भगवत रावत की कविता / ओम निश्चल
स्मरण: भगवत रावत
पिछले दिनों (25 मई, 2012) हिंदी कविता के वरिष्ठत कवि भगवत रावत नहीं रहे। अनेक कविता संग्रहों और एकाधिक आलोचनात्मक कृतियों के बलबूते उन्होंने हिंदी कविता में एक मुकम्मल जगह बनाई है। उनसे मिलना किसी बहुत अपने से मिलने-जैसा था। वे कवियों-लेखकों से मिल कर प्रसन्न होने वाले कवियों में थे। आप उनके घर जाएँ तो वे शाम होते ही पास पड़ोस के साहित्यिकों से मिलवाने के लिए उद्यत हो उठते। ऐसी एकाधिक शामों का मैं मुरीद हूँ जब भोपाल में उनके साथ राजेश जोशी, राजेन्द्र शर्मा और कमला प्रसाद आदि लेखकों से मुलाकात हो सकी। उनके कविता संसार पर एक विहंगम दृष्टि।
एक कवि की दी हुई दुनिया
भगवत रावत हिंदी के उन कवियों में हैं जिन्हों ने भाषा को कभी कविता का कारागार नहीं बनने दिया। बोलचाल की आमफहम भाषा में उन्हों ने कविताएँ लिखी हैं। लेकिन उनकी कविता को भाषा के सरलीकरणों के आधार पर नहीं देखा जा सकता। वे बड़ी से बड़ी बात सीधे-सादे शब्दों में कह देने में महारत रखते हैं। भगवत रावत जी से उनके घर पर एकाधिक मुलाकातें हैं, आमने-सामने की मुख्तंसर बातचीत भी और अचरज यह कि मिलने पर यह पता नहीं लगता कि हम हिंदी के एक दिग्ग ज कवि से मुखातिब हैं। अपनी कविताई को एकदम परे रखते हुए वे सदैव सहजता से मिलते । यहॉं तक कि यह शिकायत भी नहीं कि हिंदी समाज ने उनकी कविताओं को ठीक से नहीं समझा। उनके समवयस् या उनसे कम उम्र के तमाम लोगों को जिस तरह से पुरस्कृत-सम्मानित किया गया, उसकी अपेक्षा उन्हें बेशक कम महत्व के पुरस्कार मिले पर इसका भी उन्हें कोई मलाल न रहा। लिहाजा बारह कविता संग्रहों के प्रशस्त काव्यलोक के बावजूद वे एक सामान्य कवि बने रहे। पर कविता का जनता से जो रिश्ता होता है, जनचित्त से जो रिश्ता होता है, हृदय से जो रिश्ता होता है, इस मामले में वे अपने समकालीनों से कहीं ज्यादा निकट थे। अकारण नहीं कि विष्णु खरे का भी यह मानना है कि भगवत रावत से यह सीखा जा सकता है कि एक सादा, रोजमर्रा हिंदुस्तानी जुबान और अनलंकृत शैली में प्रभावी कविता कैसी लिखी जाए।
समुद्र के बारे में, दी हुई दुनिया, हुआ कुछ इस तरह, सुनो हिरामन, अथ रूपकुमार कथा, सच पूछो तो, बिथाकथा, ऐसी कैसी नींद, कहते हैं दिल्ली की है कुछ आबोहवा और, अम्मा से बातें और कुछ लंबी कविताएँ, और देश एक राग है जैसे कविता संग्रहों और निर्वाचित कविताएँ, हमने उनके घर देखे व कवि ने कहा जैसे कविता चयन के कवि भगवत रावत ने कविता में एक लंबी यात्रा तय की है और यह सिद्ध किया है कि आभरणों और अलंकरणों से छिटकी हुई सीधी सादी भाषा में भी जीवन की बड़ी से बड़ी बात की जा सकती है। और उन्होंने यही किया है। ‘समुद्र के बारे में’ से आरंभ कविता यात्रा का आखिरी पड़ाव ‘देश एक राग है’ था। उससे पहले ‘अम्मा से बातें और कुछ लंबी कविताएँ’ के जरिए उन्होंने अपनी लंबी कविता में अपनी गहरी मौजूदगी दर्ज की। इन कविताओं में