बौने नेता और लार्जर दैन लाइफ छवि / जयप्रकाश चौकसे

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
बौने नेता और लार्जर दैन लाइफ छवि
प्रकाशन तिथि : 22 नवम्बर 2012


जर्मनी की लेनी रीफेंस्थाल ने हिटलर के उदय के समय उनकी एक रैली और जनसमूह को किए गए संबोधन का फिल्मांकन किया था और संपादन तथा पुन: ध्वनि मुद्रण के बाद उस वृत्तचित्र का प्रभाव विलक्षण था। एक शॉट में भाषण देते छोटे कद-काठी के हिटलर के पीछे सूर्य है और उनकी विराट छाया व्यापक क्षेत्र तक जाती दिखती है। शायद विश्व सिनेमा में पहली बार लार्जर दैन लाइफ प्रस्तुतीकरण किया गया था। पाश्र्व संगीत और अन्य सिनेमाई तकनीक के द्वारा हिटलर को धरती पर उतरे अवतार की तरह प्रस्तुत किया गया।

हिटलर अत्यंत प्रसन्न हुए और लेनी रीफेंस्थाल को १९३६ में आयोजित बर्लिन ओलिंपिक की अधिकृत वृत्तचित्र बनाने वाली फिल्मकार घोषित किया गया। लेनी ने अनेक कैमरों और तकनीशियनों को निर्देश देकर एक लाख तीस हजार फीट शूट किया और अठारह महीनों के परिश्रम के बाद 'ओलंपिया' नामक वृत्तचित्र दो भागों में प्रदर्शित किया। पहला भाग १०० मिनट का है और दूसरा १०५ मिनट का है। लेनी ने शूटिंग के समय रिकॉर्ड की गई ध्वनि को केवल मार्गदर्शन के लिए रखा और नया ध्वनिपट स्टूडियो में रिकॉर्ड किया, जिस कारण सिनेमाघर में दर्शक धावकों की श्वास को सुन सकता है। गोताखोर का पानी की सतह के नीचे जाने का प्रभाव ऐसा है, मानो मनुष्य शरीर हवा में आकृतियां गढ़ रहा है और पानी के भीतर पेंटिंग कर रहा है। दरअसल कुछ सिनेमाशास्त्री इस पुन: ध्वनि मुद्रण के कारण इसे शुद्ध वृत्तचित्र नहीं मानते। लेनी ने इसे इस ढंग से संपादित किया कि जर्मन खिलाड़ी सबसे अधिक गतिवान और शक्तिशाली दिखते हैं, जिस कारण उन पर नाजी प्रचारक होने का आरोप भी लगा और तानाशाह हिटलर के पतन के बाद पचास अदालतों में उन पर मुकदमे चले।

सिनेमा का राजनीति में प्रयोग विविध देशों में हुआ है। रूस और अन्य कम्युनिस्ट देशों में फिल्में प्रचार का सशक्त माध्यम रही हैं, परंतु इन देशों में उच्च कलात्मक मूल्यों वाली क्लासिक फिल्में भी बनी हैं। अमेरिका में ऑलिवर स्टोन ने श्रेष्ठ राजनीतिक फिल्में बनाई हैं। अकिरा कुरोसावा ने जापानी सांस्कृतिक विरासत को अपनी फिल्मों में जीवंत किया है। अनेक भारतीय फिल्मकारों ने भी गांधीजी और भारत के मूल्यों से प्रेरित अनगिनत फिल्में बनाई हैं।

बहरहाल, गुजरात में नरेंद्र मोदी द्वारा ३डी विधा में स्वयं के प्रचार की पहल की गई है और सिने टेक्नोलॉजी उन्हें लार्जर दैन लाइफ रूप में प्रस्तुत कर रही है। इसके साथ ही राजनीतिक प्रचार के लिए एक चैनल के विकास की भी खबरें हैं। टेक्नोलॉजी की सहायता से एक ही समय में अनेक शहरों में उनकी लार्जर दैन लाइफ छवि लोगों को दिखाई जा रही है। जिस तरह हजारों गोपियां रास के समय महसूस करती थीं, मानो श्रीकृष्ण सभी के साथ मौजूद हैं। कैमरा सच बोलता है, परंतु ट्रिक के द्वारा कैमरे से झूठ भी प्रचारित किया जा सकता है। इस पूरे प्रचार में व्यय राशि का आकलन अलग-अलग दल अपनी सुविधानुसार प्रचारित कर रहे हैं।

दरअसल अगर सारे दल आपसी सहमति से यह तय करें कि मौजूदा सीटों के अनुरूप दलों को दूरदर्शन और प्राइवेट चैनलों पर सरकार समय खरीदकर देगी तथा चुनाव प्रचार केवल अखबार, सिनेमा और टेलीविजन के माध्यम से ही होगा तो प्रायोजित रैलियों इत्यादि में देश की ऊर्जा नष्ट नहीं होगी, ध्वनि प्रदूषण से भी देश बचेगा और चुनाव के समय सड़कों पर सामान्य परिवहन में देरी से भी आम जनता बच जाएगी। टेक्नोलॉजी का प्रयोग आम जनता करती है, तो उसी जनता को इसी माध्यम से संबोधित क्यों नहीं किया जा सकता? जब सारे प्रत्याशी अपने अदृश्य गुणों और नीतियों की बात करते नहीं अघाते तो इसी हकीकत को सिनेमाई लार्जर दैन लाइफ छवियों द्वारा प्रचारित करने में क्या हर्ज हो सकता है? तानाशाह जिसे इस्तेमाल कर सकते हैं, उसे डेमोक्रेट क्यों नहीं प्रयोग में ला सकते?

दक्षिण भारत में चुनाव प्रचार के लिए कथा फिल्में अन्नादुरई के उद्भव के समय से बनाई जा रही हैं। दक्षिण के सभी सुपर सितारे किसी न किसी राजनीतिक दल से जुड़े हैं और उनके फिल्मी संवाद भी राजनैतिकता से सराबोर रहते हैं। गांधीजी ने १९४२ में भारत छोड़ो आंदोलन का आगाज किया और उस दौर की अनेक फिल्मों में कोई न कोई पात्र किसी न किसी बहाने 'कमरा छोड़ो' या 'वापस जाओ' इस ढंग से बोलता था कि सिनेमाघर में बैठे दर्शक जानते थे कि इस संवाद का अर्थ 'भारत छोड़ो' ही है और तालियों से हॉल गूंज उठता था।

कल्पना कीजिए कि प्रमुख दल प्रमुख सितारों को अनुबंधित करके चुनाव पूर्व राजनीतिक प्रचार की कथा फिल्में बनाएं तो मतदाताओं पर क्या प्रभाव पड़ सकता है। सितारे भी बिना किसी राजनीतिक सिद्धांत से जुड़े इस तर की फिल्में व्यावसायिक कलाकार होने के नाते कर सकते हैं। अगर मत देने और मतगणना में टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल होता है तो चुनाव प्रचार में क्यों नहीं? इस समय सभी दलों में बौने कद के नेता मौजूद हैं तो लार्जर दैन लाइफ छवि क्यों न गढ़ें? मेकअप के विशेषज्ञों की सेवा क्यों न लें? जब सारे मुखौटे ही मैदान में हैं तो युद्ध भी छाया संसार में होना चाहिए।