ब्रह्महत्या / शशिभूषण द्विवेदी

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इधर मैं एक गहरे अंतर्द्वंद्व में हूँ। इस अंतर्द्वंद्व का कारण और कुछ नहीं मेरा एक सपना है जो कुछ दिनों से लगातार मेरी नींद हराम कर रहा है। सुबह उठता हूँ तो लगता है कि जैसे शरीर में जान ही नहीं रही, हाथ-पैर काँपने लगते हैं। स्नावयिक शक्ति क्षीण पड़ती जा रही है। कुछ भी याद नहीं रहता। छोटी-छोटी बातें तक भूल जाता हूँ। भूख लगती नहीं। सर में हमेशा दर्द रहता है। लगता है जैसे कोई भारी बोझ मेरे सिर पर रखा हुआ है और मैं कभी भी इस बोझ के नीचे कुचलकर मर जाऊँगा।

सपना आता है तो डर लगता है और नहीं आता तो डर और भी बढ़ जाता है। सोचता हूँ खुदा न खास्ता सपने की बात अगर कहीं सच हो गई तो क्या होगा। जेठ की भरी दुपहरी में यही सब सोचकर कँपकँपी छूट जाती है। तंत्र-मंत्र, व्रत-उपवास सब करके देख लिए, कुछ हल नहीं निकला।

सपना जब आता है तो मैं एक दूसरी ही दुनिया में चला जाता हूँ जहाँ कहीं कोई जमीन नहीं है। सिर्फ बादल हैं और बादलों पर तैरती हुई मृतात्माएँ... इतिहास पुरुष भी जिनके किस्से कहानियाँ हम अक्सर इतिहास की किताबों में पढ़ते थे या जिनके चित्र देखकर हमारा सीना गर्व से चौड़ा हो जाता था। वे सब जो हमारी कल्पनाओं में थे या कल्पनाओं के बाहर, एकाएक सपनों में तैरने लगते हैं।

सपनों में जहाँ कोई जमीन नहीं है वहीं दंडाधिकारी अपनी गुरु गंभीर आवाज में हम सबके कर्मों का लेखा-जोखा सुना रहे हैं। किसने कितने पाप किए, किसने कितने पुण्य? ...हर क्षण का हिसाब है! मृतात्माएँ रो रही हैं, गिड़गिड़ा रही हैं। बड़ा ही वीभत्स दृष्य है। एक तरफ लोगों के शरीरों से चमड़ी उधेड़ी जा रही है तो दूसरी तरफ तेल के खौलते कड़ाहे में लोगों को पकड़कर डाला जा रहा है। लोग बिलबिला रहे हैं। मैं यह सब देखकर काँप जाता हूँ कि अचानक एक वीभत्स-सी छाया हाथ में लाल जलती सलाखें लिए मेरी ओर बढ़ती है। मैं भागने को होता हूँ कि चार-पाँच बलिष्ठ छायाएँ मुझे पकड़ लेती हैं। दंडाधिकारी कह रहे हैं कि मैंने दुनिया का सबसे जघन्य पाप किया है कि मैं ब्रह्महत्या का दोषी हूँ!

मेरा अपराध सिद्ध हो जाता है। अपने भैंसे पर बैठे धर्मराज मुझे मेरा दंड सुनाते हैं। महाराज चित्रगुप्त एक कुटिल मुस्कान के साथ अपना बही-खाता बंद कर रहे हैं। हाथ में जलती सलाखें लिए वह वीभत्स छाया एक बार फिर मेरे निकट आ जाती है। गर्म जलती सलाखें मेरी आँखों में घुसेड़ी जा रही हैं। फिर उसी से मेरे पेट में छेद किया जाता है। आँतें बाहर... गुर्दे से खून चू रहा है। मैं चीखने को होता हूँ तो चीख नहीं पाता। जुबान तालू से सिल गई है। मैं कुछ देख नहीं सकता... बोल भी नहीं सकता। कान में पिघला हुआ शीशा उड़ेल दिया जाता है। अब मैं कुछ सुन भी नहीं सकता। मेरा पूरा अस्तित्व चीख-चीखकर विरोध कर रहा है मगर मेरा विरोध कहीं दर्ज नहीं होता। मैं एक साथ अंधा, गूँगा, बहरा सब बना दिया गया हूँ।

तभी एक आकाशवाणी होती है और कहती है कि 'तूने निषिद्ध को देखा, निषिद्ध को सुना, निषिद्ध को किया - ले अब उसका परिणाम भोग!'

