बौनी होती परछांई / मनीषा कुलश्रेष्ठ
वजह ऐसी भी खास नहीं कि जिसके लिये इतना मूड खराब किया जाये। हँ क्या बेवकूफी भरी बात है। ये साले गर्ल्स कॉलेजेज क़ी बहनजी टायप मैन्टेलिटी जाती ही नहीं लोगों की।युनिवर्सिटी में अच्छी थी, क्या हुआ एडहॉक लैक्चरर थी तो! कम अज क़म ये पर्सनल मामलों में फालतू की टांग तो नहीं अडाई जाती थी, मुझ सी न जाने कितनी लैक्चरर्स थीं गैरशादीशुदा, आज़ाद और उदार मानसिकता वालीं।
एक तो यह मध्यमदर्जे की मानसिकता वाला शहर मेरठ उस पर गर्ल्स कॉलेज! मैं क्या करुं अगर कॉलेज के आखिरी अनमैरिड मेल लैक्चरर की शादी हो रही है तो! दो चार बार ही तो वह उसके साथ कैन्टीन में बैठ गई थी। करती भी क्या बाकि लैक्चरर्स पति, बच्चे, अचार, साडियां, लडक़ियों के चरित्रों, प्रिन्सीपल की बुराईयों के अलावा किसी अन्य विषय पर बात ही नहीं करतीं थीं। ऐसा था ही क्या उसके और सुबोध के बीच? कैसे कैसे कमेन्ट हुए सुबोध की शादी का कार्ड देखकर!
“हाय! रोहिणी तुझे प्रपोज नहीं किया था सुबोध ने?” ये इन्दु थी उसकी दोस्त होने का दावा करती है, कैसे खिलखिला रही थी।
“ हम तो इस कार्ड में आपके नाम की उम्मीद कर रहे थे, मैडम।” हिन्दी के आचार्य सर बोले, जो इस गर्ल्स कॉलेज में सर कम मैडम ज्यादा लगते हैं। हमेशा लडक़ियों को मुंह लगाना, उनसे अपनी हंसी उडवाना इनका प्रिय शगल है।
बैल होते ही जब वह क्लास के लिये निकली, पीछे से जुमला उछला, “आखिरी चान्स था, खो दियाबाकि शब्द लडक़ियों के शोर में खो गये।
लडक़ियों की खुसुर पुसुर, एकाध क्लास में लडक़ियों ने इतनी भी हिम्मत कर ली, “ मैम, आज आपका मूड न हो तो” गुस्से में उसने दो दो क्लास ले डाली जूलोजी की। ढेर सारा काम पकडा दिया लडक़ियों को।
मन तो किया था कि कह दे सब से, क्यों नहीं, हिन्ट्स तो बहुत दिये थे सुबोध ने, किसे काटती है कमाऊ पत्नी, वह तो मैं ही हूँ जो कोरी भावुकता में आ बरसों पाली पोसी आजादी नहीं खोना चाहती थी। तुम खुदको देखो दिन रात की गृहस्थी की गुलामी, कभी ये बच्चा बीमार कभी वो। पति कहीं और पोस्टेड तुम यहां।
उसे पता था इन्दु का जवाब - तेरी तरह हमारी रातें तो भारी नहीं कटतीं।
घर तक चला आया है, उसके पीछे पीछे उसका बुरा मूड। आज उसने मकानमालकिन मिसिज सब्बरवाल को भी महज रूखा सा अभिवादन कर दिया और खटाखट सीढियां चढने लगी। कहने को पोता हो गया है पर आंटी कहने से चिढती हैं ” क्या रोहिणी, आंटी कहती हो मुझे! तुमसे पांच छ: साल ही बडी होऊंगी। वो तो सोलह में आते ही रिश्तों का ढेर लग गया था, सो सबसे बढिया रिश्ता देखकर बाऊजी ने शादी करदी।फिर बच्चे भी जल्दी हो गये।”
“हँ, बढिया रिश्ता मोटा जनरल स्टोर वाला सब्बरवाल ।”
कमरे में घुसते ही कामवाली काशीबाई पर खीज निकाली, आज फिर वही दाल?
