भगवान् ने कहा था / सूर्यबाला
भगवान् वेफ मंदिर में सुबह से जबरदस्त गहमागहमी थी। कारण, प्रदेश वेफ नवनियुक्त सांस्कृतिक सचिव महोदय आज भगवान् वेफ दर्शनार्थ पधरने वाले थे या कह लें, 'विजिट' करने वाले थे।
सो सरगर्मी आज से नहीं, हफ्रतों पहले से थी। मंदिर वेफ चारों तरपफ भक्तों और श्र (ालुओं की पूजा-अर्चना वेफ पफलस्वरूप इकट्ठा हुआ कीचड़-काँदो और सड़े पफूल-मालाओं का कचरा पूरी मुस्तैदी से हटाया जा रहा था। अगल-बगल का सारा एरिया ध्ूल-ध्क्कड़ और मक्खी-मच्छरविहीन किया जा रहा था। गड्ढे-गड्ढियों में गैर-मिलावटी डी.डी.टी. छिड़का जा रहा था। मंदिर प्रांगण से बाहर भी दूर तक दोनों तरपफ सिंदूर-टिकुली, कंघी-शीशा और शक्कर-पफुटाने का प्रसाद बेचनेवालों को खदेड़-खदेड़कर भगाया जा रहा था।
बाहरी स्वच्छता अभियान वेफ साथ-साथ मंदिर वेफ अंदर भी चारों तरपफ वेफ ताखों पर बैठे देवी-देवताओं को भी सिंदूर-तेल आदि चुपड़कर चमकाया जा रहा था। प्रांगण तो झाड़ू-पानी और पिफनाइल से धे-धेकर ऐसा स्वच्छ कर दिया गया था कि स्वयं भगवान् को विश्वास ही नहीं हो रहा था कि यह उनवेफ मंदिर का प्रांगण है।
दरअसल, यह खबर अब आम हो चुकी थी कि नवनियुक्त सांस्कृतिक सचिव महोदय अत्यंत र्ध्मनिष्ठ व्यक्ति हैं। पर्व-त्योहार तथा कथा-प्रवचन आदि में बड़ी रुचि है उनकी। अलावा इसवेफ हर अमावस्या तथा पूर्णमासी, प्रदोषादि दिवसों पर बिना नागा प्रातःकाल सत्यनारायण कथा वेफ माध्यम से साध्ू बनिया, उसकी पत्नी लीलावती तथा कलावती कन्या से इनकी भेंटवार्ता लगभग तय रहती है।
यही कारण है कि इस शहर वेफ दौरे का कार्यक्रम निश्चित करने वेफ साथ ही सचिव महोदय ने राष्ट्रीय स्तर और सांस्कृतिक महत्त्व वेफ इस मंदिरवाले भगवान् का अभिषेक करने की मंशा जाहिर की थी।
बस, इसी का नतीजा था कि पलक झपकते भगवान् का मंदिर लगभग एक विवाह योग्य हिन्दुस्तानी लड़की वेफ पारंपरिक घर में तब्दील हो चुका था।
सचिव महोदय संध्याकाल की आरती में सम्मिलित होना चाहते थे। आरती का समय ठीक सात बजे था। सालों से यह सिलसिला चला आ रहा थाऋ लेकिन सालों से किसी सचिव, कमिश्नर ने मंदिर को 'विजिट' करने की इच्छा भी तो जाहिर नहीं की थी। इन सचिव महोदय ने की थी, अतः भगवान् और पुजारियों का यह पफर्ज बनता था कि उनकी इस इच्छा को अंजाम दें।
