ब्राह्मण और श्रमण / राजेन्द्र वर्मा

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आर्थिक और राजनीतिक कारणों से समाज के दो ही वर्ग हैं—अमीर और ग़रीब! इन्हें चाहे पूँजीपति और श्रमिक कहिए अथवा, राजा और प्रजा, एक ही बात है! परन्तु भारत, वर्ग में नहीं वर्ण में विश्वास करता है, वह कर्म में नहीं, भाग्य में विश्वास करता है; इसलिए अमीर और ग़रीब को धर्म की चक्की में पीसकर दो वर्ण बना लिये गये—ब्राह्मण और अब्राह्मण? दोनों ही वर्णों में अनेक जातियाँ हैं, उनका अपना इतिहास है, पर आज की आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक हैसियत को देखते हुए उन्हें अगड़े-पिछड़े में बाँट दिया गया है! राजनीति के चलते इन्हें सवर्ण और दलित भी कहा जाता है। ... यह वर्ण-व्यवस्था दुनिया के किसी भी देश में नहीं है! ऐसी मौलिक खोजों के कारण ही शायद भारत को महान कहा गया है!

अपना देश कभी कृषिप्रधान था, पर अब वह पूरी तरह से धर्म व जाति-प्रधान है! देशवासियों को लगा कि यदि वे आपसी भेदभाव भूल एकजुटता दिखायेंगे, तो बेचारे आक्रान्ता क्या कहेंगे? सिन्धु नदी के इस पार रहने वाले 'सिन्धु' (फ़ारसी में 'हिन्दु' ) पहले आर्य-द्रविण में बँटे, फिर मुग़लों के आक्रमण के समय हिन्दू (हिन्दू अधिक प्रचलित) ब्राह्मण और क्षत्रिय में बँटे और फिर अंग्रेज़ों के समय हिन्दू-मुस्लिम में बँटे! डेढ़ सौ सालों में ही इस खचाड़ा देश ने अंग्रेजों को उबा दिया और वे बेचारे यहीं के लोगों को सत्ता सौंप कर अपने वतन वापस लौट गये! ... तब से हम भारतवासी किसी नये आक्रान्ता की बाट जोह रहे हैं, पर कोई फटक ही नहीं रहा! ...

आज़ादी मिलते ही मिलने के बाद हमने देश को हिन्दू और मुसलमान में बाँटा! लेकिन यह बँटवारा कुछ ज़ोरदार नहीं हुआ! कुछ सिरफिरे मुसलमान इधर रह गए और कुछ सिरफिरे हिन्दू उधर! सोचते थे, साल-दो-साल में फिर एक हो जायेंगे, लेकिन आज तक आँगन में उठी दीवार गिरी है क्या? लेकिन, जिसको बँटने-बाँटने की आदत पड़ जाए, वह क्या करे? बिना बँटे कैसे रहें? इसलिए अब हिन्दू-मुस्लिम-सिख-जैन-बौद्ध-बहाई-पारसी-ईसाई के अलावा, अगड़े-पिछड़े, सवर्ण-दलित, राजभक्त-राजद्रोही, देशभक्त-देशद्रोही, राष्ट्रभक्त-राष्ट्रदोही, आदि में बाँटने का कार्यक्रम चालू आहे!

'ब्राह्मण' कहने-सुनने मात्र से यह स्पष्ट हो जाता है कि क्या ब्राह्मण है, परन्तु 'अब्राह्मण' के से यही पता चलता है कि वह कुछ भी हो, ब्राह्मण नहीं है! 'श्रमण' तो ख़ासा कनफ्यूजिंग हैं! पता ही नहीं चलता कि वह आख़िर कौन है? ऐसा लगता अवश्य है कि ब्राह्मण जैसे ब्रह्म से बना है, उसी प्रकार यह श्रम से बना होगा, परन्तु सत्य इतना ही मोटा होता, तो हमें किसी ब्रह्मवेत्ता की आवश्यकता ही क्यों पड़ती? वास्तव में, यह तीन उपवर्गों से मिलकर बना है-क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र!

इस प्रकार ज्ञानियों ने ब्राह्मण को अनंतकाल के लिए किंगमेकर बनाने की दृष्टि से समाज को चार वर्णों को विभाजित कर दिया—ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र!

