बोहनी / भूमिका द्विवेदी

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ज़ारुन दिल का और नीयत का बुरा आदमी नहीं था। उसके चाल-चलन पर कभी कोई भी ऊंगली नहीं उठा सका। अपने घर-परिवार में रमा रहने वाला सीधा-सादा मामूली इन्सान था, लेकिन फिर भी पिछले कुछ दिनों से बुरी तरह तंगी से गुज़र रहा था। बीवी का उसकी आंखों के सामने सिर के बाल नोचना, ज़ोर-ज़ोर से चीखना, छाती पीटना उसे रह-रहकर कचोटता था। आख़िर वह बेचारी मजलूम इस लाचारी में करती भी तो क्या करती। अपना ही सिर दीवार पर पटक-पटक कर रह जाती थी। मकान तो अल्लाह के करम से अपना था, किराये-भाड़े का सिर-दर्द नहीं था। लेकिन बच्चे भूखों न मरें, इसलिये ज़ारुन ने कर्ज़ ले रखा था। चुकाने की नौबत ही नहीं आ रही थी कि रुख़साना फिर पेट से थी। बीवी की दवा लाये कि अपने लिये दारू खरीदे या फिर पूरे कुनबे के लिये ज़हर मोल ले आये और सबको खिला के ख़ुद भी मौत को गले लगा ले, कुछ समझ नहीं आ रहा था उसे। हाथ में रोकड़ा तो गिनती का होता है ना, लेकिन ज़रूरतों की तो कोई भी गिनती नहीं, कैसी भी सीमा-मर्यादा कुछ भी नहीं।

हाथ में दिन भर का कुल हासिल, महज डेढ़ सौ रुपये लिये बेजान-सा चला जा रहा था, सूनी उम्र जैसी लम्बी सड़क पर अकेला। डाक्टर का पर्चा जेब में पड़ा था, दवायें तो पौने चार सौ की थीं, वह तो लेना मुमक़िन था नहीं। दारू चढ़ाने लायक भी उसका दिल इस वक़्त नहीं था। बस निढाल चला जा रहा था, बिना मंजिल की जानिब सोचे। चलते-चलते ज़ारुन बहोत थक गया और जब क़दमों ने आगे बढ़ने की ताक़त बटोरने से इन्क़ार कर दिया तो लस्त होकर सड़क के किनारे बैठ गया। बैठा-बैठा अपने नसीब को कोसता रहा। ख़ुदा को जी भर के गरियाता रहा। बीवी-बच्चों पर भी दिल ही दिल में नाराज़ग़ी उड़ेलता रहा। वह बच्चा जो अभी जन्मा भी नहीं था, उसे भी बुरा-भला कहता रहा। अपने हालात, अपनी तंगहाल ज़िन्दग़ी, अपने बुरी तरह बर्बाद हुये क़ारोबार का मातम मनाता रहा। इस बीच उसने कुछ सहमी-सी आवाज़ सुनी। अपनी मरी हुई सूरत उसने इधर-उधर घुमाई. कोई नज़र तो नहीं आया, लेकिन आवाज़ फिर से लहराई. उसने सिर उठाया तो देखा एक लड़की उसे इशारे से बुला रही थी। रात के दो बज रहे थे, ये बीस-पच्चीस साल की कौन लड़की पुकार रही है, वह भी एक अजनबी आदमी को। ज़ारुन खड़ा हो गया और पूछने लगा, "क्या बात है, क्या मुझे बुला रही हो? क्यूं लेकिन?"

"ऊपर आ जाओ फिर बातें करो। इधर किनारे सीढ़ी है। चले आओ."

