भँवर / तेजेन्द्र शर्मा

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भरत को महसूस हुआ कि सिरदर्द असह्य होता जा रहा है। मेज़ का दराज़ खोला, एक पैरासीटामॉल की गोली निकाली और पानी के बिना ही निगल ली। उसे बचपन से ही यह अजीब-सी आदत थी। दवा की कड़वी से कड़वी गोली भी बिना पानी के निगल जाया करता था। किन्तु क्या इस समाचार की कड़वाहट को भी उसी आसानी से निगल पाएगा। वह जब से लन्दन से वापिस आया है, एक विचित्र-सी भावना से ग्रस्त है। उसे वहीं यह समाचार मिला था। रमा ने फ़ोन पर ही बता दिया था-`मैं माँ बनने वाली हूँ।' और तब से अब तक भरत एक निरन्तर सोच में डूबा हुआ है। क्या रमा का माँ बनना सही है? उसके पति की क्या प्रतिक्रिया रही होगी जब उसे यह समाचार मिला होगा? रमा तो बहुत प्रसन्न लग रही थी। फिर व ही सोच-सोच कर क्यों परेशान हो रहा है! दुनियाँ में सब के बच्चे होते ही हैं। फिर अगर रमा गर्भवती हो गई तो ऐसी कौन-सी नई बात हो गई। स्मिता कॉफी बना लाई थी। आठ साल हो गये उनकी शादी को। जैसे कल की ही बात हो। अब तो दो-दो बेटे हैं घर में-मिंकू और चिंकू दोनों की शक्ल हूबहू अपने पापा से मिलती है। वही नीली ऑखें, गोरा रंग, तीखी नाक। उनकी शरारतों से तंग आ जाती है स्मिता। प्रतिदिन कुछ न कुछ तो टूटता ही रहता है घर में। बहुत प्यार से स्मिता ने कॉफ़ी का प्याला आगे बढ़ाया। न जाने क्यों भरत को महसूस हुआ जैसे वह स्मिता से आँखें चुरा रहा है। कॉफ़ी पीकर भी उसे कुछ ठीक-सा महसूस नहीं हुआ। उसे समझ नहीं आ रहा था कि पत्नी को समाचार दे या नहीं। एक ना एक दिन तो उसे मालूम हो ही जाऐगा। और फिर यदि रमा ने ही चिट्ठी में लिख दिया, तो...! स्मिता को क्या जवाब देगा! स्मिता ने पूछ ही लिया, `अबकी लन्दन में रमा और इन्दर से मिले?' `हाँ।' भरत की सोच टूटी। `एक अच्छी ख़बर है। रमा माँ बनने वाली है।' `क्या! पर रमा तो कुछ और ही बता रही थी अपने पति के बारे में।' `जब अपने यहाँ हकीम लोग शर्तिया कमज़ोरी का इलाज कर देते हैं, तो लन्दन में तो बढ़िया से बढ़िया डॉक्टर मौजूद हैं।' कहने को तो कह गया भारत। किन्तु उसे लगा जैसे स्मिता का वाक्य उसी की ओर लक्ष्य किया गया था। वह एक चोर की भाँति महसूस कर रहा था। `उससे पूछ आते अगर बच्चे के लिए इण्डिया से कुछ मँगवाना चाहे...।' `पूछा था। बोली कुछ मँगवाना होगा तो स्मिता को फ़ोन करके बता दूँगी।' `खुश लग रही थी?' `वो तो काफ़ी खुश लग रही थी। पर इन्दर कहीं बाहर दौरे पर गया हुआ था-शायद आस्ट्रिया। उससे मुलाकात नहीं हो पाई।' `चलो अच्छा है। बेचारी का जीवन सैटल हो जाएगा। उसके जीवन में क्या भटकन थी।' भरत एक बार फिर सोच में पड़ गया। स्मिता से उसका विवाह प्रेम-विवाह ही कहलाएगा। दोनों स्कूल के दिनों से ही इकट्ठे पढ़ते थे। स्मिता उससे दो ही क्लास पीछे थी। शादी से पहले ही दोनों एक दूसरे को पद्रह वर्षों से अच्छी तरह जानते थे। इतनी