भक्तिकाल की फुटकल रचनाएँ / भक्तिकाल / शुक्ल

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पूर्व मध्यकाल: भक्तिकाल (संवत् 1375 - 1700) / प्रकरण 6 - भक्तिकाल की फुटकल रचनाएँ

जिन राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों के बीच भक्ति का काव्य प्रवाह उमड़ा, उनका संक्षिप्त उल्लेख आरंभ में हो चुका है। वह प्रवाह राजाओं या शासकों के प्रोत्साहन आदि पर अवलंबित न था। वह जनता की प्रवृत्ति का प्रवाह था जिसका प्रवर्तक काल था। न तो उसको पुरस्कार या यश के लोभ ने उत्पन्न किया था और न भय रोक सकता था। उस प्रवाह काल के बीच अकबर ऐसे योग्य और गुणग्राही शासक का भारत के अधीश्वर के रूप में प्रतिष्ठित होना एक आकस्मिक बात थी। अत: सूर और तुलसी ऐसे भक्त कवीश्वरों के प्रादुर्भाव के कारणों में अकबर द्वारा संस्थापित शांतिसुख को गिनना भारी भूल है। उस शांतिसुख के परिणामस्वरूप जो साहित्य उत्पन्न हुआ वह दूसरे ढंग का था। उसका कोई एक निश्चित स्वरूप न था; सच पूछिए तो वह उन कई प्रकार की रचना पद्ध तियों का पुनरुत्थान था जो पठानों के शासनकाल की अशांति और विप्लव के बीच दब सी गई थी और धीरे-धीरे लुप्त होने जा रही थी।

पठान शासक भारतीय संस्कृति से अपने कट्टरपन के कारण दूर ही दूर रहे। अकबर की चाहे नीतिकुशलता कहिए, चाहे उदारता, उसने देश की परंपरागत संस्कृति में पूरा योग दिया जिससे कला के क्षेत्र में फिर से उत्साह का संचार हुआ। जो भारतीय कलावंत छोटे मोटे राजाओं के यहाँ किसी प्रकार अपना निर्वाह करते हुए संगीत को सहारा दिए हुए थे वे अब शाही दरबार में पहुँचकर 'वाह वाह' की ध्वनि के बीच अपना करतब दिखाने लगे। जहाँ बचे हुए हिंदू राजाओं की सभाओं में ही कविजन थोड़ा बहुत उत्साहित या पुरस्कृत किए जाते थे वहाँ अब बादशाह के दरबार में भी उनका सम्मान होने लगा। कवियों के सम्मान के साथ साथ कविता का सम्मान भी यहाँ तक बढ़ा कि अब्दुर्रहीम खानखाना ऐसे उच्चपदस्थ सरदार क्या बादशाह तक ब्रजभाषा की ऐसी कविता करने लगे

जाको जस है जगत में, जगत सराहै जाहि।

ताको जीवन सफल है, कहत अकब्बर साहि

साहि अकब्बर एक समै चले कान्ह विनोद बिलोकन बालहि।

आहट तें अबला निरख्यो चकि चौंकि चली करि आतुर चालहिं

त्यों बलि बेनी सुधारि धारी सु भई छबि यों ललना अरु लालहि।

चंपक चारु कमान चढ़ावत काम ज्यों हाथ लिए अहिबालहिं

नरहरि और गंग ऐसे सुकवि और तानसेन ऐसे गायक अकबरी दरबार की शोभा बढ़ाते थे।

यह अनुकूल परिस्थिति हिन्दी काव्य को अग्रसर करने में अवश्य सहायक हुई। वीर, श्रृंगार और नीति की कविताओं के आविर्भाव के लिए विस्तृत क्षेत्र फिर खुल गए। जैसा आरंभ काल में दिखाया जा चुका है, फुटकल कविताएँ अधिकतर इन्हीं विषयों को लेकर छप्पय, कवित्त, सवैयों और दोहों में हुआ करती थीं। मुक्तक रचनाओं के अतिरिक्त प्रबंध काव्य परंपरा ने भी जोर पकड़ा और अनेक अच्छे आख्यान काव्य भी इस काल में लिखे गए। खेद है कि नाटकों की रचना की ओर ध्यान नहीं गया। हृदयराम के भाषा हनुमन्नाटक को नाटक नहीं कह सकते। इसी प्रकार सुप्रसिद्ध कृष्णभक्त कवि व्यास जी (संवत् 1620 के आसपास) के देव नामक एक शिष्य का रचा 'देवमायाप्रपंचनाटक' भी नाटक नहीं, ज्ञानवार्ता है।

इसमें संदेह नहीं कि अकबर के राजत्वकाल में एक ओर तो साहित्य की चली आती हुई परंपरा को प्रोत्साहन मिला, दूसरी ओर भक्त कवियों की दिव्यवाणी का स्रोत उमड़ चला। इन दोनों की सम्मिलित विभूति से अकबर का राजत्वकाल जगमगा उठा और साहित्य के इतिहास में उसका एक विशेष स्थान हुआ। जिस काल में सूर और तुलसी ऐसे भक्त के अवतार तथा नरहरि, गंग और रहीम ऐसे निपुण भावुक कवि दिखाई पड़े उसके साहित्यिक गौरव की ओर ध्यान जाना स्वाभाविक ही है।

1. छीहल: ये राजपूताने की ओर के थे। संवत् 1575 में इन्होंने 'पंचसहेली' नाम की एक छोटी सी पुस्तक दोहों में राजस्थानी मिली भाषा में बनाई जो कविता की दृष्टि से अच्छी नहीं कही जा सकती। इसमें पाँच सखियों की विरह वेदना का वर्णन है। दोहे इस ढंग के हैं

देख्या नगर सुहावना, अधिक सुचंगा थानु।

नाउँ चँदेरी परगटा, जनु सुरलोक समानु

ठाईं ठाईं सरवर पेखिय, सूभर भरे निवाण।

ठाईं ठाईं कुवाँ बावरी, सोहइ फटिक सवाँण

पंद्रह सै पचहत्तारै, पूनिम फागुण मास।

पंचसहेली वर्णई, कवि छीहल परगास

इनकी लिखी एक 'बावनी' भी है जिसमें 52 दोहे हैं।

2. लालचदास: ये रायबरेली के एक हलवाई थे। इन्होंने संवत् 1585 में 'हरिचरित' और संवत् 1587 में 'भागवत दशम स्कंध भाषा' नाम की पुस्तक अवधी मिली भाषा में बनाई। ये दोनों पुस्तकें काव्य की दृष्टि से सामान्य श्रेणी की हैं और दोहे चौपाइयों में लिखी गई हैं। 'दशम स्कंध भाषा' का उल्लेख हिंदुस्तानी के फारसी विद्वान गार्सां द तासी ने किया है और लिखा है कि उसका अनुवाद फारसी भाषा में हुआ है। 'भागवत भाषा' इस प्रकार की चौपाइयों में लिखी गई है

पंद्रह सौ सत्तासी जहिया । समय बिलंबित बरनौं तहिया

मास असाढ़ कथा अनुसारी । हरिबासर रजनी उजियारी

सकल संत कहँ नावौं माथा । बलि बलि जैहौं जादवनाथा

रायबरेली बरनि अवासा । लालच रामनाम कै आसा

3.कृपाराम: इनका कुछ वृत्तांत ज्ञात नहीं। इन्होंने संवत् 1598 में रसरीति पर 'हिततरंगिणी' नामक ग्रंथ दोहों में बनाया। रीति या लक्षण ग्रंथों में यह बहुत पुराना है। कवि ने कहा है कि और कवियों ने बड़े छंदों के विस्तार में श्रृंगार रस का वर्णन किया है पर मैंने 'सुघरता' के विचार से दोहों में वर्णन किया है। इससे जान पड़ता है कि इनके पहले और लोगों ने भी रीतिग्रंथ लिखे थे जो अब नहीं मिलते हैं। 'हिततरंगिणी' के कई दोहे बिहारी के दोहों से मिलते जुलते हैं। पर इससे यह नहीं सिद्ध होता कि यह ग्रंथ बिहारी के पीछे का है क्योंकि ग्रंथ में निर्माणकाल बहुत स्पष्ट रूप से दिया हुआ है

सिधि निधि सिव मुख चंद्र लखि माघ सुद्दि तृतियासु।

हिततरंगिनी हौं रची कवि हित परम प्रकासु

दो में से एक बात हो सकती हैया तो बिहारी ने उन दोहों को जान बूझकर लिया अथवा वे दोहे पीछे से मिल गए। हिततरंगिणी के दोहे बहुत ही सरस, भावपूर्ण तथा परिमार्जित भाषा में हैं। कुछ नमूने देखिए

लोचन चपल कटाच्छ सर अनियारे विष पूरि।

मन मृग बेधौं मुनिन के जगजन सहत बिसूरि

आजु सबारे हौं गई नंदलाल हित ताल।

कुमुद कुमुदुनी के भटू निरखे औरै हाल

पति आयो परदेस तें ऋतु बसंत को मानि।

झमकि झमकि निज महल में टहलैं करै सुरानि

4.महापात्र नरहरि बंदीजन: इनका जन्म संवत् 1562 में और मृत्यु संवत् 1667 में कही जाती है। महापात्र की उपाधि इन्हें अकबर के दरबार से मिली थी। ये असनी फतेहपुर के रहनेवाले थे और अकबर के दरबार में इनका बहुत मान था। इन्होंने छप्पय और कवित्त कहे हैं। इनके बनाए दो ग्रंथ परंपरा से प्रसिद्ध हैं'रुक्मिणीमंगल' और 'छप्पय नीति'। एक तीसरा ग्रंथ 'कवित्तसंग्रह' भी खोज में मिला है। इनका वह प्रसिद्ध छप्पय नीचे दिया जाता है जिस पर कहते हैं, अकबर ने गोवधा बंद कराया था

अरिहु दंत तिन धारै ताहि नहिं मारि सकतकोइ।

हम संतत तिनु चरहिं वचन उच्चरहिं दीन होइ

अमृत पय नित स्रवहिं बच्छ महि थंभन जावहिं।

हिंदुहि मधुर न देहिं कटुक तुरकहि न पियावहिं

कह कवि नरहरि अकबर सुनौ बिनवति गउ जोरे करन।

अपराध कौन मोहिं मारियत मुएहु चाम सेवइ चरन

5.नरोत्तमदास: ये सीतापुर जिले के वाड़ी नामक कस्बे के रहनेवाले थे। शिवसिंहसरोज में इनका संवत् 1602 में वर्तमान रहना लिखा है। इनकी जाति का उल्लेख कहीं नहीं मिलता। इनका 'सुदामाचरित्र' ग्रंथ बहुत प्रसिद्ध है। इसमें घर की दरिद्रता का बहुत ही सुंदर वर्णन है। यद्यपि यह छोटा है, तथापि इसकी रचना बहुत ही सरस और हृदयग्राहिणी है और कवि की भावुकता का परिचय देती है। भाषा भी बहुत ही परिमार्जित और व्यवस्थित है। बहुतेरे कवियों के समान भरती के शब्द और वाक्य इसमें नहीं हैं। कुछ लोगों के अनुसार इन्होंने इसी प्रकार का एक और खंडकाव्य 'ध्रुवचरित' भी लिखा है। पर वह कहीं देखने में नहीं आया। 'सुदामाचरित' का यह सवैया बहुत लोगों के मुँह से सुनाई पड़ता है