उस अजनबी लड़की की सहमी आवाज़ अब ज़रा तेज़ हो गई थी।

ज़ारुन ज़्यादा कुछ सोचने-विचारने की मनोदशा में था नहीं, इसलिये उसने चुपचाप सीढ़ी की ओर रुख़ किया। सीढ़ी के आसपास अन्दर की ओर और भी लड़कियां सजी-धजी और लुभावने इशारे करती नज़र आने लगीं।

ज़ारुन कुछ घबड़ाया फिर भी सीढ़ी चढ़कर ऊपर पंहुचने का लोभ छोड़ नहीं पाया। ऊपर वही लड़की चमकीले-चमकीले लिप्स्टिक-पाऊडर पोते हुये और खूब झिलमिल-झिलमिल साड़ी लपेटे मुस्कुराती मिली। नीचे से उसका ये तीखा मेकअप, ये सितारों वाली साड़ी और बाल में लगा ये मुरझाया फूल, कुछ भी नहीं दिख रहा था। यहाँ तो सब अलग और तेज़-तीखा दिखता है। उस औरत के आंखों के नीचे पड़े काले-गहरे गढ्ढे भी अब स्पष्ट दिख रहे थे।

अचानक उसकी आवाज़ से ज़ारुन की बेख़्याली टूटी,

"नीचे बैठे क्यूं रो रहे थे?"

वो कुछ अजीब ज़हनी हालत में आधा-अधूरा-सा जवाब-सवाल करने लगा... "हां वह यूं ही...बस्स ऐसे ही... लेकिन... लेकिन... मुझे क्यूं आवाज़ दी तुमने... मुझे लगा कोई रोने की आवाज़ थी कहीं..."

"रोना तो ज़िन्दग़ी का दूसरा नाम है... लेकिन रोने से कोई हल तो नहीं... फिर कोई क्यूं रोये भला... क्या मैं सच नहीं कह रही?"

"हां तुम ठीक कह रही हो... लेकिन तुम हो कौन, मुझे इतनी रात गये क्यूं पुकारा तुमने..."

"मैं लड़की हूँ... मेरा नाम नीला है। खड़े मत रहो बैठो ना। दो घड़ी ही सही, बैठो तो तुम... इतने उदास मत रहो..." इतना कहते-कहते नीला ने ज़ारुन का हाथ पकड़ के उसे अपने मैले बिस्तर पर बैठा लिया।

ज़ारुन बेदम तो पहले ही था, बिना कोई विरोध किये बैठ गया।

नीला आगे बोलने लगी, "तुम अकेले उदास मुंह और एकदम ही बुरी तबीयत लिये ठीक मेरे बारजे के नीचे बैठे थे, मैं भी अकेली थी यहां, मैंने सोचा क्यूं ना तुम्हें बुला लूं और तुमसे ही बात करूं... अकेले जी लगता है भला किसी का इस बेरहम संसार में... मेरी समझ से आज का दिन शायद ठीक नहीं था हम दोनों के लिये, तुम भी रुआंसे बैठे थे नीचे और आज कोई भी नहीं आया मेरे पास भी, देखो तो कितना बज गया, कितनी रात ढल गई है, विश्वास करो मेरा, बोहनी तक नहीं हुई अब तक मेरी..."

"तो तुमने मुझे अपनी बोहनी करने के लिये बुलाया है... यहां... ऊपर... क्यूं?"

"अब तुम जो भी समझ लो... मेरी सूरत इतनी बुरी भी नहीं कि चार पैसे ना कमा सकूं और तुम्हारी सूरत इतनी अच्छी भी नहीं कि राह चलते तुम्हें कोई भी अपने पहलू में बिठा ले..."

ज़ारुन को उसकी बात सुनकर हंसी आ गई... उसके बहोत बुरी तरह बेचैन दिल-दिमाग़ को ज़रा-सा क़रार मिला... उसने अपनी रूह पर थोड़ी-सी ही सही, लेकिन आराम की-सी दस्तक पाई. बैठा रहा और उस रंग-बिरंगी चमकीली लेकिन बेहद मजबूर-लाचार औरत को ग़ौर से देखता रहा। मन भर काजल लगाने के बाद भी उसकी आंखों से रिसता दर्द और तकलीफ़ें साफ़ तौर पर नुमाया थीं।

"लो ये डेढ़ सौ रुपये हैं... कुल यही हैं मेरे पास। मेरी बीवी पेट से है, उसकी दवा लेने निकला था, लेकिन इतने में आ नहीं सकती। बच्चों की फ़ीस भी नहीं भर सकूंगा इससे। दारू की तलब नहीं है मुझे। लो इसे रख लो, ये तुम्हारी बोहनी के लिये ही जेब में लिये घूम रहा था शायद..."