पहले 'ब्राह्मण' उसे कहा जाता था जो ब्रह्म तत्व का ज्ञानी था और उसके ही प्रचार-प्रसार में जीवन-यापन करता थे, पर उस टाइप के ब्राह्मण बनने और बने रहने में दैन्य का अनुभव करना पड़ता था। दीनता की पर्याप्त भरपाई यद्यपि सम्मानादि से हो जाया करती थी, तथापि भौतिक सुखों का अकाल ही रहता था! ... इसके विपरीत जो अब्राह्मण श्रमण थे, वे श्रम कर जीवन-यापन करते थे और अपनी आवश्यकतानुसार पढ़ा-लिखा करते थे। वे भले-ही ब्राह्मण से अधिक पढ़े-लिखे हों और प्रत्येक प्राणी में ब्रह्म देखने का दावा भी करते हों, तो भी वे ब्राह्मण नहीं हो सकते हैं! इसका मूल, प्राचीनतम, नवीनतम और गर्भस्थ कारण यह है कि वह किसी ब्राह्मण-ब्रह्माणी के संयोग से उत्पन्न नहीं हुए.

'ब्राह्मण' ने भले ही स्वयं को तत्वज्ञानी कहलाने में कसर छोड़ी हो, पर उसने मनुष्य-मनुष्य में भेद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी! अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करवाने की युक्ति में उसने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र-वर्ण चतुष्टय का गठन किया जिसमें उसने स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करने की युक्ति अपनाते हुए अपनी उत्पत्ति ब्रह्मा के मुख से बतायी, जबकि 'क्षत्रियों' को ब्रह्मा की भुजाओं से, 'वैश्यों' को जंघाओं से और 'शूद्रों' को उनके पैरों से उत्पन्न होने की बात की! यह बात उसने इतने अधिकारपूर्ण ढंग से कहीं कि जो इसे न माने, वह हिन्दू ही नहीं! ... अब हिन्दू नहीं रह जाने अथवा म्लेच्छ बनने का ख़तरा उठाने से तो अच्छा है कि अ-ब्राह्मण ही बन जाएँ! ...

दिगंबर रहने से कच्छा पहन शूद्र कहलाना ही श्रेयस्कर है! लेकिन कच्छाधारियों को समझना चाहिए कि शूद्र कुछ भी पहने, वह सनातनी ब्राह्मण की दृष्टि में नग्न ही कहलायेगा, क्योंकि उसके बाप-दादों ने बिना विरोध के अभाव की नग्नता को खा-पी और ओढ़-बिछा कर ही जीवनयापन किया है!

युक्ति-वैचित्र्य के सिद्धांत का पालन करते हुए समाज को यदि एक व्यक्ति मान लिया जाए और उसके अंगों की क्षमताओं को देखते हुए वर्ण चतुष्टय से किसी को कोई क्षति नहीं पहुँचती, क्योंकि समाज को शिक्षा और ज्ञान देने का कार्य बुद्धि का ही है जो मुख से प्रसरित होती है। इसलिए इस कार्य में संलग्न व्यक्ति को यदि ब्राह्मण कहा जाए, तो ठीक ही है। इस क्रम में, वह व्यक्ति, जो अपेक्षाकृत बलशाली हो, अर्थात् जिसकी भुजाओं में बल हो, वही दूसरों की रक्षा का भार उठा सकता है और बल-प्रयोग से समाज की रक्षा का दायित्व सफलतापूर्वक संपन्न कर सकता है। ऐसे व्यक्ति को क्षत्रिय मानने में भला किसे आपत्ति हो सकती है? इसलिए यह भी ठीक है कि 'क्षत्रिय' ब्रह्मा की भुजाओं से उत्पन्न हुआ। इसी क्रम में, वह व्यक्ति, जो न तो अपनी बुद्धि के माध्यम से ज्ञान का प्रसार कर सकता है और न ही उसकी भुजाओं में वांछित बल है, तो उसे वैश्य बनकर समाज रूपी मानव को गतिमय करने वाले कार्य करने चाहिए, जैसे कृषि, पशुपालन, व्यापार आदि; पर इसके लिए भी भूमि और धन की आवश्यकता होती है! अतः वैश्य भी वही बन सकता है, जिसके पास कृषि-योग्य भूमि और धनादि उपलब्ध हो, अथवा इतनी मात्रा में धन हो कि वह 'वैश्य' बन सके. अन्त में बचा वह व्यक्ति, जिसके पास न बुद्धि-कौशल है, न बाहुबल है और न ही भूमि आदि, वह कहाँ जाए? जब वह वैश्य भी नहीं, तो शूद्र बन ही जायेगा! ... पर, यह वर्गीकरण किसी व्यक्ति की स्वाभाविक क्षमता पर आधारित न होकर वर्ण विशेष में जन्म लेने की घटना मात्र से जुड़ गयी और ब्राह्मणों ने स्वयं को शीर्ष पर रख लाभान्वित बने रहने के लिए, सभी वर्णों को जन्म से पैदा होना प्रचारित कर दिया जिसे सभी लोग धीरे-धीरे मानने लगे! परिणाम सामने है-ब्राह्मण की संतान ब्राह्मण, क्षत्रिय की क्षत्रिय, वैश्य की वैश्य और शूद्र की संतान शूद्र!

