भगत जी पर भगवद्कृपा / कुबेर
हमारे भगत जी बड़े सज्जन पुरूष हैं। सरल इतने, जैसे दो और दो का जोड़ और सीधा ऐसे जैसे मृतात्माओं के लिये स्वर्ग जाने का रास्ता। अपने-अपने विश्वास की बात है, दो और दो का जोड़ पाँच भी हो सकता है। इसी प्रकार अपनी-अपनी रूचियाँ हैं, मरने वाले की आत्मा चाहे जिस रास्ते पर जाती होंगी, हमें तो सीधा रास्ता ही पसंद है। अगर सीधे और सरल शब्दों में कहूँ तो हमारे भगत जी हिन्तुस्तान की सौ करोड़ की जनसंख्या में से वह हैं जिसे हम आम आदमी या जनता कहते हैं। जनता वह जो सब जानती है, पर चुप रहती है।
धार्मिक लोग दो तरह के होते हैं। प्रथम वे, जो धर्म के नाम पर लोगों को डराते हैं ओर दूसरे वे जो धर्म के नाम पर डराने वालों के धौंस से सदा डरे-सहमे रहते हैं। दूसरे शब्दों में; प्रथम वे जो लोगों को भगवान के अस्तित्व का विश्वास दिलाते हैं और दूसरे वे जो उनके विश्वासों पर आँख मूँदकर विश्वास करते चले जाते हैं।
भगत जी दूसरे श्रेणी के जीव हैं।
पूजा दो प्रकार के लोगों की होती है। एक उनका, जो गण या गणनायक होते हैं। दूसरे में उनकी जो जन या जननायक होते हैं। भगत जी न तो गणों की श्रेणी में आते हैं और न ही जनों की। वे तो जनता नामक अनंत समुच्चय का एक अनजाना और उपेक्षित अवयव मात्र हैं। जनता का समुच्चय ही हो सकता है, श्रेणी नहीं।
कबीर दास ने कहा है - ’दुख में सुमिरन सब करे।’ यह जन भाषा है। अगर अर्थशास्त्र की भाषा में कहें तो मुसीबत के समय लोगों की आस्तिकता दर में अभूतपूर्व तेजी आ जाती है। आस्तिकता और मुसीबत में समानुपात का संबंध है। मंदिरों में एकत्रित भीड़ आस्तिकों की नहीं, मुसीबत के मारों की हुआ करती है। आस्तिकता का जन्म मुसीबत की कोख से हुआ करती है।
भगत जी यूँ तो जन्मजात आस्तिक हैं, परन्तु आजकल वे आस्तिकता की चरम स्थिति में पहुँच चुके हैं अर्थात अब वे कट्टर आस्तिक बन गये हैं।
हमारा देश तैंतीस करोड़ देवताओं का अनूठा संग्रहालय है। अपनी सुविधा, अपनी क्षमता, और अपनी रूचि के अनुसार (अधिकांश लोग इन शब्दों की जगह आस्था और विश्वास जैसे संरक्षित शब्दों का इस्तेमाल करते हैं।) हम किसी भी देवता को अपनी आस्तिकता प्रदर्शित करने के लिये चुन सकते हैं। भगत जी ने भगवान वक्रतुण्ड महाकाय एकदन्त लम्बोदर स्वामी को अपना ईष्ट देव मान लिया हैं।
गणेश जी की आस्तिकता के अनेक लाभ हैं। प्रथम यह कि ये सवामी महराज रास्ते का सस्ता, ऑल इन वन भगवान हैं। रास्तें में चंदा उगाही, रास्ते में स्थापना और रास्ते में ही सिरोना। चाहो तो मोदक का भोग लगाओ अन्यथा ककड़ी-खीरा से भी काम चल जाता है। इन्हें चाहे तो सोने की आसन पर बठा दो, चाहे तो टूटी हुई कुर्सी पर। बुद्धि, बल, यश, धन, पुत्र आदि अनेक महत्वपूर्ण मांगों के लिये अलग-अलग देवताओं की शरण में जाने की जरूरत नहीं है। लम्बोदर स्वामी जी अकेले ही इन सारी मांगों और समस्याओं को हल करने की क्षमता रखते हैं। इसीलिये ये ऑल इन वन भगवान हैं। इनकी महिमा निराली है, सर्वविघ्ननाशक हैं ये।
गणेश पूजन का पक्ष चल रहा था। भगत जी के मन में अपने घर की बैठक के एक कोने में भगवान गणेश को प्रतिस्थापित करने का विचार आया। यह उनका प्रथम वर्ष था। मूर्ति की पूजा और प्राण प्रतिष्ठा हेतु भगत जी ने गाँव के पंडित जी से विनती की। पण्डित जी पहले ही कई जगह वचनबद्ध हो चुके थे, और फिर इस फटीचर के घर से मिलेगा ही कितना? फलतः वे इन्कार कर गए। भगत जी ने पण्डित जी के पाँव पकड़ लिये। पण्डित जी फिर भी नहीं पसीजे। तभी पण्डित जी की विप्र-क्षिप्र बुद्धि में एक कहावत कौंध गई - ’ददा मरे दाऊ के, बेटा सीखे नाऊ के।’ छोटे महराज आखिर कब सीखेंगे। उन्होंने कहा - “अरे भगत, तुम चिंता मत करो। हम छोटे महराज को भेज देंगे। चार बजे स्कूल से छूटते ही चला जायेगा।”