“ क्या करती, भैनजी, साग भाजी थी ही नहीं।”
“ तो ले आती।”
“ आज पहले ही देर हो गई घर पर बच्चे भूखे बैठे होंगे। चार बजा लिये आपने।
कमबख्त भूख ही नहीं बची, पर किसी तरह खाना ठूंसा। हमेशा तो वह चार से छ: जम कर सोती है। फिर सैर को निकल जाती है। पर उसके बाद का वक्त नहीं कटता, किताबें, टीवी, संगीत भी उसकी अन्यमनस्कता नहीं मिटा पाते।
अगर रविवार हो तो, पूरा दिन पहाड सा हो जाता है। कोई हलचल नहीं होती उसके फ्लैट में, न सुबह जल्दी उठने की हडबडाहट, न साडी प्रेस करने का झंझट। वह आंख खुलने के बाद भी बस लेटी रहती है।बालकनी में सफेद गुलाब की बेल से लिपटी धूप देखा करती है। आस पास के घरों का शोर नेपथ्य में चलता रहता है। आज रविवार तो नहीं ईद की छुट्टी है, अपना कोई त्यौहार होता तो, राधा भाभी के घर चली जाती। वे सारे त्यौहार मनाती हैं। संक्रान्ति से लेकर शीतला सप्तमी,अहोई जैसे छोटे छोटे त्यौहार भी, सुबह सुबह नहा धोकर बढिया चम चम साडी पहन कर रसोई में खप जायेंगी। फिर फोन करेंगी,
“ रोहू, चली आ। ” वह पन्द्रह किलोमीटर उनके प्रेम में पगी चली जायेगी, उनके तीन किशोर लडक़ों के लिये कुछ न कुछ लेकर। पचास की हो गईं पर उत्साह नहीं गया। जीवन जीना कोई उनसे सीखे। उसे देख कर भाईसाहब से कहेंगी, “ लडक़ी की रौनक ही कुछ और होती है। मेरी तो किस्मत में लिखी ही नहीं थी। ये तीन तीन बांध दिये, जिन्हें न मां का दर्द न परवाह” पर भाईसाहब उनके लिये एक पैर पर खडे रहते हैं, ऐसा है उनका जाऽदू। भले ही पांचवी पास हैं और भाईसाहब इन्जीनियर। हर बार जब से वह अपने रिश्ते के एक विधुर भाई का जिक़्र जिस लहजे में उससे करने लगी हैं। वहां भी जाने से मन अब कतराने लगा है।
आज ईद को क्या करे? यूं नाहिद ने बुलाया था सिंवई खाने पर और कहा था सुबह से आजाना दिन भर यहीं रहना रात को पार्टी है। हैल्प भी हो जायेगी, खुब गप्पें भी मारेंगे। न मन नहीं है, कौन उठ कर जल्दी जल्दी नहाये। फोन पर मुबारक बाद दे देगी। बस नौ ही बजे हैं, आज तो ये दिन चींटी की चाल चलेगा। उसने उठ कर कॉफी बनाई। धूप के एक टुकडे क़ो पकड क़र कुर्सी वहां खींच कर बैठ गई।
सामने शीशे पर नजर गई। उसे चेहरा अजनबी लगा। उसे लगा उसका चेहरा इन कॉस्मेटिक्स की बॉटल्स में बन्द है, जिसे वह हर सुबह साडेआठ बजे अपने ऊपर लगा लेती है, लौट कर इन्हीं में बन्द कर देती है।फाऊण्डेशन की एक परत, काम्पेक्ट की दूसरी परत, ब्लशर के हल्के स्ट्रोक्स, आईलाईनर की महीन लाईन्स। बालों का गहरा भूरा रंग। पर्स के खुली परत में से सुबोध की शादी का सुनहरा कार्ड झांक रहा था।
क्या शादी इतनी जरूरी होती है? छीज छीज कर मां मर गईं। छोटे भाई और बहन ने अपनी अपनी शादियां करवा लीं।यहां कॉलेज में आये छ: महीने बीते हैं, लोग उसकी उम्र का कयास लगाते हैं और शादी करने की राय देते हैं। एक बार तो रेखा मैडम से झगड ही पडी थी, “ अरे, आपको मेरी आजादी क्यों अखर रही है? आपको मुझे लेकर क्या कॉम्लेक्स है?”
