बौना नायक, चढ़ावे में काला धन / जयप्रकाश चौकसे

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
बौना नायक, चढ़ावे में काला धन
प्रकाशन तिथि :28 दिसम्बर 2016


फिल्मकार आनंद राय ने 'तनु वेड्स मनु' एवं 'रांझना' जैसी सफल एवं सार्थक फिल्में बनाई हैं और अनुराग कश्यप ने 'बॉम्बे वेलवेट' की तरह अनेक असफल फिल्में बनाई हैं। हाल ही में आनंद राय ने अनुराग कश्यप को अनुबंधित किया है कि वे उनके लिए दो फिल्में निर्देशित करें और ये फिल्में छोटे शहरों में पनपी प्रेम कहानियां होनी चाहिए। संभवत: आनंद राय अपनी शाहरुख खान अभिनीत फिल्म में अत्यंत व्यस्त हैं। इस फिल्म में शाहरुख खान एक बौने की भूमिका करेंगे। कुछ दृश्यों में वे सामान्य ऊंचाई के व्यक्ति भी दिखेंगे, जो संभवत: बौने के स्वप्न दृश्य हों। दशकों पूर्व अमृता प्रीतम ने लंबी लड़की की व्यथा-कथा लिखी थी। औसत ऊंचाई से कम या ज्यादा होने पर कष्ट होता है और हमारा मखौल उड़ाने वाला असहिष्णु समाज इस कष्ट को बढ़ा देता है। हमारा हास्य भी प्राय: कमतरी आधारित होता है। कपिल शर्मा का कार्यक्रम भी कमतरी के मखौल पर ही आधारित रहता है। जॉनी वॉकर सर्वकालीन श्रेष्ठ हास्य कलाकार रहे हैं और उन्होंने कभी कमतरी का मखौल नहीं उड़ाया। यह कितने अाश्चर्य की बात है कि संजीदा गुरुदत्त के प्रिय मित्र रहे जॉनी वॉकर और गुरुदत्त ने अपनी सभी फिल्मों में जॉनी वॉकर के लिए विशेष भूमिकाएं गढ़ीं। यहां तक कि अपनी आत्मकथात्मक 'कागज के फूल' में भी जॉनी वॉकर ने महत्वपूर्ण भूमिका अभिनीत की थी। इसी तरह संजीदा दिलीप कुमार हास्य कलाकार मुकरी को बहुत पसंद करते थे।

जॉनी वॉकर का जन्म नाम बदरुद्‌दीन था और वे इंदौर के रहने वाले थे। काम की तलाश में मुंबई जाकर उन्होंने विविध नौकरियां कीं। जब वे बस कडक्टर थे तब बलराज साहनी ने उनकी हंसोड़ अदाएं देखीं और उन्हीं की सिफारिश पर वे फिल्मों में आए। हमारा हास्य का माद्‌दा ही हमें विषम परिस्थितियों में जीवित रखता है। हास्य ऑक्सीजन की तरह आवश्यक है। आजकल बगीचों में सुबह सैर करने वाले सामूहिक ठहाके लगाते हैं परंतु इस तरह जबरन ठहाके फेफड़ों की कसरत तो हो सकते हैं परंतु मस्तिष्क को राहत मिलती है विशुद्ध हास्य से। व्यंग्य लेखन में हास्य गूंथा हुआ होता है। हरिशंकर परसाई और शरद जोशी इस क्षेत्र के पूजनीय व्यक्ति रहे हैं। उनके पैनेपन का कोई जवाब नहीं। श्रीलाल शुक्ल की 'राग दरबारी' हास्य व्यंग्य के क्षेत्र में महाभारत का दर्जा रखती है। भ्रष्ट भारत को 'राग दरबारी' में आप पूरी तरह अभिव्यक्त होते हुए पाते हैं। आरके लक्ष्मण के कार्टून में भी भ्रष्ट भारत खूब प्रकट हुआ है।

