भगवद्गीता: एक मुक्त विश्लेषण - भाग १ / सिद्धार्थ सिंह 'मुक्त'
गीता वेदव्यास द्वारा रचित एक प्रतिष्ठित, धार्मिक और दार्शनिक महाकाव्य है जो मूलतः संस्कृत भाषा में है। गीता में कर्म, भक्ति और ज्ञान के विषय में दार्शनिक समझ रखने वाले लोगों की विशेष निष्ठा है। विद्वानों के अनुसार गीता ने न केवल अर्जुन को कुरुक्षेत्र में लड़ने की प्रेरणा दी अपितु यह प्रत्येक मनुष्य के जीवन के कुरुक्षेत्र में दूरदर्शिता से लड़ने में सहायक है। अब यदि गीता इतनी महत्वपूर्ण है तो इसकी विवेचना निसंदेह रूप से आवश्यक है। गीता की मूल विषयवस्तु पर कुछ भी कहने से पूर्व निम्नलिखित प्रश्नों पर विचार कर लेना आवश्यक है-
- क्या गीता वास्तव में महाभारत का अंश है ?
- क्या कृष्ण ऐतिहासिक पुरुष थे ?
- क्या कुरुक्षेत्र नामक महायुद्ध सच में हुआ था ?
- क्या अर्जुन और युधिष्ठिर आदि वास्तविक ऐतिहासिक व्यक्ति थे ?
ये प्रश्न प्रायः आधुनिक विचारक उठाते हैं। इन सभी प्रश्नों का उत्तर बहुत संदिग्ध है। उल्लेखनीय है कि जब तक शंकराचार्य ने गीता पर अपना भाष्य नहीं लिखा था तब तक सामान्य जनता गीता से अनभिज्ञ थी। अतः कुछ लोगों का ये मानना है कि शंकराचार्य ने गीता लिखी और महाभारत में सम्मिलित कर दिया। वहीं रामानुज के लेखों से हमें बोधायन द्वारा लिखे गीताभाष्य का संकेत मिलता है जो सिद्ध करता है कि गीता की रचना शंकराचार्य से पूर्व ही हो गयी थी, किन्तु स्वामी विवेकानंद अपने भारत भ्रमण के समय बोधायन के भाष्य की कोई भी प्रति पाने में असफल रहे थे| फिर भी महाभारत और गीता के भावों में जो साम्य है उसे देखते हुए ये संभव है कि दोनों के रचनाकार एक ही हैं।
यदि कृष्ण के विषय में बात करें तो छान्दोग्योपनिषद में देवकी के पुत्र के रूप में उनका उल्लेख मिलता है जिन्होंने घोर नामक ऋषि से आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त किया था। महाभारत में कृष्ण का द्वारिकाधीश के रूप में वर्णन हैं। विष्णुपुराण में कृष्ण को गोपियों के साथ रासलीला करतें हुये दिखाया गया है। किन्तु आज कृष्ण का जो व्यापक चरित्र हम जानते हैं वो मूल चरित्र में समय के साथ अनेक रूपकों के जुड़ जाने से बना है। इसलिए हम कह सकते हैं कि कृष्ण के होने के पर्याप्त प्रमाण उपलब्ध हैं किन्तु जिस रूप में हम आज उन्हें जानते हैं वह वास्तविकता से सर्वथा भिन्न है।
जहाँ तक कुरुक्षेत्र के युद्ध की बात है तो इतना तो निश्चित है कि पांचालो और कुरुओं के मध्य एक युद्ध तो हुआ था किन्तु जहाँ पर दोनों पक्षों की सेनाएं एक संकेत पर खून की नदियाँ बहाने को तत्पर हों वहाँ धर्म, ज्ञान और भक्ति का इतना उपदेश कैसे हो सकता है? और अगर हो भी तो इतने भीषण युद्धक्षेत्र में कृष्ण और अर्जुन के संवादों को लिपिबद्ध करने के लिए कौन बैठा रहा होगा?