काशी आ गई है, सब्जियों भरा थैला लेकर हरी भरी, सुर्ख लाल, पीली,बैंगनी सब्जियां भली लग रही हैं। ”काशीबाई, आज मैथी के परांठे और मटर आलू की सब्जी बनाओ, खूब मसाले डाल कर।”
“ आप तो मना करते हो तेल मसाले को”
“ आज अपने हिसाब से बना लो।”
किसी तरह लंच निपटा एक बडे आयोजन सा। फिर लम्बा समय पसरा था उसके आगे। रेंग रेंग कर आगे बढ रही रिजर्वेशन की क्यू हो मानो।
चिट्ठियों के अम्बार में दिल्ली युनिवर्सिटी की उसकी कलीग कामना की शादी का कार्ड भी था। तो शादी कर रही है, अब पैंतीस की उमर में।उसीसे? अपनी उम््रा से बहुत छोटे एक क्रिश्चन मैडिकल रिप्रेजेन्टेटिव से। क्या पागलपन है, उस लडक़े ने बस बढिया युनिवर्सिटी की नौकरी के अलावा क्या देखा होगा उसमें? गोरी लाल भभूके सी मोटी कामना।
उसे याद है दिल्ली में वो दोनों एक ही फ्लैट शेयर करते थे। देर रात को वो लैडी चैटरलीज लवर और फैन्टसी के ताजा अंक पढा करती थी। उसे दया आती थी उस पर। उसकी अलमारी में सिमोन द बाऊवार, सार्त्र,मिलर वगैरह के अलावा हैल्थ पत्रिका के अंक रहा करते थे। कामना कई बार बहस करती।
“क्या तुझे प्राकृतिक भूख नहीं महसूस होती?”
“ मेरा ध्यान ही नहीं जाता”
“ तू अपनी इच्छाएं दबा लेती है, यह ठीक तो नहीं रोहिणी।”
“ पता नहीं कामना, अकेलापन जरूर खिजाता है, किसी पुरुष से बात करना स्वस्थ लगता है। पर आगे कभी ध्यान ही नहीं जाता।”
“ इरोटिक किताबें या किसी फिल्म का कोई सीन”
“ मैं कहाँ पढती हूँ वैसी किताबें, फिल्म देखे अरसा हो गया।”
वह उसे जितना टालती वह उतना ही सैक्स और शरीर की भूख पर बहस करना चाहती थी। शादी न होना उसकी मजबूरी थी। बिहारी कायस्थ कामना के अध्यापक पिता दहेज न जुटा सके थे। उम्र तीस पार कर गई थी। अब चॉईस ही नहीं थी।
'तो कामना जी अपनी कामनाओं पर विजय न पा सकीं। कामना पर हंसते हंसते एकबारगी वह रुक गई। एक गंभीर ख्याल उठा, तो क्या उसके शादी न करने की वजह कामनाओं पर विजय पाना है? हँ...वह कोई जोगन थोडे ही बनना चाहती है! क्या उसके मन कामनाओं से सूना है? नहीं सूना तो नहीं, सुबोध की शर्ट के पहले खुले बटन से झांकते सीने के बालों ने क्षणांश को उसे उत्तेजित किया था एक बार। वह अलग बात है कि उसने हमेशा अपने आप का ध्यान बंटाया है, खुद को बरगलाया है। अचानक से अपने आप पर ठीक उसी तरह दया आ गई जैसे कि लोग उसपर किया करते थे। चचऽच बेचारी में कमी क्या है?सुन्दर है, कमाऊ है।सांवली है पर नक्श कितने अच्छे हैं, साल दर साल उम्र बढती जा रही है।
अपने ही इन ऊटपटांग ख्यालों से उसे स्वयं पर गुस्सा आ गया। वह उठ बैठी। पैर कम्बल से ढक घुटनों पर सिर टिका दिया, ये स्साला मनहूस मन आज न उसे गर्त में ले जाये।
आखिर शादी न करने का निर्णय उसका था।