इस युक्ति को यदि पचा भी लिया जाय, तो भी देखना होगा कि इस वर्गीकरण में शूद्र आज कहाँ खड़ा है? अन्य वर्णों की स्थिति उतनी बुरी नहीं है! ऐसा नहीं कि किसी ने इस बात पर प्रश्नचिह्न नहीं लगाया कि मनुष्य के जिन गुणों के कारण वह ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र हो सकता था, यह आवश्यक नहीं कि पितृप्रधान समाज के कारण, वे उसके पिता से वे मेल भी खाते हों! परन्तु ब्राह्मणों (जिनमें क्षत्रिय और वैश्य भी शामिल हैं) द्वारा इस प्रश्न का कोई नोटिस नहीं लिया गया और भीमराव आम्बेडकर जैसे बुद्धिजीवी, विधिवेत्ता और जुझारू व्यक्तित्व के धनी लोग झख मारकर बौद्ध धर्म अपनाने को विवश हो गये! एक अवैज्ञानिक और मनमानी जन्मना वार्णिक व्यवस्था आज भी लागू है-ब्राह्मण का ब्राह्मण और शूद्र का बेटा शूद्र! पढाई-लिखाई में मामला भले-ही उल्टा क्यों न हो! ब्राह्मण यदि पान की गुमटी लगाये है, तो भी वह 'पंडित जी' है, (कोई 'तंबोली' नहीं) और शूद्र यदि 'जिलाधिकारी' है तो भी शूद्र (थोड़ा कम अपमानजनक-'एस.सी.') है! आज कितने ही 'श्रमण' शिक्षक, लेखक, चित्रकार, संगीतज्ञ, चिकित्सक, वकील, इंजीनियर, वैज्ञानिक, वास्तुविद, चार्टर्ड अकाउंटेंट, प्रशासनिक अधिकारी, बैंक अधिकारी, जज आदि है, पर सामाजिक तौर पर क्या उन्हें 'ब्राह्मण' माना जा सकता है? इसी प्रकार, सेना और पुलिस में सेवारत समाज के 'अ-क्षत्रिय' वर्ग के जवान-अधिकारी-इंस्पेक्टर आदि क्या 'क्षत्रिय' कहलाने के अधिकारी हैं? इसके उलट, क्या दुकान खोले ब्राह्मण, क्षत्रिय या शूद्र 'वैश्य' कहलाने के अधिकारी हैं? आज इन वर्णों अथवा इन वर्णों के भीतर जातियाँ अपना अर्थ खो चुकी हैं, पर वे न केवल अस्तित्व में हैं, बल्कि नेताओं की वोट की राजनीति के चलते ख़ूब फल-फूल रही हैं।

सत्ता चाहती है कि जनता अशिक्षित रहे ताकि उसमें सही-ग़लत की समझ न पैदा हो सके, वह तंत्र की असलियत न समझ पाये और उसकी मंशा के ख़िलाफ़ कोई अहम फैसला ले सके. एक समय था जब राजा चाहता था कि प्रजा, प्रजा बनी रहे ताकि वह आराम से उस पर राज कर सके. इसके लिए उसने बहुत ही सोची-समझी रणनीति अपनायी जो आज तक मामूली फेर-बदल के साथ चली आ रही है।

