भक्तिकाव्य का समाजशास्त्र और पदमावत / रवि रंजन

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"साहित्यकार न तो इतिहासकर्ता होता है और न धर्मशास्त्र प्रणेता। इन दोनों के कर्तव्य स्वतन्त्र हैं। साहित्य इन दोनों की कमी को पूरा करने का काम करता है।" -जयशंकर प्रसाद: (यथार्थवाद और छायावाद)

'कला की व्याख्या केवल समाजशास्त्रीय शब्दावली में हरगिज़ नहीं की जा सकती।' -अर्नाल्ड हाउजर (द सोशियोलोजी ऑफ़ आर्ट)

इक्कीसवीं शताब्दी के लगभग डेढ़ दशक बाद इस अकाल वेला में भारत ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में धर्मोन्माद और आतंक का जो माहौल दिखाई दे रहा है, उसे नजरअंदाज करना मुश्किल है। कहने की ज़रूरत नहीं कि इस मानव-विरोधी लहर की बुनियाद विश्व बाजारवाद एवं भूमंडलीकरण की प्रक्रिया है। कई विचारकों ने हमारे समय की धार्मिक मूलगामिता को औद्योगिक पूँजी के बजाय वित्तीय पूँजी के विश्वव्यापी सर्वग्रासी प्रसार से उत्पन्न बाजारवादी मूलगामिता (मार्केट फंडामेंटलिज्म) का पुनरुत्पाद बताया है।

डॉ. राममनोहर लोहिया ने लिखा है कि राजनीति अल्पकालिक धर्म है और धर्म दीर्घकालीन राजनीति। आज की राजनीति भविष्य का धर्म है और आज का धर्म अतीत की राजनीति। सच तो यह है कि संसार का कोई भी धर्म तात्विक दृष्टि से किसी दैवी सिद्धांत के बजाय एक ऐसी आध्यात्मिक चेतना है, जो समाजार्थिक बदलाव की वजह से लगातार परिवर्तित होते रहने वाले अनुभव से निष्पन्न होती है। मार्क्स ने ठीक ही धर्म को केवल अफ़ीम ही नहीं, बल्कि 'पीड़ित प्राणियों की आह और हृदयहीन दुनिया का ह्रदय' कहा है। इसलिए यह कहना अयुक्तियुक्त न होगा कि धार्मिक प्रश्न मूलतः सामाजिक प्रश्न के अलावा और कुछ नहीं होते और सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों में बदलाव से कालान्तर में धर्म का स्वरुप भी स्वभावतः बदलता है। जिस प्रकार इतिहास के प्रत्येक कालखंड में उदीयमान एवं पतनशील सामाजिक शक्तियों के बीच प्रायः रस्साकशी की स्थिति हुआ करती है, जिसके फलाफल पर ही सामाजिक विकास की प्रक्रिया का भविष्य टिका होता है, उसी प्रकार संसार के विभिन्न धर्मों के भीतर भी उदारवाद एवं कट्टरवाद के बीच तनाव देखा जा सकता है। गौरतलब है कि इस पंथगत रस्साकशी के कुरुक्षेत्र में दोनों ही पंथों के अगुआ अपने-अपने पक्ष को धर्मयुद्ध घोषित करने से कदापि नहीं चूकते और ऐसे तथाकथित धर्मयुद्ध में कट्टरपंथी पतनशील ताकतों के मुकाबले उदीयमान शक्तियों की विजय के लिए युग-विशेष में विकास के एक निश्चित सोपान पर पहुँच चुकी हों।

भक्ति आंदोलन के आविर्भाव को एक ऐतिहासिक-सामाजिक शक्ति के रूप में रेखांकित करते हुए मुक्तिबोध ने ठीक ही इसे मूलतः तद्युगीन आम जनता के दु: खों और कष्टों से निष्पन्न माना है। उन्होंने लिखा है कि "भक्ति-काल की मूल भावना साधारण जनता के कष्ट और पीड़ा से उत्पन्न है। असल बात यह है कि मुसलमान संत-मत भी उसी तरह कट्टरपंथियों के विरुद्ध था, जितना कि भक्ति-मार्ग। दोनों एक-दूसरे से प्रभावित भी थे, किंतु इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि भक्ति-भावना की तीव्र आर्द्रता और सारे दु: खों और कष्टों के परिहार के लिए ईश्वर की पुकार के पीछे जनता की भयानक दु: स्थिति छिपी हुई थी।"

