भंवर / एक्वेरियम / ममता व्यास
तुम्हें पानी से इतना डर क्यों लगता है? तुमने बताया था खत में कि शहर में जब भी बरसात होती है तुम घर से नहीं निकलते। काले बादल देखकर ही तुम छतरी खोल लेते हो। क्या मिट्टी के बने हो जो गल जाओगे? अच्छा तभी तुम रोते भी नहीं हो। कहीं घुल न जाओ...हा हा हा।
मुझे तो बरसात बहुत पसंद है। सिर्फ़ यही एक मौसम ऐसा है जिसमें सब-कुछ भीग जाता है मन भी और तन भी और ये बरसात ही नहीं मुझे तो पानी ही बहुत पसंद है। इस नदी किनारे मैं रोज आती हूँ। मैंने इस नदी किनारे तुम्हारा बहुत इंतजार किया। अब पूरा साल गुजर जाने पर आये हो तो चलो नदी में उतरते हैं।
"पागल हुई हो मुझे पानी से डर लगता है मैं नहीं उतर सकता।"
"चलो न मेरे साथ मंझधार में चलते हैं, बहुत अच्छा लगेगा तुम्हें चलो अब।"
"नहीं मैं नहीं आने वाला और तुम ये बेकार की जिद मत किया करो, बैठो मेरे पास थोड़ी देर।"
"अरे, मैं हूँ न कुछ नहीं होगा तुम्हें। मत डरो, इस नदी की लहर-लहर मेरी सखी है और हर भंवर से मेरा अपनापा है। बस इन किनारों से ही मेरी नहीं जमती। इन्होंने अक्सर मेरी नाव डुबोई है।"
"आओ जल्दी, देखो आना तो पड़ेगा ही वरना मैं तुम्हें खुद खींच के ले आऊंगी इतना ही डर था तो आये क्यों यहाँ मुझसे मिलने?"
"आता हूँ बाबा रूठो मत, लेकिन मुझे किनारों पर बैठना ही सुखकर लगता है। आती-जाती लहरें मन को ठंडक देती हैं। बहुत उदास हूँ मैं भीतर से, जलता-बुझता सा। तुम नहीं जान सकोगी कभी।"
"मैं नहीं जान सकूंगी? तो फिर कौन जान सकेगा तुम्हें? जिससे प्रेम करते हैं हम, उसे जान लेना हमारी सबसे बड़ी जिम्मेदारी होती है।"
"जानती हो, ये नदी और तुम्हारा प्रेम दोनों मुझे एक जैसे लगते हैं। मुझे लगता है मैं तुम में डूब जाऊंगा। इस भंवर में, मैं डूब जाने से बहुत घबराता हूँ।"
" ओह, इतना डर है तो चले जाओ वापस और जो नहीं जा सकते तो आओ मेरे साथ उतरो नदी में। जब तक पानी में उतरोगे नहीं ये डर कभी नहीं जायेगा।
प्रेम हो या नदी हमें डुबोती नहीं उस पार ले जाती है दूसरी दुनिया में। नदी हो या प्रेम ये तो माध्यम ही हैं बस उस पर जाने के. हमें इसके बहाव में बहते जाना है। ठहरोगे तो डूब जाओगे, खुद को सौंप देना होता है नदी हो या प्रेम।
बिन उतरे गहराई का पता कैसे चलेगा ये तो बताओ? एक बार डूब का रहस्य जान लो, गहराई का अनुभव कर लो फिर कोई आपको डुबो नहीं सकता। ...अब चलो बहुत हुई बात अब कोई बहाना नहीं चलेगा। "
उसने आंखें बंद कीं और उसका हाथ पकड़ कर नदी में उतर गया। वे दोनों बहुत लम्बे समय तक बहते रहे, लहर-लहर जैसे उन्हें अपनी-सी लगती थी और नदी ने जैसे दुनियावी बोझ को देह से उतार दिया था।
"देखा कितनी शीतलता और हल्कापन है नदी के भीतर, तुम आंखें मत खोलना। बस चुपचाप बहते रहो बस किनारा आने ही वाला है। लो आ गए हम किनारे पर, देखो तुम्हें सुरक्षित ले आई मैं। अरे देखो तुम पानी में गले भी नहीं, घुले भी नहीं ये तो कमाल हो गया।" वह हंसती रही नदी पर लहर बनती रही।