भगत जी ने कहा - “महाराज! हमें छोटे और बड़े से क्या लेना-देना, मतलब तो पण्डित से है।” यह भगत जी की आस्तिकता की चरम अभिव्यक्ति थी।
शुभ घड़ी-मुहूर्त पर भगवान जी की प्राण प्रतिष्ठा कर दी गई। भगत जी पूर्ण तन-मन-धन और प्रण से भगवान की सेवा-सुश्रुषा में जुट गए।
भगत जी की ऐसी निश्छल और विकट भक्ति से प्रसन्न होकर एक दिन भगवान प्रगट हो गये। शाम का वक्त था। अभी-अभी आरती संपन्न हुआ था।
कमरा रोशनी से जगमगा उठा। भगत जी को आश्चर्य हुआ कि बिजली इतनी जल्दी कैसे लौट आई; अभी तो कटौती का समय चल रहा है। उन्होंने गली की ओर देखा; वहाँ अभी भी घुप्प अंधेरा था। अब तो भगत जी घबराये। यह कैसी गड़बड़ी है? मदद के लिये उन्होंने इधर-उधर देखा। आस-पास कोई नहीं था। भगत जी और घबराये। उसने किंवाड़ बंद कर दी; रोशनी देख कोई आ न जाय। बात का बतंगड़ बनने में कितना समया लगता है?
तभी भगवान की कर्णप्रिय आवाज आई - “भगत जी, तुम घबराओ मत। तुम्हारी भक्ति से प्रसन्न होकर हमने तुम्हें साक्षात दर्शन देने का फैसला किया है। आँखें खोलो और हमारा दर्शन करो।”
भगत जी - “कौन? प्रभु आप? क्या सचमुच आप ही बोल रहे हैं?
भगवान - “कोई संदेह?”
भगत जी - “नहीं, नहीं। नहीं प्रभु, कैसा संदेह। यह तो मेरा सौभाग्य है। लेकिन भगवान, आपको मेरे कुछ सवालों के जवाब देने होंगे, ताकि मुझे विश्वास हो सके कि आप सचमुच बुद्धि के दाता और चतुराई के आदिदेव ही बोल रहे हैं।”
भगवान - “हमारी परीक्षा लोगे भगत?”
भगत जी - “क्षमा भगवन, क्षमा। भगवन बुरा न माने। आजकल मिलावट, धोखाधड़ी और जालसाजी इतना बढ़ गया है कि बिना परीक्षा लिये बाप को भी बाप कहने से डर लगता है।”
भगवान - “हाँ भगत जी, हमने भी सुना ह कि इस देश में मिलावट, धोखाधड़ी, जालसाजी और दलाली काफी बढ़ गये हैं सो तुम निःसंदेह हमारी परीक्षा ले सकते हो। हमें बुरा नहीं लगेगा।”
भगत जी - “भगवन पहले आप यह बताएँ कि प्रजातंत्र की श्रेष्ठ परिभाषा क्या है?”
भगवान - “यह तो बड़ा सरल सवाल है; सभी जानते हैं कि - ’जनता के लिये, जनता के द्वारा, जनता का शासन’।”
भगत जी - “गलत, बिलकुल गलत। भगवन, जवाब में यह आयातित परिभाषा देकर आपने अपने पूरे अंक खो दिये। मेड इन इण्डिया परिभाषा इस प्रकार है, सुनिये - ’अपने लिये, अपनों के द्वारा अपनों का शोषण’। अब चलिये, दूसरे प्रश्न का जवाब देने के लिये तैयार हो जाइये। बताइये, प्रजातंत्र की सफलता के लिये सबसे जरूरी तत्व क्या है?”
भगवान - “सारी जनता शिक्षित हो ताकि अपने अधिकारों और कर्तव्यों को भलीभांति समझ सकेे।”
भगत जी - “आपका यह जवाब भी गलत है। पता नही, आज आपकी बुद्धि कैसे मंद पड़ गई है? भगवन इस देश में तो प्रजातंत्र की सफलता का राज ही है, कि यहाँ की अधिकांश जनता अशिक्षित है। यही दशा प्रजातंत्र के लिये उकृष्ट होता है।”
भगत जी का तर्क सुनकर भगवान जी निरूत्तर हो गये। भगत जी को अपनी चतुराई पर अभिमान हुआ और भगवान जी के असली होने पर शंका। उन्हें शोले फिल्म की धर्मेन्द्र-हेमामालिनी के मंदिर वाले संवाद का स्मरण हो आया। उसने कहा - “भगवन, आप जरा अपने आसन पर ही रहें। पहले मैं परीक्षण कर लूँ, कहीं कोई माईक वगैरह तो किसी ने आपके आसन के पीछे नहीं छिपाई है।”
भगवान - “भगत जी, तुमको विश्वास क्यों नहीं होता? मैं असली गणेश जी ही हूँ। देखो यह मेरा सूँड हैं, जिसे अभी-अभी दूध पीते सारी दुनिया ने देखा है, अभी हिलाकर दिखाता हूँ। यह मेरा विश्व प्रसिद्ध उदर है,देखो, मैं इस पर हाथ फेरकर दिखाता हूँ। और ये देखो मेरे चारों हाथ। अब विश्वास हुआ?”
