भगवान जाने / प्रतिभा सक्सेना

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संदीप बाबू बड़ी तेज़ी में बढ़े जा रहे थे। जल्दी से आगे बढ़ कर मैंने आवाज़ लगाई, 'संदीप बाबू, रुको ज़रा। '

रुके नहीं वे, बस चाल ज़रा धीमी कर ली।

'ये आज क्या हो गया इन्हें 'सोचा मैंने और अपने कदम तेज़ कर लिये।

'क्या हुआ? कुछ खास बात है? '

'आज मंगल है न! बजरंगबली को परसाद चढ़ाना है। आज देर हो गई। '

हाथ में प्रसाद का डब्बा था, बोले बस अभी दस मिनट में लौटता हूँ, तुम घर चलो। '

पता लगा लड़के ने किसी प्रतियोगिता का फ़ार्म भरा है। हर मंगल और शनि को मंदिर में लड्डू चढाते हैं।

आजकल इम्तहानों का मौसम है। मंदिरों में बड़ी भीड़ रहने लगी है। भगवान को प्रसन्न करने के चक्कर में हैं सब लोग। बिना उसकी मर्जी के कुछ नहीं होता! छात्र तो छात्र उनके माता-पिता भी अधिक आस्तिक होकर भक्ति प्रदर्शित करने लगे हैं। कोई हनुमान जी को लड्डू चढ़ा रहा है, कोई शुक्रवार व्रत रख रहा है, कोई वृहस्पतिवार को पीले खाने की तलाश में है। श्रद्धा की बाढ़ आ गई है चारों तरफ़। अंतःकरण शुद्ध हुये जा रहे होंगे, सारी मलीनता धुल जायेगी।

पर कहाँ? यह सब तो अपना मतलब साधने को हो रहा है। नहीं यह वह असली श्रद्धा नहीं है उस पवित्र भावना को भी प्रदूषित कर डाला है इन लोगों ने। रिश्वतें दी जा रही है भगवान को अपने अनुकूल बनाने के लिये।

भगवान से अपने मन की चाह पूरी कराने के सारे हथकंडे अपनाये जा रहे हैं। ,रिश्वत पूरी, मेहनत अधूरी!

और भगवान? वह क्या समझते नहीं? सब जानते हैं वह! अंतर्यामी है न - इसलिये खूब मज़े लेते हैं।

हर चीज़ को अपने हिसाब से मोल्ड कर लेते हैं।

पूछिये वह कैसे?

नहीं मालूम न?

दैत्यराज बलि का नाम सुना है?

,महादानी, परम श्रेष्ठ इन्सान, विष्णु भक्त, प्रजा को अति प्रिय। दक्षिण में तो लोग अब तक उसके नाम पर दीवाली मनाते हैं, उनकी मान्यता है कि उस दिन वह अपनी प्रिय प्रजा का हाल लेने आते हैं।

हाँ। वही बलि। अपने इन भगवान महोदय ने क्या किया उनके साथ?

दान माँगा था, बावन अँगुल का बन कर।

हाँ। बौने बन कर दान माँगने पहुँच गये। उसने याचक का पूरा सम्मान किया और उसकी इच्छा पूछी। इनने तीन पग धरती माँगी। राजा बालि को हँसी तो आई होगी -क्या जरा सा बौना, मुझसे माँगा भी तो क्या तीन पग ज़मीन। शायद संदेह जागा हो कि ज़रूर दाल में कुछ काला है। पर व्रती था, व्रत तो पूरा करना ही था। आगे जो हो मंजूर! बिल्कुल वही जो आगे कर्ण के साथ हुआ। और इन महाशय ने चाल खेल डाली। रूप विस्तार कर दो पगों सारी धरती आकाश माप लिया और तीसरी बार उसके सिर पर पाँव रख उसे पाताल भेज दिया।

असल में यह इन्द्रासन का झगड़ा था। इन्द्र बड़ा कपटी है इन्द्रासन को किसी भी कीमत पर हाथ से जाने नहीं देना चाहता। उसी ने तो गौतम ऋषि की पत्नी अहल्या से कपट किया था। फिर भी ये उसका हमेशा फ़ेवर करते हैं।

इन्द्र ने तो हद कर दी भी फिर भी पद नहीं छीना गया!

