बोल मेरी मछली कितना पानी! / निधि अग्रवाल
इस क्षेत्र की त्रासदी यही थी कि उमसता ख़ूब था लेकिन बरसता नहीं। क्षेत्र का नाम अपनी कल्पना और सुगमता के अनुसार कुछ भी रख लीजिए। शतरंज में राजा हो या प्यादा उनके न नाम होते हैं न महत्त्व। केवल दाँव चले जाते हैं, वे ही बाजी का फ़ैसला करते हैं। चाल सही बैठ जाए तो प्यादा भी राजा को मात दे सकता है। इसी प्रकार राजनीति में भी क्षेत्र के नाम और पात्र नहीं, शक्ति और रुतबे का महत्त्व है। शारीरिक शक्ति के बल पर भावेश सप्ताहांत पर लगने वाले बाज़ार का हफ़्ता वसूलते पहले भावेश दादा और फिर देश की सबसे बड़ी पार्टी का टिकट पाकर, विधायक भावेश दादा पाटिल बन गया था। पिछले सालों में केंद्र और प्रदेश की सत्ता भले ही बदलती रही हो पर उसका वर्चस्व अक्षुण्ण बना रहा था।
"भावेश पाटिल का क्या करना है?" पार्टी ज़िला अध्यक्ष अभिजीत शिंदे ने माचिस की तिल्ली से दाँत कुरेदते हुए कहा।
"क्या करना है? जो करना है वही करेगा हम लोगों की क्या बिसात है। अंगद की तरह पाँव जमाए है। हारता ही नहीं।" दयानंद ने बेचारगी से कहा।
"कुछ ध्रुवीकरण कराओ। कुछ न मिले तो धर्म उछाल दो। धर्म जनता का भला करे या न करे, नेताओं के ख़ूब काम आया है।" शिंदें ने तुरुप का इक्का इस्तेमाल करने की सलाह दी।
"बंदूक की गोली पर नाम किसी भी धर्म का लिखा हो लेकिन चलाने वाले सभी हाथ भावेश के ही इशारे पर चलते हैं शिंदें बाबू। कोई लाभ न होगा।"
"सीट खाली छोड़ दें क्या? कोई बिजूका तो चाहिए ही न! किसको टिकट दें? तुम्हारा ही नाम दे दूँ क्या?" शिंदें ने चुहल की।
"डर के मारे सगे आई-बाबा भी वोट नहीं देंगे। गाँव भर में बदनामी होगी। जमानत अलग ज़ब्त होगी। मुझसे दुश्मनी है क्या आपकी?" , दयानन्द ने आपत्ति जाहिर की।
"तो क्या करें! अब कोई दुश्मन ढूँढ उसे टिकट दें? बड़ी समस्या है।"
युद्ध जीतने में या तो वह सफल होता है जिसके पास जीत का हौसला हो या वह, जिसे हारने का भय न हो। तीन छोटे कस्बों के परिसीमन से, दो लाख जनसंख्या वाले इस क्षेत्र की सुबह में तब आश्चर्य घुल गया जब भावेश दादा की पार्टी के ही एक आम कार्यकर्ता गजानन को, विपक्षी पार्टी ने उसके विपरीत मैदान में विधायक प्रत्याशी बनाकर, खड़ा कर दिया।
गजानन की जनमानस में अच्छी छवि थी। तहसील, कचहरी का काम हो या किसी की बेटी का ब्याह, गणपति के पंडाल की व्यवस्था करनी हो या किसी के अंतिम संस्कार की, वह सदा आगे रहता। भावेश से अलग करने के लिए शिंदें ने कौन-सा वशीकरण मंत्र चलाया, यह कोई नहीं जान पाया।