मुक्तिबोध ने भक्ति आंदोलन की निर्गुण एवं सगुण धारा के बीच अधिरचना के स्तर पर दिखाई देने वाले अंतर्विरोधों की पृष्ठभूमि में मौजूद तद्युगीन आधारगत अंतर्विरोधों की गहरी छानबीन के बाद जो निष्कर्ष प्रस्तुत किया है, उसे नजरअंदाज कर पाना असंभव है: "जो भक्ति आंदोलन जनसाधारण से शुरू हुआ और जिसमें सामाजिक कट्टरपन के विरुद्ध जनसाधारण की सांस्कृतिक आशा-आकांक्षाएँ बोलती थीं, ...उसी भक्ति आंदोलन को उच्चवर्गियों ने आगे चलकर अपनी तरह बना लिया।" उनके अनुसार इसका 'मूल कारण यह है कि भारत में पुरानी समाज-रचना को समाप्त करने वाली पूंजीवादी क्रांतिकारी शक्तियाँ उन दिनों विकसित नहीं हुई थीं।' निर्गुण-शाखा एवं कृष्णभक्ति-शाखा के बरअक्स रामभक्ति-शाखा को रखकर उन्होंने सवाल खड़ा किया है कि "क्या यह एक महत्त्वपूर्ण तथ्य नहीं है कि कृष्णभक्ति-शाखा के अंतर्गत रसखान और रहीम-जैसे ह्रदयवान मुसलमान कवि बराबर रहे आये, किंतु रामभक्ति-शाखा के अंतर्गत एक भी मुसलमान और शूद्र कवि प्रभावशाली और महत्त्वपूर्ण रूप से अपनी काव्यात्मक प्रतिभा विशद नहीं कर सका? जबकि यह एक स्वतःसिद्ध बात है कि निर्गुण शाखा के अंतर्गत ऐसे लोगों को अच्छा स्थान प्राप्त था।"

कहना न होगा कि भक्तिकाव्य के किसी अध्येता के लिए उपर्युक्त सवाल से मुँह चुराना संभव नहीं है, पर इस संदर्भ में मुक्तिबोध की तर्क-पद्धति से शत-प्रतिशत सहमति से एक महत्त्वपूर्ण सवाल का जवाब पाने की बजाय समस्या के सरलीकरण के खतरे से इनकार नहीं किया जा सकता। वस्तुतः मुक्तिबोध द्वारा खड़ा किया गया प्रश्न एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण समाजशास्त्रीय प्रश्न है, जिसका संतोषजनक उत्तर प्राप्त करने हेतु साहित्य की दुनिया से थोड़ा बाहर जाकर मध्ययुगीन भारतीय समाज की संरचना का समाजशास्त्रीय विवेचन-विश्लेषण अपरिहार्य है। दीगर बात यह है कि निर्गुण और सगुण के बीच जैसी द्विभाजकता हिन्दी के भक्तिकाव्य में है, वह अन्य भारतीय भाषाओं में रचित भक्तिकाव्य के प्रसंग में बहुत हद तक लागू नहीं होती।

यह ठीक है कि समाजशास्त्रीय दृष्टि से मध्ययुगीन भारत की सामाजिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक शक्तियों के विश्लेषण के बगैर भक्तिकाव्य पर कोई सार्थक बातचीत आज असंभव है, किंतु, इस महान काव्य की केवल ऐतिहासिक अथवा स्थूल समाजशास्त्रीय व्याख्या के अपने ख़तरे हैं। जिस प्रकार मनुष्य की समाजशास्त्रीय व्याख्या एवं मनोवैज्ञानिक व्याख्या नाभिनालबद्ध होनी चाहिए, उसी प्रकार भक्तिकाव्य का विवेचन-विश्लेषण भी दोनों पद्धतियों की परस्पर सम्बद्धता के अभाव में यदि एक ओर यांत्रिक समाजशास्त्रीयता का शिकार हो सकता है, तो दूसरी ओर आत्ममुग्धता की हद तक अध्यात्मवाद के रंग में रँग जाने को अभिशप्त। इन अतिवादी, अतिरेकी एवं एकांगी पद्धतियों की अपेक्षा भक्तिकाव्य के संतुलित मूल्यांकन के लिए एक ऐसी समावेशी पद्धति काम्य है, जिसे मोटे तौर पर 'समाजशास्त्रीय सौन्दर्यशास्त्र' या 'सौन्दर्यशास्त्रीय समाजशास्त्र' कहा जा सकता है। याद रहे कि जेने उल्फ नामक विदुषी की पुस्तक 'सौंदर्यशास्त्र और कला का समाजशास्त्र' (1983) में इसी अभिगम को अपनाने पर बल दिया गया है। इसके बगैर यह समझ पाना असंभव है कि भक्तिकाव्य ने सौन्दर्यशास्त्र को किस प्रकार नया आयाम दिया। इसमें कलात्मकता और ऐतिहासिकता का जैसा रोचक और रसात्मक संवाद है, साहित्य, संगीत और कला की जो त्रिवेणी है, वर्ग-संघर्ष और वर्ग-सहयोग के जो द्वन्द्वात्मक दृश्य दिखाई पड़ते हैं तथा सर्वप्रमुख लोकप्रिय जातीय संस्कृति की जो छवियाँ दृष्टिगोचर होती हैं-उनकी मानवीय अर्थवत्ता एवं सार्थकता क्या है। भक्तिकाव्य के अधिकांश अध्येताओं की सतही समीक्षा के मद्देनज़र मुरारि के इस श्लोक की याद न आए, यह मुमकिन नहीं:

अब्धिर्लङ्घित एव वानरभटैः किन्त्वस्य गम्भीरताम्।
आपाताल निमग्नपीवरतनुः जानाति मंदराचल: II

भक्तिकाव्य के समाजशास्त्रीय विश्लेषण के क्रम में यह बात ध्यान देने योग्य है कि भक्त कवि वर्णव्यवस्था के विरुद्ध केवल वहीं खड़े नहीं होते, जहाँ वे उसकी खुलकर निंदा करते हैं। गहराई से विचार करते हुए भक्तिकाव्य में जगह-जगह व्यक्त भगवान के स्पर्श की कामना के भी सामाजिक निहितार्थ ढूंढे जा सकते हैं:

पद कमल धोइ चढ़ाइ नाव न नाथ उतराई चहौं।
मोहि राम राउरि आन दसरथ सपथ सब साची कहौं॥
वरु तीर मारहुँ लखनु पै जब लगि न पाय पखारिहौं।
तब लगि न तुलसीदास नाथ कृपाल पारु उतारिहौं॥

कृष्णभक्ति-काव्य में 'रासलीला' के प्रसंग में ऐसे अनेकानेक चित्र मिलते हैं, जिनमें नृत्य के दौरान गोपियाँ कृष्ण के और कृष्ण गोपियों के आलिंगन में बद्ध दिखाये गये हैं:

अरुझी कुंडल लट, बेसरि सौं पीत पट, बनमाल
बीच आनि उरझे हैं दोउ जन।
प्रननि सौं प्रान, नैन नननि अंटकि रहे, चटकीली
छबि देखि लपटात स्याम घन
होड़ा-होड़ी नृत्य करें, रीझि-रीझि अंक भरैं,
ता-तार 'थेई-थेई' उछटत हैं हरखि मन।
सूरदास प्रभु प्यारी, मण्डली जुवति भारी, नारि कौ
आँचल लै-लै पोंछत हैं श्रमकन।

सूरदास की कविता में आये उल्लास के इस अपूर्व चित्र पर रीझकर डॉ. रामविलास शर्मा ने लिखा है: "कृष्ण के कुंडलों में राधिका की लट, राधा की बेसर में कृष्ण का पीत पट उलझे (उलझा) हैं (है) । नृत्य घनीभूत है न! बनमाल में दोनों ही उलझ गये हैं। होड़ करके नाचते हैं। सामंती निषेधों की बेड़ियाँ पैरों में नहीं हैं, इसलिए प्राक्-सामंती समाज की स्वछंदता के ताल पर नाच रहे हैं। प्राणों से प्राण, नैनों से नैनों का मिलना...रीझ-रीझ कर अंक भरना; ता-ता थई-थई उछटत पर जब मृदंग पर थाप पड़े, तब नाद की नसेनी पर मन सुन्न महल पर पहुँच जाए. मंडली-जुवती है; अनेक नाचने वाले हैं। सामूहिक उल्लास है। फिर समग्र क्रिया की पूर्ति के फलस्वरूप आँचल के श्रमकन पोंछना रस निष्पत्ति की पराकाष्ठा है।"

जिस समाज में आबादी का एक बड़ा हिस्सा छुआछूत जैसी अमानवीय प्रथा का शिकार हो, उसमें संत-भक्त कवियों की रचनाओं में भगवान को स्पर्श करने की कामना की अभिव्यक्ति वाले चित्रों को केवल सौंदर्यशास्त्र की आँख से देखना काफ़ी नहीं है।