सीस पगा न झगा तन पै, प्रभु! जानै को आहि बसै केहि ग्रामा।

धोती फटी सी, लटी दुपटी अरु पाँय उपानह को नहीं सामा

द्वार खड़ो द्विज दुर्बल एक, रह्यो चकि सो बसुधा अभिरामा।

पूछत दीनदयाल को धाम, बतावत आपनो नाम सुदामा

कृष्ण की दीनवत्सलता और करुणा का एक यह और सवैया देखिए

कैसे बिहाल बिवाइन सों भए, कंटक जाल गड़े पग जोए।

हाय महादुख पाए सखा! तुम आए इतै न, कितै दिन खोए

देखि सुदामा की दीन दसा करुना करिकै करुनानिधि रोए।

पानी परात को हाथ छुयो नहिं, नैनन के जल सों पग धोए

6.आलम: ये अकबर के समय के एक मुसलमान कवि थे जिन्होंने सन् 991 हिजरी अर्थात् संवत् 1639-40 में 'माधावानल कामकंदला' नाम की प्रेमकहानी दोहा चौपाई में लिखी। पाँच पाँच चौपाइयों (अर्धालियों) पर एक एक दोहा या सोरठा है। यह श्रृंगार रस की दृष्टि से ही लिखी जान पड़ती है, आध्यात्मिक दृष्टि से नहीं। इसमें जो कुछ रुचिरता है वह कहानी की है, वस्तुवर्णन, भाव व्यंजना आदि की नहीं। कहानी भी प्राकृत या अपभ्रंश से चली आती हुई कहानी है।

कवि ने रचनाकाल का उल्लेख इस प्रकार किया है

दिल्लीपति अकबर सुरताना । सप्तदीप में जाकी आना

धरमराज सब देस चलावा । हिंदू-तुरुक पंथ सब लावा

×××

सन नौ सै इक्कानबे आही। करौं कथा औ बोलौं ताही

7.महाराज टोडरमल: ये कुछ दिन शेरशाह के यहाँ ऊँचे पद पर थे, पीछे अकबर के समय में भूमिकर विभाग के मंत्री हुए। इनका जन्म संवत् 1550 में और मृत्यु संवत् 1646 में हुई। ये कुछ दिनों तक बंगाल के सूबेदार भी थे। ये जाति के खत्री थे। इन्होंने शाही दफ्तरों में हिन्दी के स्थान पर फारसी का प्रचार किया जिससे हिंदुओं का झुकाव फारसी की शिक्षा की ओर हुआ। ये प्राय: नीति संबंधी पद्य कहते थे। इनकी कोई पुस्तक तो नहीं मिलती, फुटकल कवित्त इधर उधर मिलते हैं। एक कवित्त नीचे दिया जाता है,

जार को विचार कहाँ, गनिका को लाज कहाँ,

गदहा को पान कहाँ, ऑंधारे को आरसी।

निगुनी को गुन कहाँ, दान कहाँ दारिद को।

सेवा कहाँ सूम की अरंडन की डार सी

मदपी को सुचि कहाँ, साँच कहाँ लंपट को,

नीच को बचन कहाँ स्यार की पुकार सी।

टोडर सुकवि ऐसे हठी तौ न टारे टरै,

भावै कहाँ सूधी बात भावै कहाँ फारसी

8.महाराज बीरबल: इनकी जन्मभूमि कुछ लोग नारनौल बतलाते हैं और इनका नाम महेशदास। प्रयाग के किले के भीतर जो अशोकस्तंभ हैं उस पर यह खुदा है,'संवत् 1632 शाके 1493 मार्गबदी 5, सोमवार गंगादास सुत महाराज बीरबल श्री तीरथराज प्रयाग की यात्रा सुफल लिखित।' यह लेख महाराज बीरबल के संबंध में ही जान पड़ता है क्योंकि गंगादास और महेशदास नाम मिलते जुलते हैं जैसे कि पिता पुत्र के हुआ करते हैं। बीरबल का जो उल्लेख भूषण ने किया है उससे इनके निवास स्थान का पता चलता है।

द्विज कनौज कुल कस्यपी रतनाकर सुत धीर।

बसत त्रिाविक्रमपुर सदा तरनि तनूजा तीर

बीर बीरबल से जहाँ उपजे कवि अरु भूप।

देव बिहारीश्वर जहाँ विश्वेश्वर तद्रूप

इनका जन्मस्थान तिकवाँपुर ही ठहरता है; पर कुल का निश्चय नहीं होता। यह तो प्रसिद्ध ही है कि ये अकबर के मंत्रिायों में थे और बड़े ही वाक्चतुर और प्रत्युत्पन्नमति थे। इनके और अकबर के बीच होनेवाले विनोद और चुटकुले उत्तर भारत के गाँवों में प्रसिद्ध हैं। महाराज बीरबल ब्रजभाषा के अच्छे कवि थे और कवियों का बड़ी उदारता के साथ सम्मान करते थे। कहते हैं, केशवदासजी को इन्होंने एक बार छह लाख रुपये दिए थे और केशवदास की पैरवी से ओरछा नरेश पर एक करोड़ का जुरमाना मुआफ करा दिया था। इनके मरने पर अकबर ने यह सोरठा कहा था,

दीन देखि सब दीन, एक न दीन्हों दुसह दुख।

सो अब हम कहँ दीन, कछु नहिं राख्यो बीरबल

इनकी कोई पुस्तक नहीं मिलती है, पर कई सौ कवित्तों का एक संग्रह भरतपुर में है। इनकी, रचना अलंकार आदि काव्यांगों से पूर्ण और सरस होती थी। कविता में ये अपना नाम ब्रह्म रखते थे। दो उदाहरण नीचे दिए जाते हैं,

उछरि उछरि भेकी झपटै उरग पर,

उरग पै केकिन के लपटै लहकि हैं।

केकिन के सुरति हिए की ना कछू है, भए,

एकी करी केहरि, न बोलत बहकि है।

कहै कवि ब्रह्म वारि हेरत हरिन फिरैं,

बैहर बहत बड़े जोर सो जहकि हैं।

तरनि कै तावन तवा सी भई भूमि रही,

दसहू दिसान में दवारि सी दहकि है


पूत कपूत, कुलच्छनि नारि, लराक परोसि, लजायन सारो।

बंधु कुबुद्धि , पुरोहित लंपट, चाकर चोर, अतीथ धुतारो

साहब सूम, अड़ाक तुरंग, किसान कठोर, दीवान नकारो।

ब्रह्म भनै सुनु साह अकब्बर बारहौं बाँधि समुद्र में डारौ

9.गंग: ये अकबर के दरबारी कवि थे और रहीम खानखाना इन्हें बहुत मानते थे। इनके जन्मकाल तथा कुल आदि का ठीक वृत्त ज्ञात नहीं। कुछ लोग इन्हें ब्राह्मण कहते हैं, पर अधिकतर ये ब्रह्मभट्ट ही प्रसिद्ध हैं। ऐसा कहा जाता है कि किसी नवाब या राजा की आज्ञा से ये हाथी से चिरवा डाले गए थे और उसी समय मरने के पहले इन्होंने यह दोहा कहा था,

कबहुँ न भड़घआ रन चढ़े, कबहुँ न बाजी बंब।

सकल सभाहि प्रनाम करि, बिदा होत कवि गंग

इसके अतिरिक्त कई और कवियों ने भी इस बात का उल्लेख वा संकेत किया है। देव कवि ने कहा है,

'एक भए प्रेत, एक मींजि मारे हाथी'।

ये पद्य भी इस संबंध में ध्यान देने योग्य हैं,

सब देवन को दरबार जुरयो तहँ पिंगल छंद बनाय कै गायो।

जब काहू ते अर्थ कह्यो न गयो तब नारद एक प्रसंग चलायो

मृतलोक में है नर एक गुनी कवि गंग को नाम सभा में बतायो।

सुनि चाह भई परमेसर को तब गंग को लेन गनेस पठायो


गंग ऐसे गुनी को गयंद सो चिराइए।

इन प्रमाणों से यह घटना ठीक ठहरती है। गंग कवि बहुत निर्भीक होकर बात कहते थे। वे अपने समय के नरकाव्य करने वाले कवियों में सबसे श्रेष्ठ माने जाते थे। दासजी ने कहा है,

तुलसी गंग दुवौ भए सुकविन के सरदार।

कहते हैं कि रहीम खानखाना ने इन्हें एक छप्पय पर छत्ताीस लाख रुपये दे डाले थे। वह छप्पय यह है,

चकित भँवर रहि गयो गमन नहिं करत कमलवन।

अहि फन मनि नहिं लेत, तेज नहिं बहत पवन घन

हंस मानसर तज्यो चक्क चक्की न मिलै अति।

बहु सुंदरि पद्मिनी पुरुष न चहै, न करै रति

खलभलित सेस कवि गंग भन, अमित तेज रविरथ खस्यो।

खानान खान बैरम सुवन जबहिं क्रोध करि तंग कस्यो

सारांश यह कि गंग अपने समय के प्रधान कवि माने जाते थे। इनकी कोई पुस्तक अभी नहीं मिली है। पुराने संग्रह ग्रंथों में इनके बहुत-से कवित्त मिलते हैं। सरल हृदय के अतिरिक्त वाग्वैदग्ध्य भी इनमें प्रचुर मात्रा में था। वीर और श्रृंगार रस के बहुत ही रमणीक कवित्त इन्होंने कहे हैं। कुछ अन्योक्तियाँ भी बड़ी मार्मिकहैं। हास्यरस का पुट भी बड़ी निपुणता से ये अपनी रचना में देते थे। घोर अतिशयोक्तिपूर्ण वस्तुव्यंग्य पद्ध ति पर विरहताप का वर्णन भी इन्होंने किया है। उस समय की रुचिको रंजित करने वाले सब गुण इनमें वर्तमान थे, इसमें कोई संदेह नहीं। इनका कविताकाल विक्रम की सत्रहवीं शताब्दी का अंत मानना चाहिए। रचना के कुछ नमूने देखिए,