पुराण से लेकर इतिहास साक्षी है कि जब कोई शूद्र ब्राह्मण या क्षत्रिय की बराबरी की भी सोचता है, उसे न केवल उसकी औक़ात बता दी जाती है, बल्कि कभी-कभी उसकी जान भी ले ली जाती है-चाहे वह त्रेता के राम के समय का शम्बूक हो, अथवा द्वापर के श्रीकृष्ण के समय का एकलव्य! ... आरक्षण लागू होने के बाद भी, ये 'शम्बूक' और 'एकलव्य' आज भी अपना भविष्य गँवाने के लिए अभिशप्त हैं। एक-दो अपवाद अवश्य हैं, जहाँ विश्वामित्र (क्षत्रिय) को कभी 'ब्रह्मर्षि' मान लिया गया और आज के समय में भी प्रसिद्ध बाँसुरीवादक-हरिप्रसाद चौरसिया को 'पंडित हरिप्रसाद चौरसिया' कहा जाने लगा, पर यह प्रोन्नति लाखों-करोड़ों में किसी व्यक्ति विशेष तक सीमित है, उसकी संतान पर तब भी लागू नहीं! क्षत्रिय या वैश्य की ब्राह्मण वर्ग में यह प्रोन्नति सुखद कही जा सकती है, पर एक भी उदाहरण न मिलेगा जहाँ किसी ब्राह्मण को अपने गुणों में गिरावट के कारण, 'क्षत्रिय' या 'वैश्य' बना दिया गया हो! 'शूद्र' बना दिये जाने का तो प्रश्न ही नहीं उठता! ब्राह्मणों द्वारा स्थापित इस सामाजिक प्रवृति का लाभ राजा ने उठाया और चूंकि ब्राह्मण, राज्य-सञ्चालन में अपनी परामर्शक-स्थिति सुदृढ़ रखना चाहता था, इसलिए उसने राजा के साथ इस दुरभि संधि में आसानी से सम्मिलित हो गया जिसके अंतर्गत उसे राजा को ईश्वर का अंश घोषित करना था। ऐसा हो जाने पर राज्य में चाहे जितनी कुव्यवस्था हो, राजा चाहे जितना कुव्यसनी हो, जनता में विद्रोह की सम्भावना न के बराबर रह जाती थी! ...

ईश्वर और धर्म, सत्ता हथियाने या उसमें बने रहने के आजमाये हुए नुस्खे हैं। इसलिए आज के 'राजा' इसे किसी भी क़ीमत पर अपनाये रखना चाहते हैं। ब्राह्मण वर्ग ने ईश्वर और उसकी उपासना के कर्मकांड और पाखण्ड का सघन, संवेदनशील और अकाट्य जाल बुन रखा है कि एक अच्छा-खासा शिक्षित और वैज्ञानिक भी यथास्थितिवादी बना रह जाता है! वह न तो भाग्यवाद और ईश्वरवाद की अवधारणा को नकार पाता है और न ही धर्म-जाति का चक्र तोड़ पाता, बल्कि एक हिसाब से तोडना ही नहीं चाहता; फिर भला अशिक्षित जनता ईश्वर, भाग्य और धर्म-जाति के चक्र को कैसे तोड़ पायेगी?

राजनेता चाहे जिस भी पार्टी का हो, वह यही चाहता है कि जनता अशिक्षित बनी रहे और उसकी गर्दन धर्म-जाति के फंदे में फँसी रहे, ताकि वह विकास का मुद्दा उठा ही न सके. सत्ता (पक्ष और विपक्ष, दोनों) इसके लिए वह धार्मिक गुरुओं को पालती है। वह इन तथाकथित गुरुओं के माध्यम से किसी-न-किसी प्रकार जनता के बीच यह अहसास कराती रहती है जनता की धार्मिक स्वतंत्रता खतरे में है। बड़े-बड़े धर्मगुरु-शंकराचार्य, संताचार्य, साधु-महात्मा, मौलाना, पादरी आदि धर्म के मर्म को समझाने के बजाय अपने-अपने धर्म के महत्त्व को रेखांकित करते हुए ईश्वर के ठेकेदार के रूप में हमारे सामने प्रस्तुत होते हैं। इसके अलावा वह स्वार्थी बुद्धिजीवियों के माध्यम से देश के इतिहास को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करवाता है ताकि कम-से-कम हिन्दू-मुस्लिम में अवश्य ठनी रहे!

