ब्लैकहोल / प्रताप दीक्षित
बुच्ची बाबू को पूरी उम्मीद थी कि परिषद की विशेष सभा में इस बार पुस्तकालय के लिए, कुछ न कुछ, निर्णय अवश्य लिया जाएगा। उन्होने पूरी योजना पहले से ही बना रखी है। किताबें, जिसमें मुख्य रूप से उपन्यास, कथा साहित्य, कविताएँ और कला सम्बधी पुस्तकें, मंगवानी ही होंगी। क्रय की जा सकने वाली संभावित पुस्तकों की उन्होने सूची भी बना रखी है। इसका आधार अनुमानित बजट होता। बरसो से पुस्तकालय में केवल अनुदान वाली पुस्तकें ही आती रही हैं। इसमें भी अधिकांश शोध प्रबंध, सरकारी विभागों के संदर्भ ग्रंथ। पिछले दो वर्षों से तो वह भी नहीं।
पुरानी पुस्तकों की भी हालत अच्छी नहीं है। इनके रख-रखाव, जिल्दसाजी की ज़रूरत है। ज़रूरत तो भवन की सफ़ाई –पुताई और फर्नीचर, नया न सही, की मरम्मत की भी है। मालूम नहीं इतना बजट है भी या नहीं? गत तीन सालों में तो इस के नाम पर कुछ हुआ नहीं है।
‘प्रवासी साहित्य परिषद’ द्वारा संचालित इस पुस्तकालय में बुच्ची बाबू लगभग पन्द्रह वर्षों से कार्यरत हैं। असली नाम तो लोग भूल चुके थे। वह घर बाहर बुच्ची बाबू के नाम से प्रसिद्ध थे। लंबे, दुबले, गहरा सांवला रंग, माथे पर पीछे की ओर खींचे-संवारे गए सफेद बाल, उनके गंजेपन को और भी स्पष्ट कर देते। आंखों पर चौड़े फ्रेम और मोटे लेंसों वाला चश्मा। वह एक स्वायत्तशाषी जैसी संस्था से रिटायर हुए थे। संस्थान कभी का बंद हो चुका था। उन को बराएनाम, एक बहुत मामूली-सी राशि, जिसे पेंशन कहा जाता, मिलती। परिवार के दायित्व अभी बाक़ी थे। बेरोजगार पुत्र, शादी की उम्र बीत गई एक बेटी का विवाह। भले नाम मात्र की, लेकिन एक मुस्तकिल आमदनी, पढ़ने की रुचि और अपने को व्यस्त बनाए रखने का बहाना ऐसे कितने कारण बुच्ची बाबू की इस लायब्रेरी वाली नौकरी के पीछे गिनाए जा सकते थे।
समय से पुस्तकालय खोलना, बंद करना, किताबों की सार-संभाल, कैटलॉगिंग, पुराने अखबारों की फाइलें तैयार करने से लेकर सदस्यों को कार्ड पर पुस्तके निर्गम करने तक के सभी काम उनके जिम्मे थे। इसके अलावा के कामों - बिजली का बिल जमा करना, मेजों पर जमी धूल की सफ़ाई , सचिव या अध्यक्ष महोदय के बुलावे पर हाजिरी आदि को क्या आप काम मानते हैं?