बैठी थी सखिन संग, पिय को गवन सुन्यो,

सुख के समूह में बियोग-आगि भरकी।

गंग कहै त्रिाविधा सुगंधा कै पवन बह्यो,

लागत ही ताके तन भई बिथा जर की

प्यारी को परसि पौन गयो मानसर कहँ,

लागत ही औरे गति भई मानसर की।

जलचर जरे और सेवार जरि छार भयो,

तल जरि गयो, पंक सूख्यो भूमि दरकी


झुकत कृपान मयदान ज्यों उदोत भान,

एकन ते एक मानो सुषमा जरद की।

कहै कवि गंग तेरे बल को बयारि लगे

फूटी गजघटा घनघटा ज्यों सरद की

एते मान सोनित की नदियाँ उमड़ चलीं,

रही न निसानी कहूँ महि में गरद की।

गौरी गह्यो गिरिपति, गनपति गह्यो गौरी,

गौरीपति गही पूँछ लपकि बरद की


देखत कै वृच्छन में दीरघ सुभायमान,

कीर चल्यो चाखिबे को प्रेम जिय जाग्यो है।

लाल फल देखि कै जटान मँड़रान लागे,

देखत बटोही बहुतेरे डगमग्यो है

गंग कवि फल फूटे भुआ उधिाराने लखि,

सबही निरास ह्वै कै निज गृह भग्यो है

ऐसों फलहीन वृच्छ बसुधा में भयो, यारो,

सेमर बिसासी बहुतेरन को ठग्यो है

10.मनोहर:कवि ये एक कछवाहे सरदार थे जो अकबर के दरबार में रहा करते थे। शिवसिंहसरोज में लिखा है कि ये फारसी और संस्कृत के अच्छे विद्वान थे और फारसी कविता में अपना उपनाम 'तौसनी' रखते थे। इन्होंने 'शतप्रश्नोत्तारी' नाम की पुस्तक बनाई है तथा नीति और श्रृंगाररस के बहुत से फुटकल दोहे कहे हैं। इनका कविताकाल संवत् 1620 के आगे माना जा सकता है। इनके शृंगारिक दोहे मार्मिक और मधुर हैं पर उनमें कुछ फारसीपन के छींटे मौजूद हैं। दो चार नमूने देखिए,

इंदु बदन, नरगिस नयन, संबुलवारे बार।

उर कुंकुम, कोकिल बयन, जेहि लखि लाजत मार

बिथुरे सुथुरे चीकने घने घने घुघुवार।

रसिकन को जंजीर से बाला तेरे बार

अचरज मोहिं हिंदू तुरुक बादि करत संग्राम।

इक दीपति सों दीपियत काबा काशीधाम

11.बलभद्र मिश्र: ये ओरछा के सनाढय ब्राह्मण पं. काशीनाथ के पुत्र और प्रसिद्ध कवि केशवदास के बड़े भाई थे। इनका जन्मकाल संवत् 1600 के लगभग माना जा सकता है। इनका 'नखशिख' श्रृंगार का एक प्रसिद्ध ग्रंथ है जिसमें इन्होंने नायिका के अंगों का वर्णन उपमा, उत्प्रेक्षा, संदेह आदि अलंकारों के प्रचुर विधान द्वारा किया है। ये केशवदासजी के समकालीन या पहले के उन कवियों में थे जिनके चित्त में रीति के अनुसार काव्यरचना की प्रवृत्ति हो रही थी। कृपाराम ने जिस प्रकार रसरीति का अवलंबन कर नायिकाओं का वर्णन किया उसी प्रकार बलभद्र नायिका के अंगों को एक स्वतंत्र विषय बनाकर चले थे। इनका रचनाकाल संवत् 1640 के पहले माना जा सकता है। रचना इनकी बहुत प्रौढ़ और परिमार्जित है, इससे अनुमान होता है कि नखशिख के अतिरिक्त इन्होंने और पुस्तकें भी लिखी होंगी। संवत् 1891 में गोपाल कवि ने बलभद्र कृत नखशिख की एक टीका लिखी जिसमें उन्होंने बलभद्र कृत तीन और ग्रंथों का उल्लेख किया है,बलभद्री व्याकरण, हनुमन्नाटक और गोवर्ध्दनसतसई टीका। पुस्तकों की खोज में इनका 'दूषणविचार' नाम का एक और ग्रंथ मिला है जिसमें काव्यदोषों का निरूपण है। नखशिख के दो कवित्त उध्दृत किए जाते हैं,

पाटल नयन कोकनद के से दल दोऊ,

बलभद्र बासर उनीदी लखी बाल मैं।

सोभा के सरोवर में बाड़व की आभा कैंधौं,

देवधुनी भारती मिली है पुन्यकाल मैं

काम-कैवरत कैधौं नासिकर उडुप बैठो,

खेलत सिकार तरुनी के मुख ताल मैं।

लोचन सितासित में लोहित लकीर मानो,

बाँधो जुग मीन लाल रेशम की डोर मैं


मरकत के सूत कैधौं पन्नग के पूत अति

राजत अभूत तमराज कैसे तार हैं।

मखतूल गुनग्राम सोभित सरस स्याम,

काम मृग कानन कै कुहू के कुमार हैं

कोप की किरन कै जलज नाल नील तंतु,

उपमा अनंत चारु चँवर सिंगार हैं।

कारे सटकारे भींजे सोंधो सों सुगंधा बास,

ऐसे बलभ्रद नवबाला तेरे बार हैं

12.जमाल: ये भारतीय काव्यपरंपरा से पूर्ण परिचित कोई सहृदय मुसलमान कवि थे जिनका रचनाकाल संवत् 1627 अनुमान किया गया है। इनके नीति और श्रृंगार के दोहे राजपूताने की ओर बहुत जनप्रिय हैं। भावों की व्यंजना बहुत ही मार्मिक पर सीधे सादे ढंग पर की गई है। इनका कोई ग्रंथ तो नहीं मिलता, पर कुछ संगृहीत दोहे मिलते हैं। सहृदयता के अतिरिक्त इनमें शब्दक्रीड़ा की निपुणता भी थी, इससे इन्होंने कुछ पहेलियाँ भी अपने दोहों में रखी हैं। कुछ नमूने दिए जाते हैं,

पूनम चाँद, कुसूँभ रँग नदी तीर द्रुम डाल।

रेत भीत, भुस लीपणो ए थिर नहीं जमाल

रंग ज चोल मजीठ का संत वचन प्रतिपाल।

पाहण रेख रु करम गत ए किमि मिटैं जमाल

जमला ऐसी प्रीति कर जैसी केस कराय।

कै काला, कै ऊजला जब तब सिर स्यूँ जाय

मनसा तो गाहक भए नैना भए दलाल।

धानी बसत बेचै नहीं किस बिधा बनै जमाल

बालपणे धौला भया तरुणपणे भया लाल।

वृद्ध पणे काला भया कारण कोण जमाल

कामिण जावक रँग रच्यो दमकत मुकता कोर।

इम हंसा मोती तजे इम चुग लिए चकोर

13.केशवदास ये सनाढय ब्राह्मण कृष्णदत्ता के पौत्र और काशीनाथ के पुत्र थे। इनका जन्म संवत् 1612 में और मृत्यु 1674 के आसपास हुई। ओरछा नरेश महाराजा रामसिंह के भाई इंद्रजीत सिंह की सभा में ये रहते थे, जहाँ इनका बहुत मान था। इनके घराने में बराबर संस्कृत के अच्छे पंडित होते आए थे। इनके बड़े भाई बलभद्र मिश्र भाषा के अच्छे कवि थे। इस प्रकार की परिस्थिति में रहकर ये अपने समय के प्रधान साहित्यशास्त्रज्ञ कवि माने गए। इनके आविर्भाव काल से कुछ पहले ही रस, अलंकार आदि काव्यांगों के निरूपण की ओर कुछ कवियों का ध्यान जा चुका था। यह स्वाभाविक भी था, क्योंकि हिन्दी काव्यरचना प्रचुर मात्रा में हो चुकी थी। लक्ष्य ग्रंथों के उपरांत ही लक्षण ग्रंथों का निर्माण होता है। केशवदासजी संस्कृत के पंडित थे अत: शास्त्रीय पद्ध ति से साहित्यचर्चा का प्रचार भाषा में पूर्ण रूप से करने की इच्छा इनके लिए स्वाभाविक थी।

केशवदास के पहले संवत् 1598 में कृपाराम थोड़ा रसनिरूपण कर चुके थे। इसी समय में चरखारी के मोहनलाल मिश्र ने 'श्रृंगारसागर' नामक एक ग्रंथ श्रृंगाररस संबंधी लिखा। नरहरि कवि के साथ अकबरी दरबार में जानेवाले करनेस कवि ने 'कर्णाभरण', 'श्रुतिभूषण' और 'भूपभूषण' नामक तीन ग्रंथ अलंकार संबंधी लिखे थे। पर अब तक किसी कवि ने संस्कृत साहित्य शास्त्र में निरूपित काव्यांगों का पूरा परिचय नहीं कराया था। यह काम केशवदासजी ने किया।

ये काव्य में अलंकार का स्थान प्रधान समझने वाले चमत्कारवादी कवि थे जैसा कि इन्होंने स्वयं कहा है,

जदपि सुजाति सुलच्छनी, सुबरन सरस सुवृत्त।

भूषन बिनु न बिराजई, कविता बनिता मित्ता

अपनी इसी मनोवृत्ति के अनुसार इन्होंने भामह, उद्भट और दंडी आदि प्राचीन आचार्यों का अनुसरण किया जो रस, रीति आदि सब कुछ अलंकार के अंतर्गत ही लेते थे; साहित्यशास्त्र को अधिक व्यवस्थित और समुन्नत रूप में लानेवाले मम्मट, आनंदवर्ध्दनाचार्य और विश्वनाथ का नहीं। अलंकार के सामान्य और विशेष दो भेद करके इन्होंने उसके अंतर्गत वर्णन की प्रणाली ही नहीं, वर्णन के विषय भी ले लिए हैं। 'अलंकार' शब्द का प्रयोग इन्होंने व्यापक अर्थ में किया है। वास्तविक अलंकार इनके विशेष अलंकार ही हैं। अलंकारों के लक्षण इन्होंने दंडी के 'काव्यादर्श' से तथा बहुत सी बातें अमररचित 'काव्यकल्पलतावृत्ति' और केशव मिश्र कृत 'अलंकारशेखर' से ली हैं।

पर केशव के 50 या 60 वर्ष पीछे हिन्दी में लक्षण ग्रंथों की जो परंपरा चली वह केशव के मार्ग पर नहीं चली। काव्य के स्वरूप के संबंध में तो वह रस की प्रधानता माननेवाले काव्यप्रकाश और साहित्यदर्पण के पक्ष पर रही और अलंकारों के निरूपण में उसने अधिकतर चंद्रालोक और कुवलयानंद का अनुसरण किया। इसी से केशव के अलंकारलक्षण हिन्दी में प्रचलित अलंकार लक्षणों से नहीं मिलते। केशव ने अलंकारों पर 'कविप्रिया' और रस पर 'रसिकप्रिया' लिखी।