महाभारत में उल्लेख है कि युधिष्ठिर ने अश्वमेध यज्ञ किया था किन्तु शतपथ ब्राह्मण (इसमें अश्वमेध यज्ञ के अनुष्ठानकर्ताओं के नाम लिखे हैं) में किसी भी पांडव का उल्लेख नहीं है, केवल परीक्षित के पुत्र का नाम लिखा है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि महाभारत के विषय में अनेक संदेह हैं और ये सब संदेहास्पद इसलिए है क्योंकि भारत में ऐतिहासिक अनुसंधान की प्रवृति कम रही है, बस पूर्वजों द्वारा कही कथाओं में कुछ और जोड़कर आगे बढ़ा देते हैं। अधिकाँश लोगों को धर्म और ईश्वर पर किये गए तर्क पसंद नहीं आते। उनके अनुसार खंडन से अथवा तर्क ब्रह्म की अनुभूति नहीं हो सकती है किन्तु इसका तात्पर्य ये नहीं है कि तर्क की आवश्यकता नहीं है, यदि बिना तर्क ये संभव होता तो फिर दर्शन की क्या आवश्यकता थी? जहाँ तक उन प्रश्नों की बात है जो महाभारत और गीता पर मैंने उठाये हैं तो उनकी भी बड़ी आवश्यकता है। भारत में इस तरह की छानबीन को अधिक महत्व नहीं दिया जाता है यही कारण है कि हमारे पूर्वजों द्वारा स्थापित हर सत्य अनेक असत्यों के दीवारों से घिरा है, और इसलिए आम जनता अंधविश्वासी हो जाती है तथा प्रबुद्ध वर्ग नास्तिकवादी। बहुत से लोग यह सोचते हैं कि सत्य स्थापित करने के लिए यदि थोडा बहुत असत्य का सहारा भी लेना पड़े तो इसमें कोई हानि नहीं है। इसका स्पष्ट उदाहरण हमारे पुराण हैं जिनमें एक सत्य है तो उसके साथ सौ कल्पनाएँ संलग्न है जिसे पढ़/सुनकर आम लोग बस कथाओं का गान भर कर सकते हैं, सत्य का अन्वेषण नहीं। पौराणिक काल में लोगों को भूगोल का अल्प ज्ञान था इसीलिए हमें क्षीरसागर, दधिसागर आदि का वर्णन मिलता है। हमारी अनेक कथाओं का आरम्भ इस तरह होता है- "महादेव ने पार्वती से कहा"। हमारा कर्तव्य है कि हम सत्य का अन्वेषण करते समय असत्य का पुर्ण परिहार करें क्योंकि बिना तार्किक विश्लेषण के किसी तथ्य पर विश्वास करने में प्रबल नकारात्मक बल है। ये इतना बलशाली है कि कई महापुरुष अपनी दिव्य अनुभूतियों के साथ कई अन्धविश्वास भी ले आते हैं। इसलिए हमें सत्य पर अपनी दृष्टि जमाए रखनी चाहिए और कुसंस्कारों का पुर्ण परिहार करना चाहिए।
अब यदि गीता मात्र एक रूपक हो और यदि इसके सभी पात्र काल्पनिक हों तो भी इसका महत्व कम नहीं हो जाता। गीता द्वारा प्रतिपादित कर्म, भक्ति और ज्ञान के सिद्धांत दार्शनिक और मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करने पर सत्य ठहरते हैं।
गीता के इतिहास पर उठने वाले आधारभूत प्रश्नों की चर्चा हमने कर ली है और अब मैं इसकी विषयवस्तु का विश्लेषण करूँगा। उपनिषदों में हम देखते हैं कि बहुत सारे असंबद्ध विषयों की भूल-भुलैया में भटकने के बाद सहसा कोई महान सत्य दृष्टिगोचर होता है और उस पर चर्चा छिड़ जाती है, जैसे किसी मरुस्थल में भटकने भटकते कहीं हरी लताओं का झुरमुट मिल जाये किन्तु उलझा हुआ। वहीँ दूसरी ओर गीता उस उपवन के समान है जिसमे सत्यरूपी पुष्प यथास्थान व्यवस्थित हैं। प्रत्येक पुष्प वहीँ है जहाँ उसे होना चाहिए।