उल्लेखनीय है कि जिस वेदांत दर्शन को विवेकानंद ने 'मानव जाति द्वारा अब तक हासिल उच्चतम ज्ञान का संग्रह' तथा 'शास्त्रों का शास्त्र' घोषित किया है, वह बहुत हद तक भक्तिकाव्य की सर्वप्रमुख विचारधारा (नोर्मेटिव आइडियोलोजी) है। विवेकानंद के अनुसार "एक आदमी दूसरे आदमी से ऊंचा पैदा हुआ है, इस विचार का वेदांत में कोई स्थान नहीं है।" इसलिए भक्त कवियों द्वारा मनुष्य-मनुष्य के बीच बराबरी की भावना की कलात्मक अभिव्यक्ति स्वाभाविक है।

निर्मला जैन ने भक्तिकाव्य की सौन्दर्य-दृष्टि के निर्माण में दार्शनिक विचारधारा की केंद्रीय भूमिका को स्वीकार करते हुए लिखा है कि ' इस काव्य की मूलवर्ती दृष्टि ठेठ भौतिकवादी भले ही न हो, वस्तुवादी अवश्य है। वस्तु और आत्म, पदार्थ और चेतना के आपसी सम्बंध के बुनियादी सवाल को सुलझाने की यह केंद्रीय दृष्टि ही जीवन-मूल्यों और तदनुसार सौंदर्य-मूल्यों के विकास की दिशा और प्रकृति का निर्धारण करती है। जो दृष्टि वस्तुजगत को मिथ्या, गौण या नगण्य घोषित करती है, वह कहीं न कहीं समाज में व्याप्त अन्याय और शोषण की मददगार होती है। वह समाज के सुविधा-संपन्न वर्ग की मानसिकता और हितों का प्रतिनिधित्व करती है। इसके विपरीत वस्तुजगत में आस्था रखने के कारण भौतिकवादी दृष्टि का ध्यान मनुष्य और समाज पर केंद्रित रहता है। परिणामतः उसमें सामाजिक अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाने की गुंजाइश बराबर बनी रहती है। भक्तिकाव्य का आराध्य तत्वतः अवतार होते हुए भी जीवन की भौतिक आवश्यकताओं से जुड़ा था। "

भक्तिकाव्य के समाजशास्त्रीय अध्ययन की समस्याओं पर विचार करते हुए यह बात भी काबिलेगौर है कि भक्त कवियों ने उपनिषद-काल से चली आ रही 'ब्रह्म' की अवधारणा को संवेदना के स्तर पर तत्वान्तरित करके उसे अनुभूति में तब्दील किया। इस क्रम में उन्होंने 'ब्रह्म' की अमूर्त अवधारणा को पहले एंद्रियगोचर रूप प्रदान किया और तब उसे राग का विषय बनाया। याद रहे कि भक्त कवियों के ऐन्द्रियबोध की अनेकस्तरीयता के चलते उनकी अभिव्यक्ति-पद्धति में भी स्पष्ट अंतर दिखाई देता है। दूसरे शब्दों में, प्रत्येक महत्त्वपूर्ण भक्त कवि की एक निजी व विशिष्ट अभिव्यक्ति की संरचना है जिसके मूल में उसकी एक विशिष्ट एवं वैयक्तिक अनुभूति की संरचना निहित है। गोस्वामी बिठ्ठलनाथ ने भागवत महापुराण पर लिखित 'सुबोधिनी कारिका' में अनुभूति और अभिव्यक्ति के 'बाह्यांतर योग' में ही कला की सिद्धि को निहित माना है। स्पष्ट ही मनुष्य की निजी एवं वैयक्तिक ऐन्द्रियबोधीय विशिष्टता के चलते बाह्यबोध को लेकर उसकी प्रतिक्रिया को जो एक भिन्न व विशिष्ट आयाम प्राप्त होता है, वह मोटे तौर पर दो प्रकार का हो सकता है–आवेगात्मक और संवेदनात्मक। इनमें आवेगात्मकता का तात्कालिक और संवेदनशीलता का दीर्घकालिक महत्त्व होता है तथा इसका सम्बंध संयम, सुरुचि एवं संस्कृति से होता है। प्राय: देखा गया है कि जो कवि जितना ज़्यादा संवेदनशील होता है, वह उतना ही बड़ा सौंदर्य-पारखी भी। भक्तकवियों की संवेदनशीलता की व्यापकता और गहराई की द्वंद्वात्मकता को रेखांकित करते हुए निर्मला जैन ने सही लिखा है कि "जो संवेदनशीलता समाज में व्याप्त अन्याय से चोट खाकर व्यंग और फटकार की तीव्रता में, अन्याय का विरोध करने में प्रकट होती है, वही 'प्रेम की पीर' से उत्पन्न व्याकुलता में।"