इन ग्रंथों में केशव का अपना विवेचन कहीं नहीं दिखाई पड़ता। सारी सामग्री कई संस्कृत ग्रंथों से ली हुई मिलती है। नामों में अवश्य कहीं कहीं थोड़ा हेरफेर मिलता है जिससे गड़बड़ी के सिवा और कुछ नहीं हुआ है। 'उपमा' के जो 22 भेद केशव ने रखे हैं उनमें से 15 तो ज्यों के त्यों दंडी के हैं, 5 केवल नाम भर बदल दिए गए हैं। शेष रहे 2 भेद,संकीर्णोपमा और विपरीतोपमा। इनमें विपरीतोपमा को तो उपमा कहना ही व्यर्थ है। इसी प्रकार 'आक्षेप' के जो 9 भेद केशव ने रखे हैं उनमें 4 तो ज्यों के त्यों दंडी के हैं। पाँचवाँ 'मरणाक्षेप' दंडी का 'मर्ूच्छाक्षेप' ही है। कविप्रिया का प्रेमालंकार दंडी के (विश्वनाथ के नहीं) 'प्रेयस' का ही नामांतर है। 'उत्तर' अलंकार के चारों भेद वास्तव में पहेलियाँ हैं। कुछ भेदों को दंडी से लेकर भी केशव ने उनका और का और ही अर्थ समझा है।

केशव के रचे सात ग्रंथ मिलते हैं,कविप्रिया, रसिकप्रिया, रामचंद्रिका, वीरसिंहदेवचरित, विज्ञानगीता, रतनबावनी और जहाँगीरजसचंद्रिका।

केशव को कविहृदय नहीं मिला था। उनमें वह सहृदयता और भावुकता न थी जो एक कवि में होनी चाहिए। वे संस्कृत साहित्य से सामग्री लेकर अपने पांडित्य और रचनाकौशल की धाक जमाना चाहते थे, पर इस कार्य में सफलता प्राप्त करने के लिए भाषा पर जैसा अधिकार चाहिए वैसा उन्हें प्राप्त न था। अपनी रचनाओं में उन्होंने संस्कृत काव्यों की उक्तियाँ लेकर भरी हैं। पर उन उक्तियों को स्पष्ट रूप से व्यक्त करने में उनकी भाषा बहुत कम समर्थ हुई है। पदों और वाक्यों की न्यूनता, अशक्त, फालतू शब्दों के प्रयोग और संबंध के अभाव आदि के कारण भी अप्रांजल और ऊबड़ खाबड़ हो गई है और तात्पर्य भी स्पष्ट रूप से व्यक्त नहीं हो सका है। केशव की कविता जो कठिन कही जाती है, उसका प्रधान कारण उनकी यह त्रुटि है,उनकी मौलिक भावनाओं की गंभीरता या जटिलता नहीं। 'रामचंद्रिका' में 'प्रसन्नराघव', 'हनुमन्नाटक', 'अनर्घराघव', 'कादंबरी' और 'नैषधा' की बहुत सी उक्तियों का अनुवाद करके रख दिया गया है। कहीं कहीं अनुवाद अच्छा न होने के कारण उक्ति विकृत हो गई है, जैसेप्रसन्नराघव के 'प्रियतमपदैरंकितान्भूमिभागान्' का अनुवाद 'प्यौ पदपंकज ऊपर' करके केशव ने उक्ति को एकदम बिगाड़ डाला है। हाँ, जिन उक्तियों में जटिलता नहीं है,समास शैली का आश्रय नहीं लिया गया है,उनके अनुवाद में कहीं कहीं बहुत अच्छी सफलता प्राप्त हुई है, जैसे भरत के प्रश्न और कैकेयी के उत्तर में,

'मातु, कहाँ नृप तात? गए सुरलोकहिं; क्यों? सुत शोक लए।' जो कि हनुमन्नाटक के एक श्लोक का अनुवाद है।

केशव ने दो प्रबंधकाव्य लिखे,एक 'वीरसिंहदेवचरित' दूसरा 'रामचंद्रिका'। पहला तो काव्य ही नहीं कहा जा सकता। इसमें वीरसिंहदेव का चरित तो थोड़ा है, दान, लोभ आदि के संवाद भरे हैं। 'रामचंद्रिका' अवश्य एक प्रसिद्ध ग्रंथ है। पर यह समझ रखना चाहिए कि केशव उक्तिवैचित्रय और शब्दक्रीड़ा के प्रेमी थे। जीवन के नाना गंभीर और मार्मिक पक्षों पर उनकी दृष्टि नहीं थी। अत: वे मुक्तक रचना के ही उपयुक्त थे, प्रबंध रचना के नहीं। प्रबंध पटुता उनमें कुछ भी न थी। प्रबंधकाव्य के लिए तीन बातें अनिवार्य हैं,(1) संबंध निर्वाह, (2) कथा के गंभीर और मार्मिक स्थलों की पहचान और (3) दृश्यों की स्थानगत विशेषता।

संबंधनिर्वाह की क्षमता केशव में न थी। उनकी 'रामचंद्रिका' अलग अलग लिखे हुए वर्णनों का संग्रह सी जान पड़ती है। कथा का चलता प्रवाह न रख सकने के कारण ही उन्हें बोलनेवाले पात्रों के नाम नाटकों के अनुकरण पर पद्यों से अलग सूचित करने पड़े हैं। दूसरी बात भी केशव में कम पाई जाती है। रामायण की कथा का केशव के हृदय पर कोई विशेष प्रभाव रहा हो, यह बात नहीं पाई जाती। उन्हें एक बड़ा प्रबंधकाव्य भी लिखने की इच्छा हुई और उन्होंने उसके लिए राम की कथा ले ली। उस कथा के भीतर जो मार्मिक स्थल हैं उनकी ओर केशव का ध्यान बहुत कम गया है। वे ऐसे स्थलों को या तो छोड़ गए हैं या यों ही इतिवृत्त मात्र कहकर चलता कर दिया है। राम आदि को वन की ओर जाते देख मार्ग में पड़नेवाले लोगों से कुछ कहलाया भी तो यह कि 'किधौं मुनिशाप हत, किधौं ब्रह्म दोष रत, किधौं कोऊ ठग हौ।' ऐसा अलौकिक सौंदर्य और सौम्य आकृति सामने पाकर सहानुभूतिपूर्ण शुद्ध सात्विक भावों का उदय होता है, इसका अनुभव शायद एक दूसरे को संदेहकी दृष्टि से देखनेवाले नीतिकुशल दरबारियों के बीच रहकर केशव के लिए कठिन था।

दृश्यों की स्थानगत विशेषता (स्वबंस ब्वसवनत) केशव की रचनाओं में ढूँढ़ना तो व्यर्थ ही है। पहली बात तो यह है कि केशव के लिए प्राकृतिक दृश्यों में कोई आकर्षण नहीं था। वे उनकी देशगत विशेषताओं का निरीक्षण करने क्यों जाते? दूसरी बात यह है कि केशव के बहुत पहले से ही इसकी पंरपरा एक प्रकार से उठ चुकी थी। कालिदास के दृश्यवर्णनों में देशगत विशेषताओं का जो रंग पाया जाता है वह भवभूति तक तो कुछ रहा, उसके पीछे नहीं। फिर तो वर्णन रूढ़ हो गए। चारों ओर फैली हुई प्रकृति के नाना रूपों के साथ केशव के हृदय का सामंजस्य कुछ भी न था। अपनी इस मनोवृत्ति का आभास उन्होंने यह कहकर कि,

देखे मुख भावै, अनदेखेई कमल चंद,

ताते मुख मुखै, सखी, कमलौ न चंद री

साफ दे दिया है। ऐसे व्यक्ति से प्राकृत दृश्यों के सच्चे वर्णन की भला क्या आशा की जा सकती है? पंचवटी और प्रवर्षण गिरि ऐसे रमणीय स्थलों में शब्दसाम्य के आधार पर श्लेष के एक भद्दे खेलवाड़ के अतिरिक्त और कुछ न मिलेगा। केवल शब्दसाम्य के सहारे जो उपमान लाए गए हैं के किसी रमणीय दृश्य से उत्पन्न सौंदर्य की अनुभूति के सर्वथा विरुद्ध या बेमेल हैं जैसे प्रलयकाल, पांडव, सुग्रीव, शेषनाग। सादृश्य या साधार्म्य की दृष्टि से दृश्यवर्णन में जो उपमाएँ, उत्प्रेक्षाएँ आदि लाई गई हैं, वे भी सौंदर्य की भावना में वृद्धि करने के स्थान पर कुतूहल मात्र उत्पन्न करती हैं। जैसे श्वेत कमल के छत्तो पर बैठे हुए भौंरे पर यह उक्ति,

केशव केशवराय मनौ कमलासन के सिर ऊपरे सोहै।

पर कहीं कहीं रमणीय और उपयुक्त उपमान भी मिलते हैं; जैसेजनकपुर के सूर्योदय वर्णन में, जिसमें 'कापालिक काल' को छोड़कर और सब उपमान रमणीय हैं।

सारांश यह कि प्रबंधकाव्य रचना के योग्य न तो केशव में अनुभूति ही थी, न शक्ति। परंपरा से चले आते हुए कुछ नियत विषयों के (जैसेयुद्ध , सेना की तैयारी, उपवन, राजदरबार के ठाटबाट तथा श्रृंगार और वीररस) फुटकल वर्णन ही अलंकारों की भरमार के साथ वे करना जानते थे। इसी से बहुत से वर्णन, यों ही बिना अवसर का विचार किए, वे भरते गए हैं। वे वर्णन वर्णन के लिए करते थे, न कि प्रसंग या अवसर की अपेक्षा से। कहीं कहीं तो उन्होंने उचित अनुचित की भी परवाह नहीं की है, जैसे भरत की चित्रकूट यात्रा के प्रसंग में सेना की तैयारी और तड़क भड़क का वर्णन। अनेक प्रकार के रूखे सूखे उपदेश भी बीच बीच में रखना वे नहीं भूलते थे। दानमहिमा, लोभनिंदा के लिए तो वे प्राय: जगह निकाल लिया करते थे। उपदेशों का समावेश दो-एक जगह तो पात्र का बिना विचार किए अत्यंत अनुचित और भद्दे रूप में किया गया है, जैसे वन जाते समय राम का अपनी माता कौशल्या को पातिव्रत का उपदेश।

रामचंद्रिका के लंबे चौड़े वर्णनों को देखने से स्पष्ट लक्षित होता है कि केशव की दृष्टि जीवन के गंभीर और मार्मिक पक्ष पर न थी। उनका मन राजसी ठाट-बाट, तैयारी, नगरों की सजावट, चहल पहल आदि के वर्णन में ही विशेषत: लगता है।