प्यार करने वाली पत्नी से वह कैसे इतनी बड़ी बात छुपाए जा रहा है! स्मिता ने बच्चों को पढ़ाना शुरू कर दिया। बड़ा मिन्कु दुसरी कक्षा में पढ़ता है और चिंकु पहली में। स्मिता का सारा दिन बच्चों में ही बीत जाता है। उन्हें स्कूल के लिए तैयार करना, खाना बनाना, बस पर चढ़ाने जाना और लेने जाना। कभी-कभी तो इतनी थक जाती है कि रात होते ही धम से बिस्तर पर गिरते ही सो जाती है। बहुत बार भरत रात को सोती हुई स्मिता का चेहरा निहारता रहता है। जो सौम्यता उसे अपनी पत्नी के चेहरे पर दिखाई देती है, वह कभी भी अपने साथ काम करने वाली सैंकड़ों एयर होस्टेसों में नहीं दिखाई दी। इस बीच कई बार उसके कदम बहके। किन्तु स्मिता, बच्चों और घर का ख्याल ही उसे भटकने से बचा लेता था। कॉलेज के दिनों से ही भरत लड़कियों में बहुत लोकप्रिय था। हर लड़की उसके गोरे रंग और नीली आँखों की दीवानी थी। उस पर उसकी गहरी और रोबीली आवाज। सब लोग सोचते थे कि भरत को प़ि€ल्मी हीरो होना चाहिए! किन्तु भरत को एक्टिंग से कभी कोई भी लगाव नहीं रहा। विदेश जाने का शौक भरत को बचपन से ही था। दादाजी सत्तर के रहे होंगे जब वे चाचा से मिलने अमरीका गये थे। वापिस आकर बोले थे, `भरत बेटा, मैं तो एक ही बात कहता हूँ - अगर अमरीका नहीं देखा, तो कुछ भी नहीं देखा। वहाँ की ज़िन्दगी को शब्दों में नहीं बता सकते। स्वर्ग है स्वर्ग।' भरत को भी विदेशी वस्तुओं से कम लगाव नहीं था। किन्तु परिवार की आर्थिक स्थिति ने उस पर अंकुश लगा रखा था। पिता की सीमित कमाई से किसी तरह बस घर की गाड़ी खिंच रही थी। भरत दिन में भी सपने देखा करता था। अचानक पंख लगाकर अमरीका और यूरोप की विदेश के अलावा भी कोई जीवन है। बैंक में प्रोबेशनरी ऑफ़िसर था भरत। किन्तु काम में मन नहीं लगता था। कभी भी नौकरी को गम्भीरता से नहीं लिया था। बैंक अप़€सर को वह सदा ही `ग्लोरिफ़ाइड क्लर्क' कहता था। मन में कहीं कोई भटकाव था। एयर लाइन की नौकरी मिलने पर उसकी प्रसन्नता की कोई सीमा नहीं थी। स्मिता ने तब भी कहा था, `भरत, इस नौकरी में ग्लैमर ज़रूर है, पर स्टेटस नहीं। तुम सोचो, बैंक में तुम कहाँ से कहाँ जाओगे। इतनी छोटी उमर में डायरेक्ट अफ़सर लगे हो। वहाँ तो फ्लाइट परसर ही रिटायर हो जाओगे।' `अरी बेवकूफ सोच, हमारा संसार कितना बड़ा हो जाएगा। आज अमरीका तो कल यूरोप। जापान और रूस हमारी मुट्ठी में बन्द। बैंक की नौकरी में तो तुम्हें कभी भी विदेश की सैर नहीं करवा पाऊँगा। एयरलाइन ज्वायन करते ही शादी कर लेंगे।...