'पदमावत' के रचयिता मालिक मुहम्मद जायसी का वैशिष्ट्य कवि की आवेगशीलता के बजाए संवेदनशीलता में निहित है, जिसके परिणामस्वरुप उसकी अभिव्यक्ति पाठक के भीतर अपेक्षाकृत स्थिर, व्यापक एवं गहरी संवेदनात्मक अनुगूंज उत्पन्न कर सकने में सक्षम है। उन्होंने खुद अपनी रचना में निहित गहन संवेदनशीलता को रेखांकित करते हुए लिखा है:

'एक नैन कबि मुहमद गुनी। सोइ बिमोहा जेइ कबि सुनी॥'

या

'जेई मुख देखा तेइं हँसा सुना तो आए आँसु।'

यह संवेदनात्मक अनुगूंज 'पदमावत' में जगह-जगह पर जायसी द्वारा प्रयुक्त अनूठी शब्दावली व मुहावरों में सुनी जा सकती है, जिसके माध्यम से वहाँ पूरी कायनात को 'शब्द' में उतार दिया गया है। प्रसंगवश 'पदमावत' में सिंहलगढ़-वर्णन के प्रसंग में आया एक दोहा द्रष्टव्य है, जो अभिव्यक्ति की सादगी के बावजूद एक अर्थवान बिम्ब-सृष्टि का अन्यतम उदाहरण है:

मुहमद जीवन जल भरन रहेंट घरी की रीति।
घरी सो आई ज्यों भरी ढरी जनम गा बीति॥

गौरतलब है कि यहाँ 'रहँट' के चलने की वजह से पानी भरने और खाली होने का जो बिम्ब बनता है, वह प्रकारांतर से ज़िन्दगी और मौत की निरंतर चलने वाली चाक्रिक प्रक्रिया को भी व्यंजित करता है। इस अतिरिक्त व्यंजना की कुंजी छोटे-से क्रिया-प्रयोग 'गा' में निहित है, जो ठेठ अवधी का क्रिया-पद है और ऊपर कथित चाक्रिक प्रक्रिया में हर्ष या विषाद जैसे भाव के बजाय चलने की प्रक्रिया पर बल देता है। इसी प्रकार सिंहलद्वीप के पक्षियों का वर्णन करने के दरम्यान जायसी ने लिखा है:

जाँवत पंखि कहे सब बैठे भरि अँबराउँ।
आपनि आपनि भाषा लेहिं दइअ कर नाउँ॥

ऊपर उद्धृत पंक्तियों में निहित रचनात्मक तनाव पर प्रकाश डालते हुए रामस्वरुप चतुर्वेदी लिखते हैं कि इस दोहे के अभाव में वृक्षों पर बैठे दर्जनों पक्षियों की एक सूची बन जाती, पर उस अमराई का कोई काव्यात्मक बिंब न बन पाता। अपनी-अपनी शाखा पर बैठकर अपनी-अपनी भाषा में प्रभु का नाम-स्मरण करते हुए पक्षियों का यह रूप-वर्णन एक सीमा तक प्रस्तुतपरक होते हुए भी बिम्ब की छवि प्राप्तकर लेता है। इस बिम्ब-प्रक्रिया में अवधि के एक बहुप्रचलित शब्द– 'दइअ' के प्रयोग से उत्पन्न वैशिष्ट्य की ओर इंगित करते हुए डॉ. चतुर्वेदी कहते हैं कि यदि 'दइअ' का स्मरण करते मनुष्य चित्रित होते तो इस शब्द में अर्थ के इतने विस्तार की संभावना न होती। परंतु छोटे, विनम्र पर आकर्षक पक्षियों के संदर्भ में 'दइअ कर नाउँ' प्रभु की भाँति ही विराट हो जाता है। 'पंखि' की निरीहता और 'दइअ' की विराटता के रचनात्मक तनाव से यहाँ अर्थ का संश्लिष्ट विकास संभव होता है। दीगर बात यह है कि 'ईश्वर' और 'अल्लाह' से अलग अवधी का बहुप्रचलित 'दइअ' प्रयोग इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है कि वह हिंदू, मुसलमान या किसी भी धार्मिक परंपरा से अलग प्रभु की उपस्थिति का सीधा साक्षात्कार करा पाता है। 'ईश्वर' या 'अल्लाह' जैसे शब्दों के साथ अनेक धार्मिक-सांप्रदायिक संस्कार जुड़े हुए हैं। 'दइअ' ग्रामीण जन-जीवन में धर्म से उतना नहीं, जितना विनम्र आस्था से जुड़ा हुए है। इस तरह जायसी का यह शब्द-प्रयोग एक पंक्ति या एक दोहे को नहीं, वरन् एक पूरे अंश को वर्णन के धरातल से उठाकर काव्य-अनुभव बना देता है।