केशव की रचना को सबसे अधिक विकृत और अरुचिकर करनेवाली वस्तु है, आलंकारिक चमत्कार की प्रवृत्ति जिसके कारण न तो भावों की प्रकृत व्यंजना के लिए जगह बचती है, न सच्चे हृदयग्राही वस्तुवर्णन के लिए। पददोष, वाक्यदोष आदि तो बिना प्रयास जगह जगह मिल सकते हैं। कहीं कहीं उपमान भी बहुत हीन और बेमेल हैं; जैसे राम की वियोग दशा के वर्णन में यह वाक्य,

'बासर की संपति उलूक ज्यों न चितवत।'

रामचंद्रिका में केशव को सबसे अधिक सफलता हुई है संवादों में। इन संवादों में पात्रों के अनुकूल क्रोध, उत्साह आदि की व्यंजना भी सुंदर है (जैसे लक्ष्मण, राम, परशुराम संवाद तथा लवकुश के प्रसंग के संवाद) तथा वाक्पटुता और राजनीति के दाँवपेंच का आभास भी प्रभावपूर्ण है। उनका रावण-अंगद-संवाद तुलसी के संवाद से कहीं अधिक उपयुक्त और सुंदर है। 'रामचंद्रिका' और 'कविप्रिया' दोनों का रचनाकाल कवि ने 1658 दिया है; केवल मास में अंतर है।

रसिकप्रिया (संवत् 1648) की रचना प्रौढ़ है। उदाहरणों में चतुराई और कल्पना से काम लिया गया है और पदविन्यास भी अच्छे हैं। इन उदाहरणों में वाग्वैदग्ध्य के साथ साथ सरसता भी बहुत कुछ पाई जाती है। 'विज्ञानगीता' संस्कृत के 'प्रबोधचंद्रोदय नाटक' के ढंग की पुस्तक है। 'रतनबावनी' में इंद्रजीत के बड़े भाई रत्नसिंह की वीरता का छप्पयों में अच्छा वर्णन है। यह वीररस का अच्छा काव्य है।

केशव की रचना में सूर, तुलसी आदि की सी सरसता और तन्मयता चाहे न हो पर काव्यांगों का विस्तृत परिचय कराकर उन्होंने आगे के लिए मार्ग खोला। कहते हैं, वे रसिक जीव थे। एक दिन बुङ्ढे होने पर किसी कुएँ पर बैठे थे। वहाँ स्त्रियों ने 'बाबा' कहकर संबोधन किया। इस पर इनके मुँह से यह दोहा निकला,

केसव केसनि अस करी बैरिहु जस न कराहिं।

चंद्रबदनि मृगलोचनी बाबा कहि कहि जाहिं

केशवदास की रचना के कुछ उदाहरण नीचे दिए जाते हैं,

जौ हौं कहौं रहिए तौ प्रभुता प्रगट होति,

चलन कहौं तौ हितहानि नाहिं सहनो

'भावै सो करहु' तौ उदासभाव प्राननाथ!

'साथ लै चलहु' कैसे लोकलाज बहनो

केशवदास की सौं तुम सुनहु, छबीले लाल,

चलेही बनत जौ पै नाहीं राज रहनो।

जैसियै सिखाऔ सीख तुमहीं सुजान प्रिय,

तुमहिं चलत मोहिं जैसो कछु कहनो


चंचल न हूजै नाथ, अंचल न खैंचौ हाथ,

सोवै नेक सारिकाऊ, सुक तौ सोवायो जू।

मंद करौ दीप दुति चंद्रमुख देखियत,

दारिकै दुराय आऊँ द्वार तौ दिखायो जू

मृगज मराल बाल बाहिरै बिडारि देउँ,

भायो तुम्हैं केसव सो मोहूँ मन भायो जू।

छल के निवास ऐसे वचन विलास सुनि,

सौ गुनो सुरत हू तें स्याम सुख पायो जू


कैटभ सो नरकासुर सो पल में मधु सो मुर सो जिन मारयो।

लोक चतुर्दश रक्षक केसव पूरन वेद पुरान विचारयो

श्री कमला कुच कुंकुम मंडन पंडित देव अदेव निहारयो।

सो कर माँगन को बलि पै करतारहु ने करतार पसारयो

(रामचंद्रिका से)

अरुण गात अति प्रात पद्मिनी प्राननाथ भय।

मानहु केशवदास कोकनद कोक प्रेममय

परिपूरन सिंदूर पूर कैधौं मंगल घट।

किधौं शक्र को छत्रा मढयो मानिक मयूख पट

कै सोनितकलित कपाल यह किल कापालिक काल को।

यह ललित लाल कैधौं लसत दिग भामिनि के भाल को


विधि के समान है बिमानीकृत राजहंस,

विविधा विबुधायुत मेरु सो अचल है।

दीपति दिपति अति सातौ दीप देखियत,

दूसरो दिलीप सो सुदक्षिणा को बल है।

सागर उजागर सो बहु बाहिनी को पति,

छनदान प्रिय कैधौं सूरज अमल है।

सब विधि समरथ राजै राजा दशरथ,

भागीरथ पथ गामी गंगा कैसो जल है

मूलन ही की जहाँ अधोगति केशव गाइय।

होम हुतासन धूम नगर एकै मलिनाइय।

दुर्गति दुर्गन हीं, जो कुटिलगति सरितन ही में।

श्रीफल कौ अभिलाष प्रगट कविकुल के जी में


कुंतल ललित नील, भ्रुकुटी धानुष, नैन

कुमुद कटाच्छ बान सबल सदाई है।

सुग्रीव सहित तार अंगदादि भूषनन,

मध्यदेश केशरी सु जग गति भाई है

विग्रहानुकूल सब लच्छ लच्छ ऋच्छ बल,

ऋच्छराज मुखी मुख केसौदास गाई है।

रामचंद्र जू की चमू, राजश्री विभीषन की

रावन की मीचु दर कूच चलि आई है


पढ़ौ विरंचि मौन वेद, जीव सोर छंडि रे।

कुबेर बेर कै कही, न जच्छ भीर मंडि रे

दिनेस जाइ दूरि बैठु नारदादि संगही।

न बोलु चंद मंदबुद्धि , इंद्र की सभा नहीं

14.होलराय: ये ब्रह्मभट्ट अकबर के समय में हरिवंश राय के आश्रित थे और कभी कभी शाही दरबार में भी जाया करते थे। इन्होंने अकबर से कुछ जमीन पाई थी जिसमें होलपुर गाँव बसाया था। कहते हैं कि गोस्वामी तुलसीदास जी ने इन्हें अपना लोटा दिया था जिस पर इन्होंने कहा था,

लोटा तुलसीदास को लाख टका को मोल।

गोस्वामी जी ने चट उत्तर दिया,

मोल तोल कछु है नहीं, लेहु राय कवि होल

रचना इनकी पुष्ट होती थी पर जान पड़ता है कि ये केवल राजाओं और रईसों की विरुदावली वर्णन किया करते थे जिसमें जनता के लिए ऐसा कोई विशेष आकर्षण नहीं था कि इनकी रचना सुरक्षित रहती। अकबर बादशाह की प्रशंसा में इन्होंने यह कवित्त लिखा है,

दिल्ली तें न तख्त ह्वैहै, बख्त ना मुगल कैसो,

ह्वैहै ना नगर बढ़ि आगरा नगर तें।

गंग तें न गुनी, तानसेन तें न तानबाज,

मान तें न राजा औ न दाता बीरबरतें

खान खानखाना तें न, नर नरहरि तें न,

ह्वैहै ना दीवान कोऊ बेडर टुडर तें।

नवौ खंड सात दीप; सात हू समुद्र पार,

ह्वैहै ना जलालुदीन साह अकबर तें

15.रहीम'(अब्दुर्रहीम खानखाना): ये अकबर बादशाह के अभिभावक प्रसिद्ध मोगल सरदार बैरम खाँ खानखाना के पुत्र थे। इनका जन्म संवत् 1610 में हुआ। ये संस्कृत, अरबी और फारसी के पूर्ण विद्वान और हिन्दी काव्य के पूर्ण मर्मज्ञ कवि थे। ये दानी और परोपकारी ऐसे थे कि अपने समय के कर्ण माने जाते थे; इनकी दानशीलता हृदय की सच्ची प्रेरणा के रूप में थी, कीर्ति की कामना से उसका कोई संपर्क न था। इनकी सभा विद्वानों और कवियों से सदा भरी रहती थी। गंग कवि को इन्होंने एक बार छत्ताीस लाख रुपये दे डाले थे। अकबर के समय में ये प्रधान सेनानायक और मंत्री थे और अनेक बड़े बड़े युध्दों में भेजे गए थे।

ये जहाँगीर के समय तक वर्तमान रहे। लड़ाई में धोखा देने के अपराध में एक बार जहाँगीर के समय इनकी सारी जागीर जब्त हो गई और कैद कर लिए गए। कैद से छूटने पर इनकी आर्थिक अवस्था कुछ दिनों तक बड़ी हीन रही। पर जिस मनुष्य ने करोड़ों रुपये दान कर दिए, जिसके यहाँ से कोई विमुख न लौटा उसका पीछा याचकों से कैसे छूट सकता था? अपनी दरिद्रता का दुख वास्तव में इन्हें उसी समय होता था जिस समय इनके पास कोई याचक जा पहुँचता और ये उसकी यथेष्ट सहायता नहीं कर सकते थे। अपनी अवस्था के अनुभव की व्यंजना इन्होंने इस दोहे में की है,

तबही लौं जीबो भलो देबौ होय न धीम।

जग में रहिबो कुचित गति उचित न होय रहीम

संपत्ति के समय में जो लोग सदा घेरे रहते हैं विपद के आने पर उनमें से अधिकांश किनारा खींचते हैं, इस बात का द्योतक यह दोहा है,

ये रहीम दर दर फिरैं, माँगि मधुकरी खाहिं।

यारो यारी छाँड़िए, अब रहीम वे नाहिं

कहते हैं कि इसी दीन दशा में इन्हें एक याचक ने आ घेरा। इन्होंने यह दोहा लिखकर उसे रीवाँ नरेश के पास भेजा,

चित्रकूट में रमि रहे रहिमन अवध नरेस।

जापर विपदा परति है सो आवत यहि देस

रीवाँ नरेश ने उस याचक को एक लाख रुपए दिए।

गोस्वामी तुलसीदास जी से भी इनका बड़ा स्नेह था। ऐसी जनश्रुति है कि एक बार एक ब्राह्मण अपनी कन्या के विवाह के लिए धान न होने से घबराया हुआ गोस्वामी जी के पास आया। गोस्वामी जी ने उसे रहीम के पास भेजा और दोहे की यह पंक्ति लिखकर दे दी,

'सुरतिय नरतिय नागतिय यह चाहत सब कोय।'