यह सपना मेरे लिए रोज का किस्सा है। एक मनोचिकित्सक से राय ली तो उसने कहा कि मेरे अवचेतन में कहीं कोई अपराधबोध है जो निरंतर मेरे सपनों में प्रस्फुटित हो रहा है। अवचेतन में अपराधबोध... क्या सचमुच? नहीं... ऐसा नहीं हो सकता। मैंने कभी किसी का बुरा नहीं किया। यहाँ तक कि कभी किसी का बुरा सोचा भी नहीं।

कभी-कभी बिना सोचे ही बहुत कुछ हो जाता है। जैसे यही कि बिना कुछ सोचे इस वक्त मैं अपने कंप्यूटर पर बैठा हूँ। पासवर्ड डालते ही कंप्यूटर में पीं-पीं की आवाज होती है। मेरी फाइल मेरे सामने है। बटन दबाते ही मेरा बायोडाटा आता है। मेरा नाम... कद-काठी समेत स्वास्थ्य संबंधी तमाम विवरण इसमें दर्ज हैं। एक-एक कर मैं उन सबको पढ़ना शुरू करता हूँ। मुझे लगता है कि मैं यह सब किसी और के बारे में पढ़ रहा हूँ। इस पूरी आँकड़ेबाजी में मैं कहाँ था? मैं सोचने लगता हूँ। कुछ याद नहीं आता। मैं अपना हाथ हवा में हिलाता हूँ और अपने सिर का एक बाल नोंच लेता हूँ। जिस समय मैं अपने सिर का वह बाल नोंच रहा था ठीक उसी समय कंप्यूटर पर एक 'डायलॉग बॉक्स' उभरता है जो मुझसे पूछता है कि क्या मैं अपनी वंशावली के बारे में कुछ जानना चाहता हूँ? मैं अनचाहे ही 'यस' क्लिक कर देता हूँ। शायद मेरे सिर से नोंचे हुए बाल और मेरी इस वंशावली में कहीं कोई अंतरंग और गूढ़ संबंध है... क्या पता? कंप्यूटर स्क्रीन पर मेरा वंशवृक्ष उभर आया है। मैं इस वंशवृक्ष को पढ़ता हूँ। पढ़ता नहीं बल्कि देखता हूँ। यह देखना कुछ अलग तरह से देखना है। जैसे इतिहास में सोलोमन की तलवार को देखना या नोआखोली के वीराने में गांधी की लाठी को देखना। कुछ वैसे ही जैसे स्वप्न में मैं मृतात्माओं को देखता हूँ।

स्वप्न में मृतात्माओं को देखना क्या सोलोमन की तलवार या गांधी की लाठी को देखने जैसा होता है? क्या पता... फिलहाल तो मैं एक फटेहाल सा घर देख रहा हूँ जहाँ के लोग कभी अन्न को तरसते थे।

यह सन 40-45 के आस-पास की बात है। कंप्यूटर की इबारत बताती है कि उस समय हिंदुस्तान की आबादी भी कोई चालीस-पचास करोड़ के आस-पास ही थी। उनमें कितने ब्राह्मण, कितने क्षत्रिय, कितने बनिया और कितने शूद्र थे... यह ठीक-ठीक कंप्यूटर को नहीं पता। कंप्यूटर के पास तो उस वक्त के इतिहास की कुछ ब्यौरेवार जानकारियाँ हैं जैसे हिटलर और गांधी की कद-काठी में कितना अंतर था या चर्चिल की सिगार का नाप क्या था? द्वितीय विश्वयुद्ध के पहले रूजवेल्ट की परेशानी और उसके न्यू-डील कार्यक्रमों का भी यहाँ जिक्र है लेकिन उस सबसे मेरी समस्या हल नहीं होती। इससे भी नहीं कि सन 1932 में गांधी और आंबेडकर के बीच क्या-क्या बातें हुईं और उसमें किस तरह गांधी ने सवर्णों का पक्ष लिया। हालाँकि जिस सपने का मैंने जिक्र किया है उसका संबंध कहीं-न-कहीं इन तमाम उलजुलूल बातों से भी है लेकिन फिलहाल तो कहानी की माँग है कि मैं आपसे सन 40-45 के उसी फटेहाल से घर में ले चलूँ जहाँ के लोग कभी अन्न को तरसते थे।

तो कंप्यूटर ने जो नक्शा दिया है उसके अनुसार यह घर अवध के एक बहुत पिछड़े हुए गाँव में था। इसके पिछड़ेपन का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि दुनिया जहान की बड़ी-से-बड़ी घटना की खबर भी यहाँ महीने भर बाद ही आती थी। यहाँ तक कि हिंदुस्तान की आजादी की खबर भी यहाँ महीने भर बाद ही आई थी। सिर्फ गांधीजी की हत्या की खबर ही एक ऐसी खबर थी जिसके बारे में कहा जाता है कि वह यहाँ अपने होने से पहले आ गई थी और इसको यहाँ लाने का श्रेय गया था पं. धर्मराज को जो उसी फटेहाल से घर में रहते थे जहाँ का यह किस्सा है।