'पदमावत' ऐसे ही अनेकानेक अनोखे काव्य-अनुभवों का जीवंत समुच्चय होने के कारण अन्य भक्त कवियों की कृतियों से न केवल भिन्न है, बल्कि विशिष्ट भी। जायसी प्रकारान्तर से स्वयं अपनी कविता के बारे में लिखते हैं:

'कबि कै जीभ खरग हिरवानी। एक दिसि आग दोसर दिसि पानी॥'

(कवि की वाणी इतनी खतरनाक और मारक होती है, जैसे इराक़ के हिरवानी प्रदेश की बनी तलवारें I इसमें यदि एक ओर उष्णता होती है तो दूसरी ओर शीतलता भी।)

किसी रचना की श्रेष्ठता का निर्धारण केवल इस आधार पर करना औचित्यपूर्ण नहीं माना जा सकता कि वह पूर्ववर्ती या परवर्ती रचनाओं की तरह है या नहीं, जो श्रेष्ठ मानी जाती है। बर्तोल्त ब्रेष्ट के शब्दों में कहें तो हर दिशा में किसी कलाकृति में व्यक्त की गयी ज़िंदगी का व्यक्त की जा रही ज़िंदगी से मिलान करना चाहिए, बजाय इसके कि उसकी दूसरी वर्णित ज़िंदगी से तुलना की जाए. इस तरह देखें तो जायसी मध्ययुगीन सामंती समाज में व्याप्त केवल संकीर्णता ही नहीं, बल्कि उसके विरुद्ध उत्पन्न अत्यधिक उदारता के खतरे को लेकर भी सचेत दिखाई पड़ते हैं। इसीलिए 'पदमावत' में इतिहास-चेतना के साथ-साथ अंतस और बाह्य की द्वंद्वात्मकता के अलावा जन-जीवन की मार्मिकता के ऐसे अनेकानेक अछूते पहलू उजागर हुए हैं, जिनके अभाव में बड़े से बड़े कलाकार की रचना अपने दायित्व व लक्ष्य से च्युत हो जाती है। आहत भावनाओं, पूर्वाग्रहों एवं अस्मितावाद की राजनीति की साहित्यिक-सांस्कृतिक क्षेत्र में कैसी परिणतियाँ हो सकती हैं, इसका उदाहरण यदि एक ओर दलित विमर्श के नाम डॉ. धर्मवीर की कबीर सम्बंधी पुस्तकें हैं तो दूसरी ओर डॉ. रामविलास शर्मा सरीखे प्रगतिशील आलोचक का तुलसीदास विषयक मंतव्य। सच तो यह है कि साहित्य-क्षेत्र में युधिष्ठिरों की फुसफुसाहटों और शिखंडियों की ललकारों के बीच जन-जीवन के द्वंद्व को समझ-बूझकर द्वंद्वमुक्त सोच-विचार रखने वाले लोग हर ज़माने में अल्पसंख्यक रहे हैं और 'पदमावत' का रचयिता भी उन्हीं में से एक है। इसमें जायसी अपने पात्रों को कुछ इस तरह छूते हैं कि मनुष्य को अतिमानव बनाने वाली इतिहास की प्रवृत्ति तथा कई बार सामंती रसोपलब्धि के सूफीकरण के प्रयास के बावजूद वहाँ इतिहास की विडंबना के चित्रण के दौरान कवि और पाठक के बीच काल का व्यवधान नहीं रह जाता। 'पदमावत' में ऐसे कई सामान्य चरित्र भी हैं, जिनकी आम भारतीय तटस्थता और दार्शनिकता के बरअक्स ही तद्युगीन इतिहास की विडम्बना को उसके व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है। वस्तुतः जायसी का लक्ष्य मध्ययुगीन सामंती समाज के उन तमाम अंतर्विरोधों का संवेदनात्मक रेखांकन है, जिसकी क्रूरता का ज्वालामुखी फूटकर अंततः सबको तहस-नहस कर देता है:

जौंहर भई इस्तिरी पुरुख भए संग्राम।
पातसाहि गढ़ चूरा चितउर भा इसलाम॥

जाहिर है कि 'साहित्य का समाजशास्त्र' के क्षेत्र में अपने अप्रतिम योगदान के लिए विश्वप्रसिद्ध विचारक लूसिएँ गोल्डमान की शब्दावली का इस्तेमाल करते हुए विजयदेव नारायण साही ने अपनी 'जायसी' पुस्तक में 'पदमावत' में निहित 'विषाद-दृष्टि' (ट्रैजिक विज़न) की सामाजिकता को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में भलीभांति उजागर किया है। अपने विवेचन-विश्लेषण के क्रम में साही ने इसी प्रसंग पर रचित अमीर खुसरो का एक फारसी छंद भी उद्धृत किया है जिसमें अलाउद्दीन खिलजी पर व्यंग्य करते हुए खुसरो कहते हैं कि "तुमने अपने घमंड की तलवार से ह्रदय के देश को वीराना बना दिया और अब तू इस पर सुलतान बनकर बैठा है।"

'पदमावत' में जगह–जगह सूफीमत की शब्दावली, मुहावरे एवं प्रतीक-विधान के इस्तेमाल तथा सामंती रसोपलब्धि के सूफीकरण के बावजूद जायसी की काव्यानुभूति की संस्कृति एकायामी नहीं है। वस्तुतः यह कृति उस ज़माने में प्रचलित तमाम तरह की धार्मिक प्रणालियों व अधिरचनाओं का छोटा-मोटा विश्वकोश प्रतीत होती है, जिसकी रचना के मूल में कवि की सर्वसमावेशी प्रकृति है। चूँकि जायसी के यहाँ अपवर्जन के लिए कोई जगह नहीं है, इसलिए उनसे वैसी धर्मनिरेपक्षता की माँग करना एक प्रकार से ज्यादती होगी जो राष्ट्रीयता एवं संस्कृति में धर्म के एक संघटक अवयव के रूप में समावेश किये जाने का विरोध करती है। यह सही है कि धर्मनिरपेक्षता का अर्थ 'सर्वधर्म समभाव' कदापि नहीं होता और इसकी अवधारणा शुरु से यह रही है कि प्रत्येक नागरिक के धार्मिक विश्वास (या नास्तिकता) की स्वाधीनता बरकरार रखने के बावजूद राजकीय एवं प्रशासनिक क्रियाकलापों में धार्मिक मान्यताओं के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए. किंतु, स्मरणीय है कि धर्मनिरेपक्षता विषयक इस मंतव्य का स्वरूप सिद्धांततः आधुनिकता व आधुनिकीकरण की प्रक्रिया के साथ निर्मित हुआ है और ऐसी धारणाओं को 'सर्वधर्म समभाव' रूपी बीज से अंकुरित परवर्ती तर्कसम्मत चिंतन कहा जा सकता है।

मध्यकाल में ऐसे वैज्ञानिक एवं तार्किक भावबोध और चिंतन सरणि के अभ्युदय, विकास तथा प्रसार के लिए कोई अवकाश नहीं था। इसलिए आज चेतना व चिंतन के विकसित धरातल पर खड़े होकर भक्तिकालीन कलाकृतियों में निहित उदार मानववाद को कमतर समझना एक श्रेष्ठ रचना के साथ ग़ैर-रचनात्मक तरीके से पेश आना ही कहा जायेगा और यह दृष्टिकोण न केवल कला-विरोधी होगा, बल्कि अनैतिहासिक भी। वस्तुतः 'पदमावत' के पाठ को भक्तिकालीन सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भों में रखकर ही जायसी के रचनात्मक अभिप्राय एवं प्रभाव की पड़ताल करना तथा उनकी रचनात्मक उपलब्धियों एवं संभावनाओं का जायज़ा लेना संभव है। कहने की ज़रुरत नहीं कि 'पदमावत' धार्मिक संवेदना एवं धर्मनिरेपक्ष संवेदना के घनिष्ठ और जटिल सम्बंध की समझ पैदा करने वाली महान कालजयी कृति है।