"लेना तो पड़ेगा ही... चाहे खून का घूंट पीकर लूं, चाहे आंसू पीकर... चाहे तुम्हारे दर्द की दास्तान सुनकर लूं, या अपनी तक़लीफ़ों को कम करने का सोच कर लूं... लेना तो पड़ेगा ही... लूंगी नहीं तो इस कमरे की माल्किन मुझे कच्चा चबा जायेगी, मेरे फूल-से बच्चों को पीटेगी... साहब लेना तो पड़ेगा ही..."

"बातें तो तुम बड़ी-बड़ी करती हो, कितना पढ़ी हो?"

"पढ़ी-लिखी होती तो यही काम करती साहब, क्यूं मेरे हालात का मज़ाक बनाते हो... सभी लाचारी में ग़लत रस्ते पकड़ते हैं... ये हरामी दुनिया जो ना सिखा दे वह कम है। सारे पाठ, सारी पढ़ाई, सारी दुनियादारी, सारे सबक़ इसी निर्दय दुनिया ने सिखा दिये मुझ ग़रीब को..."

"इतना ज्ञान है तुम्हारे पास, इतनी समझ है तुममें... तो क्यूं करती हो ऐसा काम...?"

"भूखा पेट ही तो है, जो ना करवा ले साहब... भूख से बिलबिलाते बच्चे दो रोटी के लिये माँ का मू तो देखेंगे ही...बच्चों के पेट में अनाज के चार दाने ना डाल सकी तो ये हाड़-मांस लेकर करूंगी क्या साहब... एक दिन तो जलनी ही है ये मिट्टी की देह, क्यूं ना रोज़ जलाऊं और उसी आंच में बच्चों के लिये दो रोटी सेंक दूं... मेरा भला हो ना हो मेरे बच्चे तो भूखों नहीं मरेंगे..."

"कितने बच्चे हैं तुम्हारे?"

"साहब दो हैं। बड़े प्यारे हैं। एक बेटा और एक बेटी. बेटा रवि और बेटी नीना... पड़ोस वाली के घर सो रहे हैं। धन्धे का टाइम है ना, इसलिये उन्हें वहाँ छोड़ आती हूँ... मुझे चार मरद के साथ सोता देखेंगे तो दसियों सवाल करने लगेंगे। अभी छोटे हैं ना साहब, इसीलिये... बड़े हो जायेंगे तो ख़ुद समझ जायेंगे... बगल वाली अकेली है, बहोत बूढ़ी है, अब काम-धन्धे के लायक रही नहीं, इसलिये मैं उसे भी देखती हूँ। अभी बूढ़ी मौसी के यहाँ ही रहें मेरे बच्चे वही ठीक है ना साहब?"

"हां ठीक है... सब ठीक है। और क्या कहूँ मैं तुमसे?"

"तुम भी साहब क्या सोच रहे होगे कि मैं अपनी राम कहानी लेकर बैठ गई तुम्हारे सामने... दो पल के लिये अपना ही समझ बैठी तुम्हें। और तुमने भी तो कुछ याद नहीं दिलाया मुझे... कहो क्या ख़ातिर करूं मैं तुम्हारी, ये तो ख़ातिर की ही बेला है। और तुम तो आये भी होगे ख़ातिर करवाने..."

"नहीं नहीं... कोई ख़ातिर-वातिर नहीं चाहिए मुझे... तुमसे बात करना ही भा रहा है मुझे... तुम बोलो, सुन रहा हूँ मैं तुम्हारी बात..."

" अरे, बड़े धर्मात्मा बनने निकले हो, इस पापी कमीने जगत में... चलो अगर बात ही से जी लगता है, तो बतियाती ही हूँ तुमसे... हराम का एक आना मुझे देकर मत जाना, धन्धे वाली हूँ मैं, भिखारी नहीं... ठीक है ना, चलो अब कुछ कहो ना... चलो अपनी सुनाओ कुछ... क्या काम करते हो?