प्यारेलाल के लिए विदागीत, सुनो हिरामन, अथ रूपकुमार कथा, कचरा बीनने वाली लड़कियॉं, बेतवा, अम्मा से बातें, जो भी पढ़ रहा है या सुन रहा है इस समय, नकद उधार और कहते हैं कि दिल्ली की है कुछ आबोहवा और---प्रमुख हैं। दिल्ली पर लिखी कविता नया ज्ञानोदय में छपी और खासा चर्चित हुई । दिल्ली की बेदिली के अनेक किस्से हैं किन्तु भगवत रावत ने उसे देश-काल के व्यापक संदर्भ में देखा-परखा है।
भगवत रावत टीकमगढ़ के रहने वाले थे सो उनका तन-मन बुंदेलखंडी था। बुंदेली भाषा की काव्य परंपरा से उनका जन्मजात रिश्ता रहा है। इसलिए उस विरासत से उन्होंने बहुत कुछ लेकर अपनी भाषा को समृद्ध किया। यही वजह है कि उनकी भाषा में वैसी ही देशज लोच है जो उनकी खड़ी बोली को एक नरम छुवन देती है। बेतवा के जल को स्पर्श कर उन्हें पुरखों की याद हो आती है। जिन्हें कवि ने बचपन में नहीं देखा, उन माँ-पिता के स्पर्श को वह बेतवा के इसी जल को छूकर महसूस कर लेता है। बुंदेलखंड की गरीबी, पिछड़ेपन के बीच यह जो अप्रतिहत और स्नेही मन है जो प्राय: समूचे बुंदेलखंड के किसानों-मजदूरों का है, उसकी झीनी-झीनी छवि भगवत रावत के यहॉं मिल जाती है। हॉं, बुंदेलखंड की प्रशस्त जीवन-छवि देखनी हो तो केदारनाथ अग्रवाल की कविताओं में सुलभ है। पर कविताई का गहरा रंग भगवत रावत में उनसे ज्यावदा है। बुंदेलखंडी अस्मिता को गहराई से महसूस करते हुए भी उन्होंने न तो अपनी कविताओं को आंचलिक बनाने की कोशिश की और न ही ‘लोक’ की वैसी लकीर पीटी जैसी खड़ी बोली में एक ‘कृत्रिम लोक’ रचने की कोशिश होती रही है। कहते हैं कविता ही कवि की आत्मकथा है। उसके पाठ में ही कहीं न कहीं उसका आत्मतचरित व्यक्त होता है। ऐसी ही एक कविता है: ‘जो भी पढ़ रहा है या सुन रहा है इस समय’ । इस कविता में एक जगह कवि अपने बचपन के दोस्त रामचरन को याद करता है, अपनी एक जंगल में रहने वाली भूरे रंग की भाभी को याद करता है, जिसकी गोद में उसके बचपन का एक हिस्सा बीता था। विरल सहचर्य की दास्तान समेटे इस कविता में अंतत: यह खुलासा भी है कि वह कवि तो है पर अपने हर शब्द को मंत्र में नहीं बदल सकता। वह तो बस इतना चाहता है कि एक दिन ऐसा आए कि दोस्त रामचरन और उसकी भूरी भाभी का ताम्बई चेहरे के पीछे छिपा चेहरा वापस मिल जाए। पर ’बेतवा’ का यह लाड़ला कवि कहना चाहते हुए भी कविताओं में कितना कम कह पाता है। किसी दर्पस्फीत भाव से परे किन्तु दिल की गहराइयों से उसका यह कहना कितना छू जाता है हम सबको कि:
कितना कठिन था फिर लौटना वहाँ से
कविता में कह पाना कब रहा आसान
कविता की अपनी निजता होती है लेकिन जीवन की
ऐसी निजताओं के लिए उसमें
जगह हमेशा कुछ कम पड़ जाती है
(बेतवा/ अम्मा से बातें)