बस एक बार बी एससी करते ही जब पहले रिश्ते की बात पर जब लडक़े वाले देखने आये थे। पापा जी जीवित थे तब। तब लहराते लम्बे बाल, तरल लम्बी आंखें, वह साडी में स्वयं को देख कर पहली बार अपने ऊपर मुग्ध हो गई थी। ख्वाबों की उस कोमल पारदर्शी उम्र का कांच छन्न से टूटा था, “लडक़ी जरा काली है।” तब सब कांच के टुकडे बटोर उसने फेंक दिये थे और लानत भेजी थी इस शादी ब्याह नामक संस्था पर। तब स्वयंसिध्दा होने की राह चुन ली थी उसने। एम एससी करने के बाद चार साल पी एच डी में लगाये। फिर एक प्रोजेक्ट के तहत जूनियर साईन्टिस्ट बन दो साल के लिये लन्दन चली गई थी। लन्दन से याद आया, उसके सांवले सौन्दर्य का जादू उसकी लैब में एक बार चल गया था।
वह आस्ट्रेलियाई डॉक्टर एक बार पूछ बैठा था, “ हाऊ कुड यू गैट दिस परफेक्ट टैन्ड कॉम्पलेक्शन ? “
वह मुस्कुरा दी थी। तब से एक कोमल कोना उगा था उसके लिये उसके मन में। दोनों घूमते रोहिणी प्रतीक्षा में थी कि वह उसे प्रपोज क़रेगा।जैसे ही रोहिणी को पता चला वह विवाहित है पर सेपरेशन पीरियड में चल रहा है, उसकी भारतीय मानसिकता उसे बिदका गई। तब तो बहुत ही संस्कारी व आदर्शवादी थी। आदर्शवाद और जवानी का बहुत बडा सम्बन्ध है। अवसरवादिता, आदर्शों में लचीलापन, समझौते बुढापे की निशानी हैं।
वह हैरान थी, आज पहली बार है जब वह अपनी ही कहानी अपने आपको पूरे विश्लेषण के साथ सुना रही थी। अब तक मौका ही नहीं मिला, न मन इतना भुरभुरा हुआ था कभी कि छूने पर पाउडर बन जाये।
उसकी नजर फिर टीपॉय पर पडे ख़ुली बन्द चिट्ठियों के बण्डल पर गई।महिमा की भी तो चिट्ठी आई है, अगले महीने डयू है, मम्मी के जाने के बाद सबकी जचगी में जाने की अब उसकी डयूटी हो गई है। वही फालतू है न! वह फोन कर देगी। इस बार नहीं...वह लडक़ियों के साथ गोआ जूलोजीकल टूर पर जा रही है।
मन किया कि फोन कर महिमा को खूब झिडक़े, “हैं तो दो लडक़ियां,तीसरे की क्या जरूरत!” यूं भी सुबह से वह जो घर में खपती है। इसे तैयार करो, नाश्ता बनाओ, इसे खिलाओ। कभी रूठी सास को मना तो कभी बिगडे पति को। कभी ससुर की फरमाईश। छुट्टी के दिन भी वही सुबह छ: बजे उठ जाना और उठा लेना घर भर का जुआ कन्धों पर कोल्हू के बैल की तरह। उसकी यही लाडली सबसे छोटी बहना घर में सबसे बाद में नौ बजे उठती थी। वह भी तब जब पापाजी, हंस कर चिल्लाते कि लो भई कचौडी ज़लेबी लाया हूँ। तुम सब खालो। महिमा को सोने दो। तब वह कूद कर बिस्तर से उठती, दांतों पर दो बार ब्रश चलाती और नाश्ते की टेबल पर आ जाती थी। दो मिनट में। आज वही महिमा उसके टोकने पर आंखों में चमक भर के कहती है, “ ये सब प्यार भी तो कितना देते हैं। देखो सास ने ये सतलडा मंगलसूत्र बनवा के दिया है।”
इतने सारे ख्यालों ने उसे विचलित कर दिया है। वह दीवान से उठ आई है बालकनी में। नीचे अहाते में बच्चों ने मार कांय कांय मचा रखी है।एक झुण्ड क्रिकेट खेल रहा है, कुछ छोटी लडक़ियां स्टापू खेल रही हैं।
“ ए ऐ ये कोई बॉल है, ठीक से फेंक बे!”