भावेश ने नाम वापस लेने के लिए ख़ूब दबाव बनाया। भावेश एक बार कह देता कि बड़े भाई के ख़िलाफ़ जाओगे क्या, तो वह पिघल भी जाता किन्तु भावेश ने तो उसे उसकी औकात याद दिलानी चाही थी। उसकी गर्वदीप्त बातों ने गजानन को चुनाव जीतने की ललक जगा दी। वह सुबह से शाम तक अपनी बैल-गाड़ी ले, घर-घर जाकर वोट माँगता। समस्याएँ सुनता। मदद का आश्वासन देता। जल्द ही चुनाव अमीर-गरीब, दुर्बल और निर्बल की लड़ाई में बँट गया। भावेश दादा से उकताए लोगों ने भी गुपचुप आर्थिक मदद दी। राजनीति की यही तो खूबी है यहाँ दोस्तों और दुश्मनों के चेहरे एक जैसे दिखते हैं।
कुछ देश भर में चलती लहर का प्रभाव, कुछ समय-असमय लोगों की यथसम्भव की गई मदद से अर्जित छवि, कुछ विधि का विधान, गजानन ने इतिहास रचते हुए साठ हज़ार वोटों से भावेश को हरा दिया। भावेश अब पछता अवश्य रहा था। युद्ध में विरोधी को कमज़ोर समझने का परिणाम बुरा हुआ था।
सक्रिय राजनीति में यह गजानन का पहला क़दम था। वादे करके मुकर जाने या उन्हें विस्मृत कर देने की कला का अभी उसे अभ्यास नहीं था। रोज़गार और जलआपूर्ति की आस लिए लोगों ने उसे वोट दिया था। वह भी उनका कर्ज़ उतारना चाहता था।
मानसून से पहले सभी जल स्रोतों के जीर्णोद्धार के सुप्रीम कोर्ट के आदेश ने उसे राह दिखा दी थी। मनरेगा के तहत नहरों और तालाबों की खुदाई और सौन्दर्यीकरण के कार्य से हज़ारों लोगों को रोज़गार मिल सकता था।
अपने क्षेत्र के सभी पुराने तालाबों के नक़्शे निकलवाकर कार्य बाँट दिया था किंतु बड़े बाज़ार के मध्य स्थित तालाब की खुदाई रुकवा दिए जाने का समाचार मिला। वह शीघ्र वहाँ पहुँचा। नगर पंचायत अधिशासी ने कहा, "सरकारी ज़मीन पर बिना परमिशन खुदाई नहीं हो सकती। नो ऑब्जेक्शन सर्टिफिकेट दिखाइए।"
गजानन के लिए यह बड़ा धक्का था। एक ही सत्ता के दो अधिकारी विपरीत खड़े थे। अगले ही दिन नगर पंचायत की आपत्ति का भी ऑर्डर मिल गया। उनके अनुसार ज़मीन नगर पंचायत के नाम कृषि केंद्र बनाने हेतु दर्ज है।
"क्षेत्र का बच्चा-बच्चा जानता है कि यह तालाब है। तालाब न होता तो इसे आनन्द तालाब क्यों कहा जाता।" उसके कार्यकर्ताओं ने दलील दी।
"तुमने कभी देखा यहाँ पानी भरा हुआ? कहाँ है तालाब दिखाओ!" विपक्षी प्रतिवाद करते। यह सच था कि तालाब के किस्से गाँव के बुजुर्गों के मुँह से ही सुने गए थे। हाँ, एक छोटा-सा मन्दिर ज़रूर समय की मार सहकर भी अपनी जिजीविषा के साथ जर्जर अवस्था में दिखता था, जहाँ संतान न होने पर गाँव की महिलाएँ पूजा-अर्चना करती दिख जाती थीं।
"दिखता तो भगवान भी नहीं लेकिन होता है।" किसी ने कहा। बात तालाब से आस्था पर पहुँच गई और दोनों गुटों में हाथापाई होने लगी।
गजानन नैराश्य में डूब रहा था। तंत्र के बाहर रहकर उसने जाने कितने लोगों के अटके काम करवाए थे किंतु तंत्र का भाग बनने के बाद वह दस्तावेजों में उलझ कर रह गया था। उसके अधीनस्थ अफसर और कर्मचारियों पर भी भावेश का दबदबा स्पष्ट समझ आ रहा था। अभिजीत शिंदें से बात की। उसने कितनी सुनी, कहना मुश्किल था किन्तु सांसद की दखल व मुख्यमंत्री से शिकायत की धमकी देकर दस्तावेजों की खोज़ अवश्य शुरू हो गई। अगले कई दिनों की