पढ़े-लिखे लोगों में भी यह प्रश्न उठाना मूर्खतापूर्ण माना जाता है कि मानवी सभ्यता में आख़िर ईश्वर की भूमिका क्या है? क्या यह कि उसने ब्रह्मांडों की रचना की; पृथ्वी बनायीं, जिस पर हम रहते हैं; सूरज-चाँद-सितारे बनाये जिनसे पृथ्वी पर जीवन संभव है; पृथ्वी पर पेड़-पौधों के साथ मनुष्य और पशु-पक्षी बनाये; वनस्पतियाँ और अन्न के पौधे बनाये और उनमें से अन्न उपजाने की शक्ति बनायीं! ...अर्थात्, वह सब कुछ बनाया, जो हम देखते-सुनते हैं, जानते और तार्किक कल्पना करते हैं। अर्थात, जो ईश्वर है, वह कण-कण में है-प्रकृति ही उसका मूर्त रूप है। मनुष्य ने उसका विराट रूप तो नहीं देखा, पर उसका सूक्ष्म रूप कण-कण में अवश्य देखा। प्राणी मात्र में देखा, मनुष्य-मनुष्य में तो देखा ही है, तभी तो वह एक-दूसरे के मिलने पर, 'नमस्कार' , 'राम-राम' 'सत् श्रीअकाल' , 'सलाम आलेकुम' आदि कहता है, क्योंकि वह सामने पड़ने वाले व्यक्ति में बैठे तथाकथित ईश्वर को नमन करता है!

कण-कण में ईश्वर को देखने का ही परिणाम है कि मनुष्य ने अपनी बुद्धि से, जो निःसंदेह ईश्वर ने ही बनायीं, न केवल ईश्वर की अवधारणा विकसित की, बल्कि वेदों और श्रुतियों के आधार पर उसके अनेकानेक रूप चित्रित करते हुए विभिन्न देवी-देवता गढ़े और उनकी मूर्तियाँ बनायीं। मूर्तियों के लिए मंदिर बनाये और मूर्ति प्राण प्रतिष्ठित कर उपासना-पद्धति विकसित की। धीरे-धीरे, ये मंदिर, भय और मनोकामना-पूर्ति का साधन बन गये। मंदिर के बाहर भले ही आदमी भूख से मर गया, पर मंदिर में स्वर्णाभूषणों से लदी और फूलों से सजी मूर्ति को भोग लगता रहा! दानपत्रों में अगणित धन ठूँसा जाता रहा! यह व्यावसायिक कमाल 'श्रमण' नहीं कर सकता। इसलिए यदि अब 'श्रमण' भी इस विद्रूप में हिस्सा बँटाने के लिए आंदोलित हों, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं!

कभी ब्राह्मणों का प्रमुख कार्य था कि वे छोटे-बड़े मंदिरों में पलने वाले विविध भाँति के भगवानों की पूजा-अर्चना करना, ताकि भगवान अपने कार्य ठीक से करते रहें, लेकिन आज उन्हें दो कार्य करने पड़ते हैं-एक तो वही विरासत में मिला कार्य-भगवान की पूजा-अर्चना और दूसरा-रोजी-रोटी कमाना! यह वृत्ति वाला मामला तनिक टेढ़ा है। कभी-कभी ब्राह्मण को वह कार्य भी करना पड़ता है, जो क्षत्रिय या वैश्य भी नहीं करते, शूद्र करते हैं, जैसे-किसी सरकारी दफ़्तर में स्वीपर की नौकरी करने के दौरान शौचालय साफ़ करना! साहब को पानी-वानी पिलाना तो चलेगा, लेकिन टट्टी साफ़ करना! 'राम-राम' , धर्म भ्रष्ट कर दिया ससुरी लोकतान्त्रिक व्यवस्था ने! किसी व्यंग्यकार को वर्तमान लोकतन्त्र पर गर्व हो सकता है! लेकिन, ब्राहमण तो ब्राह्मण है-वह क्यों टट्टी साफ़ करेगा? वह किसी पैदाइशी स्वीपर को पकड़ेगा और अपनी तनख्वाह का दस प्रतिशत देकर सफाई करवा लेगा! सरकार को सफाई चाहिए न? लो, हो गयी सफाई!

