ब्रह्म-सरोवर के कीड़े / बलराम अग्रवाल
“ब्राह्मण को कुछ दे पाओगे सेठ…पुण्य मिलेगा।” मन्दिर की सीढ़ियों से उतरकर जैसे ही वह सड़क पर आया एक हाथ उसके सामने आ फैला। उसने नजरें उठाकर देखा—बीसेक साल का गोरा-चिट्टा किशोर वहाँ था। लम्बा कद, मजबूत काठी। हाथ की उँगलियों में लोहे के छल्ले से लेकर सोने और चाँदी तक की अँगूठियाँ, गले में रुद्राक्ष की और स्फटिक की मालाएँ, माथे पर त्रिपुण्ड। ऐसे स्वस्थ लड़के को भीख माँगते देख उसका पारा एकदम-से ऊपर चढ़ आया, लेकिन खुद पर काबू रखते हुए उसने उससे पूछा,“पढ़े-लिखे हो?”
“जरूरत नहीं पड़ी कभी।” उसके इस सवाल पर लड़के ने स्थिर अंदाज में उत्तर दिया।
“क्यों?” उसने पूछा।
“पूर्वजन्मों के सत्कर्मों के बल पर हर बार ब्राह्मणों के परिवार में जन्म लेता हूँ सेठ। इसी से वाणी को इतना सत्व मिला है कि बिना पढ़े भी मुख से निकला हर शब्द श्लोक है।” जड़-विश्वास से भरे स्वर में वह बोला।
“यह किसने बताया तुम्हें?”
“बताने की जरूरत ही कुछ नहीं है। ब्रह्मवेत्ता पूर्वजों का वंशज होने के नाते इतना ज्ञान तो स्वत: ही प्राप्त है।” वह बोला।
“आत्मज्ञानी होकर भीख माँगते हो, शर्म नहीं आती?”
“परमारथ के कारने साधुन धर्या सरीर।” इस पर वह त्रिपुण्डधारी दर्पपूर्वक बोला,“नीची जातियों में जन्मे मनुष्यों को इस और उस दोनों लोकों में सदा सुखी रहने का आशीर्वाद दे सकने वाली जाति में पैदा हुआ हूँ। पेट पालने के लिए इस उपकार के बदले थोड़ी-बहुत दान-दक्षिणा लेने में शर्म कैसी?”
उसे लगा कि इस मूर्ख के पास वह अगर दो पल भी और रुका तो रक्तचाप बहुत बढ़ जाएगा।
“है कुछ देने और आशीर्वचन लेने की नीयत?”
“शटा…ऽ…प!” बाढ़ का पानी जैसे बाँध को तोड़कर फूट पड़ता है, वैसे ही वह चिल्लाया और बामुश्किल ही अपनी हथेली को झापड़ बनने से रोक पाया।