बौद्धिकता का उत्पाद एवं वितरण / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 01 नवम्बर 2018
आने वाला दौर कृतिम बौद्धिकता का दौर होगा। आवश्यकता अनुसार विशेष आग्रह पर रोबो बनाए जाएंगे। घर में सफाई का काम रोबो से कराया जा सकेगा। वह लोरी गाकर सुलाएगा, भजन गाकर उठाएगा परंतु जागे हुए को जगाना उसके भी बस की बात नहीं होगी। आशय यह है कि आवाम जानता है कि मौजूदा व्यवस्था ने कहर ढाया है परंतु वह पुनः उसी के पक्ष में मत देना चाहेगा, क्योंकि उसके षड्यंत्र की यही बुनावट रही है कि उसका सच जानकर भी आपको उसका विकल्प नज़र नहीं आएगा। परिस्थितियां हमेशा विकल्प को जन्म देती रही हैं। शाश्वत सत्य हम अनदेखा करना चाहेंगे। व्यापमं समान घपले घटते रहेंगे। अबोध दंडित होते रहेंगे।
स्टीवन स्पिलबर्ग ने दशकों पूर्व 'आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस'नामक फिल्म बनाई थी। कथासार कुछ यूं था कि एक उम्रदराज अकेली रहने वाली महिला अपने घर के काम के लिए ऑर्डर देकर एक नन्हे आकार का रोबो बनवाती है। वह उसका अकेलापन भी दूर करता है गोयाकि सेवक और साथी दोनों ही है। कुछ समय बाद महिला को कैंसर हो जाता है। एक दृश्य में सेवक-साथी रोबो की आंख में आंसू आ जाते हैं। आंसू बहाने के लिए वह प्रोग्राम्ड नहीं था। आंसू और मुस्कान प्रोग्राम्ड नहीं हो सकते परंतु वे बरबस आ जाते हैं। हसरत जयपुरी ने गीत लिखा था-'यह आंसू मेरे दिल की जबान है।' जयशंकर प्रसाद ने लिखा है, 'जो घनीभूत पीड़ा थी मस्तक में स्मृति-सी छायी। दुर्दिन में आंसू बनकर वह आज बरसने आई।' साधन संपन्न आदमी नपी-तुली मुस्कान पैदा करता है। वह जानता है कि किस व्यक्ति से मिलते हुए महज आधा सेंटीमीटर मुस्कुराना है और कौन एक इंच मुस्कान का हकदार है। हमारे नेता इस खेल में महारत हासिल किए हुए लोग हैं। झूठ पकड़े जाने पर नकली आंसू बहाते हैं।
फिल्म की शूटिंग में रोने के दृश्य की शूटिंग के पहले कलाकार आंख में ग्लिसरीन डालता है ताकि वह दुख को बेहतर ढंग से अभिनीत कर सके। मीना कुमारी इसका अपवाद थीं। वे जब चाहे आंसू बहा सकती थीं। प्याज को हाथ से मसलने के बाद उसी हाथ को आंखों पर फिराने से भी आंसू निकल आते हैं। इसे आंसू दो प्याजा भी कह सकते हैं। गुजर गया वह दौर जब प्याज के दाम बढ़ने पर सरकारें गिर जाती थीं। अावाम भी प्रोग्राम्ड है कि किस सरकार की महंगाई पर शोर मचाना है और किस सरकार द्वारा व्यवस्था चौपट किए जाने के बाद भी तालियां बजाना है। भूख, गरीबी और अभाव पर दी जाने वाली प्रतिक्रिया भी प्रोग्राम्ड होती है। चाबीभरा खिलैना उतना ही ठुमकता है, जितनी चाभी भरी जाती है।
-'बाई सेंटेनियल मैन'नामक फिल्म में रोबो को स्वयं को बनाने वाले वैज्ञानिक की पुत्री से प्रेम हो जाता है। वे दोनों चर्च व अदालत में शादी करने के लिए आवेदन करते हैं परंतु वर्षों बाद जब उनके पक्ष में फैसला आता है तो वह दिन लोगों का एक्सपायरी-डेट है अर्थात बनाते समय ही उसकी सक्रियता का आखिरी दिन तय कर दिया गया था। उसकी प्रेमिका भी उम्रदराज हो गई। दोनों एक साथ प्राण तजते हैं। इसी तरह दवाओं की भी एक्सपायरी डेट होती है। निश्चित अवधि तक ही उस दवा का सेवन किया जा सकता है। कुछ मनुष्य हैं की एक्सपायरी डेट के बाद भी बाजार में सिक्के की तरह चलते रहते हैं। मानव बुद्धि की शक्ति असीमित है। परंतु उसका कुछ प्रतिशत का ही इस्तेमाल विरल लोग कर पाते हैं। प्रयोग नहीं करके नष्ट की गई बुद्धि का अनुमान नहीं लगाया जा सकता। कुछ लोग बुद्धि को अभिशाप मानते हैं। अदम के शेर पर गौर करें, 'अक्ल हर काम को जुल्म बना देती है, बेसबब सोचना, बेसूद पशीमां होना।' कवि जॉन मिल्टन ने भी बुद्धि का उपयोग नहीं करने पर लिखा है। यह कितना आश्चर्यजनक है कि साहित्यकार एचजी वेल्स की 19वीं सदी में रची विज्ञान फंतासी आज यथार्थ की तरह सामने आ रही है। मायथोलॉजी भी विज्ञान फंतासी की तरह है। याद कीजिए भस्मासुर की कथा जिसे पूजा सामग्री के लिए रचा गया था परंतु वह मदान्ध हो गया तब उसके रचयिता को ही स्त्री स्वरूप में नृत्य करते हुए उसे नष्ट करना पड़ा।
मनुष्य रोबो रचता है। भविष्य में रोबो मनुष्य को रचने लगेंगे। कुछ वर्ष पूर्व विज्ञान फंतासी फिल्म 'मैट्रिक्स' का प्रदर्शन हुआ था। फिल्म में रोबो मनुष्य को मारकर उसे अपनी बैटरीज की तरह प्रयोग में लाता है। नाव गाड़ी पर लादकर नदी तक लाई जाती है और बाद में गाड़ी को नाव पर रखकर उसे बाहर ले जाया जाता है। मनुष्य व मशीन का रिश्ता गाड़ी और नाव की तरह हो सकता है। अभी समाचार आया है कि एक रोबो को विदेश में भ्रमण का वीजा दिया गया है।