नगर में ‘प्रवासी साहित्य परिषद’ की स्थापना गत सदी के प्रारंभ में हुई थी। मुल्क की राजधानी के स्थान्तरण की प्रक्रिया में इनसे जुड़े लोगों के हित भी बदले और एक स्थान से दूसरे तक, उनका पलायन भी हुआ। इसी क्रम में संस्था की स्थापना हुई थी। समाज सेवा, सांस्कृतिक गतिविधियों के अतिरिक्त अनेक विद्यालय, प्रकाशन संस्थान तथा अनुषांगिक संस्थाएँ इसका प्रमाण हैं। प्रारम्भ में रायसाहब, रायबहादुर और स्वतन्त्रता के बाद पद्म उपाधियाँ इनकी सेवा-पारायणता का प्रमाण हैं।
नगर के मुख्य चौराहे चौराहे से अंदर की ओर जाने वाली सड़क पर पुस्तकालय भवन स्थित था। भारतीय और रोमन कैथोलिक स्थापत्य में दो मंजिला भवन के द्वार के ऊपर ‘प्रवासी साहित्य परिषद’ और इसके स्थापना वर्ष उकेरे गए थे। बाहरी दीवालें पीले-मटमैले रंग की थीं। भवन के दोनों ओर चौड़े मार्ग, जिनमें अब बड़ी बड़ी दुकाने खुल गई थीं। भवन के मुख्य हाल में दो कतारों में लगी मेजों पर दैनिक-साप्ताहिक समाचार-पत्र, पत्रिकाएँ लगी रहती। दीवाल से सटी अल्मारियों में पुस्तके चुनी हुई थीं। छत से लटकते हुए, शेड लगे, बल्बों की पीली रोशनी मेजों पर फैली रहती।
काम था ही कितना? बुच्ची बाबू सब सम्हाल लेते। किताबों की देखभाल के क्रम में वह छत पर उन्हे धूप दिखाते, उनकी धूल झाड़ते, पैस्टीसाइड्स का छिड़काव करते। दोनों हाथों में भर कर, बहुत आहिस्ते से, पतले जीने से किताबें छत पर ले जाते। इसमें उन्हे किसी तरह की तकलीफ न महसूस होती। बुच्ची बाबू को अक्सर घर में बूढ़ी मॉं को गोद में उठा कर छत पर ले जाने और वापस लाने की आदत थी।
स्वतंत्रता के उपरांत जो विकास नगर में सात-आठ दशकों तक नहीं देखा-सुना गया था, वह अब, सदी के अंतिम दिनो में चतुर्दिक दृष्यमान था। पुरानी दुकाने वातानुकूलित स्टोर्स में तब्दील हो रही थीं। पार्क, स्कूलों के मैदान, मोहल्लों के खाली पड़े चौराहों, नुक्कड़ों, जहाँ किसी समय लड़के धमाचौकड़ी मचाते थे, लुप्त हो रहे थे। इनके स्थान पर बहुमंजिले भवन, रिहायशी फ्लैट्स, एपार्टमेंट्स आदि बनवाए जा रहे थे। सरकारी दफ्तरों, बैंकों आदि की बरसों पुरानी पुरानी ब्रिटिश स्थापत्य की ऊँची छतों वाली ईमारतों को धराशायी कर उनके स्थान पर स्कार्इ-स्क्रैपर्स उग रहे थे।
झोपड़पट्टी के इलाकों का फैलाव इन स्कार्इ-स्क्रैपर्स के पिछवाड़े, बाउण्ड्री के बाहर, आसपास हो रहा था। अधबने ओर बनने की प्रक्रिया में भवनों में राज-मिस्त्री, मजदूर, कामगार औरतें रहते। बच्चे मौरंग, बालू, चूने के ढेरों पर ‘स्कूल-स्कूल’ खेलते। काग़ज़-पोलिथिन बीनने के लिए, सुअरों-कुत्तों के बीच, कूड़े के ढेर खंगालते। कभी कुछ खाने की वस्तु, बासी ब्रेड, सड़े-गले फेंक दिए गए फल आदि मिल जाते। सूअरों-कुत्तों से छीना झपटी होती। लेकिन सबल वे सूखे हुए बच्चे ही पड़ते। उनके चेहरे खिल उठते। छोटी-मोटी चोरियाँ करते, गालियाँ देते, पिटते। सामूहिक रूप से प्रात:-शांय निवृत्त होते। औरतें बच्चे जनतीं। अक्सर औरतों और किशोर बच्चों को, ठेकेदारों के मुंशी-कारिन्दे रात में उन अधबने कमरों में ले जाते, जिनमें अभी खिड़की-दरवाजे भी नहीं लगे थे। अगल-बगल आबाद हो रहे फ्लैट्स में बस गए लोग नाक-भौं सिकोड़ते, समाज में बढ़ती नैतिकता के पतन पर, ज़माने को कोस कर रह जाते।
