ब्यूटी पार्लर / रेखा राजवंशी
सिडनी की ये सुबह कितनी सुहानी थी। न जलाने वाली गर्मी थी, न ठिठुराने वाली सर्दी और न ही तेज़ हवा थी। मौसम बस परफेक्ट था। ट्रैक पैन्ट्स और स्नीकर पहन कर सुबह की सैर के लिए निकल पड़ी। घर में कोई था ही नहीं, आज का दिन मेरा पूरा अपना था। कभी-कभी प्रोजेक्ट के सिलसिले में अजय को न्यू कासल जाना होता था और उस दिन अक्सर मैं अपने बचे खुचे काम निबटाने की कोशिश करती थी। खासकर मेरे अपने पर्सनल काम। जैसे दोस्तों से कॉफ़ी पर मिलना और गपियाना, या झाड़ की तरह बढ़ती हुई आई ब्रोज़ की थ्रेडिंग, वैक्सिंग या फिर दो घंटे का रिलैक्सिंग फेशियल करवाना। और जब से कुलजीत का मोबाइल ब्यूटी पार्लर खुला है, तब से जब खाली समय मिलता है तो मैं उसे बुला लेती हूँ।
मैंने कुछ सोच कर कुलजीत को फ़ोन मिलाया। उधर से कुलजीत की चहकती हुई आवाज़ आई - "दीदी, मैं आपको याद ही कर रही थी। "
मैंने हँसते हुए पूछा- "आखिर क्यों ?"
कुलजीत बोली, " दीदी, याद कीजिये आज से एक महीने पहले आपने थ्रेडिंग करवाई थी, तो सोच ही रही थी कि आप बुलाने वाली होंगी। है न? "
बिना बात बढ़ा मैंने कहा -" ग्यारह बजे आ सकती हो?"
"क्यों नहीं दीदी, आप कहें और मैं न आऊँ? मिलती हूँ आपसे ग्यारह बजे।" कह कर उसने फ़ोन रख दिया।
गोरी-चिट्टी पतली-सी कुलजीत कैसे अपने ब्यूटी पार्लर का सामान लिए आती है और कैसे चटर-पटर बातें करते-करते जाने कैसे सबका मन मोह लेती है। उम्र शायद तीस साल के आस पास हो। मेरे घर तक वह बस से आती है। एक बार उसने बताया कि उसे ऑस्ट्रेलिया आए नौ महीने हुए हैं। उसकी डेढ़ साल की छोटी-सी गोल-मटोल बेटी है जिसका नाम है करिश्मा। अभी शादी के तीन साल ही हुए हैं। उसका पति सतिंदर सात साल पहले ऑस्ट्रेलिया पढ़ने आया था, रेस्टोरेंट की नौकरी अच्छी नहीं लगी तो अब रात को टैक्सी टैक्सी चलाने लगा। छह सात सौ डॉलर हर हफ्ते कमाने भी लगा। वीज़ा की औपचारिकता पूरी होते ही अपनी पत्नी कुलजीत को यहाँ बुला लिया। कुलजीत के आने से पहले तक अजय हैरिस पार्क की एक यूनिट में शेयरिंग में रह रहा था परन्तु अब एक बैडरूम की पुरानी-सी यूनिट पैरामैटा में किराए पर ले ली थी। कुछ अधिक नहीं पर गुज़ारा हो ही जाता था।
दिन में कुलजीत भी बच्ची को उसके पास छोड़ एक दो क्लाइंट्स ढूँढ ही लेती है। कुछ नहीं तो उसका कुछ जेब ख़र्च ही निकल आता है।