इसलिए प्रतीक्षा आरम्भ हुई. सचिव महोदय वेफ आगमन में विलंब होने वेफ साथ-साथ आरती की वेला भी टलने लगी। छोटे पुजारी परेशान होकर उप-पुजारी की तरपफ देख रहे थे। उप-पुजारी व्यग्र भाव से प्रमुख पुजारी की ओर और प्रमुख पुजारी भगवान् की ओर। भगवान् खुद पसोपेश में थे। अतः 'तथास्तु' और 'एवमस्तु' वेफ बीच का मिला-जुला कुछ ऐसा घालमेली सिग्नल दे रहे थे, जिसका कुछ भी अर्थ निकाला जा सकता था।
प्रमुख पुजारी अनुभवी थे। यही अर्थ लगाया कि भगवान् की मंशा है कि सांस्कृतिक सचिव महोदय वेफ आगमन तक आरती-अभिषेक रोका जा सवेफ तो अच्छा। प्रमुख पुजारी वेफ इस निष्कर्ष का सभी पुजारियों ने सहभाव से स्वागत किया। इंतजार और सही। अब भगवान् कह रहे हैं तो कुछ सोच-समझकर ही कह रहे होंगे।
अंततः मंदिर वेफ मुख्य द्वार पर लाल-पीली बत्तियोंवाली गाड़ियों का कापिफला हचाक्-हचाक् की ध्वनि वेफ साथ आकर रुका। मातहतों तथा छोटे-बड़े अध्किरियों से घिरे सांस्कृतिक सचिव महोदय पधर गए थे। चुस्त-दुरुस्त कारवाँ झूमते-झामते मुस्तैदी से मंदिर की ओर चल पड़ा।
तैयारी सब पहले से थी ही। 'हर-हर महादेव' वेफ जयघोष वेफ साथ आरती / महाभिषेक इस तरह प्रारम्भ हुआ जैसे सचिव महोदय वेफ रूप में भगवान् अभी-अभी ही मंदिर में पधरे हैं। पूजा-अर्चना की प्रक्रिया भी कुछ इसी तरह चली। सर्वप्रथम प्रमुख पुजारी ने सचिव महोदय की अगवानी की, उन्हें तिलक लगाया, माल्यार्पण किया। अंगवस्त्राम् चढ़ाकर चाँदी वेफ नटराज की वजनी मूर्ति भेंटस्वरूप दी। तत्पश्चात् सचिव महोदय से विधि्-विधनपूर्वक पूजन-अर्चन करवाया गया।
उतनी देर तक छुटभैए, पुजारी, द्वारपाल और कर्मचारी मामूली भक्तों और दर्शनार्थियों को लगातार पीछे खदेड़ते रहे। कुछ हठी किस्म वेफ भक्त-श्र (ालु नहीं माने तो मंदिर वेफ बाहर तैनात पुलिसकर्मियों ने एकाध् डंडे जमाकर उन्हें पस्त कर दिया। इस प्रकार सभी कार्य बड़े सुचारु रूप से संपन्न हुए.
भगवान् भी बड़े प्रेम से मिले। सांस्कृतिक सचिव महोदय को ऐसी उम्मीद न थी। उन्होंने एक आस्थावान् भारतीय की तरह गद्गद भाव से हाथ जोड़कर कहा, "बड़े दिनों से आपके दर्शनों की अभिलाषा थी, प्रभो! आज पूर्ण हुई."