रहीम ने उस ब्राह्मण को बहुत सा द्रव्य देकर विदा किया और दोहे की दूसरी पंक्ति इस प्रकार पूरी करके दे दी,

'गोद लिये हुलसी फिरै तुलसी सो सुत होय।'

रहीम ने बड़ी बड़ी चढ़ाइयाँ की थीं और मोगल साम्राज्य के लिए न जाने कितने प्रदेश जीते थे। इन्हें जागीर में बहुत बड़े बड़े सूबे और गढ़ मिले थे। संसार का इन्हें बड़ा गहरा अनुभव था। ऐसे अनुभवों के मार्मिक पक्ष को ग्रहण करने की भावुकता इनमें अद्वितीय थी। अपने उदार और ऊँचे हृदय को संसार के वास्तविक व्यवहारों के बीच रखकर जो संवेदना इन्होंने प्राप्त की है उसी की व्यंजना अपने दोहे में की है। तुलसी के वचनों के समान रहीम के वचन भी हिन्दी भाषी भूभाग में सर्वसाधारण के मुँह पर रहते हैं। इसका कारण है जीवन की सच्ची परिस्थितियों का मार्मिक अनुभव। रहीम के दोहे वृंद और गिरधार के पद्यों के समान कोरी नीति के पद्य नहीं हैं। उनमें मार्मिकता है, उनके भीतर से एक सच्चा हृदय झाँक रहा है। जीवन की सच्ची परिस्थितियों के मार्मिक रूप को ग्रहण करने की क्षमता जिस कवि में होगी वही जनता का प्यारा कवि होगा। रहीम का हृदय, द्रवीभूत होने के लिए, कल्पना की उड़ान की अपेक्षा नहीं रखता था। वह संसार के सच्चे और प्रत्यक्ष व्यवहारों में ही अपने द्रवीभूत होने के लिए पर्याप्त स्वरूप पा जाता था। 'बरवै नायिकाभेद' में भी जो मनोहर और छलकते हुए चित्र हैं वे भी सच्चे हैं,कल्पना के झूठे खेल नहीं हैं। उनमें भारतीय प्रेमजीवन की सच्ची झलक है।

भाषा पर तुलसी का सा ही अधिकार हम रहीम का भी पाते हैं। ये ब्रज और अवधी,पश्चिमी और पूरबी,दोनों काव्य भाषाओं में समान कुशल थे। 'बरवै नायिकाभेद' बड़ी सुंदर अवधी भाषा में है। इनकी उक्तियाँ ऐसी लुभावनी हुईं कि बिहारी आदि परवर्ति कवि भी बहुतों का अपहरण करने का लोभ न रोक सके। यद्यपि रहीम सर्वसाधारण में अपने दोहों के लिए ही प्रसिद्ध हैं, पर इन्होंने बरवै, कवित्त, सवैया, सोरठा, पद सब में थोड़ी बहुत रचना की है।

रहीम का देहावसान संवत् 1682 में हुआ। अब तक इनके निम्नलिखित ग्रंथ ही सुने जाते थे रहीम दोहावली या सतसई, बरवै नायिका भेद, श्रृंगारसोरठ, मदनाष्टक, रासपंचाध्यायी। पर भरतपुर के श्रीयुत् पं. मयाशंकरजी याज्ञिक ने इनकी और भी रचनाओं का पता लगाया है, जैसे नगरशोभा, फुटकल बरवै, फुटकल कवित्त सवैये और रहीम का एक पूरा संग्रह 'रहीम रत्नावली' के नाम से निकाला है।

कहा जा चुका है कि ये कई भाषाओं और विद्याओं में पारंगत थे। इन्होंने फारसी का एक दीवान भी बनाया था और 'वाकयात बाबरी' का तुर्की से फारसी में अनुवाद किया था। कुछ मिश्रित रचना भी इन्होंने की है,'रहीम काव्य' हिन्दी संस्कृत की खिचड़ी है और 'खेट कौतुकम्' नामक ज्योतिष का ग्रंथ संस्कृत और फारसी की खिचड़ी है। कुछ संस्कृत श्लोकों की रचना भी ये कर गए हैं। इनकी रचना के कुछ नमूने नीचे दिए जाते हैं,

(सतसई या दोहावली से)

दुरदिन परे रहीम कह भूलत सब पहिचानि।

सोच नहीं बित हानि को जौ न होय हित हानि

कोउ रहीम जनि काहु के द्वार गए पछिताय।

संपति के सब जात हैं, बिपति सबै लै जाय

ज्यों रहीम गति दीप की, कुल कपूत गति सोय।

बारे उजियारो लगै, बढ़े अंधोरो होय

सर सूखे पंछी उड़ै, औरै सरन समाहिं।

दीन मीन बिन पंख के, कहु रहीम कहँ जाहिं

माँगत मुकरि न को गयो, केहि न त्यागियो साथ।

माँगत आगे सुख लह्यो, ते रहीम रघुनाथ

रहिमन वे नर मर चुके, जे कहुँ माँगन जाहिं।

उनते पहिले वे मुए, जिन मुख निकसत 'नाहिं'

रहिमन रहिला की भली, जौ परसै चितलाय।

परसत मन मैलो करै, सो मैदा जरि जाय


(बरवै नायिका भेद से)

भोरहिं बोलि कोइलिया बढ़वति ताप।

घरी एक भरि अलिया रहु चुपचाप

बाहर लैकै दियवा बारन जाइ।

सासु ननद घर पहुँचत देति बुझाइ

पिय आवत अंगनैया उठिकै लीन।

बिहँसत चतुर तिरियवा बैठक दीन

लै कै सुघर खुरपिया पिय के साथ।

छइबै एक छतरिया बरसत पाथ

पीतम इक सुमरिनियाँ मोहिं देइ जाहु।

जेहि जपि तोर बिरहवा करब निबाहु

(मदनाष्टक से)

कलित ललित माला वा जवाहिर जड़ा था।

चपल चखन वाला चाँदनी में खड़ा था।

कटितट बिच मेला पीत सेला नवेला।

अलि, बन अलबेला यार मेरा अकेला


(नगरशोभा से)

उत्तम जाति है बाह्मनी, देखत चित्त लुभाय।

परम पाप पल में हरत, परसत वाके पाय

रूपरंग रतिराज में, छतरानी इतरान।

मानौ रची बिरंचि पचि, कुसुम कनक में सान

बनियाइनि बनि आइकै, बैठि रूप की हाट।

पेम पेक तन हेरिकै, गरुवै टारति बाट

गरब तराजू करति चख, भौंह मोरि मुसकाति।

डाँड़ी मारति बिरह की, चित चिंता घटि जाति


(फुटकल कवित्त आदि से)

बड़न सो जान पहचान कै रहीम कहा,

जो पै करतार ही न सुख देनहार है।

सीतहर सूरज सों नेह कियो याहि हेत,

ताहू पै कमल जारि डारत तुषार है

छीरनिधि माहिं धाँस्यो संकर के सीस बस्यो,

तऊ ना कलंक लस्यो, ससि में सदा रहै

बड़ो रिझवार या चकोर दरबार है,

पै कलानिधि यार तऊ चाखत अंगार है


जाति हुती सखी गोहन में मनमोहन को लखि ही ललचानो।

नागरि नारि नई ब्रज की उनहूँ नंदलाल को रीझिबो जानो

जाति भई फिरि कै चितई तब भाव रहीम यहै उर आनो।

ज्यौं कमनैत दमानक में फिरि तीर सों मारि लै जात निसानो


कमलदल नैनन की उनमानि।

बिसरति नाहिं, सखी! मो मन तें मंद मंद मुसकानि।

बसुधा की बसकरी मधुरता सुधापगी बतरानि

मढ़ी रहै चित उर बिसाल की मुकुतमाल थहरानि।

नृत्य समय पीतांबर हू की फहर फहर फहरानि

अनुदिन श्रीवृंदावन ब्रज तें आवन आवन जानि।

अब रहीम चित ते न टरति है सकल स्याम की बानि

16. कादिर (कादिरबख्श): पिहानी जिला हरदोई के रहनेवाले और सैयद इब्राहीम के शिष्य थे। इनका जन्म संवत् 1635 में माना जाता है। अत: इनका कविताकाल संवत् 1660 के आसपास समझा जा सकता है। इनकी कोई पुस्तक तो नहीं मिलती पर फुटकल कवित्त पाए जाते हैं। कविता ये चलती भाषा में अच्छी करते थे। इनका यह कवित्त लोगों के मुँह से बहुत सुनने में आता है,

गुन को न पूछै कोऊ, औगुन की बात पूछै,

कहा भयो दई! कलिकाल यों खरानो है।

पोथी औ पुरान ज्ञान ठट्ठन में डारि देत,

चुगुल चबाइन को मान ठहरानो है

कादिर कहत यासों कछु कहिबे को नाहिं,

जगत की रीत देखि चुप मन मानो है।

खोलि देखौ हियो सब ओरन सों भाँति भाँति,

गुन ना हिरानो, गुनगाहक हिरानो है

17.मुबारक (सैयद मुबारक अली): बिलग्रामी का जन्म संवत् 1640 में हुआ था, अत: इनका कविताकाल संवत् 1670 के पीछे मानना चाहिए। ये संस्कृत, फारसी और अरबी के अच्छे पंडित और हिन्दी के सहृदय कवि थे। जान पड़ता है कि ये केवल श्रृंगार की ही कविता करते थे। इन्होंने नायिका के अंगों का वर्णन बड़े विस्तार से किया है। कहा जाता है कि दस अंगों को लेकर इन्होंने एक एक अंग पर सौ सौ दोहे बनाए थे। इनका प्राप्त ग्रंथ 'अलकशतक' और 'तिलशतक' उन्हीं के अंतर्गत है। इन दोहों के अतिरिक्त इनके बहुत से कवित्त सवैये संग्रह ग्रंथों में पाए जाते और लोगों के मुँह से सुने जाते हैं। इनकी उत्प्रेक्षा बहुत बढ़ी चढ़ी होती थी और वर्णन के उत्कर्ष के लिए कभी कभी ये बहुत दूर तक बढ़ जाते थे। कुछ नमूने देखिए,

(अलकशतक और तिलशतक से)

परी मुबारक तिय बदन अलक ओप अति होय।

मनो चंद की गोद में रही निसा सी सोय

चिबुक कूप में मन परयो छबिजल तृषा विचारि।

कढ़ति मुबारक ताहि तिय अलक डोरि सी डारि

चिबुक कूप रसरी अलक तिल सु चरस दृग बैल।

बारी वैस सिंगार को सींचत मनमथ छैल


(फुटकल से)