ईश्वर या भगवान, ब्राहमण का भी है और श्रमण का भी, इसलिए पूजनीय है! ब्राहमण द्वारा भगवान का पूजा जाना तो समझ में आता है, क्योंकि उसने भगवान के सहारे ही स्वयं को समाज में उच्च प्रतिष्ठित कर लिया है, लेकिन श्रमण द्वारा भगवान का पूजा जाना समझ से परे है! जो भगवान ब्राह्मणों का साथ देता हो, वह श्रमण का साथ क्यों देगा? एक कॉर्पोरेट या तो भाजपा की सरकार बनवायेगा, अथवा कांग्रेस या किसी अन्य दल की! वह दो दलों की सरकार एक साथ कैसे बनवा सकता है? इसी प्रकार भगवान ब्राह्मण और श्रमण, दोनों के साथ कैसे रह सकता है? ब्राह्मण को विश्वास रहे-यह समझ में आता है, पर श्रमण को पक्का विश्वास है कि भगवान उसके साथ भी है-समझ से परे है!

काल्पनिक रूप से भगवान दो कार्य संपादित करते हुए पाये गए हैं—अपनी माया की सहायता से भक्त में कामना जगाकर उसकी पूर्ति करना, जैसे-रुपया-पैसा, पद-प्रतिष्ठा, पदोन्नति, व्यापार में लाभ, स्पाउस (पति या पत्नी) , सुन्दर संतान (विशेषतः पुत्र) , सुंदर प्रेमिका, पापकर्मों के पुण्य परिणाम! (नोट: सूची अपूर्ण) । फिर इन कामनाओं की पूर्ति के प्रमाणपत्रों के खोने या छिनने का भय! ... अजामिल, नारायण, ग्राह, केवट, सुदामा जैसी पचासों कथाएँ सिद्ध करती हैं कि किसी परिणाम को प्राप्त करने के लिए वांछित कर्म की उतनी आवश्यकता नहीं, जितनी भगवान के सामने उपासना करने की है। इसी प्रकार, यदि उसकी ईश्वर में आस्था है, तो वह चाहे जो पाप करे, पर यदि सच्चे मन से ईश्वर के सामने उसका प्रायश्चित कर ले, उसके सारे पाप धुल जायेंगे!

लेकिन व्यावहारिक रूप से ईश्वर के कार्य-कलाप बहुत कमज़ोर हैं। मान लीजिए, किसी माँ का बेटा बीमार है। वह उसका उचित इलाज भी करा रही है और मंदिर, मस्जिद अथवा चर्च में ईश्वर से प्रार्थना भी कर रही है, पर होनी कुछ और है। न इलाज काम में आता है और न पूजा! बेटे की मृत्यु हो जाती है! ऐसे में प्रश्न उठता है कि ईश्वर क्या बहरा है? क्या उसने माँ की पुकार अनसुनी कर दी? अथवा माँ की प्रार्थना में वह बात नहीं थी कि भगवान कुछ करने को विवश हो जाते? फिर क्या बात हुई? इसका उत्तर भगवान के किसी भी ठेकेदार के पास नहीं है! बहुत-से-बहुत यही सांत्वना-' बेटे का इतना ही जीवन था, ऊपरवाले को यही मंजूर था, उसके आगे किसकी चली है? उसकी माया, वही जाने! वही बनाने वाला, वही बिगाड़ने वाला! हम लोग तो उसके बनाए खिलौने हैं! ... परन्तु इन उत्तरों से ईश्वर अपनी उस प्रचारित भूमिका में खरा नहीं उतरता, जिसके लिए वह जाना जाता है! ... तो क्या इसका अर्थ यह नहीं कि ईश्वर एक अवधारणा मात्र है, वह कोई ऐसी शक्ति नहीं, जो प्रार्थना की चाबी से ऐक्शन में आ जाए और किसी कंप्यूटर या रोबोट की तरह मनुष्य के मनोनिर्देश मानना शुरू कर दे!