तुम्हें तो कोई शौक ही नहीं है। अभी से दादी बनी जा रही हो।' एयर लाइन में फ़्लाइट परसर। शुरू-शुरू में तो असिस्टैंट फ़्लाइट परसर ही बना था। ट्रेनिंग में बताया गया था कि विमान में टायलेट भी साफ़ करने होंगे। ब्राह्मण का बेटा और जमादार का काम। सारा ग्लैमर टायलेट की सीट के नीचे बह गया। पर विदेश जाने की खुशी ने जैसे सब कुछ भुला दिया था। भरत को शुरू से ही लड़कियों में थोड़ी अधिक दिलचस्पी रहती थी। लिंडा गुडमेन की किताब में उसने पढ़ लिया था, `तुला राशि के लोगों को साठ साल की उमर में भी विपरीत सेक्स के प्रति आकर्षण बना रहता है।' वह तो अभी केवल पच्चीस का ही था। तो उसका आकर्षण तो स्वाभाविक ही था। विमान में भी वह महिला यात्रियों का ज़रा अधिक ही ख्याल रखता था। स्मिता अपने पति की इस कमज़ोरी से पूरी तरह वाकिफ़ थी। परन्तु सदा की भाँति इस विषय पर भी वह कभी तकरार नहीं करती थी। वह जानती थी उसका पति एक डरपोक प्रवृत्ति का व्यक्ति है। दूसरी लड़कियों में रुचि तो ले सकता है पर अपना घर तोड़ने की हिम्मत नहीं रखता। महिलाओं को प्रभावित करने की अपनी पति की आदत पर स्मिता को कभी हँसी आती, कभी गुस्सा, तो कभी दया। परन्तु अपने पति की इस कमज़ोरी का कारण वह कभी समझ नहीं पाई। समझ तो कभी भरत भी नहीं पाया कि रमा से उसकी मुलाकात घनिष्ठता में कैसे बदलती गयी। मुलाकात घनिष्ठता में बदलती ही क्यों है? रमा उसके जीवन की पहली युवती तो नहीं थी, फिर कारण क्या है? वह इतना बेचैन क्यों है? दिमाग़ जब बेलगाम सोचने लगता है, तो ना मालूम कहाँ-कहाँ की दौड़ लगाने लगता है। वही इस समय भरत का दिमाग़ भी कर रहा था। कई सवाल उसके दिमाग़ को मथे जा रहे थे- इतने बड़े विमान में वह रमा की ओर ही क्यों आकर्षित हुआ? क्या इसलिए कि रमा बहुत सुन्दर है या इसलिए कि रमा ने उसे लिफ़्ट दी थी? क्या कोई भी लड़की उसे लिफ़्ट देती तो वह उसकी रौ में बह चलता? यदि इन्दर उस फ़्लाइट में रमा के साथ होता तो क्या उसकी बातचीत भी शुरू हो पाती? क्या जो हुआ सही हुआ? सही क्या है ग़लत क्या है? भरत के दिमाग़ की नसें जैसे फट ही जाना चाहती थीं। लगा जैसे सब के सब सवाल बेमानी हैं। फिर से एक सवाल कौंधा जिसने भरत के समूचे व्यक्तित्व को ही हिला डाला-`क्या वह पछता रहा है? क्या वह स्वयं को अपराधी महसूस कर रहा है?' रमा ने फ़्लाइट पर ही उसे अपने घर का फ़ोन नम्बर भी बताया था। उसे घर आने के लिए भी कहा था-`हम लोग लन्दन में भी पंजाब में रहते हैं – साउथ-हॉल में। आ जाइयेगा तो मक्की की रोटी के साथ सरसों का साग भी खिला दूँगी।' रमा ने पीली सलवार के साथ हरी कमीज़ पहन रखी थी। मक्की की रोटी और सरसों को साग! पंजाब का लोग संगीत भरत के दिमाग़ में बजने लगा।...सोचते-सोचते होठों पर एक फीकी-सी मुस्कुराहट उभरी। दिमाग़ फिर बेलगाम हो गया। रमा को प्रभावित करने के लिए उसने इन्दर का बहाना बना कर एक बोतल शैम्पेन भी उसे भेंट में दी थी। रमा को भी शैम्पेन अच्छी लगती है। वह और कोई मादक पेय तो लेती नहीं है। फ़्लाइट पर भी उसने कहा था-`तुम्हारे मिलने की खुशी में एक गिलास ले रही हूँ।...आम तौर पर किसी खुशी के मौके पर ही एक आधा गिलास ले लेती हूँ।' रमा के व्यक्तित्व का खुलापन उसे अच्छी लगा था। पर उसकी आँखों की भाषा को भरत समझ नहीं पाया था।