मैं सैर पूरी करके घर पहुँची। घर में बिखरी चीज़ों को समेटा, एक कप ब्लैक टी के साथ टोस्ट बनाया। कंप्यूटर पर रिलैक्सिंग मैडिटेशन म्यूजिक लगा मैं बाहर पड़ी कुर्सी पर आ बैठी। बालकनी के नीचे गार्डन में लगे बड़े-बड़े लाल गुलाब कितने खूबसूरत थे, ये बात अलग कि इनकी ख़ुशबू भारत के गुलाबों के सामने फीकी थी। पापा के बंगले में लगे बेले और हरसिंगार याद आ गए, कितना अच्छा लगता था नारंगी डंडी वाले सफ़ेद हरसिंगार चुनना, बेले के फूल तोड़कर माँ के लिए गज़रा बना देना। यहाँ हरसिंगार तो कहीं नहीं दिखता पर बहुत से अलग तरह के देशी फूल ज़रूर दिखाई देते हैं। कई बार बहुत इंटरेस्टिंग होता है उनकी पंखड़ियों और बनावट को देखना। मुझे सड़क के किनारे लगे बॉटल ब्रश या गोल्डन वाटल, क्यारियों में खिले बड़े-बड़े लाल गुलाबी वाराटाह, लिली या कंगारू पॉ (पंजे) बहुत लुभाते। सबसे अच्छा लगता झाड़ियों में खिला चिड़ियों की तरह दिखने वाला फूल जिसे लोग 'बर्ड ऑफ़ पैराडाइस' कहते हैं ।
कुछ देर में बाहर से उठ कर अंदर आ गई और टी वी चला दिया। चैनल सेवन पर मॉर्निंग शो चल रहा था, थोड़ी-सी पॉलिटिक्स, थोड़ा-सा मौसम का हाल और बहुत सारी बेकार की छोटी मोटी बातें। लगा, ऑस्ट्रलियन्स का सेन्स ऑफ़ ह्यूमर बहुत अच्छा है। वे अपने मंत्रियों का मज़ाक बनाने से भी नहीं चूकते। देख ही रही थी कि दरवाज़े की घंटी बजी।
'ओह ग्यारह बज गए' दौड़ कर दरवाज़े तक पहुँची।
'हैलो दीदी'- चहकती कुलजीत की आवाज़ सुनाई दी।
'कैसी हो? - मैंने फेशियल करते करते पूछा।
'मुझे और क्लाइंट्स मिल गए हैं, जल्दी ही हम टू बैडरूम यूनिट में मूव हो जाएँगे और मैं अपने घर में पार्लर खोल लूंगी।'
उसकी आवाज़ में ख़ुशी थी।
मुझे अच्छा लगा। कोई भी जब ऑस्ट्रेलिया आता है, उसे स्ट्रगल तो करना ही पड़ता है। माइग्रेशन की भी प्रक्रिया होती है। रेंटल यूनिट, ड्राइविंग लाइसेंस से लेकर नौकरी तक सब धीरे धीरे ही संभव हो पाता है।
कुलजीत हर महीने मेरे पास आती और मुझे उसकी प्रोग्रेस रिपोर्ट मिलती रहती। मेरी ज़िन्दगी नौकरी, घर, अजय और मित्रो के साथ काफ़ी बिजी थी।
तीन महीने बाद ही उसका फ़ोन आया कि अब उसने दो बैडरूम यूनिट किराए पर ले ली है और एक कमरा उसने पार्लर बना दिया है।
'प्लीज़ दीदी, आप यहाँ आइये और अपने फ्रेंड्स को भी बता दीजिये। '
'बधाई, ज़रूर बताऊँगी' - मैंने उसे आशवस्त किया।
अगले महीने जब उसका फ़ोन आया तो मैं अपॉइंटमेंट बुक करके उसके घर गई। पैरामैटा के इस सबर्ब में सड़क के किनारे अनेक बड़ी-बड़ी बिल्डिंग्स थीं, देखते-देखते पुराने घर यूनिटों में बदल गए थे। लोग बढ़ गए थे, बहुत से विद्यार्थी थे जो दो या तीन कमरे की यूनिट में एक साथ रह रहे थे। किसी-किसी अपार्टमेंट में तो दस बारह विद्यार्थी एक साथ रहते थे। लड़कियाँ भारतीय रेस्त्रां में काम कर रही थीं। तीसरे फ्लोर पर कुलजीत के घर पहुँचकर घंटी बजाई तो चहकती हुई कुलजीत ने दरवाज़ा खोला। उसके पार्लर वाले कमरे की तरफ़ बढ़ी तो उसकी अभिरुचि से प्रभावित हुई।