उस समय इस घर की दीवारें यानी भीत मिट्टी की थी। हर साल बरसात में जितनी मिट्टी बहती उससे ज्यादा बाद में उस पर थोप दी जाती। इस तरह उस घर की भीत लगातार मोटी होती रही। उसके मोटापे का अनुमान आप खुद लगाइए। क्योंकि कंप्यूटर पर फिलहाल उसके बारे में कोई सूचना नहीं है।

सूचनाएँ जो हैं वे पं. धर्मराज के पिता पं. रामबदन के बारे में हैं जो अपने समय के पुराने रईस, जमींदार, अंग्रेजभक्त और शास्त्रज्ञ पंडित थे। अवध के इस पिछड़े गाँव में आने से पहले वे काशी में थे और सुना है कि महामना मालवीय जी के निकटतम सहयोगियों में गिने जाते थे। उस समय बनारस में काशी हिंदू विश्वविद्यालय की नींव पड़ रही थी। पंडित रामबदन नींव की ईंट थे।

नींव की ईंट कभी कंगूरा नहीं बनती सो पंडित रामबदन भी कंगूरा नहीं बन सके और एक दिन अचानक काशी छोड़कर अवध के इस पिछड़े हुए गाँव में आ गए। कंप्यूटर की सूचना बताती है कि उम्र के चालीसवें वसंत में पंडित रामबदन को एक पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई। इस अवसर पर सारे गाँव को सामूहिक भोज दिया गया, कांसे की थाली बजी (लड़के के जन्म पर इसे शुभ माना जाता था), नाच-गान हुआ और उत्सव मना।

पुत्र की अच्छी शिक्षा-दीक्षा की भी पंडित जी ने बहुत कोशिश की लेकिन धर्मराज को न पढ़ना था, न पढ़े। बचपन से ही उद्दंद और दुस्साहसी स्वभाव के पं. धर्मराज की मित्र मंडली भी बड़ी उटपटाँग थी। इसमें अहीर-चमार तो थे ही, हिजड़े भी बाहैसियत अपनी उपस्थिति दर्ज किया करते थे। सच तो यह है कि उस समय हिंदुस्तान की जो हालत थी, उसकी जानकारी भी उन्हें इन्हीं हिजड़ों के माध्यम से मिली।

हिजड़ों के पास कहानियों का कभी न खत्म होने वाला एक भंडार था और पं. धर्मराज के लिए उस वक्त कहानियों से बड़ा चमत्कार और कोई था नहीं। सो कहानियों के जरिए ही पं. धर्मराज ने दुनिया को देखा। उस दुनिया को जिसमें दुनियाभर की लंपटता और टुच्चापन था मगर उसके बीच कहीं-न-कहीं एक ख्वाब भी था... आजाद हवा में साँस लेने का ख्वाब... इस ख्वाब की खातिर ही लोग लड़ रहे थे और किस्से बन रहे थे।

जिस हिजड़े से पं. धर्मराज की घनिष्ठता थी उसका नाम था शबनम। हर कोई उसे शब्बो कहता। पं. धर्मराज भी। शब्बो के रंग-ढंग ही निराले थे। आम हिजड़ों की तरह वह गाली-गलौज नहीं करती थी, न किसी की थुक्का-फजीहत। जिससे जो मिल जाए उसे वह अपनी किस्मत मानती, न मिले तो खुदा का खौफ खाती। शब्बो की पूरी जिंदगी घूमते ही बीती थी। पं. धर्मराज से एक बार उसने कहा कि 'पंडित! जो न मर्द होते हैं न औरत... उनकी भी क्या जिंदगी होती है... बस, खानाबदोश की तरह घूमते रहो... कभी यहाँ तो कभी वहाँ... चारों ओर रोशनी की चादर लपेटे जैसे कोई जुगनू अँधेरों से लड़ता है, वैसे ही हम सब अपने आप से लड़ते हैं। वक्त जरूरत मर्द, औरत और क्या कुछ नहीं हो जाते हम... मगर वो कभी नहीं बनते जो हम सचमुच होते हैं।'

जब कभी शब्बो इस तरह की अनर्गल बातें करती पं. धर्मराज समझ जाते कि यह किसी नई कहानी की भूमिका है। कहानी जो शब्बो की जिंदगी, उसके दर्द से जुड़कर भी उससे बिल्कुल अलग होती। वह उसे ऐसे सुनाती जैसे वह सब किसी और के बारे में सुना रही हो। उस दिन भी उसने उसे ऐसे ही सुनाया था... एकालाप की तरह...