“ चीटिंग, निम्मी तू कऽब से चीटिंग कर रही है। तेरा पैर छुल गया था लाईन से।”
ये शोर भला लग रहा है। छ: भाई बहनों वाला उसका घर ऐसी ही किचपिच से गुलज़ार रहा करता था। उन्हें खेलने बतियाने के लिये सहेलियों की जरूरत कम रहा करती थी।
आज नहाने में आलस कर गई थी वह। अभी शाम नहीं हुई है, नहा ही डाले। मां कभी धूप उतरने के बाद उसे नहाने नहीं देती थीं। जबकि वह छुट्टी के दिन हमेशा दो तीन बजा लेती थी नहाने में। उसने बाथरूम के आईने में देखा गरदन की त्वचा ढीली पडने लगी है। तीन गहरी रेखाएं दूर से दिखने लगी हैं। सिहर कर रोहिणी ने आंखें बन्द कर लीं। उसने ढेर सारा स्क्रब लिया और गरदन रगडने लगी। उसे याद आया सिनर्जी की रिंकलफ्री क्रीम अपने आज को कल में बदलिये फिर परसों क्या होगा? एक व्यंग्य मन में उभरा। उसे किसी का जुमला याद आया गैर शादीशुदा औरत बूढी नहीं होती ढलती नहीं है...वह सूखती है दीमक लगे पेड क़ी तरह। मन खट्टा होकर दिन का पूरा स्वाद कसैला करता उससे पहले ही उसने स्वयं को संभाला। छि: किसलिये स्वयं को नकारना?
उसने अगर सोचा है कि वह ग्रेसफुली बिना फ्रस्ट्रेशन के बुद्ढी होगी तो बस वही फाईनल। कल से ये सब हटा देगी। नो हेयर कलरिंग, नो सनस्क्रीन, नो मास्क नथिंग। ढेर सारी पेस्टल शेड्स की साडियां पहनेगी।सारी अगडम बगडम गोल्ड ज्वैलरी जो मां उसी के पैसों से बनवा कर छोड ग़ई थीं, बेच बाच कर डीसेन्ट पर्ल्स और सॉलिटेयर डायमण्ड्स पहना करेगी।
उसने कस कस कर बदन रगडा, कोहनियां, एडियां और चेहरा बिना दुबारा आईने में देखे बाहर निकल आई। कल यह कमबख्त आईना ही बाथरूम से उखडवा देगी। बाहर आकर पैरों पर हाथों पर हैण्डलोशन मल कर उसने बाथरोब उतार दिया फिर सामने ड्रेसिंग टेबल शरीर के खुले हिस्से की बनिस्पत शरीर का ढका हुआ हिस्सा अभी इतना ढला नहीं है।सारे अवयव अपनी जगह पर हैं। कसे हुए। फिर अपने आप पर मुग्ध होने ही लगी थी कि लौटती धूप में दीवार पर पडती अपनी बौनी और मोटी होती अपनी ही परछांई देख फिर सिहर गई।ड्रेसिंग टेबल पर रखी रंग बिरंगी शीशियों में से एन्टीसेल्यूलाईट बॉडी लोशन निकाल देह पर चुपड लिया। अपना मूड ठीक करने के लिये नारंगी रंग का ब्राईट सलवार कुर्ता निकाल कर पहन लिया। बाल फैला लिये।