-एक विचित्र-सी भावना। वह उनकी तह तक नहीं पहुँच पा रहा था। क्या रमा उसे केवल खाने पर ही बुला रही है या..कुछ और भी। होटल के अकेले कमरे में भी वह रमा को लेकर कुछ न कुछ सोचता रहा..आखिर रमा चाहती क्या है...आखिर वह स्वयं क्या चाहता है? पहुँच गया था रमा के घर। उसके होटल से बस नं.105 रमा के घर के करीब ही उतारती है। रास्ते में `बूट्स' से उसने रमा के लिए एक शीशी `नीना रीकी' परफ़्यूम की ले ली थी। रमा ने कहा भी था कि उसे यह परफ़्यूम बहुत अच्छा लगता है। इन्दर घर पर ही था। उसने अपने लिए बीयर डाल ली थी एक गिलास में। ताज्जुब तो उसे तब हुआ जब भरत ने कहा कि वह शराब नहीं पीता-`अरे, अब तुम एअरलाइन वाले ही पीना छोड़ दोगे, तो दुनिया का क्या बनेगा।' `भाई जान छोड़ता तो तब अगर कभी पकड़ा होता। मैंने तो कभी पकड़ा ही नहीं।' यह कहकर भरत ने रमा की ओर देखा। रमा ने एक बार फिर विचित्र-सी नज़रों से भरत की ओर ताका। रात देर तक तीनों बातें करते रहे। घर में और कोई था ही नहीं। यद्यपि इन्दर और रमा के विवाह को छह वर्ष हो चुके थे। पर कोई बच्चा नहीं। भरत भी सबसे बहुत ज़ल्दी घुलमिल जाता है और मुँहफट भी हो जाता है, `अरे भाई लोग यह फैमिली प्लैनिंग हिन्दोस्तान में तो समझ में आती है, पर तुम दोनों ने यहाँ विलायत में क्यों ब्रेक लगा रखी है। हमें देखो शादी का बस पाँच साल ही हुए हैं और अभी से दो-दो बेटों के बाप बने हुए हैं। वातावरण भरत की आशा के विपरीत एकाएक बोझिल हो उठा। इन्दर कुछ समय के लिए विचलित-सा हो गया पर शीघ्र ही सहज भी हो गया। रमा ने भरत की ओर देखा था। उन आँखो में नमी थी। दोनों रात को भरत को छोड़ने तक आए। बहुत सुन्दर-सी फोर्ड गाड़ी थी इन्दर के पास। भरत को भी अपनी सिक्स्टी टू मॉडल फ़िएट याद आने लगी। सवेरे धक्का मारने पर ही स्टार्ट होती है। उसके जीवन में भी काफ़ी धक्के और हिचकोले लिखे थे। भरत दोनो को अपने होटल के कमरे में ले गया। बहाना कॉफ़ी पिलाने का-मन ही मन उन्हें बताना भी चाहता था कि लन्दन में भी वह पाँच-सितारा होटल में ठहरता है। चलते हुए रमा ने स्मिता के लिए एक साड़ी और बच्चों के लिए खिलौने भरत को दिए। भरत कहता रह गया, `अरे, रमाजी आप तो हिन्दोस्तानी `कस्टम्ज़ वालों' को जानती हैं। अरे वे लोग हमें युनिफ़ॉर्म में कुछ भी ले जाने की इज़ाज़त नहीं देते' उत्तर में रमा ने इतना ही का, `क्या मेरी ख़ातिर, आप इतना भी नहीं कर सकते?' चुपचाप भरत ने वह पैकट अपने सूटकेस में रख लिए। काफ़ी देर तक रमा की आँखें भरत को याद आती रहीं। उन आँखों में था क्या? भरत किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाया था। किन्तु उनमें कुछ ऐसा था जो भरत को बेचैन किए जा रहा था। स्मिता ने वे उपहार बहुत सहज तरीके से ले लिए थे। रमा और इन्दर के बारे में पूछती रही, सुनती रही। फिर बोली, `अगली बार जाओगे तो उनके लिए भी कुछ ले जाना, ऐसे दूसरों का एहसान चढ़ता है।' क्या यही एहसान की भावना थी जिसके कारण भरत इस चक्रव्यूह में फस गया...