भगवान मर गया / पद्मजा शर्मा
अदिति नवीं कक्षा में पढ़ रही है। आज माता-पिता को स्कूल बुलाया था। मगर अदिति के यहाँ से कोई नहीं गया। पापा ट्यूर पर थे। मम्मी पिछले वर्ष उसे और उसके छ: वर्षीय भाई को छोड़कर असमय चल बसी.
माँ की याद में अदिति जब रो-रोकर थक जाती है तब भगवान के अस्तित्व को कठघरे में खड़ा कर देती है। आज घर आकर अदिति रोई. मैंने समझाया उसे-'बेटा, भगवान के लिए अनाप-शनाप नहीं कहते हैं। वह तो अन्तर्यामी है। सबके दिल का हाल जान लेता है। अपने चाहने वालों का भला करता है।'
'बुआ, मुझे तो आपका भगवान फ्रॉड लगता है और वह, वह नहीं है जो दिखता है। हमारी माँ छीनकर कौनसा भला कर रहा है हमारा?'
'ऐसा नहीं कहते बेटा। पाप लगता है। वह सबके साथ न्याय करता है। उसके यहाँ देर है अन्धेर नहीं।'
'बुआ, पाप तो भगवान को लगना चाहिए. हमने क्या बिगाड़ा था उसका? मम्मी तो पूजा-पाठ, व्रत-उपवास, दिया-बाती, दान-दक्षिणा, मन्दिर-सत्संग सब किया करती थीं। भगवान को भोग लगाकर खाना खाया करती थी। मम्मी अब इस दुनिया में कभी लौट कर नहीं आएंगी। हम भाई-बहिन ज़िन्दगी भर रोते रहेंगे। आपका भगवान मर चुका है बुआ। मगर है तो क्या उसे नहीं दिख रहा कि भैयू हंसना तो भूल ही गया, रोता भी नहीं है और न ही जिद्द करने की बात पर जिद्द करता है। कौन छीन ले गया उसका बचपन? उसकी मासूम खिलखिलाहट कहाँ गई? कहाँ है आपका भगवान?'
'बेटा, अपने आपको सम्भाल। सब किस्मत के खेल हैं। होनी को कोई नहीं टाल सकता।'
'फिर कैसा भगवान और कैसी भक्ति! सच तो यह है कि जिन घरों में छोटे बच्चों की माएँ जीवित हैं वहाँ भगवान है। यानी की माँ ही भगवान है। जिस बच्चे की माँ मर गयीं समझो उसका भगवान मर गया।'