उसने कहा कि उसका जन्म एक बहुत ही बड़े घर में हुआ था। माँ-बाप सब खानदानी लोग थे। उसकी जाति क्या थी यह शब्बो ने नहीं बताया और न पंडित धर्मराज ने उससे पूछा। पूछने की शायद जरूरत भी नहीं थी क्योंकि जाति तो मर्दों की दुनिया का शब्द है। एक हद तक औरतें भी उसमें घुसपैठ कर लेती हैं लेकिन जो न मर्द होते हैं न औरत... उनकी जाति क्या और क्या वर्ण? खैर... तो शब्बो के अनुसार उसका जन्म एक बहुत बड़े खानदानी परिवार में हुआ था। बड़े लाड़-प्यार से पाला गया उसे। पहले तो किसी ने ध्यान नहीं दिया मगर धीरे-धीरे जब शब्बो बड़ी होने लगी तब उसकी माँ ने एक दिन गौर किया कि शब्बो का लैंगिक विकास सामान्य नहीं है। माँ के इस अन्वेषण से घर में भूचाल आ गया। शब्बो अब न लड़का थी न लड़की... पिता भरी जवानी में ही बुढ़ा गए। माथे की सलवटें इतनी गहरी हो गईं कि वे उसी में डूबकर रह गए।

उस वक्त शब्बो की उम्र थी दस वर्ष। अगले दस वर्ष उसने उसी गलदश्रु भावुकता के बीच गुजारे जिसमें मृत्युशैया पड़ा कोई रोगी अपनी बाकी जिंदगी गुजारता है। घर से बाहर निकलने की उसे पाबंदी थी और घर में किताबों का अकूत भंडार था। पिता चाहते थे कि वह लड़का बनकर रहे और माँ उसे लड़की बनाने पर उतारू थीं। यह एक अजीब सी कशमकश थी जिसने शब्बो को भीतर ही भीतर तोड़कर रख दिया (कुछ छिटपुट और बिखरी हुई सूचनाओं के अनुसार उसने एक-दो बार आत्महत्या का प्रयास भी किया था।)

यह जलियाँवाला हत्याकांड के बाद का समय था। गांधीजी ने असहयोग शुरू कर दिया था और हिंदुस्तान के तमाम शहरों में विद्रोह की चिंगारी दावानल बनकर भड़क उठी थी। इसी किसी समय शब्बो के माता-पिता की मृत्यु भी हो गई और वह घर छोड़कर कलकत्ता भाग आई। पंडित धर्मराज को शब्बो ने जो कहानी सुनाई वह दरअसल इसी कलकत्ते की कहानी थी जहाँ उसे एक अंग्रेज सार्जेंट जान राबर्ट मिला था और जिसने उसे भरपूर प्यार-दुलार और स्नेह दिया था।

यह कैसी विडंबना थी! शब्बो ने बताया कि एक रात पितातुल्य राबर्ट ने उसे अपनी बाँहों में भर लिया। किसी वहशी और हिंसक जानवर की तरह उसने उसके सारे वस्त्र फाड़ डाले और औंधे मुँह उसे अपने बिस्तर पर लाकर पटक दिया। फिर उस रात तरह-तरह के अप्राकृतिक यौनाचार का जो सिलसिला चला वह अगले कई दिनों तक बदस्तूर कायम रहा। इसमें बूढ़े राबर्ट से लेकर उसके तमाम कर्मचारियों और मित्रों की सक्रिय भागीदारी रही।

प्रेम और विद्रोह के कुछ बीज शब्द शब्बो को यहीं से मिले। दरअसल हुआ यह कि एक रात सार्जेंट राबर्ट अपने मित्रों के साथ शराब के नशे में धुत्त होकर आया। आते ही उसने शब्बो को अपनी बाँहों में भर लिया और कहा कि '...इट्स फैटल नाइट ...द स्टार हैज गान आउट... अ वूमेन इज पास्ड अवे एंड अ मंगूज हैज किल्ड अ स्नैक...'! (आज की रात कत्ल की रात है। आज एक तारा बुझ गया। एक औरत मर गई और एक नेवले ने एक साँप को डस लिया।)

शब्बो ने यह सुना और चुपचाप दूसरे कमरे में चली गई। उसे समझ नहीं आ रहा था कि यह सब क्या है और क्यों है? वह राबर्ट से इतना प्यार करती थी कि उसकी हद दर्जे की क्रूरता भी उसे स्वीकार्य थी लेकिन... उस रात जब शराब के नशे में धुत्त राबर्ट ने बताया कि किस तरह उसने एक विद्रोही औरत की कोख को अपने बूट के नीचे मसलकर रख दिया, उस कोख को जिसमें विद्रोह का एक और बीज पनप रहा था, तब सचमुच शब्बो का रोम-रोम काँप उठा। गुस्से में जैसे वह पागल हो उठी थी।