नगर के प्रमुख बिल्डर बी0आर0रंगवाली की वातानुकूलित कार जब भी इस मार्ग से गुजरती वह तनावग्रस्त हो जाते, उनका रक्तचाप बढ़ जाता। आकाश से बातें करते, जगमगाते भव्य भवनों वाले गुलजार इलाके में, पुस्तकालय भवन देख, प्रत्येक बार उन्हे लगता, जैसे किसी फाइव स्टार होटल में चल रही पार्टी के बीच कोई गलीज-अंधा भिखारी रास्ता भूल कर घुस आया है। इस बौनी इमारत का अस्तित्व बार बार अपना मुह चिढ़ाता प्रतीत होता। वह क्षुब्ध हो जाते, गहरी सांसे भरते, अनुलोम-विलोम करते हुए ध्यान मुद्रा में डूब जाते। उन्हे अपने किए गए प्रयासों पर तंज होता। उन्हे आशंका होने लगती कि कहीं उनके प्रतिद्वंद्वी बिल्डर बाजी न मार ले जाएँ।
उन्होने बहुत पहले ही इस ‘प्रवासी साहित्य परिषद’ के तत्कालीन अध्यक्ष से संपर्क साधा था। अध्यक्ष ने लायब्रेरी की उपयोगिता, उसके इतिहास, पाठकों ओर कार्यकारिणी के सदस्यों के एतराज जैसी बातों पर मामला टाल दिया था। उनके मुंह में कड़वाहट घुल गई । ऊपर से संयमित, मुस्कराते रहे, अंदर ही अंदर कई मोटी गलियाँ लायब्रेरी के नाम पर दे डालीं। साले कूप-मंडूक! कौन पूछता है किताबों को आज? वह भी दीमक लगी, सीलन से भरी, जिनके पन्ने पलटते ही उबकाई आती है। फुरसत किसको है पढ़ने की आज? इसी लिए देश की तरक्क़ी नहीं हो पा रहीं है। उनके आफिस में शायद ही कोर्इ फाइल या काग़ज़ का एक टुकड़ा भी मिलता। पूरा रिकार्ड कंप्यूटर में है। सभी अभिलेखों का बैकअप सी0डी0 के अतिरिक्त डिजास्टर व्यवस्था के अंतर्गत पूरी तरह सुरक्षित है। काग़ज़ के नाम पर, पाश्चात्य यूरोपियन-कमोड के साथ लगा, सफ़ाई के काम आने वाला, टायलट रोल मात्र है। शेयर मार्केट के भाव वह निफ्टी की वेब साइड में देख लेते।
अचानक ही उनके मस्तिष्क एक नयी योजना का विचार, मूर्त रूप में, जन्म लेने को अकुलाया। बुद्धत्व हो अथवा न्यूटन, आर्इंस्टीन जैसे वैज्ञानिकों की नायब खोजें, उनका प्रस्फुटन ऐसे अचानक क्षणो में ही तो हुआ होगा। घर पहुच कर, देर रात गए तक, कई जगह फ़ोन करते रहे। अंतिम फ़ोन संस्था के अध्यक्ष महोदय को किया था। अगले दिन वह उनके पास एक नए प्रस्ताव के साथ मिले। मुलाकात से पहले अध्यक्ष महोदय के पास कई फोन, कमेटी मेंबरों से लेकर प्रांत के शिक्षा मंत्री तक के, आ चुके थे।
‘प्रवासी साहित्य परिषद’ की आगामी सभा में, जिसकी बुच्ची बाबू को बेसब्री से प्रतीक्षा थी, स्वागत, पिछली कार्यवाही का अनुमोदन, धन्यवाद प्रस्ताव आदि औपचारिकताओं के बाद अध्यक्ष महोदय ने बड़ी सावधानी एवं निस्प्रह भाव से एक प्रस्ताव सदस्यों के विचारार्थ प्रस्तुत किया। प्रस्ताव में देश के अग्रणी भवन निर्माता माननीय रंगवानी साहब को पुस्तकालय भवन के हस्तांतरण के बाद, उनके द्वारा, उस स्थान पर, एक भव्य मार्केटिंग कॉंप्लेक्स के साथ मल्टी स्टोरी भवन बनाने तथा संस्था के साथ तीस वर्षों की लीज का प्रस्ताव शामिल था।