जवाब में भगवान् ने भी बड़े प्रेम से कहा, "स्वयं मेरी भी बड़ी इच्छा थी आपवेफ दर्शनों की।"
सांस्कृतिक सचिव महोदय अचकचाए, "आपको मेरे दर्शनों की इच्छा! क्या कहते हैं, भगवन्! कुछ समझ नहीं आया।"
भगवान् सकुचाते हुए बोले, "ठीक कह रहा हूँ, सचिव महोदय। देखते नहीं हैं, आजकल पढ़े-लिखे, सभ्य-सुशिक्षित लोग मंदिर में आते कहाँ हैं! तरस जाता हूँ किसी सूटेड-बूटेड, सपफारी-सुसज्जित ढंग वेफ आदमी वेफ साथ उठने-बैठने को। जब भी देखो, बेपढ़े, उजड्ड-गँवार, मनौतियों की पोटलियाँ और लोटे भर-भर प्रदूषित नदियों का पानी लिए ध्क्कम-ध्ुक्की करते चले आते हैं।"
भगवान् शु (बौ (क विमर्श के मूड में थे। आगे बोले, "मंदिरों में आपसी प्रतिस्पर्ध भी इतनी बढ़ गई है कि जिन लोगों में थोड़ी-बहुत श्र (ा-भक्ति बची भी है, वे उन्हीं मंदिरों में जाना पसंद करते हैं जिनकी पब्लिसिटी बढ़-चढ़कर करवाई जाती है। ज़्यादा प्रचारित मंदिरों में चढ़ावा और नकदी भी, जाहिर है, ज़्यादा पहुँचता है-और जहाँ नकदी चढ़ावा ज़्यादा अर्पण किए जाएँगे, माहात्म्य-महिमा भी वहीं की गाई जाएगी न।"
इसवेफ बाद भगवान का स्वर उदास हो आया, "मेरे इस मंदिर का सोने का कलश कब से टूटा हुआ है और मुझे अच्छी तरह मालूम है कि चढ़ावा इतना तो आता ही है कि कलश पर सोने का पत्तर चढ़वा दिया जाए. लेकिन पुजारी सब आपस में बाँट-बूँटकर खा जाते हैं। प्रबंध् न्यासी भी इसमें कापफी सक्रिय भूमिका निभाते हैं और पिफर प्रेस विज्ञप्तियों वेफ सहारे सरकार तक अपनी गुहार पहुँचाते हैं कि मंदिर निरंतर घाटे में जा रहा है, अनुदान की राशि बढ़ाई जानी चाहिए."
यहाँ तक आते-आते भगवान् हताश ध्वनित हुए. अपनी स्थिति पर क्षोभ व्यक्त करते हुए बोले, " आप ही सोचिए, कलश का पत्तर उखड़ा होने से मंदिर की और मेरी भी इमेज बिगड़ती है या नहीं? साख भी गिरती ही है। भक्तों को क्या दोष दें, सोचेंगे ही कि जब इस मंदिर का भगवान् अपना ही टूटा पत्तर नहीं दुरुस्त करवा पा रहा है तो हमारे उध्ड़े छप्पर क्या छवाएगा। हमारी बिगड़ी क्या बनाएगा! ...क्यों न किसी दूसरे, ज़्यादा समर्थ भगवान् वेफ पास चला जाए.
"पहले वेफ पुजारी तो कभी-कभार मुझसे संपर्क स्थापित करने की कोशिश भी करते थे, लेकिन आजकलवालों को तो मेरी तरपफ देखने तक की पफुरसत नहीं। ...जो जितना ज़्यादा कमीशन देता है उसी को घंटे-घड़ियाल और वेफवड़ा-गुलाब आदि का कॉण्ट्रेक्ट दे देते हैं। पिछली बार तो मेरे अंगवस्त्रों की सारी जरी नकली निकल गई. सिल्क का रंग भी कच्चा। भक्तों वेफ सामने कितनी लज्जा आई, कह नहीं सकता। लेकिन इन ध्ूर्त पुजारियों को ज़रा भी लज्जा नहीं आई." कहते-कहते भगवान् का कंठ अवरु (हो आयाऋ लेकिन अपने आपको सँभाल ले गए.
सचिव महोदय भी बड़े पसोपेश में थे। पुनः भगवान् उवाच-"पुरानी कहावत है कि 'जिसवेफ पत्तल में खाना उसी में छेद करना' , लेकिन ये पुजारी तो इन दिनों इस तरह पेश आ रहे हैं जैसे ये नहीं बल्कि मैं इनवेफ पत्तल में खाता हूँ। खैर छोड़िए. मैं तो बातों में भूल ही गया था। जलपान में क्या पसंद करेंगे आप?" कहते हुए भगवान् ने पूजा की घंटी बजाई.
