भगवान विष्णु का अज्ञातवास / कुबेर

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यह पौराणिक कथा भ्रष्टपुराण से लिया गया है। भ्रष्टपुराण देश का उन्नीसवाँ पुराण है। इस पुराण में देश की संसद और विधान सभाओं के माननीय सदस्यों और सचिवालयों तथा विभिन्न दफ्तरों में कार्यरत अफसरों, बाबुआंे और चपरासियों के पवित्र भ्रष्टाचरणों और अत्यंत गौरवशाली दुष्कृत्यों की महिमा का वर्णन किया गया है। इस कथा के चरित्रों का अनुशरण करने वालों को पृथ्वी लोक में स्वर्ग के समान सुखों की प्राप्ति होती है।

धरती नामक ग्रह में भारत वर्ष नामक एक देश है। पहले यह भू-भाग आर्यावर्Ÿ कहलाता था और देवतागण यहाँ जन्म लेने के लिये तरसते थे। परन्तु आजकल वे सब बिदके हुए हैं। आजकल इस आर्यावर्Ÿ में घोटालेबाज, और भ्रष्टाचारी लोग जन्म लेने के लिये कतार लगाए हुए हैं। देवताओं के बिदकने और घोटालेबाजों और भ्रष्टाचारियों के लपकने के पीछे छिपे कारण इस प्रकार हैं।

उस जमाने में, जब इस आर्यावर्Ÿ पर जन्म लेने के लिये देवता लोग तरसा करते थे, यहाँ पर सत्यवंशी राजाओं का राज हुआ करता था। इस वंश के राजा परमप्रतापी और प्रजापालक हुआ करते थे। राजाओं के आचरण और शासन धर्मानुकूल हुआ करते थे। प्रजा प्रसन्न और संतुष्ट हुआ करती थी। किसी के मन में लालच, छल, कपट, ईर्ष्या-द्वेश, घृणा, क्रूरता आदि अमानवीय स्वभावों की छाया भी नहीं हुआ करती थी। सभी आपसी भाईचारे के साथ परस्पर सुख-दुःख बाटते हुए जीवनयापन किया करते थे।

इसी राज्य में भ्रष्टवंशियों का भी एक छोटा सा परिवार निवास करती थी। इस परिवार में लोभमती माता का महाभ्रष्टशाली नामक एक महाबलशाली पुत्र हुआ। इस महाबलशाली पुत्र कोे अपने भ्रष्टाचरण, अधर्मनीति, लालच, छल, कपट, ईर्ष्या-द्वेश, घृणा, क्रूरता आदि अमानवीय स्वभावों और इनसे अर्जित शक्तियों पर बड़ा घमण्ड था। वह इन शक्तियों के बल पर राज्य के परमप्रतापी सत्यवंशी राजाओं को अपदस्थ करके अपना साम्राज्य स्थापित करना चाहता था। लेकिन उसका साथ देने वाला वहाँ पर कोई नहीं था। अपने लिये समर्थन जुटाने के लिये वह नाना प्रकार का छद्म वेश धारण करके लोगों के बीच जाता। लोगों पर अपनी अधर्मनीति, लालच, छल, कपट, ईर्ष्या-द्वेश, घृणा, क्रूरता आदि अमानवीय स्वभावों और इनसे अर्जित शक्तियों को आजमाता। उनसे समर्थन लेने का प्रयास करता। परन्तु राज्य की धर्मप्राण जनता के मन-मस्तिष्क पर इन शक्तियों का कोई असर नही होता था। इन शक्तियों के निष्प्रभावी होने पर लोग उन्हें पहचान लेते थे। पहचान लिये जाने पर उसकी शक्तियाँ क्षीण होने लगती थी। सत्य और धर्म की शक्तियों से वह तपने लगता और अपनी जान बचाने के लिये घने जंगलों और पहाड़ों की गुफाओं में जाकर छिप जाता।

