भक्त / शोभना 'श्याम'
किसी को नहीं पता कब और कहाँ से वह साधु बाबा इस विशाल मंदिर के एक प्रकोष्ठ में आकर रहने लगे थे, कब उन्होंने वहाँ भक्तों को जोड़ कर सत्संग आरम्भ किया लेकिन धर्म कर्म की गूढ़ बातों को रोचक कथाओं के माध्यम से समझाने की अद्भुत कला के कारण वह कुछ ही वर्षों में ही अत्यन्त लोकप्रिय हो कर हजारों भक्तों के गुरु जी कहलाने लगे। भगवान से अधिक लम्बी पंक्ति तो उनके दर्शनों के लिए लगने लगी। ढेर सारे भक्त हर समय उनकी सेवा में लगे रहते।
इधर कुछ दिनों से एक दीन हीन-सी अधेड़ उम्र की स्त्री इन सबमें सबसे अधिक सेवा करने को लालायित रहती थी। लेकिन गुरु जी को वह गरीब फूटी आँख नहीं सुहाती थी। नन्ही-सी तश्तरी में छोटी-सी धूपबत्ती, एक छोटा-सा फूल और दो बताशे लेकर जब उनकी आरती में शरीक होती तो गुरूजी कभी इशारों से उसे दुत्कारते तो कभी बड़े-बड़े भव्य थालों में पूजा सामग्री और भोग के मेवा मिष्ठान्न लिए संपन्न भक्तों से उसे बाहर करने को कहते। यहाँ तक कि अक्सर प्रसाद और चरणामृत की आस में फैली उसकी अंजुरी के हिस्से में भी केवल मायूसी ही आती, उसकी आँखे छलछला जाती लेकिन वह फिर भी बिना विचलित हुए उसी भक्ति भाव से उनकी सेवा में लगी रहती थी। सब कहते, "भई भक्त हो तो ऐसा।"
आज संध्या आरती के बाद प्रसाद लेने के लिए फैली उसकी अंजुरी को बार-बार नज़र अंदाज करते हुए गुरूजी चरणामृत कभी किसी अंजुरी में डालते कभी किसी। आखिकार उसके सब्र का बाँध टूट ही गया। कातर भाव से लगभग फुसफुसाते हुए वह बोली-"दे भी दो जी! आज करवाचौथ है।"