भगवद्गीता: एक मुक्त विश्लेषण - भाग २ / सिद्धार्थ सिंह 'मुक्त'
बिना कुछ बुरा किये हम न तो भला कर सकते हैं और न बिना भला किये कुछ बुरा ही। तो यह जानते हुए भी कोई कर्म कैसे करे? अनेक ऐसे सम्प्रदाय हुए हैं जिन्होंने शिक्षा दी कि धीरे धीरे आत्महत्या करना ही ठीक है क्योंकि यदि मनुष्य जीवित रहता है तो अनेक छोटे छोटे जंतुओं एवं पौधों का नाश करके। इसलिए उनके मतानुसार इस संसारचक्र से छूटने का एकमात्र उपाय मृत्यु है। यह शिक्षा बड़ी तर्कसंगत लगती है परन्तु इसका यथार्थ समाधान गीता में मिलता है और वह है- अनासक्ति, अर्थात, अपने जीवन के समस्त कार्य करते हुए भी किसी में आसक्त न होना। यह जान लो कि संसार में होते हुए भी तुम संसार से नितांत पृथक हो और तुम यहाँ जो कुछ कर रहे हो वो अपने लिए नही है। यदि कोई कार्य तुम अपने लिए करोगे तो उसका फल तुम्हे भोगना ही पड़ेगा परन्तु यदि तुम कोई कार्य अपने लिए नहीं करते तो उसका प्रभाव तुम्हारे ऊपर नहीं पड़ेगा। गीता का कर्मयोग हमें शिक्षा देता है कि- 'संसार में रहते हुए भी उससे पृथक रहो'। तुम्हारा लक्ष्य भोग नहीं होना चाहिए, यह भाव कि संसार हमारे भोग के लिए बना है, निरर्थक है। इसलिए आसक्ति का भाव त्याग दें। कोई भी कर्म करें किन्तु उसके झंझट में न उलझें। स्वामी रामकृष्ण कहा करते थे कि अपने बच्चों के प्रति वही भावना रखें जो एक धाय की होती है। वह तुम्हारे बच्चे को गोद लेती है, उसे खिलाती है और उसको प्यार करती है, किन्तु जैसे ही तुम उसे काम से अलग कर देते हो, वह तुम्हारा घर छोड़ कर चली जाती है और तुम्हारे बच्चे को भूल जाती है, उसे दूसरे बच्चे का पालन करने में कोई दुःख नहीं होता है। तुम भी अपने बच्चों के प्रति यही धारणा रखो। यदि तुम्हे ईश्वर में विश्वास है तो विश्वास करो कि यह सब चीजें जिन्हें तुम अपना समझते हो, वास्तव में ईश्वर की हैं। यह सोचना कि हमारे ऊपर कोई निर्भर है तथा मैं किसी का भला कर सकता हूँ, अत्यंत दुर्बलता का चिन्ह है। यही अहंकार ही समस्त आसक्ति की जड़ है, और इस आसक्ति से ही समस्त दुःखों की उत्पत्ति होती है। अपने मन को भली भांति समझा देना चाहिए कि हमारे ऊपर कोई निर्भर नहीं है। सबकी सहायता प्रकृति से होती है। यदि हममें से लाखों लोग न रहें तो भी संसार चलता रहेगा। यदि तुम्हारा कोई मित्र, जो सबकी सहायता करता था, आज मर गया हो तो क्या संसार रुक जायेगा? इसलिए यह सोचना कि संसार को तुम्हारी मदद की आवश्यकता है, निरी मूर्खता है। दूसरों की सहायता निःस्वार्थ भाव से करके तो हम स्वयं लाभान्वित हो रहे हैं। तुम्हारे चाहे कितना बड़ा ही कुटुंब क्यों न हो, यदि तुम इस तत्व को हृदय में रखकर कार्य करते हो कि संसार मेरे भोग के लिए नहीं है और इसे मेरी सहायता की इसे कोई आवश्यकता नहीं, तो कुटुंब रहने पर भी तुम्हे कोई हानि नहीं होगी। यदि तुम मनुष्य को कुछ दे दो और किसी प्रकार की आशा न करो तो तुम्हारे ऊपर उसकी कृतघ्नता का भी कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।
गीता कहती है कि सबके प्रति समान दृष्टि रखनी चाहिए क्योंकि सब एक ही तत्व की अभिव्यक्ति है। कृष्ण के माध्यम से आत्मा की व्यापकता को जिस प्रकार गीता में स्थापित किया गया है वैसा अन्यत्र नहीं मिलता। कृष्ण स्वयं को ही जगत का प्रभव तथा प्रलय बताते हैं। वे ही इस जगत के कारण हैं तथा वे ही कार्य हैं। कृष्ण कहते हैं कि, "हे अर्जुन ! मैं जल में रस हूँ, चन्द्रमा और सूर्य में प्रकाश हूँ, सम्पूर्ण वेदों में ओंकार हूँ, आकाश में शब्द, और पुरुषों में पुरुषत्व हूँ।", "मैं पृथ्वी में पवित्र गंध और अग्नि में तेज हूँ तथा सम्पूर्ण भूतों में उनका जीवन हूँ और तपस्वियों में तप हूँ इसलिए हे अर्जुन! तू सम्पूर्ण भूतों का सनातन बीज मुझको ही जान।", "मैं बुद्धिमानों की बुद्धि और तेजस्वियों का तेज हूँ, हे भरतश्रेष्ठ ! मैं बलवानों का आसक्ति और कामनाओं से रहित बल अर्थात सामर्थ्य हूँ और सब भूतों में धर्म के अनुकूल अर्थात् शास्त्र के अनुकूल काम हूँ।" कृष्ण के इन कथनों का आखिर तात्पर्य क्या है? इस सबका अर्थ है कि जो कुछ भी दृश्य अथवा अदृश्य है वह एक ही आत्मा (जिसे यहाँ कृष्ण माना गया है) की अभिव्यक्ति है। विश्व की किसी भी वस्तु का उससे परे कोई अस्तित्व नहीं। आत्मा का इतना सुन्दर वर्णन भला और कहाँ मिलेगा? गीता में आत्मा को विकाररहित भी बताया गया है। कृष्ण कहते हैं कि सत्वगुण, रजोगुण तथा तमोगुण के कारण तथा परिणाम भी वही हैं किन्तु यह भलीभांति जान लेना चाहिए कि वे उन प्रभावों में अथवा वो प्रभाव उनमें नहीं स्थित हैं, अर्थात आत्मा किसी भी परिणाम से अप्रभावित रहती है।
कृष्ण के इस प्रकार समझाने से, माया मोह में लिप्त तथा नैराश्य को प्राप्त हुआ अर्जुन रूपी जीव धीरे धीरे अपनी आत्मा पर आ टिकता है और कृष्ण रूपी अपने ही आत्मा का यथार्थ विराट स्वरुप देखता है। इस यथार्थता के अनुभव के साथ ही उसके समस्त संदेह स्वप्न के समान उड़ जाते हैं।