एक समय की बात है। महाबलशाली महाभ्रष्टशाली अपनी प्राण रक्षा हेतु पहाड़ों की गुफाओं में मारे-मारे भटक रहा था। संयोगवश उसकी भेंट महाभ्रष्टवंशियों के महागुरू महामहत्वाकांक्षाचार्य से हो गई। दोनों में परिचय हुआ। महामहत्वाकांक्षाचार्य जैसा महागुरू पाकर महाभ्रष्टशाली और महाभ्रष्टशाली जैसा शिष्य पाकर महागुरू महामहत्वाकांक्षाचार्य, दोनों ही बड़े प्रसन्न हुए क्योंकि दोनों के उद्देश्य समान थे।

महाभ्रष्टवंशियों के महागुरू महामहत्वाकांक्षाचार्य ने महाबलशाली महाभ्रष्टशाली से कहा - “वत्स, तुम मुझे यूँ आश्चर्य और अविश्वास भरी निगाहों से न देखो। तुम शायद मुझे नहीं जानते हो और मेरी सिद्ध शक्तियों को भी नहीं पहचानते हो; लेकिन मैं तुम्हेंहअच्छी तरह जानता हूँ। मैं अपनी दिव्य दृष्टि से देख रहा हूँ कि तुम वही हो जिसकी मुझे सदियों से प्रतिक्षा थी। तुम ही हो, भविष्य के महान् महाभ्रष्टवंशियों के महानायक। तुम ही हो जो मेरी महामहत्वाकांक्षाओं को पूर्ण करोगे। आर्यों के इस महादेश आर्यावर्Ÿ में महाभ्रष्टवंशियों का साम्राज्य स्थापित होने से अब कोई नहीं रोक सकेगा। सत्यवंशी राजाओं के दिन अब समाप्त हुए ही समझो। हे महाभ्रष्टशाली! तुम ही तो महाभ्रष्टवंशियों के महानायक हो। समस्त भू-लोक पर अब तुम्हारा ही साम्राज्य स्थापित होने वाला है। मैं हूँ महाभ्रष्टवंशियों के महागुरू महामहत्वाकांक्षाचार्य।”

महाभ्रष्टशाली ने भी महागुरू महामहत्वाकांक्षाचार्य के बारे में सुन रखा था। उनको लगा, महागुरू महामहत्वाकांक्षाचार्य का प्रश्रय, प्रेरणा और मार्गदर्शन में उनकी महत्वकांक्षा अब पूरी होकर ही रहेगी। उन्होंने महागुरू महामहत्वाकांक्षाचार्य को साष्टांग दण्डवत किया। दोनों मिलकर अब सत्यवंशी राजाओं को पराजित करने के लिये योजनाएँ बनाने लगे।

कई दिन और कई रातें जागकर उन दोनों ने परिस्थितियों का विश्लेषण किया। दैत्यों के इतिहास का गहन अध्ययन किया। अब तक देवताओं के साथ हुए संग्रामों में दैत्यों को मिले पराजय के कारणों का पता लगाया। देवताओं के युद्धनीति के अनिवार्य तत्व कूटनीति को बारीकी से समझा और जो अंतिम निष्कर्ष निकाला गया उसका सार इस प्रकार था।

निष्कर्ष को समझाते हुए महागुरू महामहत्वाकांक्षाचार्य ने कहा - “वत्स! देवों और दानवों के इतिहास का; दोनों के बीच होने वालेे युद्धों का गहन और सूक्ष्म विश्लेषण करने के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि हमें अपनी पराजयों से सीख और देवताओं की विजयों से प्रेरणा लेनी चाहिए। हमें अब देवताओं की नीति को अपनान पड़ेगा। आज यहाँ सत्यवंशी राजाओं का राज्य है इसलिये यहाँ पर जन्म लेने के लिये देवता लोग तरस रहे हैं। लेकिन वत्स! वह दिन दूर नहीं है जब इस धरती पर तुम्हारा और तुम्हारे वंशजों का राज्य होगा। तब देवता लोग इस धरती की तरफ पलट कर देखना भी पसंद नहीं करेंगे। केवल दैत्य ही यहाँ जन्म लेना चाहेंगे। तब दैत्य ही यहाँ के देवता कहलायेंगे।”

महाबलशाली महाभ्रष्टशाली ने कहा - “गुरूदेव! सो तो ठीक है। पर यह कब होगा? इसके लिये मुझे क्या करना होगा?”