आधी रात के बाद जब राबर्ट और उसके सारे मित्र खा-पीकर चले गए तब उस घर में एक खौफनाक सन्नाटा सा छा गया। शब्बो ने एक झटके में अपने शरीर के सारे वस्त्र उतार फेंके। शीशे के सामने उसने एक बार खुद को देखा। वह मुस्कराई, 'सचमुच आज की रात कत्ल की रात है...' उसके होंठों ने एक बार कहा और फिर उसने दीवार पर टँगी वह तलवार निकाल ली जिसके बारे में राबर्ट अकसर कहा करता था कि यह तलवार सोलोमन की तलवार है जो हमेशा न्याय के लिए ही उठती है।

उस रात शब्बो एक पल के लिए भी नहीं सोई। राबर्ट को उसने भरपूर प्यार किया। उतना ही जितना कि कोई औरत कर सकती है। (हालाँकि शब्बो पूरी तरह औरत नहीं थी...) रात के अंतिम पहर जब आसमान से तारे विदा होने लगे, शब्बो का निढाल मुर्दा शरीर तनकर खड़ा हो गया। उसके हाथ में रक्तसनी सोलोमन की वही तलवार थी जिसने ठीक उसी क्षण जब रात का अंतिम तारा विदा हो रहा था, सार्जेंट राबर्ट का सिर उसके धड़ से अलग कर दिया। शब्बो ने उस वक्त रुँधे गले से कहा था, 'रियली, इट वाज फैटल नाइट...'।

उसके बाद शब्बो ने कलकत्ता छोड़ दिया और दर-दर भटकने लगी। कंप्यूटर की सूचना बताती है कि पं. धर्मराज को शब्बो ने यह कहानी तब सुनाई थी जब दिल्ली के लाल किले में आजाद हिंद फौज के सिपाहियों पर देशद्रोह का मुकदमा चल रहा था।

इन्हीं दिनों पं. धर्मराज पर अहिंसा का भूत भी सवार हुआ लेकिन उससे पहले कहानी का एक सूत्र और...। पं. धर्मराज के पिता पंडित रामबदन अपने पुत्र की गतिविधियों से आजिज आ चुके थे। उन्हें लगता था कि उनका बेटा उनकी प्रतिष्ठा पर बट्टा लगा रहा है। अहीरों, चमारों की संगत और सुराजियों के प्रति उसका प्रेम उन्हें बहुत खतरनाक लगता। फिर उन दिनों पं. धर्मराज ने अपने कुल की प्रतिष्ठा को ताक पर रखते हुए एक हिजड़े के साथ भी रहना शुरू कर दिया था। पं. रामबदन को इन सबमें किसी बड़ी साजिश की गंध आती। एक बार तो घर पर पुलिस भी आ गई और पं. धर्मराज को पकड़कर थाने ले गई। दरअसल हुआ यह कि कुछ ही दिन पहले थाना अली सराय पर कुछ सुराजियों ने मिलकर एक बम फेंका था जिसमें थाना प्रभारी के साथ एक हवलदार भी जख्मी हो गया था। पुलिस को शक था कि उन सुराजियों में एक पं. धर्मराज भी थे।

जैसे-तैसे करके पंडित रामबदन ने उस मामले को तो खत्म कराया लेकिन उनकी चिंता बढ़ गई थी। वे उदास और निराश रहने लगे थे। आखिरकार उन्होंने निर्णय लिया कि पं. धर्मराज का विवाह कर दिया जाए। शायद इसी से उनमें कुछ सुधार आए, लेकिन नहीं, न पं. धर्मराज को सुधरना था, न वे सुधरे। उस पर हुआ यह कि अपनी पत्नी के प्रति उनमें एक तरह की विरक्ति आ गई। पंडित रामबदन इसी पुत्र-चिंता में धीरे-धीरे घुलते रहे और आखिर एक दिन स्वर्ग सिधार गए। कुछ दिनों बाद माँ ने भी उन्हीं की राह पकड़ी। अट्टी-पट्टीदारों ने पंडित रामबदन की जमीन-जायदाद पर कब्जा करना शुरू कर दिया। पं. धर्मराज ने उजबक का स्वभाव पाया था सो कुछ कर नहीं पाए या शायद कुछ करना ही नहीं चाहते थे। वैसे भी जमीन-जायदाद के कामों में उनका मन कम ही लगता था। वे तो आकाश के पंछी थे, जिधर मन किया उड़ लिए। लेकिन उनकी यह उड़ान किसी को पसंद नहीं आई। पूरे गाँव में उनकी छीछालेदर होने लगी। हुक्का-पानी बंद हुआ सो अलग। एक शब्बो ही थी जो उनकी हमराज बनी हुई थी लेकिन वह भी कभी अचानक महीनों तक गाँव से गायब हो जाती। (उसका यों अचानक गायब हो जाना हमेशा ही एक रहस्य रहा।) उसके जाने के बाद पं. धर्मराज का अड्डा जमता हरिजन बस्ती में। लेकिन यह भी बाद की बात है। पहले तो पं. धर्मराज दुनिया के प्रति उतने ही क्रूर थे जितना कि कोई रईस जमींदार हो सकता है। खैर... तो पं. धर्मराज उस रईसी और कुल परंपरा से बेदखल कर दिए गए जिसे उनके पिता ने बड़े जतन से जीवन में बनाया था।