भाग-दौड़ से सौ साल पुराने राजस्व अभिलेखों की छान-बीन में विवादित ज़मीन, ज़मीदार परमानन्द के नाम तालाब के रूप में ही दर्ज़ निकली। लोगों का कहना था कि कोई मन्नत पूरी होने पर उन्होंने यह तालाब खुदवाया था। कालांतर में विकास ने तालाब को चारों ओर से आ दबोचा। ज़मीन पर अतिक्रमण करते-करते, तालाब को भी पाटने में संकोच न किया गया। खेत के मध्य बना तालाब अब मुख्य बाज़ार के बीचों-बीच हो गया था। परमानन्द की वंशावली के आखिरी वाशिंदे गिरधर नारंग निसंतान थे। गिरधर नारंग ने मृत्युपूर्व यह तालाब अजीत नारंग को बेच दिया था जिनकी दोनों पुत्रियाँ दूर क्षेत्रों में ब्याही जा चुकी थीं। गिरधर नारंग के पश्चात कुछ अनचीन्हें मालिकों से होता हुआ यह विवादित टुकड़ा अब एक समतल ज़मीन के रूप में भावेश के नाम दर्ज़ था। तालाब के चारों ओर की दुकानें नगर पालिका के अधीन थीं।
"जलस्रोतों पर मालिकाना हक़ नहीं जताया जा सकता। उनकी खरीद-फ़रोख़्त नहीं हो सकती।" गजानन ने भावेश के मालिकाना हक़ पर आपत्ति जताई। निरन्तर प्रयासों से विवादित स्थल पुनः तालाब स्वरूप में अभिलेखों में दर्ज़ कर लिया गया।
गिरधर नारंग का नाम चर्चा में आने पर, कस्बे के लोगों में उनसे सम्बन्ध निकालने की होड़-सी मच गई थी। विशेषकर रामस्वरूप सक्रिय रूप से गजानन की मदद के लिए आगे आया था। दोनों ने नगर पालिका अध्यक्ष राकेश कुमार से मुलाकात की। उसने कहा, "काम तो सिस्टम से ही होगा। हर काम के लिए बजट निर्धारित होता है। पैसे का प्रबंध कैसे होगा। टेंडर निकालना होगा।"
"आप पैसे की चिंता मत कीजिए। टेंडर निकालिए। मैं विधायक निधि से प्रबंध कर दूँगा।" गजानन के लिए अब यह प्रतिष्ठा का प्रश्न बन चुका था।
"बस, सब दिक्कत ही खत्म।" राकेश कुमार ने कुटिल मुस्कान बिखेरी।
"पैसा भगवान तो नहीं पर माँ क़सम भगवान से कम भी नहीं। पैसे का इंतज़ाम हुआ तो समझिए काम भी हो गया।" आगे बोला।
कुछ और निर्लज्ज बातों के पश्चात उसने अगले माह तीन तारीख को टेंडर लगाने का आश्वासन दे दिया था। दोनों वहाँ से सीधे अभिजीत शिंदे के पास पहुँचे। उसकी सलाह पर आनन-फानन में उर्मि इंटरप्राइजेज का रजिस्ट्रेशन कराया गया और अगले हफ़्ते तीन तारीख को खुदाई शुरू करा दी गई।
भावेश के लोगों ने आकर खुदाई रुकवा दी और मार-पीट शुरू हो गई। यहाँ तक कि भावेश स्वयं भी आ खड़ा हुआ। गजानन ने कहा टेंडर के तहत कम्पनी को खुदाई का काम दिया गया है। भावेश ने फ़ोन करके राकेश कुमार को बुला लिया। वह खीसें निपोरते हुए बोला कि तकनीकी कारणों से आज टेंडर खुल नहीं पाया। अब अगले महीने ही सम्भव हो पाएगा।
गजानन समझ चुका था कि प्रदेश और केंद्र की सत्ता से पृथक समीकरण क्षेत्रीय राजनीति में हैं। विधायक न रहने पर भी भावेश के आदमी पूरे तंत्र में अपनी जड़ें जमाए हैं। अपमान और क्षोभ से उसका चेहरा लाल हो गया। लड़ाई यूँ नहीं जीती जा सकती थी। काम रोक देना पड़ा।