‘कविताओं से हट कर सीधा आदमी पर आना चाहता हूँ ‘----‘समुद्र के बारे में’ में संकलित इस कविता के जरिए उन्होंने अपनी जिस चाहत का इजहार किया था, उस कौल पर वे आद्यंत कायम रहे। वे इस बात के लिए विकल रहे कि उनकी कविता चोट खाए हुए लोगों के लिए मरहम का काम करे, उनकी कविता सुनकर राह चलता हुआ आदमी भी यह कहने को विवश हो जाए कि यह किसी सच्चे आदमी की आवाज़ है। वे चाहते थे कि हारे हुए आदमी की तरह उन्हें यह दुनिया न छोड़नी पड़े। वे मर्मस्पर्शिता को कविता का एक अचूक गुण मानते आए हैं। ‘कवि ने कहा’ की भूमिका में उन्हों ने इसकी तसदीक की है: ‘’जो कविताएँ पाठकों के जीवन के अनुभवों का मर्मस्पर्शी हिस्सा नही बन पातीं, वे सच पूछो तो कविता कहलाने का हक नहीं रखतीं, ज्या्दा से ज्यादा वे काव्यभ्यास हो सकती हैं।‘’ ‘दी हुई दुनिया’ में उनकी एक कविता है: ‘चिड़ियों को पता नहीं।‘ यह उस दौर की कविता में चिड़ियों की आवाजाही के तमाम रूपकों, बिम्बों के निषेध में लिखी गयी कविता है जो यह मानती है कि चिड़ियों की वास्तविक जगह कविता नही, पेड़ और घर ऑंगन है। वे कविताओं में भले न सही, पेड़ से उतर कर दो चार बार घर जरूर आ जाया करें।
‘हमने उनके घर देखे/ घर के भीतर घर देखे/ घर के भी तलघर देखे/ हमने उनके डर देखे।‘---‘सच पूछो तो’ संग्रह की यह कविता इस बात की ओर इंगित करती है कि भगवत रावत के प्रेक्षण कितने लक्ष्यवेधी हैं। उनकी व्यंजनाऍं कितनी सटीक हैं। कुछ ऐसा ही विट उनकी कविता: ‘समूह गीत’ में मिलता है जो ‘हुआ कुछ इस तरह’ में संग्रहित है। इसी कविता का एक अंश है: ‘’हमने देखी पीर पराई/ हमने देखी फटी बिवाई/ हमने सब कुछ रखा ताक पर/ हमने ली लंबी जमुहाई/ हमने घोखा ज्ञान पुराना/ अपने मन का कहना माना/ पहले अपनी जेब सँभाली/ फिर दी सारे जग को गाली।‘’ मनुष्य की मनोवृत्ति पर यह एक कवि का अवलोकन है। सूक्ष्मी अवलोकन। दुनिया के दुखों से ऑंख मूँदे इस जगत में कवि की ऑंखें हमेशा खुली होती हैं, उसका हृदय विशाल होता है। वही है जो दुखों के रसायन से विचलित होता है। कवि दृष्टि वह है जो थके हुए की थकान पहचान ले, सूनेपन में मन के भीतर के सन्नाटे को परख ले। ‘थक चुकी है वह’--ऐसी ही कविता है जो एक स्त्री या कह लें अपनी ही पत्नी की थकान, उसकी अथक दिनचर्या के बारे में है। दाम्पत्य की अनुरागमयी संवेदना इस कविता में है। अपनी ही पत्नी को अथक कामकाज में डूबे हुए देख उसे एक दिन घुमाने ले जाने की इच्छां का इज़हार कितना सहज और अनायास है। मुझे याद है वे एक उपजीव्य कवि भी हैं। अपने समकालीनों को कविता की खुराक देने वाले। तभी तो उनकी कविता: बच्चे काम पर जा रहे हैं---कालांतर में एक युवा कवि के काम आती है। इसी शीर्षक से उसकी वह कविता हिंदी साहित्य- संसार में सुपरिचित कविता बन जाती है। पर कम लोग जानते हैं कि उस कविता की बुनावट में इस कविता का एक बड़ा हाथ है। ऐसी और भी कविताऍं हैं जो अपने बेहतरीन शिल्प में उनके अन्य समकालीनों में देखी जा सकती हैं। कविता क्या होती है यह समझाना हो तो उनकी एक कविता सहसा ध्यान में आती है: ‘बिटिया’। कविता देखें:
लगभग चार बरस की बिटिया ने
माँ से हाथ फैलाते हुए कहा
दीदी की किताब में
इत्ता बड़ा समुद्र है !