अब? चार बज गये थे। रोहिणी ने अखबार उठा लिया। उठ कर धूप के एक टुकडे क़े केन्द्र में में आ खडी हुई। अहाते और फिर सडक़ पर कोलाहल जारी था। बच्चों के झुण्ड, स्कूटर - कार टेक्सियों में भर भर कर आते जाते लोग। उसे ईष्या हुई। कहां आते जाते होंगे ये लोग।अपनों से मिलने मिलाने। सपरिवार छुट्टी बिताने।
कॉलेज में व्यस्त रहती है तो नौ से चार बजे तक पता ही नहीं चलता।क्लासेज, फ़िर प्रेक्टिकल्स स्टाफरूम रोज क़ोई न कोई आयोजन कभी साईन्स फेयर कभी ये कॉम्पीटिशन कभी वो इसीलिये वह प्रिन्सीपल को किसी एक्स्ट्राकैरिक्युलर एक्टिविटी में इनवॉल्व करने के लिये मना नहीं करती। चाहे वह ड्रामा या डान्स ही क्यों न हो। कुछ नहीं तो लैब में बैठकर स्लाईड्स तैयार करने में लैबअसिस्टेन्ट की मदद भी कर देती है।तब फार्मलीन की स्थायी रूप से बस गई गन्ध भी इस भीषण एकान्त से भली लगती है।
वह फिर अन्दर आकर तकिये पर गीले बाल फैला पसर गई। बालों में से आती शैम्पू की गंध उसे नई लगी। दुपटट्ा बगल में रखा था, नीचे गले के कुर्ते में से ताम्बई त्वचा का उठान दिख रहा था, उसने अपनी इस अस्तव्यस्तता को ठीक नहीं किया, बल्कि वहां बार बार बार देखना अच्छा लग रहा था। साथ ही उसे सुबोध के सीने के बाल याद आ गये।देह मीठे रस से सराबोर हो गयी। न जाने कब उसकी आंख मुंदी वह सो गयी। उठी जब काशीबाई आई।
“ बर्तन मांज लो बस। आज खाना मैं बाहर खाऊंगी।”
ड्रेसिंगटेबल पर रखी बॉटल्स में से उसने अपना मनपसन्द आकर्षक चेहरा निकाला लगा लिया। नाहिद के घर जाते हुए टैक्सी में वह बहुत कुछ सोच रही थी।
'सबसे पहले अब वह कार लोन के लिये एप्लाय करेगी।
' बहुत दिनों बाद आज नाहिद के कुक के हाथ के सीख कबाब खाने को मिलेंगे।
' नाहिद का हस्बैण्ड है हैण्डसम....बडी रुचि लेकर बात करता है। आखिर है भी तो आर्मीऑफिसर।
'नाहिद कितना कहती है, “मेरी पर्सनल पार्टीज में तो आ जाया कर। हैं कुछ क्रोनिक बैचलर भी हमारे युनिट में।” ऐसी बात पर वह चिढ क़र कहती थी -सीधे सीधे कह न हण्ट पर आ जा।
उसने टैक्सी एक बुक शॉप पर रोकी, पास के फ्लोरिस्ट से ढेर सारे फूल लिये, फिर अन्दर उसे लैडी चैटरलीज लवर दिख गई उसने खरीद कर पर्स में डाल ली, मुडक़र एक ढीठ मुस्कान के साथ टैक्सी में जा बैठी।सूखे हाथों पर एक बार फिर हैण्डलोशन मला, कॉम्पेक्ट का एक स्ट्रोक चेहरे पर लगाया सडक़ पर बाहर देखने लगी। कैन्टोनमेन्ट पहुंचने के संकेत मिलने लगे थे।