बोहनी / चित्रा मुद्गल
उस पुल पर से गुजरते हुए कुछ आदत–सी हो गई। छुट्टे पैसों में से हाथ में जो भी सबसे छोटा सिक्का आता, उस अपंग बौने भिखारी के बिछे हुए चीकट अंगोछे पर उछाल देती। आठ बीस की बी0टी0 लोकल मुझे पकड़नी होती और अक्सर मैं ट्रेन पकड़ने की हड़बड़ाहट में ही रहती, मगर हाथ यंत्रवत् अपना काम कर जाता। दुआएँ उसके मुँह से रिरियायी–सी झरतीं...आठ–दस डग पीछा करतीं।
उस रोज इत्तिफाक से पर्स टटोलने के बाद भी कोई सिक्का हाथ न लगा। मैं ट्रेन पकड़ने की जल्दबाजी में बिना भीख दिए गुजर गई । दूसरे दिन छुट्टे थे, मगर एक लापरवाही का भाव उभरा, रोज ही तो देती हूँ। फिर कोई जबरदस्ती तो है नहीं!...और बगैर दिए ही निकल गई।
तीसरे दिन भी वही हुआ। उसके बिछे हुए अंगोछे के करीब से गुजर रही थी कि पीछे उसकी गिड़गिड़ाती पुकार ने ठिठका दिया–‘‘माँ..मेरी माँ...पैसा नई दिया ना? दस पैसा फकत....’’
ट्रेन छूट जाने के अंदेशे ने ठहरने नहीं दिया, किंतु उस दिन शायद उसने भी तय कर लिया था कि वह बगैर पैसे लिए मुझे जाने नहीं देगा। उसने दुबारा ऊँची आवाज में मुझे संबोधित कर पुकार लगाई। एकाएक मैं खीज उठी। भला यह क्या बदतमीजी है? लगातार पुकारे जा रहा है,
‘‘माँ..मेरी माँ....’’ मैं पलटी और बिफरती हुई बरसी, ‘‘क्यों चिल्ला रहे हो? तुम्हारी देनदार हूँ क्या?’’
‘‘नई, मेरी माँ !’’ वह दयनीय हो रिरियाया,
‘‘तुम देता तो सब देता....तुम नई देता तो कोई नई देता....तुम्हारे हाथ से बोनी होता तो पेट भरने भर को मिल जाता....तीन दिन से तुम नई दिया माँ...भुक्का है, मेरी माँ!’’
भीख में भी बोहनी। सहसा गुस्सा भरभरा गया। करुण दृष्टि से उसे देखा, फिर एक रुपए का एक सिक्का आहिस्ता से उसके अंगोछे पर उछालकर दुआओं से नख–शिख भीगती जैसी ही मैं प्लेटफॉर्म पर पहुँची मेरी आठ बीस की गाड़ी प्लेटफॉर्म छोड़ चुकी थी। आँखों के सामने मस्टर घूम गया अब...?