू की छेलै-नेपाली जी केॅ मिली गेलै मशाला। हुनी दिवानेखास वाला ई बात, दिवानेआम में खोली देलकै।

हमरोॅ बाबा के मित्रें वर्षों बाद तालुक है बात केॅ याद राखलकै आरो आचार्य चतुरसेन शास्त्री हुवेॅ आकि फनीश्वरनाथ रेणु, सभ्भे के सामने हमरो पेशी हुऐ आरो हमरा सें पुछलोॅ जाय-'बोल तेॅ बेटा, तों केकरा सें बीहा करभैं?'

आरो हम्में शान सें कहियै-'बैजंयतीमाला सें।'