पद न छिन जाये इसीचिये तो इन्हें हमेशा पटाये रखता है। और ये दूसरे की अच्छाई और सज्जनता को हथियार बना कर उसी के खिलाफ़ स्तेमाल करते हैं।

इनकी कुछ मत पूछो। पाँण्डवों को तो जानते ही हो पाँचों के पिता अलग अलग थे इसीलिये कुन्ती चिन्तित रहती थीं कि कहीं आपस में फूट न पड़ जाये। तभी द्रौपदी को कॉमन पत्नी बना दिया। कुन्ती का एक पुत्र उसकी कौमार्यावस्था में सूर्य से उत्पन्न हुआ था। कुन्ती ने उसे नदी में बहा दिया था अधिरथ और उसकी पत्नी राधा ने उसका पालन-पोषण किया था। वह कौन्तेय से राधेय बना और जीवन भर अपमान झेलता रहा। दुर्दम,अपराजेय योद्धा, परम श्रेष्ठ धनुर्धर! फिर भी जीवन भर विडम्बनायें झेलता रहा। कुन्ती ने जानते हुये भी कुछ न किया, बल्कि उसने भी अपने विहित पुत्रों की सुरक्षा के लिये, कृष्ण के कहने पर, उससे उस मातृत्व की कीमत माँग ली, जिसने उसे सदा वंचित रख कर जीवन अभिशप्त बना दिया था।

और स्वार्थी इन्द्र की करतूत और स्वार्थपरता देखो, अपने पुत्र अर्जुन की कुशलता के लिये अपने ही सहयोगी देवता सूर्य के पुत्र कर्ण से उसके शरीर से चर्मवत् संयुक्त कवच - कुण्डल दान में माँग कर उसकी मृत्यु का प्रबन्ध कर दिया। सद्भावना, औचित्य, न्याय सबको अँगूठा दिखा दिया। वह तो इन्द्र ने किया। पर विष्णु का जालंधर को शक्तिहीन बनाने के लिये उसका परम साध्वी पत्नी तुलसी को उसी के पति का रूप धर कर छलपूर्वक अपनी अंकशायिनी बनाना नैतिकता की किस श्रेणी में गिना जाय? !

वह यह सब अपने लोगों के इन्टरेस्ट में करते हैं।

इसीलिये तो! इसीलिये तो हम हमेशा भगवान को याद करते हैं। बस वह अपने बने रहें और किसी के साथ कुछ होता रहे हमें कोई फ़र्क नहीं पड़ता। उचित हो, अनुचित हो कोई अन्तर नहीं पड़ता। बस, अपना उद्देश्य सिद्ध होना चाहिये! भगवान को अनुकूल बना लो -येन केन प्रकारेण! चाहे प्रसाद बोल कर, भजन-पूजन कर, या और किसी कर्म काण्ड के सहारे! और फिर दुनिया को रक्खो ठेंगे पर!

कर्मों का फल मिलता है न?

कर्मों का फल? हो सकता है वह भी उनकी सुविधा पर निर्भर है। तपस्या का फल हमेशा कल्याणकारी नहीं होता यह तो हम प्रमाण दे सकते हैं।

क्या कहा तप का फल हमेशा अच्छा ही मिलेगा?

यह मत कहो। रामकथा की ताड़का का नाम सुना है? वह सुकेतु यक्ष की पुत्री थी। उसके पिता ने संतान के लिये घोर तप किया। ब्रह्मा जी प्रसन्न हुये। उसे ऐसी पुत्री प्राप्त होने का वर दिया जिसमें हज़ार हाथियों का बल हो। और यही उसके लिये शाप बन गया। बताओ भला सहज जीवन कहाँ रह गया?। फिर उसे और उसके पति को मुनियों ने शाप दे दे कर चैन से जीना दुश्वार कर दिया। अगर यह वरदान है तो शाप क्या है?

फिर तो हम इन्हीं की आराधना करेंगे। हम गलत हों चाहे सही, हमारे फ़ेवर में रहेंगे तो फ़ायदा हमारा ही होगा। औरों से हमें क्या?

सच्ची उसकी माया हम नहीं जान सकते, वही जाने।

हम भारतवासी उसकी आदत से अच्छी तरह परिचित हैं। जब देखते हैं एक से काम नहीं निकला तो दूसरे देवता को मनाना शुरू कर देते हैं। इतने सारे देवता हैं कोई तो झाँसे में आ ही जायेगा!

यही तो मुश्किल है। इतने सारे देवता हैं!