‘‘ना ना! चिंता करने की ज़रूरत नहीं है। आपके प्रिय पुस्तकालय के विकास का कार्यक्रम भी इसमे है’’, उन्होने गहरी सांस ली, फिर बात आगे बढ़ाई - रंगवानी जी ने सभी पुस्तकों के साथ अन्य सामग्री को एक वेबसाइट पर उपलब्ध कराने की व्यवस्था करने का वायदा किया है। इस सम्बंध में संपूर्ण व्यय रंगवानी साहब द्वारा वहन किया जाएगा। इस सब में एक-दो साल लग सकते हैं। तब तक पुस्तकालय के पाठकों को ज़रूर धैर्य धारण करना होगा। इसके बाद वे घर बैठे, किसी भी इण्टरनेट कैफे में जाकर इसका लाभ उठा सकेंगे। इस सुविधा के लिए इस कॉम्प्लेक्स में भी एक स्थान होगा, जिसमें सामग्री का प्रिंट आउट, सामान्य दरों में, उपल्बध कराने की व्यवस्था का विचार है। बिल्डर ने इसके लिए वायदा किया है। इस वेब साइट के नाम का सुझाव, ‘’हम चाहेंगे, ज़रूर आप दें। नाम ज़रूर कुछ, क्या कहते हैं, कल्चरल-वलचरल-सा होना चाहिए।’’ उन्हे बोलने में कुछ कठिनार्इ हुई, ‘‘जैसे कवी कालीदास, प्रेमदास - -क्या कहते हैं उसे - -हॉं, निराला - जैसा कुछ! मैने भी एक नाम सोचा है - www रवीन्द्रा।कॉम।‘’ एक ओर बात बताना ज़रूरी है कि इससे हमारी संस्था की बचत कितनी होगी। प्रति माह मिलने वाले लीज के किराए के अतिरिक्त किताबों, अल्मारी, फर्नीचर आदि के व्यर्थ के खर्चों की बचत।
मीटिंग के अगले दिन बुच्ची बाबू बहुत उत्साह में थे। सुबह सुबह अध्यक्ष महोदय ने उन्हे बुलवाया था। उन्होने शेव की। धुली पैण्ट-शर्ट के साथ आज टाई भी लगाई । ऐसे अवसर कम ही आते। वह अपनी ख़ुशी छिपा नहीं पा रहे थे। उन्होने परिवार के सदस्यों के आगे बोलना शुरू कर दिया - देर ज़रूर हुई, लेकिन मैं कहता था न कि इस बार पुस्तकालय के लिए अवश्य कुछ किया जाएगा। मेरी जिम्मेदारियों का बोझ और बढ़ गया। आख़िर इतनी बड़ी तादात पुस्तको की खरीद कोई हंसी-ठट्ठा है? दूसरा कोई होता तो कमीशन में ही वारे न्यारे कर लेता। परंतु मैं, देखो तुम लोग कोई टोका टोकी नहीं करना, मैं उस पैसे को हाथ भी नहीं लगाऊँगा। उस कमीशन के पैसे से भी किताबें ही आएँगी। लेकिन है बड़ी झंझट वाला काम! क्या करूं! अध्यक्ष महोदय का कहा भी तो नहीं टाला जा सकता। कितना मानते हैं। कल ही तो मीटिंग हुई है। सुबह-सबेरे ही खुशखबरी देने बुलवा लिया - - ! उन्हे पता ही नहीं चला कि कब कमरा खाली हो गया, पत्नी-बच्चे जा चुके हैं।
मुलाकात होने पर अध्यक्ष महोदय ने बधाई दी तो उन्होने भरपूर गर्मजोशी से उन्हे धन्यवाद दियाँ परंतु जब मीटिंग के प्रस्ताव की पूरी जानकारी उन्हे हुई तो हतप्रभ रह गए। उन्हे यक़ीन ही नहीं हुआ, मज़ाक समझा। लेकिन सत्यता जानने और सदमे से उबरने के बाद पुस्तकों के महत्त्व, उनकी ज़रूरत, सच्चा मित्र, उनका विकल्प न होने जैसे कितने तर्कों के तरकश खाली कर दिए।
अध्यक्ष महोदय चुपचाप मुस्कराते हुए सब सुनते रहे फिर एक प्रश्न किया था, ‘‘आपके पुस्तकालय में प्रतिदिन लगभग कितने लोग आते हैं और सदस्य कितने होंगे?’’