"रामस्वरूप, जनता ने चुनाव जिताया था। जनता ही तालाब बनवाएगी। अगले महीने का इंतज़ार नहीं किया जा सकता।" गजानन ने चिंतित स्वर में कहा।
रामस्वरूप भी राकेश कुमार की मंशा समझ रहा था।
खेतों में फ़सल बरखा रानी के मृदुल स्पर्श के इंतज़ार में खड़ी थी। अपने-अपने कुलदेवता को मनाते, किसानों की आँखें निरभ्र आकाश को निहारती थी।
"बारिश नहीं हुई तो फ़सल बर्बाद हो जाएगी। मूँगफली में दाना नहीं पड़ेगा।" उँसास छोड़ते वे एक दूसरे से कहते।
गजानन को पता चला कि भावेश एक हफ़्ते के लिए, बहन की शादी करने बाहर जा रहा है। इस अवसर का लाभ उठाना ज़रूरी था। जल्द ही 'बूँद' नाम का एन. जी.ओ. सक्रिय हो गया। किसानों को जल संरक्षण के लाभ बताए गए। भावेश के शहर छोड़ते ही, जेसीबी की मदद से तालाब की खुदाई चालू कर दी गई। समय कम था, काम अधिक।
उसके समर्थक जब विरोध करने इकट्ठे हुए तो लोगों ने उन्हें घेर लिया।
"किसी एक का नहीं है तालाब, हम सबका है। एक-एक बूँद पर पूरे गाँव का हक़ है। हमारे खेतों के लिए, बच्चों के लिए, जीवन के लिए हम जल स्रोत मिटने नहीं देंगे।" इन्द्रदेवता के सताए लोगों ने आक्रोश ज़ाहिर किया।
दो दलों के परस्पर वैमनस्य और सत्ता की लड़ाई, अब जन आंदोलन का उग्र रूप ले चुकी थी। अपने सम्बन्धों और ताकत का उपयोग कर, भावेश ने तालाब की मिट्टी अवैध रूप से बेचने का आरोप लगाते हुए बोर्ड ऑफ रेवेन्यू से स्टे लगवा दिया। काम फिर रोक देना पड़ा। आरोप प्रत्यारोपों का बाज़ार चल निकला। गजानन ने पूर्व सरकार की मिलीभगत से अवैध खनन के आरोप भावेश पर लगाए। भावेश ने भूखण्ड पर अनाधिकृत प्रवेश और मिट्टी बेचने के आरोप लगाए। तथाकथित खरीददारों के नामों की लिस्ट भी अखबारों में उजागर कर दी गई। आहत गजानन ने ख़बर की सत्यता प्रमाणित होने पर राजनीति से सदा के लिए संन्यास लेने की घोषणा कर दी।
सूरज कब का चढ़ आया था लेकिन मानसिक झंझावतों से जूझते गजानन ने रात का आँचल अभी छोड़ा नहीं था। अचानक बजे फ़ोन की घनघनाहट से आँखे मलते, उसने उर्मिला के आगोश से स्वयं को मुक्त कर, फ़ोन उठाया। रामस्वरूप ने जो ख़बर सुनाई, उसे सुन वह बिना कुल्ला किए ही, चप्पल पैरों में घसीटता नगर पालिका के कार्यालय चला आया था। राकेश कुमार ने अपने चरित्र के अनुरूप ही आचरण किया था किन्तु गजानन को तब भी विश्वास नहीं हो रहा था। स्वयं मिले बिना रह नहीं पाया।
"लक्ष्मी को क्यों ठुकराते हैं, गजानन बाबू। उठा लीजिए चेक।" राकेशकुमार ने अपनी छोटी किन्तु तीक्ष्ण आँखों को चमकाते हुए कहा।
"आपने मदद का आश्वासन दिया था।" गजानन ने निराशा से कहा।
"दिया तो था। टेंडर भी निकाला। पर ग्रामीण अभियंत्रण सेवा विभाग ने साठ लाख का प्रोजेक्ट बनाया है। आपने विधायक निधि से तीस लाख दिए है। निरस्त करना पड़ा टेंडर। मजबूरी है। मजबूरी समझते हैं न आप!"