“तप, घोर तप। वत्स! तुमने ध्यान नहीं दिया; शक्तियाँ प्राप्त करने के लिये हमारे महानायकों द्वारा किये गये अनेक महान् और घोर तपों की ओर। दैत्यों का इतिहास साक्षी है, हमने घोर तप करके ब्रह्मा, विष्णु और महेश से वर प्राप्त किये हैं। तुम्हें भी अपने पूर्वजों की तरह तप करना होगा।” महागुरू महामहत्वाकांक्षाचार्य ने कहा।

“गुरूदेव! आज्ञा दीजिये। तप करने मैं अभी प्रस्थान करता हूँ।” महाबलशाली महाभ्रष्टशाली ने अपने लंबे और घने मूँछों पर ताव देते हुए कहा।

“लेकिन किस देवता का आह्वान करोगे और कौन-कौन से वर मांगोगे?”

“इस पर तो मैंने विचार ही नहीं किया।”

“वत्स! इसीलिए, बस इसीलिए दैत्य हमेशा मात खाते रहे हैं।” महागुरू महामहत्वाकांक्षाचार्य ने समझाया, “पहले यह तय करना होगा कि ब्रह्मा, विष्णु और महेश, तीनों में से किसका तप किया जाय। फिर उसके स्वभाव, प्रकृति और योग्यता के अनुसार उनसे किस प्रकार का वर मांगा जाय।”

महाबलशाली महाभ्रष्टशाली ने कहा - “इसमें सोचने की क्या बात है गुरूदेव, मैं तो अवगढ़दानी भोले शंकर का ही तप करूँगा और उनसे अमरत्व का ही वरदान प्राप्त करूँगा।”

“मूर्खतापूर्ण बातें न करो वत्स।” महागुरू महामहत्वाकांक्षाचार्य ने थोड़ा झिड़कते हुए कहा, “दैत्यों ने अब तक जो गलतियाँ की है, तुम भी वही दुहराओगे?” महागुरू महामहत्वाकांक्षाचार्य ने आगे कहा - “वर देने वाले सारे देवता बड़े चालाक होते हैं। स्वयं तो अमर होते हैं पर अमरत्व का वरदान किसी को देते नहीं हैं। अमर होने की स्थिति में छल करके हमें हमेशा इससे वंचित कर देते हैं। कहते हैं, कोई दूसरा वर मांगो जो अमरत्व के समान हों। और यहीं हम दैत्यों की बुद्धि चकरा जाती है। इधर हम ब्रह्मा से अमरत्व सदृश्य कोई दूसरा वर मांगते हैं और उधर कुटिल विष्णु फौरन इसकी तोड़ खोज लेता है।”

“तो फिर आप ही कुछ तरकीब सुझाएँ गुरूदेव; जल्द आदेश दें, मेरा तो धैर्य ही समाप्त हुआ जा रहा है।” महाबलशाली महाभ्रष्टशाली ने अत्यंत अधीर होते हुए कहा।

“शांत, वत्स! शांत। इतना अधीर मत बनो। इसका उपाय मैंने ढूँढ़ लिया है।” महागुरू महामहत्वाकांक्षाचार्य ने कहा - “वत्स, हमें भी तनिक कुटिलता से काम लेना होगा।”

“सो कैसे गुरूदेव।”

“वत्स! तुम तपस्या में विष्णु का आह्वान करोगे और उन्हीं की कूटनीति से उन्हें पराजित करोगे।”

“आदेश दे गुरूदेव, मुझे कौन सा वर मांगना होगा।” महाबलशाली महाभ्रष्टशाली का उत्साह छलका जा रहा था। उन्होंने अतिउत्साह दिखाते हुए कहा।

“वत्स दीवारों के भी कान होते हैं। अपना कान मेरे मुँह के निकट लाओ। कोई अन्य सुनने न पाये। क्या पता, छलिया विष्णु यहीं कहीं पर तोता, मैना, शेर, भालू या अन्य किसी रूप में मौजूद हो? गोपनीयता जरूरी है।” महागुरू महामहत्वाकांक्षाचार्य ने कहा और फिर विष्णु के प्रगट होने पर उनसे क्या वर माँगना है, यह बात महाबलशाली महाभ्रष्टशाली को अच्छी तरह से समझा दिया।