‘‘जी होंगे करीब पचास-साठ।’’ उन्होने संख्या कुछ बढ़ा कर ही बतायी थी,
‘‘वेबसाइट पर तीन लाख और इससे भी ज़्यादा लोग इस सुविधा का एक साथ लाभ उठा सकते हैं।’’ अध्यक्ष महोदय मुस्कराए।
‘‘परंतु - - परंतु- -’’ वह हकला गए।
‘‘और पुस्तकालय का खर्चा, आप का वेतन - इसकी भी तो बचत है।’’
‘‘क्या मेरे वेतन के लिए - -?’’ वह उत्तेजित हुए, फिर चुप, शांत!
‘‘नहीं मेरा यह मतलब नहीं। आप हमारे पुराने आदमी हैं, पिता जी के समय से। रंगवानी जी से बात करनी होगी। आपके लिए कुछ न कुछ ज़रूर करेंगे। कितने तो प्रोजेक्ट हैं उनके। किसी ठेकेदार के साथ हिसाब-किताब करने में रख लेंगे। अभी नहीं तो कुछ दिनो बाद।’’ अध्यक्ष महोदय ने उन्हे सांत्वना दी।
‘‘अरे! आप क्या समझते हैं कि मैं हज़ार रुपए के लिए यहाँ काम कर रहा हूँ? मुझे सरकारी पेंशन मिलती है।’’ बुच्ची बाबू अचानक तैश में आकर अपने को न रोक सके। लेकिन पेंशन की राशि याद आते ही सम पर आ गए, ‘‘यह पुस्तकालय मेरी मॉं। की तरह है। मेरा शौक, जुनून, कुछ भी कह लें। मैं बिना वेतन काम करने को तैयार हूँ। नई पुस्तके न मंगवाइए। लेकिन इसे बंद न करें। र्इमारत बिल्डर को न सौपें।’’ उन्होने हाथ जोड़ लिए। गला रुंध गया, हाँफ गए वह।
बुच्ची बाबू की व्यस्तताएँ बढ़ती गईं । न दिन देखते, न रात। कमेटी मेबरों और पुस्तकालय के सदस्यों के घर दौड़ते। पूरी शिद्दत से अपनी बात समझाने की कोशिश करते। अखबारों मे, पाठकों के पत्र वाले कॉलम के लिए, विभिन्न नामों से पत्र लिखते। लायब्रेरी के आस पास दुकानों, बैंकों में उनके कर्मियों, रिहायशी क्षेत्रों में जाकर लोगों से पुस्तकालय के सदस्य बनने के लाभ गिनाते। शहर में कितने तो स्कूल-कॉलेज हैं, प्रवासी संस्था के विद्यालयों में ही पांच हज़ार से ज़्यादा ही विद्यार्थी होंगे। आधे भी सदस्य बन जाएँ तो कितनी राशि तो सिक्योरिटी में ही जमा हो जाएगी! सुबह-शाम लायब्रेरी में लग जाते। सुबह, लायब्रेरी का समय न होने पर भी चले जाते। किताबों की झाड़-पोंछ करते, उन्हे निहारते, अल्मारी से निकाल कर, बहुत आहिस्ते से खोलते, बुदबुदाते जैसे बाते करते। जाने कब से उन्हे धूप नहीं दिखाई गई थी। कैटलॉग, रजिस्टर पुराने हो गए थे। वह नया कैटलॉग बनाने में जुट गए।
‘‘हुंह! इंटरनेट पर क्या सूचना, जानकारी मिलेगी? मैने पढ़ी हैं किताबें। मैं बता सकता हूँ किस विषय पर कौन किताब किसके लिए अच्छी है।’’ वह अकेले बुदबुदाते रहते। जाने कितनी किताबों के उद्धरण उन्हे पृष्ठ संख्या सहित याद थे।