'घर बहुत अच्छा डेकोरेट किया है कुलजीत' - मैंने कहा।
'सब कुछ आप जैसे लोगों से ही सीखा है' - वह बोली।
अच्छा लगा कि एक युवा परिवार सेटल हो रहा है। ठीक ही है, यहाँ सब एक बराबर हैं। भारतीय वैसे भी मेहनती होते हैं, जल्दी ही घर भी खरीद लेते हैं। साल दो साल में सब कुछ अच्छा हो जाएगा सोचकर तसल्ली हुई।
अच्छा लगा कि एक युवा परिवार सेटल हो रहा है। यहाँ सब एक बराबर हैं। भारतीय वैसे भी मेहनती होते हैं, जल्दी ही घर भी खरीद लेते हैं। साल दो साल में सब कुछ अच्छा हो जाएगा सोचकर तसल्ली हुई।
सब कुछ वैसा ही चल रहा था कि एक दिन टी वी न्यूज़ ने मुझे चौका दिया 'एक इंडियन ड्राइवर को कल रात सिटी में कुछ लड़कों ने छुरा मार दिया और वह क्रिटिकल हालत में अस्पताल में भर्ती है। उसके परिवार में दो साल की बच्ची और पत्नी है।' अचानक मुझे कुलजीत का ध्यान आया, ओह ये क्या हुआ? मेरा दिमाग़ भन्ना गया। दौड़ कर गई और कुलजीत को फ़ोन किया - 'कुलजीत आर यू ओके ? मैंने टी वी में अभी देखा'
'दीदी, ये क्या हो गया' - रोते हुए उसने कहा। उसके स्वर में घबराहट और असहायता थी।
'घबराओ मत, मैं अभी आती हूँ, मुझे हॉस्पिटल के डिटेल्स बताओ' - कहते कहते ही मैंने जूते पहने, पर्स उठाया और गाड़ी की चाबी ली। वेस्टमीड प्राइवेट मेरे घर से बीस मिंट दूर था। कैसे हो गया ये सब सोचते-सोचते मैं हॉस्पिटल पहुँची। बच्ची को गोद लिए कुलजीत आई-सी यू के बाहर बैठी रो रही थी। उसके पास उसकी सहेली और सतिंदर के कुछ मित्र थे, जो बराबर उसे सांत्वना दे रहे थे। सतिंदर की हालत क्रिटिकल थी, डॉक्टर उसे बचने की कोशिश कर रहे थे। सीने पर चाकू से वार किये गए थे।
पता चला जब सतिंदर चार नशे में धुत्त लड़कों को अपनी टैक्सी में लेकर चला तो वे रेसिस्ट कमैंट्स करने लगे, सतिंदर ने थोड़ी देर तक सहन किया। उसने बस एक बार कहा 'प्लीज माइंड योर लैंग्वेज' तो लड़के गलियाँ देने लगे और बोले 'यू ब्लडी इंडियन, गो बैक टू योर कंट्री। यू बेगर। ' सामने की सीट पर बैठे लड़के ने उसे धक्का दिया।
सतिंदर ने टैक्सी किनारे रोक दी और लड़को से उतर जाने की रिक्वेस्ट की। बस इतनी-सी बात थी कि उन्होंने उसे धकेल कर नीचे गिरा दिया, जाने कैसे एक लड़के ने छुरा निकाल लिया और उसके सीने, पेट पर अनगिनत वार कर दिए और भाग निकले। किसी अन्य ड्राइवर ने पुलिस को फ़ोन किया और उसे हॉस्पिटल की इंसर्जेन्सी में लाया गया।
अब वह ज़िन्दगी और मौत के बीच झूल रहा था।