भगत जी - “बिल्कुल नहीं, क्योंकि साक्षातकार में आप पहले ही फेल हो चुके हैं। मुझे अपने हाथों से स्वयं आपकी शारीरिक परीक्षण करनी होगी।”
भगवान - “हाँ, हाँ, क्यों नहीं।”
भगत जी ने भगवान की मूर्ति जहाँ स्थापित की थी, पहले वहाँ का परीक्षण किया। मूर्ति गायब थी और उसकी जगह पर भगवान साक्षात विराजमान थे। भगवान के सुकोमल शरीर पर भगत जी ने अच्छी तरह, और मन भरकर हाथ फेरकर देखा। अन्त में उन्हें विश्वास करना ही पड़ा कि यह नकली नहीं बल्कि, असली भगवान ही हैं। उसके आनंद का पारावार नहीं रहा। परन्तु दूसरे ही क्षण वे अचानक उदास हो गये। भगवान ने पूछा - “क्यों भगत जी, हमसे मिलकर आपको प्रसन्नता नहीं हुई। यह उदासी कैसी?”
भगत जी - “भगवान जी, अब उदास न होऊँ तो क्या गली-गली नाचूँ और ढिंढोरा पीटूँ? आपने तो मुझ पर मुसीबतों का पहाड़ लाद दिया।”
भगवान को आश्चर्य हुआ। उसने पूछा - “वह कैसे?”
भगत जी - अब इतने भोले मत बनो भगवान जी। तुम्हारे भोग के लिये ले देकर तो ककड़ी की व्यवस्था कर पाता हॅँू। अब तुम्हारे इतने बड़े उदर के लिये रोज दोनों टाईम क्विंटल-क्विंटल मोदक कहाँ से लाऊँगा? यहाँ तो घर का चूल्हा ही मुश्किल से जल पाता है।”
भगवान - “भगत जी, तुम चिंता मत करो। मेरा यह उदर तुम्हारे नेताओं के उदर की तरह नहीं है, जो सारा देश हजम कर जाने के बाद भी अतृप्त ही रहता है। अभी तक मुझे जैसा भोग लगाते आये हो, आगे भी वैसा ही लगाते रहना। मेरा काम उससे ही चल जायेगा।”
भगत जी की उदासी कुछ कम हुई; लेकिन मन में कुछ उलझने अभी भी बाँकी थी। उन्होंने कहा - “भगवान, सो तो ठीक है, पर आपके प्रगट होने का समाचार सुनकर पहले तो लोग मुझे ढोंगी और धोखेबाज कहेंगे। हो सकता है, धोखेबाजी और लोगों की धार्मिक भावना को भड़काने और उनकी आस्था को आहत करने के आरोप में पुलिस मुझे हवालात में डाल दे। और यदि लोगों को विश्वास हो गया तो और भी मुसीबत है। भक्तों का यहाँ हुजूम लग जायेगा। फिर तो मेरा घर मेरा नहीं रह जायेगा। राजनीति भी हो सकती है। विरोधी दल द्वारा आंदोलन होने की संभावना भी बनती है। लिहाजा हमारी सरकार मेरे इस छोटे से घर को राष्ट्रीय सम्पत्ति घोषित करके मुझे बेघर कर देगी। फिर मैं अपने बाल-बच्चों को लेकर कहाँ-कहाँ भटकता फिरूँगा?”
भगवान - “भगत जी ऐसा कुछ नहीं होगा। भला यहाँ और कोई मौजूद है, जो हमारी बातें लोगों में फैलाएगा?”
भगत जी - “भगवान जी, यहाँ लोगों के कान भले ही आपके कान से बहुत छोटे-छोटे होते हैं, परन्तु उनकी श्रवण शक्ति अपार होती है। और फिर यहाँ तो दीवारों के भी कान होते हैं। क्षमा करें भगवन, रामायण मंडली वाले लड़को का दल इधर ही आ रहा है। अब तो आप अपना यह मनमोहक शरीर अंतर्ध्यान कर लीजिये।”
भगवान जी मंद-मंद मुसकाए, बोले - “भगत जी, तुम कहते हो तो चला जाता हूँ। वैसे इतनी जल्दी जाने का मेरा कोई मूड नहीं है। फिर आऊँगा।”
भगवान के अन्तर्ध्यान होने पर भगत जी ने चैन की साँस ली।