मां ने आश्चर्य जताते हुए कहा
अच्छा!
हॉं, बिटिया ने कहा
देखो मैंने उसमें उँगली डाली
तो भीग गई।
(दी हुई दुनिया)
भगवत जी तिहत्तर की वय में दुनिया से विदा हुए। पर जैसे वे इस विदा की तैयारी से बहुत पहले से कर रहे हों। ‘हाथ बढ़ाओ’--में उन्होंने लिखा कि ‘हाथ बढ़ाओ और विदा दो/ देखो मेरे जाने का वक्त हो गया है। ....खुद भी चल देना चाहता हूँ/ झटक कर सब कुछ/ इसलिए नहीं कि किस तरह एक झटके में/ आदमी चला जाता है दूर/ एक दुनिया से निकल कर दूसरी दुनिया में/ बल्कि इसलिए हाथ बढ़ाओ और विदा दो/ताकि वापस आ सकूँ।‘ (दी हुई दुनिया) फिर फिर धरती पर लौट आने का विश्वास उनमें कूट कूट कर भरा था। ‘एक बार फिर आऊँगा’ कविता में वे इस बात की तस्दीक करते हैं:--
एक बार फिर आऊँगा
आऊँगा और फिर से आग के
गोल गोल घेरे से होकर निकलूँगा
और अबकी बार तो
आग की दरिया के पार
तैर कर दिखाऊँगा।
(ऐसी कैसी नींद)
यह पुनर्जन्म में आस्था के कारण नहीं, कविता के प्रति गहरी आस्था के कारण है। कविता में लौट कर आने का भरोसा वे बार बार जताते हैं। ‘ऐसी कैसी नींद’ में उन्होंकने ऐसी कविताऍं लिखीं हैं जो उनके सांसारिक मन की देदीप्येमान आभा को प्रतिबिम्बित करती हैं। इस संग्रह में अवसान और मृत्यु पर कविताऍं हैं। ‘इतनी बड़ी मृत्यु’ एक अलग ढंग की कविता है जिसमें उन्हें हर एक ऐसे जाता हुआ दिखता है जैसे पकड़नी हो उसे चुपके से कोई ट्रेन। वे लिखते हैं: ‘इतनी बड़ी मृत्यु/कोई रोता नहीं दिख रहा/ कोई किसी के साथ होता नहीं दिख रहा/ कोई किसी को बतला नहीं पा रहा/ वह कहॉं जा रहा है।‘ (ऐसी कोई नींद) यह नींद कोई सामान्य नींद नहीं है। ‘ऐसी कैसी नींद’ का आखिरी पद इस बात की गवाही है कि जिसे आप सबसे ज्यादा जानने का दावा करते हैं, उस दावे की पोल अंत में खुलती है कि हमने उसे कितना कम जाना। यह वह रचा और सिरजा हुआ संसार है जिसमें कवि की अपनी भागीदारी है। पर वह देख कर अचरच करता है कि क्या यह वही दुनिया है जैसी उसने बनायी थी। या यह ‘दी हुई दुनिया’ है जिसमें सब कुछ अनजाना-सा है। कवि एक मासूम सवाल इस कविता में फेंकता है--- जाहिर है किसी उत्तर के लिए नहीं, न किसी दिलासा के लिए बल्कि यह जतलाने के लिए कि यह दुनिया जैसी दिखती है, वैसी है नहीं और जैसी है, वैसी दिखती नहीं। कविता का आखिरी हिस्सा:
किंतु मृत्यु् का भय मेरा भय नहीं क्यों कि वह परम सत्य है
मैं तो जग के इस विराट में अपनी दुनिया खोज रहा हूँ
जिसे रचा था मैंने अपने ही हाथो से
कौन चुराकर उसे ले गया
ऐसी कैसी नींद लग गई !