"मेरी क्या सुनोगी... मैं लोहे का काम करता हूँ... मेरी अपनी दुकान भी थी, दोस्त के साथ साझे में काम करता था। रहीम आर्डर लाता था, मैं सामान बना कर भेजता था। सारा रुपया-पैसे का हिसाब वही रखता था। आने का भी कभी पूछा नहीं मैंने उससे। मैं तो बस अपना काम ही करता था, सुन्दर लोहे की नक्काशी करने में दिल लगता है मेरा। बहोत बेहतरीन सामान बनाये मैंने इन्हीं हाथों से... बड़े-बड़े, एक से बढ़कर एक ख़ूबसूरत फाटक बनाये मैंने... आज भी आलीशान कोठियों की रौनक बने हुये हैं मेरे बनाये हुये ढेरों सामान... मेरे हाथ के बनाये सामान तो शहर से बाहर भी गये हैं..."

"अरे वाह। तुम तो बड़े हुनर वाले आदमी हो जी. मैं तो नाहक ही तुम्हें हल्के में ले रही थी। देखो ये जो हुनर की पिटारी है न, भगवान सबके लिये नहीं खोलता। किस्मत वालों के हाथ ही ऊपर वाला हुनर की बक़्शीश देता है... तुम किस्मत वाले हो... मैं सच कह रही हूँ..."

"कैसी किस्मत और कहाँ का किस्मत वाला... इन्हीं हाथों से लाखों का माल बनाया और बेचा, कोई गिनती नहीं... लेकिन आज अपनी ही औरत के लिये दवा नहीं खरीद पा रहा हूँ, उस बेचारी औरत के लिये जो कि बच्चा जनने वाली है... ग़रीबी से तंग आकर अपना सिर दीवार पर फ़ोड़ती रहती है वह लाचार औरत... तुम भी बेक़ार की बातों से जी बहला रही हो मेरा... किस्मतवाला और मैं..."

"नहीं नहीं, मैं ग़लत नहीं कह रही... ना बेकार में बहला रही हूँ तुम्हें। हुनर तो एक दौलत है, जो कि इन्सान अपने साथ लेकर ही चलता है हर समय वह दौलत साथ चलती है साहब। भरोसा करो मेरी बात का... भला मैं तुमसे झूठ क्यूं कहूँगी..."

ज़ारुन लम्बी सांस लेकर बोला, "तुम नहीं जानती बहोत बुरा हुआ मेरे साथ... तुम कुछ नहीं जानती तभी मुझे ख़ुशनसीब कहती हो..."

"अच्छा भई बड़े बदनसीब हो तुम... अब ख़ुश... बताओ तो कहाँ रहते हो? इस बदनाम रंगीन गल्ली में कैसे आना हुआ तुम्हारा, किस बुलबुल को खोजते-खोजते चले आये इधर? श़क़्ल से हरामी तो नहीं दिखते तुम... और फिर नीचे क्यूं बैठे थे? महबूबा से झगड़ा हुआ क्या तुम्हारा? या तुम्हारी उस बीमार बीवी ने रो-धोकर घर से निकाल दिया तुम्हें, जिसका की तुम कहते हो, बच्चा होने वाला है... हा-हा हा हा... यहाँ तो सारे यही सब रोना-पिटना लेकर आते हैं... अपनी कहो, तुम कैसे चले आये इधर..."

"तुम्हें हंसी सूझती है... सुनो, मैं बताता हूँ, मेरा वह दोस्त रहीम था ना, वही दग़ाबाज़ निकल गया... अच्छा-भला निबाह हो रहा था हमारा... लेकिन एक दिन ना जाने क्या हुआ, दो लाख का आर्डर लाया था और सारा का सारा पैसा, बना हुआ सारा माल, पूरी तिजोरी सब, सब साफ़ करके पता नहीं कहां-किधर भाग गया। अरे कोई आफ़त आन पड़ी थी तो कहता मुझसे... हमेशा, हर वक़्त तो मैं खड़ा था उसका हिमायती बनकर... बाप-मां, दोस्त, वक़ील सबकुछ था मैं अकेला उसका... मेरे रहते वह कभी अकेला नहीं था इस दुनिया में... लेकिन अबकी जाने क्या गुज़रा उस पर... अल्लाह ही जाने कि अब की क्या हुआ है उसके साथ..."