जीवन में बौनापन अनेक तरह से उभरता है। अपनी युद्ध फिल्मों के लिए प्रसिद्ध एक फिल्मकार का विश्वास था कि उनके खिलाफ खड़े व्यक्ति को ईश्वर दंडित करता है। इस तरह उन्होंने अपने ईश्वर आकल्पन को ही बौना कर दिया। ईश्वर तो सभी की रक्षा करते हैं परंतु उन्होंने केवल उनके हित में काम करने वाले ईश्वर का आकल्पन किया। हर मनुष्य का ईश्वर अाकल्पन उसके अपने अवचेतन के अनुरूप होता है। डाकू भी अपने काम पर जाते समय मां दुर्गा की उपासना करते हैं। ठग भी मां के उपासक होते हैं। छिद्रमय भ्रष्ट व्यवस्था के कारण अनेक लोगों ने अपनी योग्यता व परिश्रम से अधिक धन कमा लिया और इसे ईश्वर की कृपा माना। यही कारण है कि भारत में भ्रष्टाचार के अनुपात में ही आस्था के केंद्र भी विकसित हुए और अब वे भव्य व्यापार केंद्र में बदल गए हैं। सारे धार्मिक स्थानों पर चढ़ाए धन से भी देश की तस्वीर बदली जा सकती है। किसी भी व्यक्ति ने अपने आयकर फॉर्म में इन ठिकानों पर चढ़ाए धन का विवरण नहीं दिया है। अत: अधिकांश चढ़ावे वाला धन ही है गोयाकि धर्मक्षेत्र का व्यवहार काले धन पर चलाया जाता रहा है। 'हाथी मेरे साथी' के दक्षिण भारतीय निर्माता अपनी फिल्म की आधी आय अपने इष्टदेव का अधिकार मानते हुए उसे अपना साझीदार मानते थे। श्रीकृष्ण की एक छवि को 'सांवरिया सेठ' कहा जाता है गोयाकि हमने अपने कालेधन में ईश्वर को भागीदार बना लिया है। आनंद राय द्वारा अनुराग कश्यप को अनुबंधित करने के प्रकरण का एक पक्ष यह भी है कि फिल्म में पूंजी निवेश करने वाली कॉर्पोरेट कंपनियां सफल फिल्मकार को दर्जनभर फिल्में बनाने का ठेका देती हैं गोयाकि सृजन क्षेत्र में भी ठेकेदारी प्रारंभ हो चुकी है।अब सड़कों की तरह फिल्में गढ़ी जाएंगी तो उनमें पहली बारिश के बाद ही गड्‌ढे उभर आएंगे। फिल्मों की तरह सड़कें और सड़कों की तरह फिल्में गढ़ी जाएंगी। महेश भट्‌ट और मुकेश भट्‌ट ने इस ट्रेंड को आने के पहले ही भांप लिया था और संयोग देखिए कि उन्होंने 'सड़क' नामक फिल्म भी बनाई है। संख्या ने गुणवत्ता को खदेड़ दिया है। बाजार का अष्टपद इसी तरह अपनी बाहें फैलाता है। अवाम कब तक और कहां तक बचा रहेगा। सदियों से शोषण सहते अवाम की झटके सहने की क्षमता भी कमाल की है। अवाम के जीवन गीत का स्थायी है, 'देखना है जोर कितना बाजु-ए-कातिल में है'। धन्य हो कवि रामप्रसाद बिस्मिल। आज भगतसिंह के पुनरागमन की घनघोर आवश्यकता है परंतु स्मरण रखिए कि भगतसिंह साम्यवादी विचारधारा में विश्वास रखते थे। हर संकट काल में ईश्वर के अवतार की धारणा अत्यंत प्रबल है। अवतार की कामना हमारी कमजोरी है। हम भूल जाते हैं कि कुरुक्षेत्र में श्रीकृष्ण ने केवल रथ चलाया था, तीर तो अर्जुन ने ही चलाए थे। मौजूदा कालखंड में अर्जुन की तरह तीर चलाने की इच्छा ही मर गई है, अत: अब किसी अवतार के प्रकट होने से व्यवस्था नहीं बदलेगी। बाजार की सबसे विलक्षण सफलता ही यह है कि उसने अवाम से उसका लड़ाकूपन ही छीन लिया है। इस तरह अवाम हो गया है बौना और उसमें से ही कुछ लोगों को सत्ता प्राप्त हो गई है। ठिंगना राजा और बौनी प्रजा जीवन नामक प्रहसन को खेल रहे हैं। क्या फिल्मकार आनंद एल. राय अपनी फिल्म को इस काल खंड की प्रतिनिधि रचना के रूप में गढ़ रहे हैं?