था...या सचमुच उसे रमा अच्छी लगने लगी थी। कई बार उसे लगता जैसे इन्दर की उपस्थिति उसे खलने लगी थी। वह चाहने लगा था कि रमा उसे अकेली आकर होटल में ही मिले। रमा की आँखें देखकर भरत को लगता शायद वह भी यही चाहती है। वह रमा के मन की थाह नहीं पा सका रहा था। जान पहचान कब और कैसे दोस्ती और घनिष्ठता में बदल जाती है, इसका साक्षी केवल समय रहता है। समय के लिए देखो की सीमाओं का कोई अर्थ नहीं। उसे कभी भी किसी भी पासपोर्ट या वीज़ा की आवश्यकता नहीं रहती। एक वही तो है जो लन्दन से बम्बई तक की दूरी पलक झपकते ही तय कर लेता है। इसलिए जब रमा भारत आई तो समय उससे पहले ही दर्शक बन के यहाँ पहुँच चुका था। रमा आई थी अपने भाई की शादी में शरीफ होने। स्मिता के लिए तो जैसे उपहारों का अम्बार-सा ही लगा दिया था उसने। कपड़े, मेकअप का सामान, बच्चों के कपड़े और ए माइक्रोवेव अवन। स्मिता तो घबरा-सी गई थी। उसने भरत को कहा भी, `इतना सामान कैसे रख लूँ मैं। हम तो इतना कर भी नहीं सकते।' रमा ने सुन ली स्मिता की बात-`स्मिता मुझे पराया ना समझो। तुम लोगों का साथ मुझे बहुत भाता है। फिर मैं कौन-सा तुम पर अहसान कर रही हूँ। तुम्हारी दोस्ती और प्यार जो मुझे तुमसे मिलता है वह इन चीज़ों से कहीं बढ़ कर है। रमा के अहसान बढ़ते रहे और भरत पर एक बोझ। उस बार भरत ने लन्दन में रमा को फ़ोन किया तो रमा ने उसे घर आने को नहीं कहा। वह स्वयं ही उसे मिलने होटल आने का आग्रह करने लगी। भरत मन ही मन खुश भी था और थोड़ा हैरान भी। फिर उसने कन्धे उचकाये। शीशे में अपने आपको देखा और मुस्कुरा दिया। टूथपेस्ट से दाँत साफ़ किए और शरीर पर कोलोन का छिड़काव किया। रह-रह कर उसे रमा की आँखें याद आ रही थीं।...क्या उसने रमा की आँखों की भाषा ठीक से पढ़ ली थी...क्या रमा भी वही चाहती है जो वह चाहता है..क्या आज की शाम रंगीनियों की पराकाष्ठा तक पहुँच जाएगी...और शैम्पेन की बोतल फ्रिज में ठण्डी होने के लिए रख दी। प्रतीक्षा की घड़ियाँ बहुत कठिन होती हैं। और फिर, ऐसे वातावरण में तो घड़ियाँ कटनी और भी मुश्किल हो जाती हैं! भरत ने एक पत्रिका उठा ली...पन्ने उलटे-पलटे। किन्तु एकाग्रचित नहीं हो पा रहा था। फिर पन्ने उलटे-पलटे। कंघी से अपने बाल एक बार फिर ठ किए।...बिस्तर को एकबार फिर सलीके से ठीक कर दिया। सोच रहा था `रमा कहाँ बैठेगी...उससे बात कैसे शुरू करूँगा।...झुँझलाहट हुई, नाहक ही इतना परेशान हो रहा हू, क्या आज पहली बार उससे मिलने जा रहा हूँ।'...लेकिन नहीं आज इतने वर्षों में पहली बार दोनों अकेले मिलने जा रहे थे।...लगा जैसे गला सूखता जा रहा है...उठकर पानी पिया।...टी.वी.चला दिया...कोई फ़िल्म चल रही थी, गाना बज रहा था `आई जस्ट कॉल्ड टु से, आई लव यू' पत्नी की याद आ गई। वहीं कमरे से ही फ़ोन उठाया और घर का नम्बर मिलाने लगा।...