महाबलशाली महाभ्रष्टशाली की प्रसन्न्ता का कोई ठिकाना न रहा। वह फौरन उठा, गुरू से आशीर्वाद लिया और तप करने चल पड़ा।

उधर भौंरे का रूप धारण कर जासूसी करते, वही आस-पास मंडरा रहे भगवान विष्णु के होश फाख्ता हो गये। यद्यपि महागुरू महामहत्वाकांक्षाचार्य ने पूरी सावधानियाँ बरतते हुए महाबलशाली महाभ्रष्टशाली के कानों में बातें कहीं थी, फिर भी उसने सब कुछ सुन लिया था। उन्होंने फौरन अपने दिमाग के टाईम मशीन के भविष्य की यात्रा पर ले जाने वाली स्विच को ऑन किया। भविष्य की एक-एक घटनाएँ टाईम मशीन के परदे पर उभरने लगी। देखकर भगवान विष्णु के चेहरे का रंग बदलने लगा। आँखें भय के कारण फैलने लगी। पीतांबर पसीने से भींगने लगा। शंख, चक्र और गदा हाथ से छूटने लगे। शरीर शिथिल पड़ने लगा। शोक और चिंता के कारण शरीर बलहीन होने लगा। अंत में लस्त-पस्त होकर वे शेष-शैय्या पर गिर गये।

देवी लक्ष्मी ने इससे पहले कभी भी, अपने स्वामी की ऐसी हालत नहीं देखी थी। उसके मस्तिष्क में ऐसा आघात लगा कि वे कोमा में चली गई। शेष नाग बदहवास होकर जोर-जोर से फुँफकारने लगा। दुनिया में अफरातफरी मच गई। ब्रह्मा और शिव, इन्द्र आदि समस्त देवताओं के साथ फौरन नंगे पांव क्षीर-सागर की ओर दौड़े। देवताओं को सहायतार्थ उपस्थित देख शेष नाग को कुछ घीरज बंधा। उसका फुँफकारना बंद हुआ, पर उसके हाँफने और कांपने का क्रम अब भी चल रहा था। हाँफते और काँपते हुए बड़ी मुश्किल से उसने देवताओं को अपने स्वामी और स्वामिनी की दशा का बोध कराया।

देवताओं के अथक और समवेत प्रयास से स्थिति काबू में आई। विष्णु की ऐसी दशा देवताओं ने भी पहले कभी नहीं देखी थी। भविष्य में किसी घोर विपत्ति की आशंका ने उनके मन में दहशत पैदा कर दिया। अत्यंत दीन स्वर में उन्होंने श्री विष्णु से पूछा - “हे दुनिया के पालनहार, आपकी ऐसी दशा पहले तों कभी नहीं हुई। आखिर बात क्या है?”

श्री विष्णु ने स्वयं को संयमित करते हुए कहा - “हे परमपिता ब्रह्मा, हे शिव शंकर, ......” श्री विष्णु का गला सूख रहा था। आवाज अटक रही थी। होश संभाल चुकी देवी लक्ष्मी जी फौरन सोमपात्र ले आई। सोमपान से गला तर करने के बाद श्री विष्णु ने फिर कहना शुरू किया - “देवताओं, भविष्य में महा संकट उपस्थित होने वाला है। पृथ्वी पर भ्रष्टवंश में इस समय महाबलशाली महाभ्रष्टशाली नामक परम भ्रष्ट व्यक्ति का जन्म हो चुका है। वह तपस्या करने के लिये तपोवन की ओर जा रहा है। महागुरू महामहत्वाकांक्षाचार्य का उन्हें संरक्षण प्राप्त है।”

“हे भगवन! पृथ्वी पर यह कोई नई बात नहीं हैं पूर्व में भी कई दैत्यों ने तपस्या की है।” देवताओं ने समवेत स्वर में कहा।