आखिर गीता क्यों अपने पूर्ववर्ती शास्त्रों से श्रेष्ठ मानी जाती है? ज्ञान, भक्ति और कर्मयोग के दृढ अनुयायी गीता की रचना से पूर्व भी उपलब्ध थे किन्तु उनमे बड़ा विवाद था। प्रत्येक अपने मार्ग को ही सर्वश्रेष्ठ कहता था। सर्वप्रथम गीता के रचयिता ने ही समन्वय स्थापित करने का प्रयास किया। सर्वप्रथम कृष्ण ने अपना मौलिक समन्वयकारी सिद्धांत देकर इन विवादों को समाप्त करने का प्रयास किया|
गीता का सार है कि कर्म करते हुए भी अनासक्त रहना। कुछ लोग तो ये कहकर किनारा कर लेते हैं कि ये संभव ही नहीं है, अर्थात् कर्म करने के लिए उसमे लिप्त होना ही पड़ेगा, वहीँ कुछ भूलवश इसका अर्थ निरभिप्राय अथवा कर्मशुन्य हो जाना समझते हैं, यदि ऐसा होता तो दीवारें अनासक्ति का सर्वोत्तम उदाहरण होतीं। लेकिन ऐसा नही है, सच्चे निष्काम कर्मी को न तो पशु बनना है, न जड़ और न हृदयहीन। निष्काम कर्मी का हृदय तो प्रेम और सहानुभूति से इतना ओत-प्रोत होता है कि वह अपने प्रेम से सम्पूर्ण विश्व को अविभूत कर सकता है। इस प्रकार गीता की दो प्रमुख विशेषताएं हैं- धर्म के विभिन्न मार्गों का समन्वय और निष्काम कर्म।
जब अर्जुन करुणा और विषाद से अभिभूत हो गये और उनके नेत्र अश्रुपूरित हो उठे तब श्रीकृष्ण ने कहा-
क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्वय्युपपद्यते।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परंतप।।
अर्थात्, हे पृथा-पुत्र, तू नपुंसकता को मत प्राप्त हो, यह तेरे योग्य नहीं। हृदय की क्षुद्र दुर्बलता को त्याग कर, हे शत्रुतापी, उठ।
कृष्ण अर्जुन को युद्ध के लिए क्यों प्रेरित कर रहे हैं जबकि इस तरह के विनाशकारी कार्यों से परे रहना ही उचित है? ऐसा इसलिए क्योंकि अर्जुन में विरति सत्वगुण के कारण उत्पन्न नहीं हुई, उनके भीतर अनिच्छा उत्पन्न होने का कारण तमस् था। सत्वगुण धारण करने वाला मनुष्य सभी स्थितियों में समभाव से रहता है किन्तु अर्जुन करुणा से आकुल थे। सत्वगुण और तमस् दोनों कई दृष्टियों में समान प्रतीत होते हैं किन्तु उनमे बड़ी भिन्नता है। या उसी प्रकार है जैसे प्रकाश के अतिशय द्रुत और मंद कंपन दोनों को ही नहीं देखा जा सकता जबकि एक में प्रखर ताप है और दूसरे में नगण्य ताप। तमोगुण कई बार सत्व के वेश में दिखता है। यहाँ पर अर्जुन में यह तमस् दया/करुणा के छद्य वेश में आया है।
यहाँ पर ध्यान देने योग्य यह है कि, कृष्ण ने अर्जुन को उसकी निर्दोषता और सबलता की ओर आकृष्ट किया, न कि उसकी मानसिक दुर्बलता का उपहास किया। वो कहते हैं- "दुनिया में न तो पाप है, न पुण्य, न रोग है और न शोक; यदि जगत कोई पाप है तो वो भय है। जिस कार्य से तुम्हारी सुप्त शक्ति जागृत हो जाए वह पुण्य है और जो तुम्हारे मन को निर्बल बनाये रखे वह पाप है। तुम बहादुर हो, वीर हो, इसलिए निर्बलता को दूर भगाओ।"