एक पुजारी मेवे-मिष्ठान्न से भरी चाँदी की तश्तरी लिए अंदर आया। भगवान् वेफ अनुरोध् करने पर सचिव महोदय ने मस्तक झुकाकर थोड़ा-सा प्रसाद ग्रहण किया। मेवे कापफी पुराने और घुने हुए थे। मिठाई भी किसी ऐसी-वैसी दुकान की थी।
भगवान् समझ गए. इसलिए नहीं कि वे अंतर्यामी हैं बल्कि इसलिए कि वे स्वयं रोज वही खाते थे। ग्लानिपूर्वक बोले, " घुनी है न! ...जाने दीजिए,
मत खाइए. मेरी तो लाचारी है। सच पूछिए तो आपवेफ लिए अचानक जलपान मँगाने का मेरा एक मकसद यह भी था कि आप स्वयं असलियत से वाकिपफ हो जाइए, वरना भगवान् को झूठा समझेंगे।
"बताइए, ऐसी थर्ड-रेट चीजें प्रसाद में खिलाएँगे तो कौन-सा भक्त इस मंदिर वेफ पास पफटकेगा? एक्सपोर्ट क्वालिटी वेफ मेवे-मिष्ठान्नों की बोरियाँ पुजारी सब सीध्े अपने दरवाजे पर गिरवाते हैं।"
भगवान् ज़्यादा भावुक हो रहे थे। समय भी ज़्यादा हो रहा था। सचिव महोदय कई बार आँखें बचाकर अपनी कलाई घड़ी की तरपफ देख चुवेफ थे। बाहर बेसब्र और उजड्ड भक्तों की ध्क्का-मुक्की भी चालू थी। अतः सचिव महोदय हाथ जोड़कर उठ खड़े हुए.
"अब आज्ञा दीजिए. बाहर आपवेफ भक्तगण भी बेचैन हो रहे हैं।"
"होने दीजिए." भगवान् खीझकर बोले, "मैं भी आजिज आ गया हूँ। अब वे पहले वाले भक्त भी कहाँ रहे, जो बहुत हुआ तो सुख-समृ (और ज्यादा-से-ज्यादा रोग-मुक्ति माँग लिया करते थे। सच्चे भक्तों को तो मात्रा मुक्ति की ही कामना हुआ करती थी। हम आसानी से 'तथास्तु' कह दिया करते थे। लेकिन अब तो ये पुजारी बिचौलिए बन गए हैं। भक्तों में तरह-तरह की अपफवाहें पफैला दी हैं इन ध्ूर्तों ने। जैसे यही कि भगवान् तो बस देने वेफ नाम पर सिपर्फ मोक्ष देते हैं और उससे आज कुछ होनेवाला है क्या? जीना तो इस दुनिया में है भक्तों को। उन्हें समय और अवसर वेफ हिसाब से चीजें मिलनी चाहिए न। जैसे कि देना ही हो तो उनकी पुत्रियों को धरावाहिकों में रोल, मिस यूनिवर्स का ताज, स्वयं उन्हें अथवा उनवेफ बेटे को 'कौन बनेगा करोड़पति' से कॉल और पत्नी को जिला बोर्ड की चेयरपर्सनशिप या पिफर चुनाव का टिकट ही। बहन वेफ लिए बे-दहेज का वर ही कापफी होगा। बताइए, मेरे पास ..."
अब तक भगवान् और सचिव महोदय दोनों अपने-अपने कारणों से रुआँसे हो आए थे। सचिव महोदय ने औपचारिक सहानुभूति से मुंडी हिलाई और जाने वेफ लिए उठ खड़े हुए. जाते हुए रुके और भगवान् को नमस्कार का पुनः औपचारिकता निभाई-"अच्छा तो भगवान् चलता हूँ। शीघ्र ही पिफर कभी सेवा में उपस्थित होने का अवसर निकालूँगा, अभी अनुमति दीजिए." हाँ, मेरे योग्य कोई सेवा...
भगवान् ने अनुमति दी। पिफर ससंकोच कह गए, "देखिएगा, इस बीच ज़रा मंदिर वेफ कलश का उखड़ा हुआ पत्तर ठीक हो सके तो..."