कनक बरन बाल, नगन लसत भाल,

मोतिन के माल उर सोहैं भलीभाँति है।

चंदन चढ़ाय चारु चंदमुखी मोहनी सी,

प्रात ही अन्हाय पग धारे मुसकाति है।

चूनरी विचित्र स्याम सजि कै मुबारकजू,

ढाँकि नखसिख तें निपट सकुचाति है।

चंद्रमैं लमेटि कै समेटि कै नखत मानो,

दिन को प्रनाम किए राति चली जाति है

18.बनारसीदास: ये जौनपुर के रहनेवाले एक जैन जौहरी थे जो आमेर में भी रहा करते थे। इनके पिता का नाम खड़गसेन था। ये संवत् 1643 में उत्पन्न हुए थे। इन्होंने संवत् 1698 तक का अपना जीवनवृत्त अर्ध्दकथानक नामक ग्रंथ में दिया है। पुराने हिन्दी साहित्य में यही एक आत्मचरित मिलता है, इससे इसका महत्व बहुत अधिक है। इस ग्रंथ से पता चलता है कि युवावस्था में इनका आचरण अच्छा न था और इन्हें कुष्ट रोग भी हो गया था। पर पीछे ये सँभल गए। ये पहले श्रृंगार रस की कविता किया करते थे, पर पीछे ज्ञान हो जाने पर इन्होंने वे सब कविताएँ गोमती नदी में फेंक दीं और ज्ञानोपदेशपूर्ण कविताएँ करने लगे। कुछ उपदेश इनके ब्रजभाषा गद्य में भी हैं। इन्होंने जैनधर्म संबंधी अनेक पुस्तकों के सारांश हिन्दी में कहे हैं। अब तक इनकी बनाई इतनी पुस्तकों का पता चला है,

बनारसी विलास (फुटकल कवित्तों का संग्रह), नाटक समयसार (कुंदकुंदाचार्य कृत ग्रंथ का सार), नाममाला (कोश), अर्ध्दकथानक, बनारसी पद्ध ति मोक्षपदी, धा्रुववंदना, कल्याणमंदिर भाषा, वेदनिर्णय पंचाशिका, मारगन विद्या।

इनकी रचना शैली पुष्ट है और इनकी कविता दादूपंथी सुंदरदासजी की कविता से मिलती जुलती है। कुछ उदाहरण लीजिए,

भोंदू! ते हिरदय की ऑंखें।

जे करबैं अपनी सुख संपति भ्रम की संपति भाखैं

जिन ऑंखिन सों निरखि भेद गुन ज्ञानी ज्ञान विचारैं।

जिन ऑंखिन सों लखि सरूप मुनि ध्यान धारना धारैं


काया सों विचार प्रीति, माया ही मेंहार जीत,

लिए हठ रीति जैसे हारिल की लकरी।

चंगुल के जोर जैसे गोह गहि रहै भूमि,

त्यौं ही पाँय गाड़ै पै न छाँडै टेक पकरी।

मोह की मरोर सों मरम को न ठौर पावैं,

धावैं चहुँ ओर ज्यौं बढ़ावैं जाल मकरी।

ऐसी दुरबुद्धि भूलि, झूठ के झरोखे भूलि,

फूली फिरैं ममता जँजीरन सों जकरी।

19.सेनापति: ये अनूपशहर के रहनेवाले कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। इनके पिता का नाम गंगाधार, पितामह का परशुराम और गुरु का नाम हीरामणि दीक्षित था। इनका जन्मकाल संवत् 1646 के आसपास माना जाता है। ये बड़े ही सहृदय कवि थे। ऋतुवण्र् ान तो इनके ऐसा और किसी श्रृंगारी कवि ने नहीं किया है। इनके ऋतुवर्णन में प्रकृति निरीक्षण पाया जाता है। पद विन्यास भी इनका ललित है। कहीं कहीं विरामों पर अनुप्रास का निर्वाह और यमक का चमत्कार भी अच्छा है। सारांश यह कि अपने समय के ये बड़े भावुक और निपुण कवि थे। अपना परिचय इन्होंने इस प्रकार दिया है,

दीक्षित परशुराम दादा हैं विदित नाम,

जिन कीन्हें जज्ञ, जाकी विपुल बड़ाई है।

गंगाधार पिता गंगाधार के समान जाके,

गंगातीर बसति 'अनूप' जिन पाई है

महा जानमनि, विद्यादान हू में चिंतामनि,

हीरामनि दीक्षित तें पाई पंडिताई है।

सेनापति सोई, सीतापति के प्रसाद जाकी,

सब कवि कान दै सुनत कविताई है

इनकी गर्वोक्तियाँ खटकती नहीं, उचित जान पड़ती हैं। अपने जीवन के पिछले काल में ये संसार से कुछ विरक्त हो चले थे। जान पड़ता है कि मुसलमानी दरबारों में भी इनका अच्छा मान रहा, क्योंकि अपनी विरक्ति की झोंक में इन्होंने कहा है,

केतो करौ कोइ, पैए करम लिखोइ, तातें,

दूसरी न होइ, उर सोइ ठहराइए।

आधी तें सरस बीति गई है बरस, अब

दुर्जन दरस बीच रस न बढ़ाइए

चिंता अनुचित, धारु धीरज उचित,

सेनापति ह्वै सुचित रघुपति गुन गाइए।

चारि बर दानि तजि पायँ कमलेच्छन के,

पायक मलेच्छन के काहे को कहाइए

शिवसिंहसरोज में लिखा है कि पीछे इन्होंने क्षेत्र संन्यास ले लिया था। इनके भक्तिभाव से पूर्ण अनेक कवित्त 'कवित्तरत्नाकर' में मिलते हैं, जैसे

महा मोहकंदनि में जगत जकंदनि में,

दिन दुखदुंदनि में जात है बिहाय कै।

सुख को न लेस है, कलेस सब भाँतिन को;

सेनापति याहीं ते कहत अकुलाय कै

आवै मन ऐसी घरबार परिवार तजौं,

डारौं लोकलाज के समाज विसराय कै।

हरिजन पुंजनि में वृंदावन कुंजनि में,

रहौं बैठि कहूँ तरवर तर जाय कै

यद्यपि इस कवित्त में वृंदावन का नाम आया है, पर इनके उपास्य राम ही जान पड़ते हैं क्योंकि स्थान स्थान पर इन्होंने 'सियापति', 'सीतापति', 'राम' आदि नामों का ही स्मरण किया है। कवित्तरत्नाकर इनका सबसे पिछला ग्रंथ जान पड़ता है क्योंकि उसकी रचना संवत् 1706 में हुई है, यथा,

संवत् सत्रह सै छ में, सेइ सियापति पाय।

सेनापति कविता सजी सज्जन सजौ सहाय

इनका एक ग्रंथ 'काव्यकल्पद्रुम' भी प्रसिद्ध है।

जैसा कि पहले कहा जा चुका है, इनकी कविता बहुत मर्मस्पर्शिनी और रचना बहुत ही प्रौढ़ और प्रांजल है। जैसे एक ओर इनमें पूरी भावुकता थी वैसे ही दूसरी ओर चमत्कार लाने की पूरी निपुणता भी। श्लेष का ऐसा साफ उदाहरण शायद ही और कहीं मिले,

नाहीं नाहीं करै, थोरो माँगे सब दैन कहै,

मंगन को देखि पट देत बार बार है

जिनके मिलत भली प्रापति की घटी होति,

सदा सुभ जनमन भावै निराधार है

भोगी ह्वै रहत बिलसत अवनी के मध्य,

कन कन जोरै, दानपाठ परवार है

सेनापति वचन की रचना निहारि देखौ,

दाता और सूम दोउ कीन्हें इकसार है

भाषा पर ऐसा अच्छा अधिकार कम कवियों का देखा जाता है। इनकी भाषा में बहुत कुछ माधुर्य ब्रजभाषा का ही है, संस्कृत पदावली पर अवलंबित नहीं। अनुप्रास और यमक की प्रचुरता होते हुए भी कहीं भद्दी कृत्रिमता नहीं आने पाई है। इनके ऋतुवर्णन के अनेक कवित्त बहुत से लोगों को कंठस्थ हैं। रामचरित संबंधी कवित्त भी बहुत ही ओजपूर्ण हैं। इनकी रचना के कुछ नमूने दिए जाते हैं,

बानि सौं सहित सुबरन मुँह रहैं जहाँ,

धरत बहुत भाँति अरथ समाज को।

संख्या करि लीजै अलंकार हैं अधिक यामैं,

राखौ मति ऊपर सरस ऐसे साज को

सुनौ महाजन! चोरी होति चार चरन की,

तातें सेनापति कहै तजि उर लाज को।

लीजियो बचाय ज्यों चुरावै नाहिं कोउ, सौंपी

वित्ता की सी थाती में कवित्तन के ब्याज को


वृष को तरनि, तेज सहसौ करनि तपै,

ज्वालनि के जाल बिकराल बरसत है।

तचति धारनि जग झुरत झुरनि, सीरी

छाँह को पकरि पंथी पंछी बिरमत है

सेनापति नेक दुपहरी ढरकत होत

धामका विषम जो न पात खरकत है।

मेरे जान पौन सीरे ठौर को पकरि काहू

घरी एक बैठि कहूँ घामै बितवत है


सेनापति उनए नए जलद सावन के

चारिहू दिसान घुमरत भरे तोय कै।

सोभा सरसाने न बखाने जात कैहूँ भाँति

आने हैं पहार मानो काजर के ढोय कै

घन सों गगन छप्यो, तिमिर सघन भयो,

देखि न परत मानो रवि गयो खोय कै।

चारि मास भरि स्याम निसा को भरम मानि,

मेरे जान याही तें रहत हरि सोय कै

दूरि जदुराई सेनापति सुखदाई देखौ,

आई ऋतु पावस न पाई प्रेमपतियाँ।

धाीर जलधार की सुनत धुनि धारकी औ,

दरकी सुहागिन की छोहभरी छतियाँ

आई सुधि बर की, हिए में आनि खरकी,

सुमिरि प्रानप्यारी वह प्रीतम की बतियाँ।

बीती औधिा आवन की लाल मनभावन की,

डग भई बावन की सावन की रतियाँ

बालि को सपूत कपिकुल पुरहूत,

रघुवीर जू को दूत धरि रूप विकराल को।

युद्ध मद गाढ़ो पाँव रोपि भयो ठाढ़ो,

सेनापति बल बाढ़ो रामचंद्र भुवपाल को


कच्छप कहलि रह्यो, कुंडली टहलि रह्यो,

दिग्गज दहलि त्रास परो चकचाल को।

पाँव के धारत अति भार के परत भयो,

एक ही परत मिलि सपत पताल को

रावन को बीर, सेनापति रघुबीर जू की

आयो है सरन, छाँड़ि ताहि मदअंधा को।

मिलत ही ताको राम कोप कै करी है ओप,

नाम जोय दुर्जनदलन दीनबंधा को।

देखौ दानवीरता निदान एक दान ही में,

दीन्हें दोऊ दान, को बखानै सत्यसंध को।

लंका दसकंधार की दीनी है विभीषन को,

संका विभीषन की सो दीनी दसकंधा को

सेनापतिजी के भक्तिप्रेरित उद्गार भी बहुत अनूठे और चमत्कारपूर्ण हैं। 'आपने करम करि हौं ही निबहौंगे तौ तौ हौं ही करतार, करतार तुम काहे के?' वाला प्रसिद्ध कवित्त इन्हीं का है।