श्री विष्णु ने कहा - “परंतु हे देवताओं, उन दैत्यों के वरदान प्राप्त करने से जो समस्याएँ उत्पन्न हुई थी, वे सब बहुत मामूली थे। अब की बार बड़ी विकट समस्या पैदा होने वाली है, सावधान!” इतना कहकर भगवान विष्णु क्षीर-सागर, शेष-शैय्या और देवी लक्ष्मी जी को वहीं छोड़कर अदृश्य हो गए।

देवगण भी अपने-अपने लोक चले गए।

महाबलशाली महाभ्रष्टशाली ने तप करना प्रारंभ किया। तप क्रिया को सरल, संक्षिप्त परंतु अधिक प्रभावोत्पादक बनाने के लिये उन्होंने आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल किया। हाई-टेक प्रणाली से तप करने पर न तो उसे हजारों साल का समय लगा और न हीउसके शरीर पर दीमकों ने घर ही बनाया। अतिशीघ्र उसके तप की अग्नि से सारी पृथ्वी झुलसने लगी। “ओम विष्णुवायः नमः” की जाप से धरती का कोना-कोना गूँजने लगा। इधर श्री विष्णु महाबलशाली महाभ्रष्टशाली के समक्ष वरदान देने किसी भी हालत में प्रगट होने से बचना चाहते थे, परन्तु उसकी कोई भी चालाकी काम न आई। महाबलशाली महाभ्रष्टशाली अब तक ब्रह्मा और शिव को कई बार रिफ्यूज कर चुके थे। महाबलशाली महाभ्रष्टशाली की तपोबल से प्रगट अग्नि से झुलसती धरती को बचाने के लिये अंततः श्री विष्णु को प्रगट होना ही पड़ा।

श्री विष्णु को अपने सम्मुख उपस्थित देख महाबलशाली महाभ्रष्टशाली के मुख पर विजयी आभा चमकने लगी। उन्होंने पहले उनके असली हाने की, अर्थात देवताओं के द्वारा उसके साथ कोई छल तो नहीं किया जा रहा है, इस बात की जांच की। संतुष्ट हो जाने पर उन्होंने श्री विष्णु को दण्डवत् प्रणाम किया।

श्री विष्णु ने बड़े बुझे मन से उसे आशीर्वाद दिया और तब वरदान मांगने के लिये कहा।

महाबलशाली महाभ्रष्टशाली ने कहा - “हे श्री विष्णु! यदि आप मेरे तप से प्रसन्न हैं तो मुझे यह वरदान दीजिये कि “यदि कोई मेरे विषय में सोचे या मुझे मारने या मिटाने का विचार भी अपने मन में लाये तो मैं उसके ही अंदर जीवित हो उठूँ।”

श्री विष्णु को दैत्य गुरू के इस योजना के विषय में तो पहले से ही पता था लेकिन वरदान देने के लिये वे विवश थे। अंततः बड़े बुझे मन से उन्होंने महाबलशाली महाभ्रष्टशाली को वरदान दिया।

वरदान पाकर महाबलशाली महाभ्रष्टशाली बड़ा प्रसन्न हुआ। घर आकर उन्होंने अपना राजपाठ संभाल लिया। दिन दूनी और रात चौगुनी की गति से उसका प्रभाव अब चारों ओर फैलने लगा। सत्यवंशी लोग पहले महाबलशाली महाभ्रष्टशाली को आसानी से पहचान कर परास्त कर देते थे, परंतु अब, श्री विष्णु के वरदान के प्रभाव के कारण महाबलशाली महाभ्रष्टशाली को पराजित करने या समाप्त करने का विचार जैसे ही उनके मन में आता, वे भी भ्रष्टवंशियों की तरह व्यवहार करने लगते। देखते ही देखते धरती के सारे लोग भ्रष्टाचार में लिप्त रहने लगे। धरती में पूरी तरह महाबलशाली महाभ्रष्टशाली का प्रभुत्व हो गया।

धरती पर पाँव पसार रहे भ्रष्टाचार को देख कर इन्द्र, वरुण, अग्नि आदि देवता बड़े चिंतित हुए। भ्रष्टाचार का सारा जड़ महाबलशाली महाभ्रष्टशाली ही था। महाबलशाली महाभ्रष्टशाली को मिटाने का संकल्प लेकर वे अपनी दिव्य शक्तियों के साथ निकले लेकिन इस संकल्प के साथ ही महाबलशाली महाभ्रष्टशाली उनके अंदर जीवित हो गया और वे भी भ्रष्टाचारियों के समान व्यवहार करने लगे।