"हुआ होगा कुछ, तभी तो नहीं लौटा इतने भले दोस्त के पास... इन्तज़ार करो, क्या पाते चला ही आये कोई दिन... साहब थोड़ा धीरज धरो..."

"हां... बस उसी सब्र का दामन पकड़े ही तो जी रहा हूँ... वरना तो ख़ाक़ में उड़ गई ज़िन्दग़ी मेरी... दुकान गिरवी में रख दी मैंने... एक वक़्त था, चार आदमियों की रोटी मेरी दुकान से चलती थी और आज... आज कर्ज़ की रोटी ख़ुद भी खा रहा हूँ और बच्चों को भी उसी कर्ज़े में पाल रहा हूँ... वह कमीना सूदखोर बनिया सिर पर बैठा रहता है, उसका बस चले तो खाल नोचकर सूद वसूल ले मेरे जिस्म से... तुम पूछती हो इस बेग़ैरत गली में किसे खोजता आया हूँ... सच मानो, मुझे तो होश भी नहीं मैं कब, कहाँ से, किस उधेड़बुन में, इधर, इस तरफ़ चला आया... मुझसे मेरे हवास मेरी ही तंगहाली ने छीन लिये हैं नीला... यही नाम बताया था ना तुमने..."

"हां हां, तुमने ठीक कहा है, यही नाम बताया था मैंने... लेकिन मैं फिर कहती हूँ तुम्हें निराश नहीं होना चाहिये... ये सब तो ज़िन्दग़ी में लगा ही रहता है... ज़रा-सी पैसों की परेशानी में कोई होश नहीं खो बैठता तुम्हारी तरह... ये भी कोई बात हुई भला कि दुकान क्या गिरवी गई, तुम लगे रंडी के दरवाज़े बैठकर बिसूरने... अरे गिरवी ही गई है ना वह मुई दुकान तुम्हारी, कोई बिक तो नहीं गई... मर्द जात के हो या फिर दिन पूरे हो गये अब तुम्हारे... दिखते तो भले-चंगे पठ्ठे हो... उम्र भी पचास पार नहीं होगी तुम्हारी, क्यूं... फिर भी मू लटकाये बैठे हो... चलो अब जाओ भी, नया गाहक खोजने दोगे के नहीं... नीचे कितनी ढेर-सी खड़ी हैं झुण्ड के झुण्ड, देखा था ना तुमने... मुझे तो डर था कहीं तुम भी ना अटक जाओ उन्हीं कमीनियों के संग... बड़ी कुतिये हैं सब, दूसरे का गाहक उन्हें बड़ा प्यारा होता है... नज़र गड़ाये बैठी रहती हैं हर वक़्त... अब जाओ तुम अपनी दुकान पर बैठो जाकर और ये मेरी दुकान भी चलने दो... बोहनी तो हो गई तुम्हारी किरपा से... अब जाओ, तुम भी अपना काम-धन्धा देखो..."

"हां तुम ठीक कहती हो... उजाला होने लगा है बाहर... नमाज़ भी नहीं पढ़ी अब तक मैंने... चलो मैं निकलता हूँ... तुमसे बात करके बुरा नहीं लगा मुझे... अल्ला सब अच्छा ही करता है... चलो ख़ुदा हाफ़िज़..."

ज़ारुन ने अपनी सफ़ेद जालीदार टोपी पहनी, सीढ़ी से उतरा और अपने रास्ते वापस लौट गया। उसने घर पंहुच कर, नमाज़ पढ़ी, दिल से अल्लाह का शुक्राना किया।

दस-ग्यारह बजे के करीब वह अपनी लोहे की दुकान में जमी आठ महीने की बेहिसाब गन्दग़ी साफ़ कर रहा था और अपनी उसी दुकान के बाहर अपने बनाये हुये सामानों के नमूने वाली तस्वीरें खूब दिल से, तबीयत से और तसल्ली से सजा रहा था।