पं. धर्मराज का हरिजन बस्ती की सुकना चमाइन से प्रेम था बावजूद इसके कि तब उनका ब्याह हो चुका था और उस ब्याह से उनके दो बच्चे भी थे। पं. धर्मराज पर जिस समय अहिंसा का भूत सवार हुआ उस समय तक ये बच्चे खासे बड़े हो गए थे। पंडिताइन यानी पं. धर्मराज की पत्नी किसी तरह सीधा-पानी माँग-जाँचकर इन बच्चों का पेट भरतीं। हालाँकि पेट भी पूरा कहाँ भरा जाता लेकिन मन की तसल्ली के लिए यही काफी था। उधर सुकना की ठसक सारे गाँव की नाक में दम किए हुए थी।

पं. धर्मराज को शब्बो ने बताया था कि गांधी बाबा सारे देश में हरिजन उद्धार के काम में लगे हैं। बहुत जल्दी फिरंगी इस देश से भाग जाएँगे। हालाँकि शब्बो गांधी बाबा की अहिंसा की बहुत पक्षधर नहीं थी। फिर भी जब कभी इस तरह की कोई बात होती तो उसे राबर्ट याद आ जाता और उसकी आँखों में आँसू छलक जाते।

एक दिन अचानक पं. धर्मराज ने रामनामी दुपट्टा ओढ़ लिया और सधुआ गए। पता नहीं इसके पीछे अपनी पत्नी के प्रति उनकी कड़वाहट थी या कुछ और लेकिन एक बार उन्होंने जो घर छोड़ा तो फिर मुड़कर वहाँ नहीं गए। गाँव के बाहर बारी के बाबा के आश्रम में उन्होंने अपनी धूनी जमा ली। शब्बो अक्सर यहीं आकर उनके साथ रहा करती।

पं. धर्मराज ने अहिंसा का जो व्रत लिया था उसकी भी अपनी एक कहानी है। दरअसल, पं. धर्मराज जब से बारी के बाबा के आश्रम में आए थे उन्हें आश्रम के लिए लकड़ी काटने जंगल जाना होता था। एक दिन वे भरी दोपहरी लकड़ी काटने जंगल चले गए। ढाक के पेड़ पर अभी उन्होंने अपनी कुल्हाड़ी चलाई ही थी कि क्या देखते हैं कि पेड़ के कटे हुए भाग से लाल रंग का कुछ खून सा तरल द्रव निकल रहा है। पं. धर्मराज भय से काँपने लगे थे। उन्हें लगा कि किसी ने उनकी गर्दन पर कुल्हाड़ी चला दी है। बस, उस दिन के बाद पं. धर्मराज ने पेड़ तो क्या खेत में हल चलाना तक छोड़ दिया। फटेहाल सा वह घर जहाँ के लोग सचमुच कभी अन्न को तरसते थे पं. धर्मराज के अहिंसा व्रत से जार-जार रो पड़ा। उसकी भीत ढहने लगी। फिर पं. धर्मराज का मन रमा जाकर गीता में और वे हुए प्रकांड पंडित। बारी के बाबा ने कहा -

रामबदल कै पूत अकेला किहिस घर मा ठेलिम ठेला प्रथम बार जब पिता पढ़ावा पढ़ब-लिखब ना इनके भावा छोड़-छाड़ आए निज भवना कबहूँ सरैयाँ कबहूँ मौना कबहूँ बारी कबहूँ पहाड़ी अरे, ई त होइ गा पूर्ण आचारी।

(बारी के बाबा का यह छंद भी कंप्यूटर में इस सूचना के साथ दर्ज है कि पं. धर्मराज ने कुछ ही दिनों में सिद्धि प्राप्त कर ली थी और गाँव के तमाम भूत-प्रेत उनके वश में हो गए थे।)