"समझते तो ये भी हैं कि तुम किसकी भाषा बोल रहे हो।" गजानन ने तंज किया।
"हम तो पूरा सहयोग कर रहे हैं। हम पर क्यों बिगड़ते हो विधायक जी! बाक़ी के तीस लाख का इंतज़ाम कर लीजिए। हमें क्यों आपत्ति होगी।"
"आपत्ति तुम्हें नहीं तुम्हारे..." रामस्वरूप आग-बबूला होता हुआ मुँह से बरबस निकलते हुए शब्दों को अंदर सटक गया।
गजानन ने हाथ पकड़ कर शांत रहने का इशारा किया। पानी में रह कर मगर से बैर लिया जा सकता है पर जब पानी ही विषाक्त हो तो पार पाना सुगम नहीं। समझ रहा था सब। टेंडर निरस्ती के कागज़ और चेक उठाकर बोझिल मन से उठ खड़ा हुआ।
"बैठिए। नाराज़ क्यों होते हैं। चाय पीते जाइए। तालाब खोद भी लेंगे तो पानी कहाँ से लाएँगे? चार साल से तो सूखा पड़ा है। ये फुहारें तो ज़मीन छूने से पहले ही भाप बन जाती हैं।" राकेश कुमार खिड़की से बाहर देखते हुए, धृष्टता से हँसता हुआ बोला।
वे बिना कोई जवाब दिए बाहर चले आए। पेड़ों की अंधाधुंध कटाई और खनन के चलते हरा भरा क्षेत्र अब हर बरस सूखे की चपेट में आने को अभिशप्त हो चुका था।
"साला... पैसे खाए बैठा है। भावेश के आगे ज़ुबान नहीं खुलती इसकी।" रामस्वरूप पीक थूकता हुआ बोला।
"आओ, चाय पी लें!" गजानन नगर पालिका कार्यालय की दीवार से लगी चाय की गुमटी की ओर बढ़ गए। आते-जाते लोग विधायक जी प्रणाम कह, पैर छूने लगे। चाय का दौर चला तो विमर्श देश-विदेश की राजनीति तक पहुँच गया। जब श्रोता कम और वक्ता अधिक हो गए तब बिना किसी निष्कर्ष के सभा विसर्जित कर वे बाहर आ गए।
राजनैतिक बहस से प्रेरित होकर, हल्की फुहारें भी अपना स्वरूप बदल पूरे वेग से बरस रही थीं। एक छतरी के नीचे सिमट कर चलते उनका मन पानी से नहीं, टेंडर निरस्त होने की निराशा से अधिक भीगा था। बारिश से सुनसान पड़े बाज़ार की सड़क पर अचानक बच्चों का एक रेला उन दोनों को धकेलता हुआ, शोर मचाता आगे बढ़ गया। अप्रत्याशित धक्के से नीचे गिर गए, कीच-युक्त कागज़ों को उठाकर वे संभल पाते, इससे पहले ही दूसरा रेला दौड़ता हुआ आया और मिट्टी की फिसल पट्टी पर रपटता तालाब में कूद गया। बच्चे गा रहे थे-
'हरा समंदर, गोपी चन्दर, बोल मेरी मछली कितना पानी!'
गजानन ने एक भरपूर नज़र तालाब पर डाली। मुस्करा कर रामस्वरूप की तरफ़ देखा और पूछा-"दस फ़ीट?"
रामस्वरूप ने सहमति में सिर हिलाते हुए कहा, "दस फ़ीट से एक सूत भी कम नहीं।"
"जनता ही सरकार है, जनता ही सर्वोच्च न्यायालय।" गजानन ने छतरी बंद करते हुए कहा और दोनों हाथ फैला, बंद आँखों से बारिश का आनंद लेने लगा।