ऐसा नहीं कि यह भगवत जी की कविता में औचक कोई सूफियाना रंग उभर आया है। वे जगत की रीति से वाकिफ हैं और जब जब भीतर झाँकते हैं, ऐसे सवाल उन्हें विकल कर देते हैं। भगवत रावत ने अलग अलग तेवर की कविताऍं भी लिखी हैं। जीवन के क्रिया व्यापारों को अनेक कविताओं में निकट से लक्ष्य किया है। ‘मेरा चेहरा’ ऐसी ही एक अलग तरह की कविता है। कोई शख्स कवि के बगल पान की पीक थूक कर चला गया है, इस दृश्य की पृष्ठभूमि में उतरते हुए वे उस पूरे मनोविज्ञान को विश्लेषित करते हैं जिसकी वजह से एक काला कलूटा आदमी पान की दूकान में घुस कर सबसे पहले पान लगवा लेना चाहता है। पास की झुग्गी झोपड़ियों के लोगों की परवाह न करता हुआ जो स्वयं शायद उसके इस मिजाज से वाकिफ और अविचलित हैं। बस एक कवि है जो उसकी हड़बड़ी भांप कर अलग छिटक कर खड़ा हो जाता है । वह शख्स थोड़ी देर बाद कवि को देखता है और बगल में पीक थूक कर चला जाता है। कवि के लेखे: ‘उसने मेरे हटने को लक्ष्य कर लिया था/ और यह शायद उसका सबसे बड़ा अपमान था।‘ यह एक बहुत की सामान्य सा उदाहरण है कस्बाई चरित्रों का फिर भी इस घटना के उल्लेटख में एक कवित्व है। यह पान की पीक के बहाने एक विचार का उद्गम है। ऐसे सामान्य क्रिया कलापों की नोटिस भी कविता का विषय हो सकती है,यह देखने योग्य है। ‘ऐसी कैसी नींद’ खुद में एक मार्मिक कविता है। कवि को यह मलाल है कि उसे जो चाहिए था, उसकी खोज में जैसे यह पूरा जीवन बीत गया, पर वह चीज हासिल न हुई। एक ऐसे खालीपन को वह निरंतर महसूस करता है, जिसके लिए उसमें अनवरत उद्विग्नता बनी रही है। ‘बस उसी को समझा नहीं पाया’---कविता इसी अप्राप्ति का इजहार है: ‘’बस उसी को समझा नही पाया/ जिसे समझाने में बिता दी उम्र। .....बस एक वही नहीं था/ जिसे होना था जीवन में/ कम से कम एक बार।‘’ और जब ऐसा अवसर आया कि जीवन में अभाप्सिा संग साथ मिला तो कवि ऐसे प्रत्युात्तर की खोज में है कि ‘धन्य/वाद’ इस तरह अदा किया जाए कि वह ‘धन्यवाद’ जैसा न लगे। रिश्तों के निभाव की कवि की निष्ठा की यह पराकाष्ठा है। उसी के शब्दों में:
रहे वे लोग, जिनके बीच गुजारी उम्र तो अब उनके साथ को
किस भाषा में कहूँ जिससे सचमुच निकले---
यह अर्थ कि उनके बिना जीवन संभव कहॉं था
उनके बिना मिलते कैसे जीवन के इतने स्वाद
किस तरह उन्हें दूँ धन्यवाद कि वह
सिर्फ धन्यवाद जैसा न लगे।
(ऐसी कैसी नींद)
रिश्ते नातों की कद्र वे इतनी करते थे कि शायद कवियों में ऐसा हितैषी और कोई न हो। ‘बहिनें’ कविता में उनका यह दुख प्रकट होता है कि वे लगातार कम होती जा रही हैं। सहोदरा बहनें तो और भी लगातार कम हो रही हैं। उन्हें भय है कि एक दिन वे किसी लोकधुन में ही छिप कर न रह जाऍं। उन्हीं की शब्दावली में देखें यह दुश्चिंता:
अब कोई किसी स्त्री को बहिन कहना नही चाहता
एक दिन खोजने पर भी वे नहीं मिलेंगी
तब बहिनों के बिना दुनिया कैसे लगेगी।
कहाँ बिला गई वे सारी की सारी मुँहबोली बहिनें
जो बैठी रहती थीं इंतजार में
कि कोई आए न आए
भाई तो जरूर भागता हुआ आएगा
(रचनाक्रम, जनवरी-जून, 2010)
बाजारवाद के अहर्निश शोरोगुल में भगवत रावत को इस बात का इत्मिनान है कि बाजारवाद के जमाने में भी ऐसे लोग होंगे जिन्हें खरीदा या बेचा नही जा सकता। शायद धर्मवीर भारती की कविता का अंश है कि ‘कह दो जो खरीदने आए हैं उन्हें / हर भूखा आदमी बिकाऊ नहीं होता।‘ भगवत रावत इस कौल के मुरीद हैं। ‘ऐसी कैसी नींद’ में उनका यह कहना मानीखेज़ है कि:
एक दिन बाज़ार में बेचने वाले ही बचेंगे
कोई खरीदने वाला नहीं होगा
तब जो बेचा या खरीदा नहीं जा सकेगा
वही होगा अर्थवान
जो पड़ा रहा किसी धागे के टुकड़े सा
किसी कोने में चुपचाप
वही उठेगा और दुनिया की फटी चादर सिलेगा
(मानो या न मानो, पृष्ठ 94)
अब तक हिंदी कविता में भगवत रावत को जो लोग हाशिए पर रखते आए हैं, जिन्हें उनकी कविता निस्तेज नज़र आती रही है, उन्हें उनका संग्रह ‘ऐसी कैसी नींद’ अवश्य पढ़ना चाहिए। कौन नहीं जानता कि उनकी अनेक कविताओं ने आज के जाने-पहचाने कवियों की कविताओं के लिए नींव का काम किया है। एक ऐसा उर्वरक उनकी कविताओं में हमेशा से विद्यमान रहा है जिसके संसर्ग से उनके समकालीनों ने कविता की उन्नत फसल काटी है। किन्तु भगवत रावत की लेखनी बिना किसी रचनात्मक अफसोस के उन विषयों, सरोकारों को भी अपने कविता केंद्र में शामिल करती आई है जो ऊपरी तौर पर प्रगतिशील मूल्य-मानकों से दूर जा छिटके हैं। यह निर्भयता और अटूट भारतीयता से भरी उनकी सहृदयता न हो तो वे ‘गाय’ जैसी सांप्रदायिक समझ लिए जाने की संभावना से भरी प्राणि प्रजाति पर कविता नहीं लिखते और यह भावविह्वल अफसोस न व्यक्त करते-‘’गाएँ हमारे जीवन से क्या गयीं/ घरेलू सुंदरता आँखों का अपनापन/ अकिंचनता के ऐश्वर्य का विश्वास और धीरज/ जीवन से चला गया।‘’ यह महज संयोग नहीं है कि भगवत की अभीप्सा कविता के गहरे कूप में झिलमिलाते मूल्यवान अर्थ की खोज है-एक ऐसी प्यास-एक ऐसी जिजीविषा है जिसमें मरने का भय नहीं है, केवल उस अदम्य आकांक्षा को पा लेने की विकलता है, जिसमें अर्थ के स्वातिजल की एक बूँद ही उसे तृप्त कर देने के लिए काफी है। क्योंकि अब तक के जिए जीवन के छंद में उसे तुकें तो मिलीं पर अर्थ की तृप्ति नहीं--
मृत्यु के पास कहीं कोई आकर्षण नहीं
हवा का काई झोंका, कोई बारिश की बूँद नहीं
रंग नहीं, रूप नहीं, धरती आकाश नहीं,
लेकिन एक बार अर्थ के स्वाति जल की
एक बूँद मिल जाती
तो इसके बाद मृत्यु से नहीं डरता
(आत्मा का गीत, पृष्ठ 10)
भगवत की कविता बिम्बों और प्रतीकों के सघन समुच्चय से परे सहज वाक्य विन्यास की कविता है। इस दृष्टि से उनके बारे में नरेश सक्सेना का कथन वाकई सटीक जान पड़ा है कि भगवत रावत की सबसे बड़ी उपलब्धि और शक्ति वह सहजता है जो अपनी भाषा के सबसे सरल वाक्यों से भी अपने समय के सबसे कठिन और गहरे आशयों को अभिव्यक्त कर दिखाती है। रघुवीर सहाय की तरह भगवत रावत भी समूचे वाक्यों के कवि हैं-कभी बतकही, कभी स्वगत चिंतन, कभी एकालाप- हालाँकि वह विकलता और उद्विग्न कर देने वाली चेतना जो रघुवीर सहाय में है, वैसी चेतना भगवत जी के यहॉ प्रायः नहीं है तो भी कविता में सभी तरह की प्रविधियॉ भगवत जी ने इस्तेमाल की हैं। ऐसी कैसी नींद जिस शीर्षक से उन्होंने अपनी कविताओं का नामकरण किया है, वह इस क्षोभ से भरा है कि यह दुनिया जैसी कवि ने चाही थी, वैसी नहीं रही। आँगन से छायादार पेड़ के कटने-सी पीड़ा कवि के हृदय को बींधती है, जिन जिन चीजों, वस्तुओं, व्यक्तियों से कवि का हृदयछंद मिलता था-जिसे रचा था कवि ने अपने ही हाथो, कोई उसे चुरा कर ले गया है। कवि अचरज करता है ‘ऐसी कैसी नींद लग गई।‘ !