लायब्रेरी में आने वाले पुराने पाठक, यदा-कदा कमेटी मेंबर भी आते, उनकी व्यस्तता देख पूछ लेते, ‘‘अरे अब आप क्यों हलकान हैं? कुछ ही दिनो की तो बात है और अब आपकी उम्र भी तो आराम करने की है।‘’
‘‘वाह! अभी मेरी उम्र हुई ही कितनी है? रिटायर हुए केवल पन्द्रह साल ही तो हुए हैं।’’ रिटायरमेंट का वर्ष बताते बताते उन्हे लगता कि सामने वाले को उनकी आयु ज़्यादा लग रही होगी, वह धीरे से कहते, ‘‘मेरी उम्र स्कूल में लिखी कुछ अधिक थी। इस लिए जल्दी रिटायर हो गया।’’ फिर बात बदल देते, ‘‘मैं बिल्कुल ठीक हूँ। एकदम फिट।’’ वह सीधे तन कर कुर्सी से उठ खड़े होते।
वह बोलते-बोलते हाँफ जाते, चेहरे का पसीना पोछते। उन्होने सुना था कि बिल्डर से बात काफ़ी आगे बढ़ गई है, एग्रीमेंट होने ही वाला है। वह कई दिनो से अस्वस्थ थे। परंतु पुस्तकालय नियमित रूप से पहुँचते। जब तक सांस, तब तक आस। क्या मालूम कुछ चमत्कार हो जाए। जितने दिन देख सकते हैं, काम कर सकते हैं, काम कर लें। उन्हे पिता की बीमारी की याद आ गर्इ। पिता बिस्तर पर पड़े रहते, अंतिम दिन थे। वह दफ्तर से लौटते समय रास्ते में प्रार्थना करते रहते- प्रभु आज का दिन पार कर देना। पिता देखने को मिल जाएँ। घर आकर पिता पुत्र एक दूसरे को देख कर मुस्कराते। उनकी आंखें भीगी होतीं।
आज पहली तारीख थी। कल रात से उनका दमा उभरा हुआ था। पुस्तकालय तो आना ही था। विवाहित बेटी की विदायी होनी थी। घर में कुछ नहीं था। आज वेतन मिल सकता था। लेकिन वेतन तो उन्होने पिछले माह भी नहीं लिया था। वेतन के लिए अध्यक्ष महोदय के यहाँ जाना पड़ता। जब एक बार बिना वेतन के लिए काम करने को कह दिया तो किस मुंह से जाते उनके यहाँ। अध्यक्ष महोदय ने भी किसी से कहलाया तक नहीं। उनका आदमी रोज़ ही तो लायब्रेरी आता जाता है।
उन्होने सोचा कि यदि अध्यक्ष महोदय ने ज़ोर दिया तो वह दोनों माह का वेतन उठा लेंगे। पेंशन मिलती ही कितनी ही है?
पुस्तकालय बंद होने का समय रात साढ़े आठ का था। बुच्ची बाबू लायब्रेरी बंद करते समय कोने वाली चाय की दुकान से अक्सर किसी को बुला लेते थे। कमजोर नज़र के कारण ताला बंद करने में कुछ परेशानी होती। रात नौ बज गए थे। बुलाए न जाने पर आज वह स्वयं चला आया, ‘‘बुच्ची बाबू, आज बंद नहीं कराना है क्या?’’ उसने आवाज़ दी।
बुच्ची बाबू ने सुना नहीं। बुच्ची बाबू मेज के पीछे बैठे हुए थे। सिर कुर्सी की पीठ से टिका हुआ था। नौकर ने फिर से आवाज़ दी, लगता है - थके होने से सो गये हैं, बूढ़ा शरीर, उसने सोचा। जवाब न मिलने पर उसने कंधे को छुआ, हिलाना चाहा। बुच्ची बाबू एक ओर लुढ़क गए। आंखे निष्पलक खुली रह गई थीं। होंठों पर मुस्कराहट थी - मैं बिल्कुल ठीक ठाक हूँ।