ईश्वर निर्बल या समाज से सताये हुए आदमी का आत्मबल तो हो सकता है, पर समाज से आदमी को ही लड़ना पड़ेगा। लड़ाई में हार-जीत होने के अलग-अलग कारण होते है, इसमें ईश्वर, भगवान या अल्लाह मियाँ क्या कर लेंगे? हाँ, कुछ ऐसे प्राकृतिक कारण अकस्मात उत्पन्न हो सकते हैं, जैसे-भारी वर्षा का होना, आँधी-तूफ़ान आ जाना, कहीं किसी स्थान पर सांप आदि का निकल आना, जिस कारण से कोई बलशाली भी लड़ाई हार जाए. पोरस और सिकंदर के बीच छिड़े युद्ध में सिकंदर इसीलिए नहीं जीत सका, क्योंकि भारी वर्षा के कारण उसकी सेना मुक़ाबला करने को तैयार न हो सकी थी। इन कारणों के बारे में पहले से कोई कुछ नहीं जान सकता है। अब इसे कोई ईश्वर का चमत्कार कहेगा, तो कोई मात्र संयोग या दुर्योग! संयोग उनके लिए जो पराजित होने से बच गये और दुर्योग उनके लिए जो विजयी होने से वंचित रह गये! इसलिए यदि हम प्रकृति को ही जीवित ईश्वर मान लें, तो काफी हद तक समस्या हल हो जायेगी!

हिन्दू संस्कृति की रक्षा में 'रामचरितमानस' जैसे ग्रन्थ के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास ने भी ब्राह्मणों की प्रशस्ति करने में कोई कोर-कसर नहीं उठा रखी। वे कहते हैं, "पूजिअ विप्र सकल गुण हीना / सूद्र न गुणगान ज्ञान प्रबीना" (सभी गुणों से हीन विप्र, अर्थात ब्राह्मण, पूजनीय है, जबकि सर्वगुण संपन्न ज्ञानी शूद्र सम्मानीय नहीं है।) यह सिद्धांत संभवतः राम के समय से चला आ रहा था, तभी राम ने शम्बूक का वध किया होगा! शम्बूक से राम को क्या भय था-समझ से परे है!

हमारी काया पाँच तत्व से बनी है-पृथ्वी, पावक, जल, गगन और वायु! इनमें तीन तत्व द्रष्टव्य हैं और दो अनुभूत, तथापि ये सारे तत्व प्रकृति के अंश हैं। इसी प्रकार अनेक ऐसे तत्व हैं जो इन प्रमुख तत्वों के अन्य रूप है, या इनसे उपजे हैं। उदाहरण के लिए, द्रव रूप में पानी, ठोस रूप में बर्फ़ और भाप रूप में गैस है। तत्व एक ही है, पर उसके भिन्न-भिन्न रूप हैं। इसलिए यदि कोई ईश्वर है तो वह प्रकृति है, मंदिर-मस्जिद, चर्च या गुरूद्वारे में बैठा कोई और नहीं! यदि साधारण बात को हम मान लें, तो हम यह भी पायेंगे कि ईश्वर हममें भी है और पृथ्वी-आकाश के कण-कण में भी! और थोडा और विचार करें, तो संसार में कोई शत्रु ही न रह जायेगा-सभी अपने जैसे ही लगने लगेंगे! लेकिन कौन किसी को अपना बनाना ही चाहता है? 'वसुधैव कुटुम्बकम्' का अर्थ ही बदल गया है-पूरी वसुधा मेरा परिवार है। अपने परिवार पर मैं जैसे चाहूँ, वैसे शासन करूँ!

यों तो ईश्वर और धर्म अलग-अलग धारणाएँ हैं, पर वे एक-दूसरे का पर्यायवाची बना दिये गए हैं। धर्म तो कर्म-अकर्म, क्षमा-करुणा आदि धारणीय कर्म हैं जो काल-परिस्थिति के अनुसार बदलते रहते हैं ताकि मनुष्यता की रक्षा हो सके, परन्तु हिन्दू-मुस्लिम-सिख-ईसाई जैसे धर्मों ने ईश्वर का दोहन कर राज्य के समानांतर अंधविश्वासियों द्वारा पोषित सुदृढ़ सत्ता स्थापित कर ली है। धर्म का यह स्वरूप जटिल, भयावह और मनुष्यविरोधी है। मार्क्स ने इसलिए इसे अफीम कहा था! ... शराब-सिगरेट आदि के नशे के व्यापारी यह जानते हुए कि उनका कार्य-व्यापार मानव और समाजविरोधी है, आर्थिक कारणों से अपना व्यापार नहीं छोड़ते, तो भला धर्म के नशे का व्यापारी अपना व्यापार क्यों छोड़े, जबकि धर्म के व्यापार में धन और यश दोनों हैं!

