भगत सिंह का वैचारिक पुनरागमन / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 23 मार्च 2019
राकेश ओमप्रकाश मेहरा की आमिर खान अभिनीत फिल्म 'रंग दे बसंती' बार-बार टेलीविजन पर दिखाई जाती है और फिल्म को क्लासिक का दर्जा प्राप्त है। प्रस्तुतीकरण के मामले में यह फिल्म एक महान प्रयोग मानी जाएगी। फिल्म में पांच युवा जीवन को सतत जारी रहने वाली मस्ती मानते हैं। उनके पास कोई उद्देश्य नहीं है और किसी भी विचारधारा से उन्हें कोई सारोकार नहीं है। उनकी आपसी मित्रता ही उनके जीवन में एकमात्र आदर्श है। सारा समय वे एक-दूसरे की टांग खींचते रहते हैं और उनका पूरा जीवन ही 'बुरा न मानो होली है' से संचालित महसूस होता है। इंग्लैंड से एक युवा फिल्मकार भगतसिंह और साथियों पर एक डाक्यूड्रामा रचने के लिए भारत आई है। वह इस मित्रमंडली से मुलाकात करती है उनकी मौजमस्ती के नीचे छिपी उनकी व्याकुलता को भांप लेती है। वह इन मित्रों को भगतसिंह, सुखदेव, चंद्रशेखर आज़ाद, बिस्मिल इत्यादि भूमिकाओं को अभिनीत करने के लिए बड़ी कठिनाई से तैयार कर पाती है। इस डाक्यूड्रामा की शूटिंग के समय इन युवाओं की विचार प्रक्रिया में आमूल परिवर्तन होता है। उनकी विचार प्रक्रिया में भगतसिंह, बिस्मिल, चंद्रशेखर आज़ाद, सुखदेव और उनके साथियों की विचारधारा प्रवेश करने लगती है।
उनका एक मित्र वायुसेना का पायलट है। विमान में सस्ते पुर्जे लगाने का काम एक नेता और व्यापारी की सांठ-गांठ से किया जाता है, जिस कारण वायुयान में खराबी आ जाती है और पायलट स्वयं की जान बचाने के बदले विमान को शहरी बस्ती से दूर ले जाता है परंतु रक्षा मंत्री बयान देते हैं कि पायलट के अनाड़ी होने के कारण दुर्घटना घटी है। इस तरह जख्म पर नमक छिड़कते हैं। मित्र मंडली निश्चय करती है कि इस नेता को दंडित किया जाना चाहिए। जिस तरह इतिहास में दोषी अंग्रेज अफसर को मारा गया, उसी अंदाज में वे भ्रष्ट रक्षामंत्री की हत्या कर देते हैं परंतु सरकार द्वारा शासित मीडिया रक्षा मंत्री को महान शहीद के रूप में प्रस्तुत करता है। सारे मित्र पूरे देश को सत्य बताने के लिए एक आकाशवाणी केंद्र को अपने कब्जे में ले लेते हैं। सारे देश को सत्य बताया जाता है। सरकार सेना को हुक्म देती है कि सभी को मार दिया जाए। वे युवा तो आत्म समर्पण करना चाहते हैं, परंतु उनका जीवित रहना सरकार के लिए इस मायने में घातक है कि वे तमाम भ्रष्टाचार उजागर कर देंगे। एक युवा अपने उस पिता की हत्या करके आया है, जो घटिया पुर्जे के सौदे में बिचौलिया है। इस पुरानी फिल्म को पुन: इसलिए याद किया जा रहा है, क्योंकि इतिहासकार एस. इरफान हबीब ने मणीमुग्धा एस. शर्मा को सप्रमाण यह बताया कि शहीद भगतसिंह ने कार्ल मार्क्स को पढ़ा था। मार्क्स और एंजिल्स के साथ ही उन्होंने भारतीय संस्कृति का भी अध्ययन किया था। वे आज़ाद भारत में समाजवादी व्यवस्था कायम करना चाहते थे। शहीद भगतसिंह के राजनीतिक विचारक होने की बात सार्वजनिक रूप से उजागर नहीं की गई है। उन्होंने अपने मित्रों को पत्र लिखे हैं। वे किसानों, कामगारों और युवाओं को संगठित करना चाहते थे। एक लेख में उन्होंने अभिव्यक्त किया है कि पंडित जवाहरलाल नेहरू एक क्रांतिकारी विचारक हैं और उनके पास दूरदृष्टि के साथ भारत की गहरी समझ है। शहीद भगतसिंह ने आह्वान किया था कि नेहरू का साथ दिया जाना चाहिए।
उन्हें धर्म और जाति के नाम पर अवाम के विभाजन किए जाने की आशंका थी। उन्हें यह शंका भी थी कि जो मीडिया स्वतंत्रता संग्राम के समय सत्य के प्रति समर्पित है वही मीडिया आज़ादी के बाद पूंजीवादी और दक्षिणपंथियों की गुलामी करने लगेगा। दरअसल, भगतसिंह के राजनीतिक चिंतन और जरूरी समझ वाला पक्ष कभी खुलकर सामने नहीं आया और न ही कोई प्रयास हुए। इंदौर की भगतसिंह ब्रिगेड की तरह संस्थाएं अन्य शहरों में स्थापित की जानी चाहिए। उनके जीवन पर आधा दर्जन से अधिक फिल्में बनी हैं। एक फिल्म में शम्मी कपूर ने भगतसिंह अभिनीत किया था परंतु यह उनके 'याहू दौर' के दस वर्ष पूर्व की फिल्म है। पंजाब के एक शिक्षक सीताराम शर्मा की पटकथा पर मनोज कुमार अभिनीत 'शहीद' इन तमाम फिल्मों में सर्वश्रेष्ठ है परंतु इस फिल्म में भी विचारक एवं चिंतक भगतसिंह उजागर नहीं हुए हैं। उनके इस वैचारिक पक्ष को उनकी महान शहादत के नीचे दबा दिया गया है। आज भारत में युवा लोगों की संख्या पूरी दुनिया में सबसे अधिक है और आज के प्रचार अंधड़ के दौर में विचारक भगतसिंह के विचारों और उनके द्वारा लिखे हुए पत्रों का प्रकाशन किया जाना चाहिए। सच तो यह है कि भगतसिंह के विचार ही वर्तमान युवा को सही दिशा दे सकते हैं।