20.पुहकर कवि: ये परतापपुर (जिला मैनपुरी) के रहने वाले थे, पर पीछे गुजरात में सोमनाथ जी के पास भूमिगाँव में रहते थे। ये जाति के कायस्थ थे और जहाँगीर के समय में वर्तमान थे। कहते हैं कि जहाँगीर ने किसी बात पर इन्हें आगरे में कैद कर लिया था। वहीं कारागार में इन्होंने 'रसरतन' नामक ग्रंथ संवत् 1673 में लिखा जिस पर प्रसन्न होकर बादशाह ने इन्हें कारागार से मुक्त कर दिया। इस ग्रंथ में रंभावती और सूरसेन की प्रेमकथा कई छंदों में, जिनमें मुख्य दोहा और चौपाई है, प्रबंधकाव्य की साहित्यिक पद्ध ति पर लिखी गई। कल्पित कथा लेकर प्रबंधकाव्य रचने की प्रथा पुराने हिन्दी कवियों में बहुत कम पाई जाती है। जायसी आदि सूफी शाखा के कवियों ने ही इस प्रकार की पुस्तकें लिखी हैं, पर उनकी परिपाटी बिल्कुल भारतीय नहीं थी। इस दृष्टि से 'रसरतन' को हिन्दी साहित्य में एक विशेष स्थान देना चाहिए।

इसमें संयोग और वियोग की विविधा दशाओं का साहित्य की रीति पर वर्णन है। वर्णन उसी ढंग के हैं जिस ढंग के श्रृंगार के मुक्तक कवियों ने किए हैं। पूर्वराग, सखी, मंडन, नखशिख, ऋतुवर्णन आदि श्रृंगार की सब सामग्री एकत्र की गई है। कविता सरस और भाषा प्रौढ़ है। इस कवि के और ग्रंथ नहीं मिले हैं। पर प्राप्त ग्रंथ को देखने से ये एक अच्छे कवि जान पड़ते हैं। इनकी रचना की शैली दिखाने के लिए उध्दृत पद्य पर्याप्त होंगे,

चले मैमता हस्ति झूमंत मत्ता। मनो बद्दला स्याम साथै चलंता

बनी बागरी रूप राजंत दंता। मनौ बग्ग आसाढ़ पाँतैं उदंता

लसैं पीत लालैं, सुढालैं ढलक्कैं। मनों चंचला चौंधिा छाया छलक्कैं


चंद की उजारी प्यारी नैनन तिहारे, परे

चंद की कला में दुति दूनी दरसाति है।

ललित लतानि में लता सी गहि सुकुमारि

मालती सी फूलैं जब मृदु मुसुकाति है

पुहकर कहै जित देखिए विराजै तित

परम विचित्र चारु चित्र मिलि जाति है।

आवै मन माहि तब रहै मन ही में गड़ि,

नैननि बिलोके बाल नैननि समाति है

21.सुंदर: ये ग्वालियर के ब्राह्मण थे और शाहजहाँ के दरबार में कविता सुनाया करते थे। इन्हें बादशाह ने पहले कविराय की और फिर महाकविराय की पदवी दी थी। इन्होंने संवत् 1688 में 'सुंदरश्रृंगार' नामक नायिकाभेद का एक ग्रंथ लिखा। कवि ने रचना की तिथि इस प्रकार दी है,

संवत् सोरह सै बरस, बीते अठतर सीति।

कातिक सुदि सतमी गुरौ, रचे ग्रंथ करि प्रीति

इसके अतिरिक्त 'सिंहासनबत्तीसी' और 'बारहमासा' नाम की इनकी दो पुस्तकें और कही जाती हैं। यमक और अनुप्रास की ओर इनकी कुछ विशेष प्रवृत्ति जान पड़ती है। इनकी रचना शब्दचमत्कारपूर्ण है। एक उदाहरण दिया जाता है,

काके गए बसन पलटि आए बसन सु,

मेरो कछु बस न रसन उर लागे हौ।

भौंहैं तिरछौहैं कवि सुंदर सुजान सोहैं,

कछू अलसौहैं गौंहैं, जाके रस पागे हौ

परसौं मैं पाय हुते परसौं मैं पाय गहि,

परसौ वे पाय निसि जाके अनुरागे हौ।

कौन बनिता के हौ जू कौन बनिता के हौ सु,

कौन बनिता के बनि, ताके संग जागे हौ

22.लालचंद या लक्षोदय: ये मेवाड़ के महाराणा जगतसिंह (संवत् 1685-1709) की माता जांबवती जी के प्रधान श्रावक हंसराज के भाई डूँगरसी के पुत्र थे। इन्होंने संवत् 1700 में 'पद्मिनीचरित्र' नामक एक प्रबंधकाव्य की रचना की जिसमें राजा रत्नसेन और पद्मिनी की कथा का राजस्थानी मिली भाषा में वर्णन है। जायसी ने कथा का जो रूप रखा है उससे इसकी कथा में बहुत जगह भेद है, जैसेजायसी ने हीरामन तोते के द्वारा पद्मिनी का वर्णन सुनकर रत्नसेन का मोहित होना लिखा है, पर भाटों द्वारा एकबारगी घर से निकल पड़ने का कारण इसमें यह बताया गया है कि पटरानी प्रभावती ने राजा के सामने जो भोजन रखा वह उसे पसंद न आया। इस पर रानी ने चिढ़कर कहा कि यदि मेरा भोजन अच्छा नहीं लगता तो कोई पद्मिनी ब्याह लाओ,

तब तड़की बोली तिसे जी राखी मन धारि रोस।

नारी आणों काँ न बीजी द्यो मत झूठो दोस

हम्मे कलेवी जीणा नहीं जी किसूँ करीजै बाद।

पदमणि का परणों न बीजी जिमि भोजन होय स्वाद

इसपर रत्नसेन यह कहकर उठ खड़ा हुआ,

राणो तो हूँ रतनसी परणूँ पदमिनि नारि।

राजा समुद्र तट पर जा पहुँचा जहाँ से औघड़नाथ सिद्ध ने अपने योगबल से उसे सिंहलद्वीप पहुँचा दिया। वहाँ राजा की बहन पद्मिनी के स्वयंवर की मुनादी हो रही थी,

सिंहलदीप नो राजियो रे, सिंगल सिंह समान रे।

तसु बहण छै पदमिणि रे, रूपे रंभ समान रे

जोबन लहरयाँ जायछै रे, ते परणूँ भरतार रे।

परतज्ञा जे पूरवै रे, तासु बरै बरमाल रे

राजा अपना पराक्रम दिखाकर पद्मिनी को प्राप्त करता है।

इसी प्रकार जायसी के वृत्त से और भी कई बातों में भेद है। इस चरित्र की रचना गीतिकाव्य के रूप में समझनी चाहिए।

सूफी रचनाओं के अतिरिक्त भक्तिकाल के अन्य आख्यानकाव्य

आश्रयदाता राजाओं के चरितकाव्य तथा ऐतिहासिक या पौराणिक आख्यान काव्य लिखने की जैसी परंपरा हिंदुओं में बहुत प्राचीनकाल से चली आती थी वैसी पद्यबद्ध कल्पित कहानियाँ लिखने की नहीं थीं। ऐसी कहानियाँ मिलती हैं, पर बहुत कम। इसका अर्थ यह नहीं कि प्रसंगों या वृत्तों की कल्पना की प्रवृत्ति कम थी। ऐसी कल्पना किसी ऐतिहासिक या पौराणिक पुरुष या घटना का कुछ,कभी कभी अत्यंत अल्प,सहारा लेकर खड़ी की जाती थी। कहीं कहीं तो केवल कुछ नाम ही ऐतिहासिक या पौराणिक रहते थे, वृत्त सारा कल्पित रहता था, जैसे ईश्वरदास कृत 'सत्यवती कथा'।

आत्मकथा का विकास भी नहीं पाया जाता। केवल जैन कवि बनारसीदास का 'अर्ध्दकथानक' मिलता है। नीचे मुख्य आख्यानकाव्यों का उल्लेख किया जाता है,

ऐतिहासिक पौराणिक कल्पित आत्मकथा

1. रामचरितमानस (तुलसी) 1. ढोला मारू रा दूहा (प्राचीन)

1. अर्ध्दकथानक

(बनारसीदास)

2.हरिचरित्र (लालचदास) 2. लक्ष्मणसेन पद्मावती कथा

(दामो कवि)

3.रुक्मिणीमंगल (नरहरि) 3. सत्यवतीकथा (ईश्वरदास)

4.रुक्मिणीमंगल (नंददास) 4. माधावानल कामकंदला

(आलम)

5.सुदामाचरित्र (नरोत्तमदास) 5. रसरतन (पुहकर कवि)

6.रामचंद्रिका (केशवदास) 6. पद्मिनीचरित्र (लालचंद)

7.वीरसिंहदेवचरित (केशव) 7. कनकमंजरी (काशीराम)

8.बेलि क्रिसन रुकमणी री (जोधपुर के राठौड़ राजाप्रिथीराज)

ऊपर दी हुई सूची में 'ढोला मारू रा दूहा' और 'बेलि क्रिसन रुकमणी री' राजस्थानी भाषा में हैं। ढोला मारू की प्रेमकथा राजपूताने में बहुत प्रचलित है। दोहे बहुत पुराने हैं, यह बात उनकी भाषा से पाई जाती है। बहुत दिनों तक मुखाग्र ही रहने के कारण बहुत से दोहे लुप्त हो गए थे, जिससे कथा की श्रृंखला बीच बीच में खंडित हो गई थी। इसी से संवत् 1618 के लगभग जैन कवि कुशललाभ ने बीच बीच में चौपाइयाँ रचकर जोड़ दीं। दोहों की प्राचीनता का अनुमान इस बात से हो सकता है कि कबीर की साखियों में ढोला मारू के बहुत से दोहे ज्यों के त्यों मिलतेहैं। 'बेलि क्रिसन रुकमणी री' जोधपुर के राठौड़ राजवंशीय स्वदेशाभिमानी कवि पृथ्वीराज की रचना है जिनका महाराणा प्रताप को क्षोभ से भरा पत्र लिखना इतिहास-प्रसिद्ध है। रचना प्रौढ़ भी है और मार्मिक भी। इसमें श्रीकृष्ण और रुक्मिणी के विवाह की कथा है। पद्मिनीचरित की भाषा भी राजस्थानी मिली है। संदर्भ 1. देखो, पृ. 58-61