ब्रेक-डाउन / सुशील कुमार फुल्ल
नगर की छत पर विलीन हो रहा पुच्छल तारा, लहरियाँ बिखेरता हुआ। बत्तियाँ धुधियायी हुईं। बर्फीली हवा में भी पसीने से तर-बतर। साँस घुटता हुआ-सा। तभी वह हड़बड़ा कर उठ बैठा। असहाय दृष्टि इधर-उधर घूम रही थी। पापा का सोये अभी कुछ ही क्षण हुए होंगे। उसने धीमे से अलमारी खोली...वह कुछ ढूँढ रहा था.... शायद मम्मी ने अलमारी साफ की थी और सब दवाइयाँ बेकार समझ कर बाहर फेंक दी थीं। घर में दवाईयों का अम्बार लगा रहता है और वे सब भाई यों ही दवाई लेते रहते..... मम्मी खीझ उठती और कभी-कभी तो प्रवचन हो जाता- मैं पचास की हो गयी लेकिन कभी दवाई नहीं खाई। बहुत हुआ तो चाय में तुलसी के पत्ते उबाल कर पी लिये। और तुम हो कि घर को दवाइयों की दुकान बना बैठे हो।
बाहर तेज़ हवा थी, एकदम बर्फ। दूर वृक्ष की शाखाओं में बये का घोंसला लटक रहा था, झूलता-सा। उसने खिड़की में से पुच्छत तारे की चिंगारियाँ लहरियाँ बनकर बिखरती हुई देखीं और संस्कारवश वह अन्दर ही अन्दर काँप गया।
उसकी इच्छा हुई कि पिंजरे में बन्द खरगाश को कठिनाई हो तो वह शरीर को फैलाकर लेट जाता है।.... आकार में बड़ा लगने लगता है... वह एकदम हृष्ट-पुष्ट था परन्तु उसकी आँखें बन्द होती जा रही थीं। कब तक यातना को झेलता... वह धीमे से फुसफुसाया- पापा।
‘‘क्यों क्या हुआ?’’ अलसाई सी आवाज और पापा ने करवट बदल ली! ‘‘मेरा साँस घुट रहा है...सभी खिड़कियाँ खोल दूँ। तुम ठीक तो हो।’’ ‘‘इतनी ठण्ड में सभी खिड़कियाँ खोल दूँ। तुम ठीक तो हो।’’ ‘‘हूँ।’’ बेटा बुदबुदाया।
बाप एकदम उठ बैठा.... भयाक्रांत, आशंकित। साँस की शिकायत उसे पहले भी हो जाती थी परन्तु इतना शिथिल वह पहले कभी दिखायी नहीं दिया। पापा का हृदय दहल गया परन्तु सान्तवना देते हुए कहा- बिट्टू मैं अभी एम्बुलैंस लाता हूँ और तुम्हें अस्पताल ले चलूँगा।
बये का घोंसला आँगन के पेड़ में बुरी तरह से झूल रहा था। नयी-नयी कोंपलों वाला बिरवा धुंधियायी बत्तियों में धूमिल सा जान पड़ा। पुच्छल तारा टूट कर न जाने कहाँ विल्पुत हो गया था... उस आत्मा की तरह जो एक शरीर छोड़ कर न जाने कब कहाँ.... गायब हो जाती है। पिता ने बेटे की कुर्सी में सीधा करके बिठा दिया ताकि साँस लेने में दिक्कत न हो और कहा- बिट्टू...तुम बहादुर हो...थोड़ी देर इन्तज़ार करो... मैं गया और आया। बेटा निरीह... विवश... लाचार... आँखों से देखता हुआ बैठ गया कुर्सी पर सीध होकर।
पहाड़ को काटकर बनायी हुई सरकारी आवास कालोनी, न कार पहुंच सके, न स्कूटर .... साँप सी सीढीनुमा चढ़ती पगडण्डी। अस्पताल से लगभग तीन किलोमीटर की दूरी.... पहाड़ की चोटी पर टिके मकान.... एक लम्बे सेवाकाल के बाद सरकारी आवास मिला था... और वह भी संयोग से। सीनियारिटी में तो वर्मा जी बहुत आगे थे परन्तु हर बार कोई न कोई सिफारशी बाजी मार ले जाता। हाऊस-एलाटमेंट भी स्वास्थ्यमंत्री खुद करता था और वर्मा जी कभी अपने लिए कह न पाए।