अतीत एवं परम्परा के प्रति अपने नज़रिये का खुलासा करते हुए राल्फ फॉक्स ने लिखा है कि 'अतीत हमारे लिए कोई शौकिया वस्तु नहीं है, हम उसका उपयोग वर्तमान में बेहतर तरीके से ज़िंदा रहने के लिए करना चाहते हैं।' यह बात जिस हद तक अतीत पर लागू होती है, उसी हद तक अतीत की रचनाओं पर भी। किंतु, इसके लिए अतीत में रचित कृतियों को उनकी गतिशीलता और परिवर्तनों के रूप में, उनके पारस्परिक सम्बंधों और घात-प्रतिघातों के रूप में देखकर गहरी छानबीन अपरिहार्य है। यह देखे बगैर कि साहित्यिक कृतियाँ किन ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक संकटों से पैदा हुए संवेदनात्मक आलोड़न के तहत रची जाती हैं और दूसरी कृतियों के साथ उनकी क्रिया-प्रतिक्रिया कैसी होती है, यदि कोई अध्ययन किया जायेगा तो स्वभावतः उससे अनेकानेक भ्रमोत्पादक निष्कर्ष निकेलेंगे और यह समझ पाना असंभव होगा कि कैसे भक्त कवि तद्युगीन दुनियावी सच्चाइयों से जूझती अपनी लहूलुहान आत्मा की पीड़ा को धार्मिक चेतना जैसा 'एब्सोल्यूट' रूप प्रदान करते हैं।

रघुवीर सहाय का कहना है कि "कविता जिन चीज़ों को बचा सकती है, उनको पहचानने के लिए आप मुक्त हैं, पर अंततः वे वहीं होंगी, जो कि आदमी को कहीं न कहीं आज़ाद करती हैं।" इस दृष्टि से विचारने पर स्पष्ट होता है कि जायसी की कविता भले ही तद्युगीन समाज को बनाने या बिगाड़ने वाले सत्ता-संघर्ष में कोई सार्थक हस्तक्षेप न कर पायी हो, पर वह अपने समय का एक ऐसा संवेदनात्मक साक्ष्य ज़रुर है, जिससे गुजरना आज भी हमें किसी सीमा तक अवश्य मुक्त करता है। याद रहे कि आज के पाठक की यह मुक्ति किसी भी अर्थ में अपने समय की वास्तविकता की विस्मृति का ज़रिया नहीं हो सकती। 'हिंसा की सभ्यता' एवं 'क्रूरता की संस्कृति' के इस उपभोक्तावादी युग में 'पदमावत' से गुज़रना खुद को लगभग याद दिलाने जैसा है कि हमारे अपने समय-समाज की वास्तविकता क्या है। वस्तुतः जायसी अपनी कविता में जगह-जगह पर शब्दों के चारों ओर वह 'स्पेस' रचते दिखाई पड़ते हैं जिनमें तथाकथित उत्तर-आधुनिक जीवन की विसंगतियों व विडंबनाओं के चलते अवसन्न पाठक शिरकत करके एक हद तक संतृप्त महसूस कर सकता है। यह इसलिए संभव है, क्योंकि सूफ़ी मतवाद से सम्बंधित दार्शनिक वागाडम्बर व दिखावे के बजाय कवि का मकसद तद्युगीन औसत भारतीय जीवन में मौजूद बुनियादी रागात्मकता का उद्घाटन रहा है। स्पष्ट ही जायसी के 'प्रेम की पीर' का स्वरुप नारद-भक्ति-सूत्र के 'अनिर्वचनीयं प्रेमस्वरुपम। मूकास्वादनवत्।' से न केवल गुणात्मक रूप में भिन्न है, बल्कि कहीं ज़्यादा मानवीय भी।

सूफी मत से नाभिनालबद्ध होने के बावजूद 'धर्म भाषा' या 'दीक्षागाम्य भाषा' के बजाय 'ठेठ अवधी का ठाठ' को मध्यकाल में काव्य-सृजन के शिखर पर पहुँचाने में सफल महाकवि जायसी को विजयदेव नारायण साही ने ठीक ही 'हिन्दी का पहला विधिवत कवि' और उनके 'पदमावत' को सुविख्यात पश्चिमी भारतविद थॉमस डी.ब्रुइज्न ने 'रूबी इन द डस्ट' कहा है।

स्पष्ट ही 'पदमावत' जैसी किसी कलाकृति को आधार बनाकर निर्मित फ़िल्म अपने तमाम तामझाम के बावजूद उसकी कला-चेतना की ऊँचाई का स्पर्श नहीं कर सकती, क्योंकि कवि अपने पाठकों की कल्पनाशीलता को जहाँ उद्वेलित करता है, वहीं फ़िल्म उसे मूर्त रूप प्रदान करके सीमित कर देती है। नतीजतन, कालजयी रचनाएँ इतिहास की प्रक्रिया से गुजरने के बावजूद इतिहास का अतिक्रमण करती हुईं अक्सर फ़िल्म के मुकाबले में बाजी मार ले जाती हैं।