एक को खुश करो और दूसरा बीच में टाँग अड़ा दे तो गये काम से। कभी कभी बड़ा गड़बड़ हो जाता है उनके आपसी चक्कर मं।

हुआ ऐसा कि एक हिन्दू, एक मुसलमान और एक ईसाई नाव में जा रहे थे नाव बीच भँवर में फँस गई। हिन्दू राम-राम करने लगा, मुसलमान अल्ल्ह-अल्लाह, और ईसाई ईशू-ईशू टेरने लगा। अल्लाह दौड़े अपने भक्त को बचा लया, ईशू दौड़े अपने भक्त को बचाया, हिन्दू की पुकार सुन राम आ ही रहे थे कि वह अधीर होगया कि अभी तक आये क्यों नहीं और कृष्ण, हाय कुष्ण चिल्लाने लगा। कृष्ण दौड़े पर वे पहुँचें इसके पहले ही वह बेसब्रा भोलेनाथ भोलेनाथ पुकारने लगा। कृष्ण बेचारे जहाँ थे वहीं रुक गये। और भोलेनाथ पहुँचते उसके पहले ही बजरंगवली की पुकार लगा दी। भोलेनाथ ने सोचा हनुमान दौड़ेंगे और हनुमान ने सोचा शंकर जी पहुँच ही रहे हैं, हम बेकार जा कर क्या करें और इस बीच वह पानी में गुड़ुप हो गया।

दिन पर दिन मेरा विश्वास बढ़ता जा रहा है कि भगवान अपनी शरण में आने वालों का कल्याण करते हैं -चाहे वे लोग उचित मौकों पर, या जब जरूरत पड़े तब थोड़ी देर के लिये ही शरण में जायें। रोज़ देखती हूँ, ऑफ़िसों में जो लोग प्रार्थना पत्र पर पूजा-पत्र चढ़वाये बिना आगे नहीं बढने देते, अपना हिस्सा वसूले बिना किसी का काम नहीं करते शनिवार या मंगलवार को भगवान के दरबार में उपस्थित हो टीका लगा कर गिड़गिड़ा कर क्षमा मांग लेते हैं, ऊपर की वसूली का दशमलव ज़ीरो एक परसेन्ट प्रसाद में व्यय कर उसे जायज़ बना लेते है, दिन पर दिन मोटे और सर्व- सुविधा सम्पन्न होते जा रहे हैं। कैसे संभव होता है यह? हर हफ़्ते भगवान से माफ़ी माँग कर, प्रसाद-प्रार्थना से ही तो। अगर पाप ही न करें तो ये सब करने की ज़रूरत ही क्या?

मुझे याद आगया, बड़ी पुरानी बात है, आठवीं कक्षा को रहीम दोहे पढा रही थी। समझाने के बाद बीच बीच में बच्चों से अर्थ पूछ लेती थी। उस दिन ' क्षमा बड़ेन को चाहिये छोटेन को उत्पात' का अर्थ पूछने पर बच्चा बोला -बड़ों को क्षमा और छोटों को उत्पात करना चाहिये! छोटों को उत्पात क्यों करना चहिये पूछने पर बोला चाहिये शब्द दोनों के लिये है। अगर छोटे उत्पात नहीं करेंगे तो बड़े क्षमा कैसे करेंगे? उसके तर्क का कोई उत्तर मेरे पास नहीं था। ऐसे ही हत्बुद्धि मैं रह गई थी जब 'सूर दास तब विहँसि जसोदा लै करि कंठ लगायो' का अर्थ एक लड़की ने बताया -तब सूर दास जी नें हँस कर यशोदा जी को गले से लगा लिया। मैं उसे समझाती रही, पर बाल बुद्धि ठहरी। सामने तो कुछ नहीं बोला पर उसे लगा कि एक बात साफ़-साफ़ लिखी है और ये टीचर उसे घुमा-फिरा कर बता रही हैं। कभी कभी तो मैं भ्रम में पड़ जाती हूँ कि मैं ही तो गलत नहीं हूँ! वैसे सब का अपना-अपना सोच! सबको भगवान बुद्धि देते हैं।

हमारे एक अभिन्न मित्र हैं,लोगों की जेब से पैसा कैसे खींचा जाता है यह बताते रहते है। एक दिन मैंने कहा ग़रीबी में जिनका आटा वैसे ही गीला है उन को ते बख़्श दिया करो। बड़े दार्शनिक अन्दाज़ में बोले -गरीब अमीर ऊँच-नीच हमारे लिये सब बराबर। हम ये भेद-भाव नहीं करते! भगवान की बनाई दुनिया। सब अपना अपना भाग्य लेकर आते हैं, इसके लिये हम क्या कर सकते हैं?

ऐसे ऐसे फ़ितरती लोग कि भगवान को ही चपत लगा दें! भगवान भी क्या करें, उन को भक्तों का सहारा है! दोनों के काम चलते हैं। कितनी भी अति करो उसकी आड़ ले लो, वही रक्षा करेगा!

जय हो, जय हो भगवान, तुम्हारी जय जयकार हो!