मंत्री ने अपने गांव में स्वास्थ्य-शिविर का उद्घाटन किया था। मुफ्त दवाईयाँ बाँटी जा रही थीं लेकिन गांव के लोग दवाइयों की अपेक्षा अपनी छोटी-मोटी माँगे लेकर मंत्री के सामने पेश हो रहे थे और मंत्री थे कि कल्प वृक्ष बने बैठे थे। चुनाव की तलवार हवा में लटकी हुई थी और अब किसी प्रार्थी को ‘न’ का सवाल नहीं था। मंत्री उपस्थित थे। तो सभी अधिकारी भी मौके पर उपस्थित थे। एक-एक अर्जी प्रस्तुत होती, निवेदक गिड़गिड़ाता और राजा जी प्रसन्न होकर आदेश लिख देते। सब लोग सन्तुष्ट होकर चले गए तो मंत्री जी ने कहा- वर्मा जी.... नयी हवा के रूख का क्या पता। आप भी कुछ माँगो न।
वर्मा जी सकुचा गए। उनके एक सहयोगी ने कहा- राजा जी, वर्मा जी पचास से ऊपर हो गए, इन्होंने काम भी बहुत किया है परन्तु अभी तक सरकारी क्वार्टर नहीं मिला है। आठ सौ रुपये किराया देकर दो कमरों के सीलन भरे मकान में रहते हैं। मंत्री जी ने तुरन्त अपने सेकेटरी को कहा- वर्मा जी को क्वार्टर अलाटमेंट के आर्डर कर दो।
वर्मा जी सन्तुष्ट। नये क्वार्टर में आ गए थे। किराया भी बहुत कम था। पहाड़ के सोलन जैसे शहर में क्वार्टर मिल जाए, तो आदमी बादशाह हो जाता है.... लेकिन क्वार्टर बने थे पहाड़ की चोटी पर। पैदल चलना पड़ता।
ऊपर से नीचे उतरो तो भी दम निकलता था, नीचे से ऊपर जाओ तो रास्ते में कई-कई बार बैठना पड़ता। अस्पताल तीन किलोमीटर की दूरी पर था। वह परेशान हो उठते। उन्हें पहाड़ के साथ ही जीना था। बचपन में कभी जन्म-पत्री दिखायी थी, तो ज्योतिषी ने कहा था- वर्मा जी, आप तो जंगलों में जीवन काटेंगे। अब उन्हें इस आशय का अर्थ समझ आने लगे थे... सारा हिमाचल एक तरह से जंगल ही तो था.... एकदम घना होता.... झाड़ियों सा सिमटता हुआ। रात के ग्यारह बजे थे। शहर सन्नाटे में डूबा हुआ था।
वह नीचे की ओर भाग रहे थे। कुर्सी में बैठा हुआ बिट्टू...बस मैं अभी अस्पताल पहुंच कर एम्बुलैंस ले आऊँगा। फिर डॉक्टर इन्जेक्शन दे देगा और सब ठीक हो जाएगा। पिछली बार भी ऐसा ही हुआ था। वे अस्पताल पहुँचे थे.... इन्जेक्शन देते ही बिट्टू की साँस ठीक हो गयी थी।
पगडण्डी नीचे उतरती हुई पक्की सड़क में विलीन हो गयी लेकिन यहाँ तक पहुँचते-पहुँचते उनका अपना साँस फूल गया था। वह क्षण-भर के लिए ठिठके परन्तु बेटे को ध्यान आते ही तेज़-तेज़ चल पड़े। सड़क पर मरे हुए कुत्ते से टकराए और हकबकाए से बोले- ओम् नमो शिवायः अच्छा शगुन नहीं था। सड़क के बीच मौत। कुत्ते का जीवन.... योनि दर योनि भटकता हुआ जीव। नश्वर संसार... कौन जाने कब कहाँ किसका अन्त हो जाए। संसार तो मकड़ी का जाला है। हम स्वयं अपने इर्द-गिर्द जाल बुनते हैं और अन्ततः उसी में घुट कर मर जाते हैं, उन्होंने सोचा और फिर तेज़-तेज़ चलने लगे!
पगडण्डी चढ़कर वह ऊपर पहुँचे, अस्पताल के आँगन में!