अब्राह्मण भी धर्म के नाम पर प्रवचन कर आसानी से संत-महात्मा बन सकता है! आसाराम बापू, राधे माँ आदि ब्राह्मण बनकर आध्यात्मिक व्यापार जमा ही चुके हैं! यही कारण है कि ब्राह्मणवाद की तमाम बुराइयों के बावजूद श्रमण, ब्राह्मण बनने को शीर्षासन कर रहा है। ... क्या वह नहीं जानता कि ब्राह्मणवाद से वर्ण-जाति के रंग और पक्के होंगे, धुंधले होने या मिटने का तो प्रश्न ही नहीं उठता!

ब्राह्मणवाद का अर्थ है-सामाजिक वर्गीकरण में शीर्ष पर बैठना! ... मनुष्य की प्रवृत्ति है कि वह उन्नति करे और उन्नत दिखे। वह मुखिया बनना चाहता है-परिवार का, मोहल्ले का, शहर का, राज्य का और देश का! ... पर यह आसान नहीं। आसानी के लिए वह समाज को सुविधानुसार बाँटता है-आज क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियाँ अथवा धर्म के आधार पर बनी पार्टियाँ इसी मानसिकता की उपज हैं। जो आदमी देश समाज के सभी लोगों को साथ ले चलने में असमर्थ है, वह अपनी जातिवालों की बात करने लगता है। इससे उसका काम आसान हो जाता है। जातिवादी संगठन इसके सशक्त उदाहरण हैं। अखिल भारतीय ब्राह्मण सभा से क्या आप उम्मीद कर सकते हैं कि वे अब्राह्मणों के कल्याण की सोचेंगे? ऐसे ही सभा से प्रेरित अखिल भारतीय कायस्थ सभा से आप किसे अन्य जाति के लोगों के कल्याण की बात सोच सकते हैं! नहीं, फिर भी समाज को बाँटने तो तत्पर ये सभाएँ दिनोंदिन लोकप्रिय और समृद्ध होती जा रही हैं! ...

राजनैतिक पार्टियाँ विचारधारा की बातें चाहे जितनी करें, पर उनकी एक पार्टी-लाइन होती है, जैसे बहुजन समाजवादी पार्टी ने दलितों का ठेका लेने का प्रदर्शन करती है, तो समाजवादी पार्टी यादवों और अन्य पिछड़ी जातियों को साथ लेकर चलने का दंभ भरती है, जबकि हर कोई जानता है कि यह पार्टी यादवों और मुसलमानों की है। पहले इसमें गुंडे भी शामिल थे, लेकिन अब उनका स्वागत हर पार्टी में हो रहा है, विशेषतः भाजपा में। समाजवादी पार्टी की कमान भले ही आज यादवों के पास है, पर इसके जन्मदाता एक ब्राह्मण ही थे! उन्होंने कांग्रेस से अलग होकर यही सपना देखा था कि वे भी सशक्त शासक बनेंगे! आज वह सपना यादव-कुल पूरा कर रहा है, लेकिन उसका मॉडल कौन है? धर्म और जाति के नाम पर नयी-नयी पार्टियाँ इसलिए उत्पन्न हो रही हैं कि वे अपनी जाति में आर्थिक सम्पन्नता, सत्ता में भागीदारी जैसे बिन्दुओं के आधार पर अपनी प्रभुता स्थापित करना चाहते हैं! वे उन लोगों पर शासन करना चाहते हैं, जो उनसे पिछड़े हैं-पद, पैसा और परिजनों की शिक्षा के मामले में!

जब श्रमण ही ब्राह्मण बनने के लिए आकुल-व्याकुल है, तो ब्राहमण भला श्रमण क्यों बनने लगा! स्वार्थसाधना ही आज ब्रह्मसाधना बन गयी है। इसे तिलांजलि देनी होगी, अन्यथा वह दिन दूर नहीं हम-हम मनुष्य कहलाने के अधिकारी न रहेंगे।