भगवत की सादगी, सरलता और सहजता को विष्णु खरे, कमला प्रसाद और नरेश सक्सेना लगभग सभी ने लोकेट किया है किन्तु क्या यह सादगी त्रिलोचन या रामदरश मिश्र जैसी है या यह किसी निरे नैरेटिव के स्थाापत्य में है या विमुग्ध कर देने वाले पदों प्रत्ययों के अभाव से लैस। जाहिर है कि भगवत रावत की सादगी-पारदर्शिता का एक अलग चेहरा है-वह विशुद्घ कलावादी झटके देने वाली रीति से अलग, कहें कि शुद्घ कविता की प्रतिष्ठा को भी तनिक क्षति पहुँचाने वाला अपनी राह खोजने वाला चेहरा है जो पूर्णतावादी किस्म के सधे-सँवरे जीवन से अलग लगता है। यही वजह है कि ‘हुआ कुछ इस तरह’ में भगवत रावत को यह लिखना पड़ा----‘’सब कुछ भला भला/ सब तरफ उजियाला/ कहीं न कोर कसर/ सब कुछ आला आला/ सब कुछ सुथरा साफ/सभी कुछ सजा सजा/ बोली बानी मोहक / अक्षर अक्षर सधा सधा/ सब कुछ सोचा समझा सब पहले से तय/ ऐसे घर में/ जाने क्यों लगता है भय।‘’ सच कहें तो उनकी कविता के स्वभाव का यह सबसे सटीक आकलन है। जिन्हें भगवत के नैरेटिव में कविता की मौजूदगी विरल दिखायी देती है, उनके लिए भगवत जी के यहाँ छोटी किन्तु प्रखर कविताएँ भी हैं। ‘हमने उनके घर देखे/ घर के भीतर घर देखे/ घर के भी तलघर देखे/ हमने उनके डर देखे’--- छोटी होकर भी अपनी भावात्मिक वेध्यता में अचूक है।
भगवत रावत अक्सर सामान्य जन-जीवन में कौंधती वे प्रवृत्तियाँ, विलक्षणताएँ अपनी कविता के लिए चुनते हैं जो साधारण होकर भी असाधारण हैं। याद आती हैं अब्दुल बिस्मिल्लाह की पंक्तियाँ –‘’मैं जब उस्तरे की धार पर मुसलमान बनाया गया था/ तब मैं केवल चार बरस का था।‘’ इसी तापमान पर भगवत जी का यह सोचना कि ‘’मैं मुसलमान नहीं हूँ/ इन दिनों खुश होने के लिए / यह क्या कोई कम बात है’’--- बीते हुए समय की सांप्रदायिक उथल-पुथल के बीच यह मनुष्य के लिए कितना निरीह आश्वासन है। सच कहते हैं विष्णु नागर कि वे एक सुंदर सा, मार्मिक-सा वक्तव्य देकर रह जाने वाले कवियों में नहीं हैं बल्कि कविता के जरिए आपसे बातचीत करते हैं। वे जहाँ देवभाषा की तरह बोलने वाली देश में उभरी एक नई प्रजाति के खतरे की ओर हमारा ध्यान दिलाते हैं, वहीं आकर्षक साध्वियों की तरह अमल-धवल लगने वाली बोली-बानी की कविता से भी अपना रिश्ता अलगाते हैं। जीवन के सहज धर्म और कर्म से निकली उनकी कविता –‘फिर भी’-- भादौं में क्वांर की धूप के लिए सटीक भाषा खोजने के लिए विकल नज़र आती है। एक विक्षुब्धता कवि के हृदय में बजती रहती है कि ‘’आज हत्यारे सम्मानित किए जा रहे हैं, मनुष्यता को बचाने का कहीं कोई जोखिम नहीं बचा।‘’
