भक्त और भगवान / राजेन्द्र वर्मा

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' हम पर भी तरस खाओ भगवान! आखिर हमने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है? ... दिन भर मेहनत करते हैं, फिर भी रिक्शे का किराया चुकाने के बाद भरपेट खाना भी नहीं खा सकते। ... खा लें, तो घरवालों को क्या खिलाएँ? एक दिन बीमार पड़ जाएँ, तो न खाना, न दवा! पुलिस वालों को मुफ्त न ढोयें, तो वे ससुरे मारें भी और पहिए की हवा भी निकाल दें!

' अभी कल ही की बात है-दुपहरी में एक पेड़ के नीचे सुस्ता रहा था। तनिक आराम मिला था कि तीन लौंडे आये और बोले-चल बे! हमें नावेल्टी सिनेमा तक छोड़! हम बोले-हमारी तबीयत ठीक नहीं है, कोई और रिक्शा ले लीजिए. लेकिन नहीं... वे ससुरे हमको ढकेल कर रिक्शे पर लद गये और बोले-चल जल्दी, नहीं तो! ...मजबूरन ससुरों को ढोना पड़ा! यहाँ तक तो गनीमत, मगर उन हरामियों ने पैसे भी नहीं दिये। झट से उतरे-एक ने टिकट खरीदा, दूसरे ने सिगरेट और पान-मसाला। तीसरा खड़ा-खड़ा पोस्टर देखता रहा। जब हमने पैसे माँगे, तो बोले-पैसे तो सब खत्म हो गये। जब हम गुस्सा हुए, तो वे हमें ही ज़लील करने लगे-एक बार पैसा पा गया है, दुबारा माँग रहा है! आस-पास के लोग मेरे ही खिलाफ़ हो गये। ...मेरी तलाशी भी ले ली। मेरे पास पहले के तीस रुपये थे, वही निकले। वे तीनों कहने लगे, इनमें बीस का नोट उन्हीं का दिया हुआ है। ...आखिर मैं ही झूठा साबित हुआ। गालियाँ खायीं, चार-छः हाथ खाये सो अलग!

'एक बात बता, भगवान! तू किसके साथ है? हम भी आदमी हैं। जि़न्दा रहने के लिए आदमियों को ढोते हैं! हमारा कुसूर क्या यही है कि हम ग़रीब के घर पैदा हुए और हमें हाँकने वाला अमीर के घर! यह अमीरी-गरीबी भी तूने बनायी है?'

भगवान कुछ न बोले। एक भक्त ने उसे धक्का देकर गिरा अवश्य दिया—भक्त और भगवान के बीच वह जैसे रोड़ा बना हुआ हो। भक्त के हाथ में एक सौ एक रुपये के प्रसाद का डिब्बा और उस पर ताज़े गुलाबों की बड़ी-सी माला थी। ...मोटा असामी देख पुजारी ने लपक कर उसके हाथ से डिब्बा ले लिया।

यह भक्त कोई और नहीं, रिक्शे का मालिक था।