कुलजीत और उसकी दो साल की बच्ची का भविष्य सोच कर मैं पूरी तरह हिल गई, समझ नहीं आया कि कैसे एक रात में सारी चीज़ें बदल गईं। उसे गले से लगाया तसल्ली दी और घर चली आई।
घर पहुँच कर भी मन अनमना रहा, दिमाग़ वहीँ अटका रहा। हालांकि ऑस्ट्रेलिया मल्टीकल्चरल देश है और यहाँ साथ से भी ऊपर देशों के लोग रहते हैं पर यदा-कदा ऐसी घटनाएँ हो जाती हैं। बड़े पदों पर प्रमोशन की बात हो तो काम क्वालिफिकेशन वाले ऑस्ट्रेलियन को ही नौकरी मिलती है। परन्तु सामान्यतः ऑस्ट्रेलियन शांतिप्रिय हैं। मैं कुलजीत की मित्र का नंबर ले आई थी तो बराबर टच में थी, शाम होते न होते पूरे भारतीय समुदाय में ख़बर के साथ रोष भी फ़ैल गया था। उसके मित्रो ने फ़ेसबुक पेज बनाया था 'सेव सतिंदर' और लोग बराबर प्रार्थना कर रहे थे कि सतिंदर ठीक हो जाए। उसकी यंग फॅमिली से सबको सहानुभूति थी। रात में मैं अजय के साथ कुलजीत से मिलने गई तो काफ़ी लोग अस्पताल के बाहर थे। सतिंदर के मित्रो के अलावा कुलजीत के पार्लर की क्लाइंट्स भी उसे तसल्ली दे रही थीं। पता चला कि कुलजीत और सतिंदर के परिवार के सदस्य भी शीघ्र पहुँचने वाले हैं। मैंने कुलजीत को गले से लगाया, तसल्ली दी और चली आई। बड़ी मुश्किल से नींद आई थी, करीब तीन बजे फ़ोन की घंटी बजी। कुलजीत की दोस्त का फ़ोन था - "दीदी, सतिंदर इज़ नो मोर। डॉक्टर्स उसे बचा नहीं पाए। "
इतना बता कर उसने फ़ोन बंद कर दिया।
उसने एक लिंक फॉरवर्ड किया जिसमें सतिंदर की बॉडी को इंडिया और कुलजीत को इंडिया भेजने के लिए एक लाख डॉलर इकट्ठे करने थे। ऐसे समय में कौन साथ नहीं देता, हमने भी जितना संभव था डोनेट किया और जल्द ही पैसा इकठ्ठा हो गया। मैं समझ नहीं पा रही थी कि इतनी जल्दी क्या से क्या हो गया। छह बजे ही कुलजीत के पास जा पहुँची। रोती-सिसकती कुलजीत को गले से लगाया, उसकी सूजी लाल आँखे देख मन व्यथित हो उठा। उसे तो अपना होश ही नहीं था, उसके सारे सपने जैसे काल की भेट चढ़ गए थे। बच्ची को कुलजीत की माँ संभाल रहीं थीं, ऐसे में माँ से बड़ा सहारा कौन हो सकता था।
इंडिया में अंतिम संस्कार हुआ, पुलिस ने चारों लड़कों को अरेस्ट कियाऔर सजा सुनाई। जिस लड़के ने छुरा मारा था उसे बीस साल की जेल हुई अन्य लड़कों को भी कुछ साल और महीने की पेनेल्टी दी गई।
बाद में पता चला कि कुलजीत तीन महीने बाद अपने भाई के साथ सिडनी आई और दो हफ़्तों में सब कुछ समेट कर पंजाब वापस चली गई। किसी को फ़ोन नहीं किया न ही किसी से मिली। कभी नहीं देखा था कि सपने ऐसे मर जाते हैं।
आज भी जब उसकी यूनिट के पास से गुज़रती हूँ, तो उसकी चहकती हुई आवाज़ को याद करती हूँ -"दीदी, कभी आओ न मेरे पार्लर पर।"