कहते तो यहाँ तक हैं कि पं. धर्मराज के प्रताप से ही शब्बो की नपुंसकता दूर हुई और वह उन्हीं के आशीर्वाद से स्त्रीत्व का प्रसाद पा सकी। इसी से जुड़ी अंतःकथा सुकना की भी है। इसका स्रोत भी यही कंप्यूटर है जिस पर बिखरी हुई वे तमाम सूचनाएँ दर्ज हैं जो कहीं-न-कहीं मेरी वंशावली (यानी सुशील कुमार ओझा पुत्र श्री सियाराम शरण ओझा पुत्र श्री...) से संबंध रखती है। कंप्यूटर जानने वाले जानते हैं कि एक बार कंप्यूटर पर अगर कोई सूचना दर्ज हो जाए तो वह कभी समाप्त नहीं होती, डिलीट करने पर भी वह बस बिखर भर जाती है। यहाँ भी वही हुआ। मेरे लाख चाहने पर भी मेरी वंशावली के ये विकृत तथ्य कभी खत्म नहीं होते... हर बार कुछ और विकृत होकर सामने आ जाते हैं। वैसे भी इतिहास चाहे व्यक्ति का हो या राष्ट्र का, खत्म कब होता है? कंप्यूटर की सूचनाओं की तरह उसे बिखरना भर होता है और फिर हर बार एक नए इतिहास की तलाश...।

सुकना के बारे में अचानक गाँव में यह खबर फैली कि उसे एक बच्चा हुआ है। इसमें सनसनी जैसा कुछ भी नहीं था क्योंकि ऐसी खबरें उन दिनों आम हुआ करती थीं। (आम और खास का भेद हमेशा जाति और कुल परंपरा से होता था।) फिर भी सनसनी यह थी कि बच्चा होने की रात सुकना करमू के ताल पर मरी पाई गई थी और बच्चा बारी के बाबा के आश्रम के सामने मैले-कुचैले कपड़ों में ढका-तुपा हँस रहा था। पं. धर्मराज उस वक्त अपनी कुटिया में बैठे गा रहे थे -

रघुपति राघव राजा राम पतित पावन सीता राम ईश्वर अल्लाह तेरे नाम सबको सन्मति दे भगवान।।

और शब्बो थी कि कुटिया के बाहर आँगन में अल्पना बना रही थी। लाल, पीले, हरे, गुलाबी और ऐसे ही तमाम सारे रंग... उन चटख रंगों से जाने कितने चटख बिंब उभर रहे थे। जैसे भूमध्य के बीच सहस्रसार की कल्पना... कि तभी अचानक किसी बच्चे के रोने की आवाज आई। शब्बो एक पल में आकाश की ऊँचाइयों से नीचे जमीन पर आ गिरी। उस ओर जहाँ से बच्चे के रोने की आवाज आ रही थी, ढाक का एक लहूलुहान सा पेड़ था। पेड़ पर एक घोंसला था। घोंसले में एक गौरया अपने अंडे से रही थी।

शिशु सूर्य ने अभी अपने पंख फैलाने शुरू भी नहीं किए थे कि उसके लाल-लाल पंखों ने जैसे पूरा-का-पूरा आकाश ढक लिया। चीं...चीं...चरर्र...चरर्र...पेड़ों से पत्ते गिरने की आवाज... और ऐसा ही बहुत कुछ। क्या ही खुशनुमा मौसम था लेकिन... लेकिन शब्बो भय से काँप रही थी और बच्चा भय से रो रहा था। उसका यह रोना पत्तों के गिरने या पक्षियों के चहचहाने से बहुत... बहुत अलग था। उधर पं. धर्मराज का अपनी कुटिया से 'रघुपति राघव राजा राम' का गान भी इन तमाम आवाजों के बीच चुपचाप कहीं गुम हो गया था।

शब्बो ने झट से बच्चे को अपनी छाती से लगा लिया और उसे चूमने लगी। बच्चे का भी रोना बंद हो गया था। पता नहीं कितनी देर शब्बो उस बच्चे के साथ खेलती रही। जब होश आया तो वह कुटिया में थी और बहुत बदली हुई सी भी...। पं. धर्मराज सिर झुकाए हत्बुद्धि बैठे थे। उनकी गोद में वही बच्चा था जो अभी कुछ देर पहले लहूलुहान से ढाक के पेड़ के नीचे मिला था।

शब्बो एकटक पं. धर्मराज को देख रही थी और पंडित धर्मराज नीचे जमीन को। शायद यह खबर उन तक पहुँच गई थी कि अभी-अभी करमू के ताल पर सुकना की लाश एक पेड़ से लटकी हुई पाई गई है।