चमचम रोशनी में नहाया हुआ अस्पताल, अभी दो महीने पहले ही मुख्यमंत्री ने इसका उद्घाटन किया था... सौ बिस्तर का आलीशान अस्पताल। अब किसी मरीज को शिमला या चण्डीगढ़ नहीं जाना पड़ेगा।
पुच्छल तारे की पूँछ अब भी आकाश में अलसायी हुई सी लटकी थी। शरह में घुस आये गीदड़ों की चिंघाड़ सन्नाटे को भंग कर रही थी। अस्पताल सोया पड़ा था।
वर्मा जी ने चौकीदार को जगाया और ड्यूटी-रूम में चले गये। नर्स कुर्सी पर ऊँघ रही थी। डाक्टर राउण्ड लेकर अपने क्वार्टर में चली गयी थी।
‘‘सर, आप इस समय यहाँ।’’ चौकीदार चौंका। इस बीच नर्स भी जाग गयी थी। ‘‘सिनकू, रामदीन को बुलाओ। मुझे एम्बुलैंस लेकर जाना है। बिट्टू की हालत खराब है।’’ ‘‘सर, एम्बुलैंस तो खराब है शायद।’’ नर्स ने सूचना दी। ‘‘तो कोई गाड़ी तो होगी।’’ ‘‘हाँ... मैं पता करती हूँ... अगर कोई ड्राइवर आस-पास हो।’’ और नर्स बड़े इत्मीनान से टेलीफोन मिलाती रही। अचानक रामदीन आ गया था। उसकी ड्यूटी तो आठ बजे शुरू होती थी परन्तु वह शिमला से ही लेट हो गया था। आते ही बोला- साहब! आप टेलीफोन ही कर देते। मैं खुद एम्बुलैंस लेकर पहुँच जाता।
वर्मा साहिब के पास बहस के लिये समय नहीं था... रामदीन जल्दी चलो... कहकर वह एम्बुलैंस में बैठ गए और नर्स से बोले- डॉक्टर साहिबा को तुरन्त लगा रखे। शुक्र खुदा का कि एम्बुलैंस ठीक थी लेकिन गाड़ी घर से आधा किलो-मीटर इधर रूक गयी। वर्मा साहिबा और रामदीन पगडन्डी पर दौड़ने लगे। घर पहुँचे बिट्टू कुर्सी में वैसे ही बैठा था, जैसे वह छोड़ गए थे... एक आज्ञाकारी बेटा...चेहरा थोड़ा नीला पड़ गया था... आँखें आधी बन्द हो चुकी थीं लेकिन नाड़ी चल रही थी! ‘‘बिट्टू। मैं आ गया। एम्बुलैंस पहुँच गयी है। मैं अभी तुम्हें अस्पताल ले चलूँगा। फिर सब ठीक हो जाएगा। तुम थोड़ी देर और हौंसला रखो। उनकी आवाज धँसती चली गयी!
बिट्टू की आँखों में कोई चमक नहीं थी... कोई हरकत नहीं... मानो कह रहा हो... पापा, तुम अपने रक्त-चाप की चिन्ता करो... मेरा क्या है।
रामदीन और वर्मा साहिब उसे उठाने लगे लेकिन सत्ताईस वर्षीय भरा-पूरा जवान उनके लिए भारी पड़ रहा था। अब वे दोनों घबराए। वर्मा साहिब पसीने से नहा गए। रामदीन चिल्लाया... अरे, कोई तो बाहर आओ। ऊपरी मंजिलों की कुछ खिड़कियाँ खुली.... लोगों ने बाहर झाँका...एक दो आदमी तुरन्त नीचे पहुँच गये। वे बिट्टू को उठा रहे थे।
जहाँ क्वार्टर बने थे...वहाँ पगडण्डी के साथ कर डंगा बारिशों में गिर गया था। मलबा गिरने से पगडण्डी सिकुड़ गयी थी। वहाँ चलने में दिक्कत होती परन्तु लोक-निर्माण विभाग के एस्टीमेट अभी बने नहीं थे...हर साल डंगा बनता.... नये एस्टीमेट बनते और काम शुरू हो जाता लेकिन इस साल का बजट सूख गया था।
मरीज़ को उठाकर उतरने में दिक्कत हो रही थी परन्तु कोई चारा नहीं था। पहाड़ की जिन्दगी... झाने सी स्वच्छ एवं कल-कल करती हुई... तो कभी पहाड़ के बोझ के नीचे दबती हुई... इस पार और उस पार... बीच मँझधार। उसे नीचे एम्बुलैंस तक लाने में आधा घण्टा लग गया। नब्ज अभी चल रही थी.... ‘रामदीन’ फुसफुसाहट भरा स्वर।
‘‘वर्मा साहिब। आप चिन्ता न करें। हम अभी अस्पताल पहुँच जाएँगे और सब ठीक हो जाएगा।’’ और रामदीन ने गाड़ी स्टार्ट कर दी। वर्मा जी आप तो जंगलों में जीवन व्यतीत करेंगे। ज्योतिषी की आवाज़ उभर रही थी...जन्म ही मैदान में लिखा था... ठीक ही तो कहा था... जंगल ही जंगल...उभरते हुए पहाड़...जंगलों से घिरा शहर और शहर में उग आया जंगल। उन्हें लगा कि वह बाँस के झुरमुटों में फंस गए थे और निकलने का कोई रास्ता दिखायी नहीं दे रहा था...उनकी स्थिति बाँस की जड़ में फँसे चूहे जैसी हो गयी थी!