कवि, सच पूछिये तो, अपनी संस्कृति और सभ्यता के पहरुए होते हैं। वे जीत की रात में भी सावधानी का बिगुल बजाते हैं – ‘आज जीत की रात/पहरुए सावधान रहना।‘ भगवत रावत तेज उड़ती दुनिया का अंजाम भाँपते हुए अंततः एक बैलगाड़ी पर अपना भरोसा टिकाते हैं और कहते हैं, जब पृथ्वी पर चमक दमक वाले वाहनों के लिए जगह नहीं रह जाएगी, पूरी विनम्रता से सभ्यता के सारे पाप ढोती हुई कहीं न कहीं एक बैलगाड़ी जरूर नज़र आएगी। कवि को यकीन है, ’’एक वही है जिस पर बैठा हुआ है हमारी सभ्यता का आखिरी मनुष्य। एक वही तो है जिसे खींच रहे हैं/ मनुष्यता के पुराने भरोसेमंद साथी दो बैल।‘’ (बैलगाड़ी) भगवत ऐसे ही कवियों में हैं जो सहज चलते आख्यान के बीच कहीं न कहीं अपनी कविता का जादू बिखेर देते हैं। बैलगाड़ी पर भरोसा टिका कर न तो वे समकालीन आधुनिक प्रगति के तेज दौड़ते पहियों के विद्घ हैं न ही उदारतावाद की आँधी के बीच शासकों की देवोपम भाषा के मुरीद, वे ठीक उस जगह उँगली रखना अपना धर्म समझते हैं जहाँ खतरे और जोखिम की संभावनाएँ सबसे ज्यादा हैं। वे व्याकरण-सम्मत समय, आचरण, सजावटी शालीनता और सजे-धजे घर सबको संदेह की निगाह से देखते हैं और अंततः यह यकीन रखते हैं कि ‘’मनुष्य का पारा उतरते उतरते जब/ शून्य से नीचे उतर जाएगा/ तब किसी बर्फीली पहाड़ी के किसी मोड़ पर/ पीछे छूट गयी टूटी बेंच वाली चाय की गुमटी की तरह/ वह कविता काम आएगी/ जो पड़ी रही वहीं की वहीं/ अपनी भाषा में सूखी लकड़ियाँ कंडे बटोरती/ एक दिन वहीं ठिठुरती आत्मा में/ चाय के गरम घूँट सी उतर जाएगी।‘’(मानो या न मानो/ऐसी कैसी नींद)
कविता में भगवत रावत किस परंपरा से जुड़ने वाले कवियों में हैं? क्या वे निराला से जुड़ते हैं, त्रिलोचन या नागार्जुन से। या अपनी ही मातृभूमि बुंदेलखंड के कवि केदारनाथ अग्रवाल से ? कहना होगा कि वे इन सबसे अलग हैं। न उनकी कविता निराला की परंपरा में है न त्रिलोचन और न ही नागार्जुन की परंपरा में। वह केदारनाथ अग्रवाल की किसानी कठ-काठी की कविता से भी कोई घना रिश्ता नहीं रखती और न ही साम्राज्यवादी शक्तियों को उस तेवर और भंगिमा में ललकारती है। वह अपनी अलग पहचान के साथ कविता के संसार में दाखिल होती है और खुद पर किसी परंपरा और वैशिष्ट्य की छाया नहीं पड़ने देती। नगण्य और किंचित की भूमिका के प्रति भरोसेमंद भगवत रावत का कविता-संसार किसी भी कवि से अतुलनीय और अद्वितीय है।