जन्म और मृत्यु जैसे एक साथ आ गए...।

भर भिनसारे जिस कुटिया में कभी शिव तांडव स्त्रोत या दुर्गा सप्तशती के श्लोक गूँजते थे, वहाँ आज सन्नाटा था। रोम-रोम को चीर जाने वाली एक खामोशी। एकाएक पं. धर्मराज के गले से गों-गों की आवाज हुई और वे धड़ाम से जमीन पर गिर पड़े। वे शायद कुछ कहना चाहते थे मगर कह नहीं पाए। आवाज भीतर ही भीतर कहीं घुट कर रह गई थी... सिर्फ उनकी दो विवश और निरीह आँखें थीं जो कुछ कह रही थीं मगर वे क्या कह रही थीं - इसे शब्बो के सिवा कोई नहीं जानता था। शब्बो ने सुना कि पं. धर्मराज कह रहे हैं कि 'शब्बो, आज फिर एक साँप ने एक नेवले को डस लिया...'।

कहते हैं कि उसी दिन शबनम उर्फ शब्बो को स्त्रीत्व का वरदान मिला था। मरते हुए पं. धर्मराज ने जिस क्षण उस बालक को शबनम की गोद में डाला उसी क्षण उसके स्तनों में दूध उतर आया था। ये तमाम बातें गांधीजी की हत्या से एक माह पहले की हैं। उस पुराने और पिछड़े हुए गाँव में जहाँ किसी भी घटना की खबर उसके होने के एक माह बाद ही आती थी, गांधीजी की हत्या एक माह पहले ही हो गई थी। ऐसा क्यों था? कोई नहीं जानता।

कहते हैं कि करमू के ताल पर आज भी सुकना चमाइन का प्रेत मँडराता है और ब्राह्मण पुत्रों को वहाँ जाने की सख्त मनाही है। जो जाते हैं वे भी पं. धर्मराज का नाम-जाप करते हुए ही...।

बहरहाल, कंप्यूटर से एक बार फिर पीं-पीं की आवाज आ रही है और किसी तकनीकी गड़बड़ी के चलते बीच की बहुत सी सूचनाएँ गायब हो गई हैं। लेकिन मैं अब भी उस घर के बारे में जानना चाहता हूँ जहाँ के लोग कभी अन्न को तरसते थे। पंडिताइन और उसके दो बच्चों के बारे में जो बरसों-बरस सीधा-पानी माँग-जाँच कर किसी तरह अपने बच्चों को पेट भरती रहीं...। लेकिन मुझे कुछ नहीं मिलता सिवा इसके कि पं. धर्मराज के मरने के बाद शब्बो उस बच्चे को लेकर फिर कलकत्ते वापस आ गई। कलकत्ते में काफी दिन छिपने-छिपाने के बाद आखिर शब्बो को पकड़ लिया गया। आजाद भारत में उस पर सार्जेंट राबर्ट की हत्या का केस चला और उसे फाँसी की सजा हुई। फिर उस बच्चे का क्या हुआ? इसके बारे में कोई सूचना नहीं है। कंप्यूटर बताता है कि वह बच्चा और कोई नहीं, मेरे ही पिता पं. सियाराम शरण ओझा थे। सियाराम, पं. सियाराम शरण ओझा कैसे बने, इसके बारे में कंप्यूटर पर कोई सूचना नहीं है।

अब दुनिया की तमाम-तमाम सूचनाओं के बीच बस मुझे इसी एक सूचना की तलाश है, लेकिन वह भी मुझे नहीं मिलती।

लेकिन हाँ, पता नहीं क्यों और कैसे कंप्यूटर स्क्रीन पर इस वक्त मेरे सामने इस सदी की पहली राष्ट्रीय जनगणना के आँकड़े आ गए हैं जिसमें कहा गया है कि इस बार हिजड़ों को भी पुरुषों के खाते में डाल दिया गया है। अब भला बताइए इस सूचना का इस कहानी से क्या संबंध हो सकता है?

खैर... फिलहाल तो मैं अपने उस सपने के बारे में सोच रहा हूँ जिसने इन दिनों मेरी नींद हराम कर रखी है। 'ब्रह्महत्या... ब्रह्महत्या...' जैसे शब्द हर समय मेरे कानों में घंटियों की तरह गूँजते हैं। जागते हुए भी लगता है कि मैं नींद में हूँ और वही वीभत्स सपना देख रहा हूँ जिसमें महाराज चित्रगुप्त अपनी कुटिल मुस्कान के साथ मेरे भाग्य का फैसला करते हैं और हाथ में गर्म लाल सलाखें लिए वह वीभत्स काली छाया मेरा पीछा करती है। मैं पागलों की तरह चीखता हूँ, लेकिन नहीं, मेरी आँखें फोड़ दी जाती हैं और कानों में पिघला हुआ शीशा उँड़ेल दिया जाता है। सचमुच मैं कुछ देख नहीं सकता। कुछ सुन नहीं सकता। इतिहास की कोई भी शक्ति अब मेरे साथ नहीं है। मैं बिल्कुल निरीह और अपाहिज हो चला हूँ बावजूद इसके कि कंप्यूटर पर अब मैंने अपना इतिहास बदल दिया है।