पुच्छल तारे की पूँछ आकाश में कब की विलुप्त हो चुकी थी परन्तु उन्हें लगा पुच्छल तारे की पूँछ अभी भी हवा में लहरियाँ बिखराती हुई आग सी भभक उठी थी... सारा शहर अग्निकुण्ड में डूब गया था...
बये का घोंसला तूफान में झूल रहा था... बिखरने के लिए व्याकुल... बुरी तरह से झूलता हुआ और घोंसले में नवजात बये... मुझे फोन ही कर देना चाहिए था...आने-जाने में ही दो घण्टे लग गए... लेकिन जब वहाँ ड्राइवर ही नहीं था, तो फोन भी व्यर्थ था... या फिर बिट्टू के पास किसी को बिठा कर आना चाहिए था... दर्द हर व्यक्ति को अकेले ही झेलना पड़ता है लेकिन किसी की उपस्थिति से थोड़ा ढाढस तो बँधता है। परकाया प्रवेश... काश! वह बिट्टू के शरीर में प्रवेश कर पाते... फिर उन्हें लगा अग्नि-कुण्ड जलने लगा था... सदियों से अग्नि-कुण्ड जलता आ रहा है। शरीर तो भस्म हो जाता है परन्तु आत्मा वस्त्र बदल लेती है.... फिर उन्होंने भीगे नयनों से रामदीन से कहा- गाड़ी रोको। रामदीन... तुमने बहुत जिन्दगी देखी है... पके फल तो गिरते ही हैं परन्तु क्या गदरा हुए कच्चे फल भी गिर जाते हैं। बोलो न, तुम चुप क्यों हो... क्या गदराए हुए कच्चे फल भी गिर जाते हैं। बोलो न, तुम चुप क्यों हो... क्या कच्चे फल भी गिरते हैं।
रामदीन की आँखें झर-झर कर बहने लगीं। बोला- वर्मा साहिब.... आप धैर्य रखो... हम पहुँचने ही वाले हैं! एक चोटी से दूसरी.... दूसरी से तीसरी.... तक फलाँगते हुए बन्दर...बये का हिलता हुआ घोंसला... पिंजरे में बन्द खरगोश की धुँधली पड़ती हुई आँखे... पुच्छल तारे की बिखरती... सिमटती लहरियाँ.... योनि दर योनि भटकता जीव... अनेक बिम्ब वर्मा साहिब की आँखों के आगे धुँधियाये से घूम गए! एम्बुलैंस अस्पताल के आँगन में पहँच गयी... रामदीन के चहरे पर सन्तोष झलक गया। स्ट्रेचर पर मरीज़ को उतारा जा रहा था। डॉक्टर साहिबा मरीज़ को एटैण्ड करने के लिए तैयार खड़ी थीं...सब कुछ तैयार था।
अचानक सारा शहर अंधकार में डूब गया था...अस्पताल भी... शायद कहीं बड़ा ब्रेक-डाउन हो गया था...मरघट-सा सन्नाटा... अन्धकार में पुच्छल तारे की लहरियाँ आकाश में चिंगारियों की तरह बिखरकर जंगल की गहराइयों में लीन हो गयीं!