फिर सोचा, `पद्रह पाउंड का बिल तो फ़ोन का ही हो जाएगा..इतने पैसों में तो स्मिता के लिए एक अच्छा सा उपहार खरीदा जा सकता है।'...रिसीवर क्रैडल पर रख दिया।...एकाएक विचार श्रृंखला टूटी...`कहीं इन्दर साथ तो नहीं है। पर...रमा ने तो ऐसा कुछ कहा नहीं...नहीं अकेली ही आ रही होगी'...शरीर का तनाव बढ़ता ही जा रहा था। कपाट पर दस्तक हुई। काँपते-से हाथों से भरत ने दरवाज़ा खोला। सामने रमा खड़ी थी-अकेली। एकदम दुल्हन-सी सजी हुई। लगता था जैसे आज वह भरत का ईमान डगमगाने का पूरा सामान करके आई थी। भरत को विश्वास नहीं हो पा रहा था कि उसके सामने वही रमा खड़ी है, जिसे वह पहले कई बार मिल चुका है। बौखला-सा गया वह और एकटक रमा को देखता रहा। रमा मुस्कुराई, `अन्दर नहीं बुलाओगे।' भरत जैसे निद्रा से जागा। रमा को अन्दर बैठाया। अपने आपको संयत करने की कोशिश करने लगा। उसका आत्मविश्वास बुरी तरह से डगमगा गया था। थोड़ी देर दोनों चुप बैठे रहे। अन्तत: रमा ने ही चुप्पी तोड़ी, `हैरान तो होगे कि अचानक तुम्हारे होटल में अकेली क्यों चली आई।' भरत ने केवल सिर हिला कर दिया। `इतने चुप क्यों बैठे हैं, कोई बात तो कीजिये ना। आप तो चुप रहने वालों में से नहीं हैं।' भरत अब भी ख़ामोश था एकाएक बोल उठा, `इन्दर नहीं आया, कहीं बाहर गया है क्या?' `हाँ, आस्ट्रिया गये हैं।...तुम...आप तो यहाँ तीन दिन रुकने वाले हैं ना।' `तुम ही ठीक है, आपकी ज़रूरत नहीं।' `मेरे सवाल का...' `हाँ, तीन दिन ही रुकने वाला हूँ।' रमा एक बार फिर सोच में पड़ कई जैसे तय नहीं कर पा रही हो, कि बात कहाँ से शुरू करे। अब तक भरत का आत्मविश्वास लौट आया था। वह रमा के काफ़ी नज़दीक आकर बैठ गया। रमा का मुँह ऊपर की ओर उठाया और उसकी आँखों में आँखें डालकर देखने लगा। रमा ने भी मना नहीं किया। दोनों की आँखों में लाल डोरे तैरने लगे थी। भरत ने अपने होंठ रमा के होंठों पर झुका दिए। रमा तड़प कर पीछे को हठ गई। `भरत मैं इसी विषय में तुमसे बात करना चाहती हूँ। मैने हमेशा ही तुम्हारी आँखों में एक विशेष भावना, अपने बारे में महसूस की है? यह भी जानती हूँ इस समय तुम्हें रमा की नहीं उसके शरीर की ज़रूरत है।...यह भी जानती हूँ कि यह स्मिता के प्रति अन्याय होगा।...मगर मैं अपने और तुम्हारे सम्बन्धों का किसी फ़ाइव स्टार होटल की एक रंगीन रात बनाकर बदनाम नहीं होने दूँगी।...तुम मुझे बहुत अच्छे लगते हो...मगर मैं जानती हूं कि तुम मेरे नहीं हो सकते...मैं तुम पर हक भी नहीं जता सकती...तुम स्मिता के हो और अपने बच्चों के हो। अपने कारण...अपने कारण, मैं तुम्हारे परिवार को नहीं टूटने दूँगी मगर साथ ही यह भी सच है कि इन्दर के साथ रहते हुए भी मैं बहुत अकेली हूँ...मगर...मगर...'और रमा की रुलाई फूट पड़ी। भरत ने आगे बढ़कर रमा को अपनी छाती से सटा लिया। वह सम्भवत: अब भी रमा के शरीर की गर्मी में अधिक रुचि ले रहा था। रमा की परेशानी में अभी तक वह एक रस नहीं हो पाया था। `रोओ नहीं रमा, मुझे बताओ क्या दिक्कत है तुम्हें, इन्दर से क्या कष्ट है तुम्हें, तुम्हारे जीवन में किस बात की कमी है।' `कमी है भरत, एक बहुत बड़ी कमी है...एक अजीब-सा खालीपन। इन्दर मुझे जीवन के सभी सुख दे सकते हैं मगर जीवन का सबसे महत्वपूर्ण सुख नहीं दे सकते...वह मुझे संतान का सुख नहीं दे सकते हैं...वह मुझे माँ नहीं बना सकते...' पहली बार भरत को रमा से सहानुभूति हुई। फिर भी उसने पूछ ही लिया, `किसी अच्छे डॉक्टर को दिखाया?' उसे अपने स्वर का खोखलापन महसूस हो रहा था। `कहाँ-कहाँ नहीं दिखाया। यहाँ लन्दन में, जर्मनी में, इण्डिया में। मगर कुछ नहीं, कुछ नहीं हो सका.. भरत मेरी एक बात मानोगे। भरत थोड़ा सतर्क हुआ। `बोलो मानोगे।' `अरे भई, बोलो तो सही, पता तो चले कि मानना क्या है।' `भरत मैंने तुमसे आज तक कभी कुछ नहीं माँगा, नहीं माँगा ना!... भरत मुझे एक चीज़ दे दो...बस एक ही चीज़...मुझे एक बच्चा दे दो...अपना बच्चा...अपनी निशानी...मैं उसे अपनी जान से भी ज्यादा प्यार देकर पालूँगी।' भरत अवाक् रह गया था। उसे कोई जवाब नहीं सूझ रहा था। स्मिता, मिंकू, चिंकू उसके दिमाग को मथने लगे। रमा ने फिर भरत की आँखों में आँखें डाल दी। आज भरत को रमा की विचित्र भाषा का अर्थ समझ में आ गया। अपने आप पर झल्लाहट-सी भी होने लगी। स्वयं को बेवकूफ़-सा महसूस करने लगा। फिर बोल पड़ी रमा, `एक बात याद रखना भरत, इसके बाद मुझे अपनी रखैल नहीं समझने लगना, न ही मुझे दोबारा होटल के कमरे में अकेले आने के लिए कहना। तुम चाहो भी तो इसे नहीं पाओगे। हमारे शरीर मिलेंगे तो केवल इसलिए कि मुझे तुम्हारा बच्चा चाहिए...इसके बाद अपने सम्बन्धों की प्रतिष्ठा बनाए रखना।...और हाँ, यह सब यहाँ इस होटल में नहीं होगा...यह होगा मेरे घर में। मैं इसे एक पाप की तरह नहीं करना चाहती। मैं अपने बच्चे के सामने अपराधी महसूस नहीं करना चाहती।...और मेरे घर में भी इन्दर के बिस्तर पर नहीं...एक अलग कमरे में...एक अलग सजावट के साथ...एक विशेष काम...बोलो तुम्हें मंजूर हैं! रमा ने भरत का हाथ पकड़ा और अपनी कार की ओर चल दी। भरत अभी तक तय नहीं कर पा रहा था कि वह क्या करने जा रहा है। सही-गलत की भँवर में पॅं€सा हुआ था वह। भँवर गहरा हुआ जा रहा था। वह भँवर में डूबता जा रहा था। उसमें से बाहर निकल जाना अब संभव नहीं था। स्मिता ने भरत के कन्धे पर हाथ रखा तो भरत भी सोच से बाहर निकला। मिंकू और चिंकु सो चुके थे। स्मिता नाइटी पहन कर सोने की तैयारी कर रही थी। उसने बहुत प्यार भरी नज़रों से भरत को देखा। भरत के अन्दर तक सिहरन की एक लहर-सी दौड़ गई। दिमाग़ में एक विस्फोट हुआ, `अगर रमा के बच्चे की आँखें भी नीली हुई, अगर उसका चेहरा भी भरत से मिलता हुआ तो...क्या वह कभी भी स्मिता का सामना कर पायेगा।' इस विस्फोट की तीव्रता को भरत सह नहीं पाया और आँखें बन्द कर सोने का असफल प्रयत्न करने लगा।