इस तरह देखते ही देखते, धरती ही नहीं स्वर्ग में भी, महाबलशाली महाभ्रष्टशाली का साम्राज्य स्थापित हो गया।

श्री विष्णु को डर था कि परंपरा अनुसार, देवगण महाबलशाली महाभ्रष्टशाली के अत्याचार से त्रस्त होकर यदि उसे मारने की प्रार्थना लेकर उसके पास आये तो वे बड़ी मुसीबत में पड़ जायेंगे। परंतु उसे बड़ी हैरानी हुई। कोई भी देवता, यहाँ तक कि इन्द्र भी, ब्रह्मा, शिव और अन्य देवताओं के साथ उसके सामने त्राहिमाम्! त्राहिमाम्! कहते हुए अब तक उपस्थित नहीं हुआ। श्री विष्णु ने देखा, इन्द्र आदि सभी देवगण भ्रष्टाचार में लिप्त होकर बड़े एशो आराम की जिंदगी जी रहे हैं। गरीब और मजदूर लोग भी मौका मिलते ही छोटा-मोटा भ्रष्टाचार करने से नहीं चूकते। साधु महात्माओं का भी यही हाल है। गिनती के कुछ ऋषि-मुनि टाइप लोग जो इस पचड़े से बचना चाहते थे, हिमालय की निर्जन गुफाओं में समाधिस्थ होकर हरिनाम का जाप कर रहे हैं।

हमारे ऋषि-मुनि तो मोहमाया से निर्लिप्त सिद्ध पुरूष होते हैं; इन्हें समाज से, मनुष्य से या किसी से क्या लेना-देना?

संपूर्ण धरती और स्वर्ग में भ्रष्टाचार फैला देख श्री विष्णु को आत्मग्लानि हुई। आखिर यह सब उन्हीं के वरदान का दुष्परिणाम जो है। बहुत सोच विचारकर उन्होंने निर्णय लिया कि धरती और स्वर्ग से भ्रष्टाचार को मिटाने के लिये अब महाबलशाली महाभ्रष्टशालीका वध अनिवार्य हो गया है। लेकिन यह क्या; मन में ऐसा विचार आते ही श्री विष्णु के भी हृदय में तरह-तरह के भ्रष्टाचारी विचार आने लगे। उन्हें विश्वास था कि उनका दिया हुआ वरदान उन्हीं पर लागू नहीं होगा; लेकिन वरदान कभी झूठे होते हैं?

श्री विष्णु ने भ्रष्टाचार को मिटाने का विचार छण भर में ही निकाल बाहर किया। उन्होंने देखा कि सारे जिम्मेदार लोग महाबलशाली महाभ्रष्टशाली की व्यवस्था से अत्यंत खुश हैं, किसी को कोई शिकायत नहीं है। उन्हें सत्यवंशियों की ओर से शिकायत का सबसे अधिक डर था; पर आश्चर्य, भ्रष्टाचार में ये ही सबसे अधिक लिप्त थे। ऋषि-मुनि लोग तो जीते जी मोक्ष पाकर बैठे हुए हैं। उन्होंने सोचा - “सारे लोग तो इस व्यवस्था से प्रसन्न हैं, संतुष्ट हैं, फिर जबरन बखेड़ा मोल लेने से क्या फायदा?” फिर उसकी अंतरआत्मा ने कहा - “नहीं, कुछ गरीब और लाचार लोग शिकायत लेकर मेरे सामने पहँुच ही गए तो क्या होगा? ऐसी स्थिति में मैं उन लोगों की कोई सहायता नहीं कर पाऊँगा और तब तो लोग मुझे दीनबंधु ही कहना छोड़ देगें। मेरी प्रतिष्ठा धूल में मिल जायेगी।”

श्री विष्णु को अपनी विवशता पर रोना आया। बदनामी और आत्महीनता से बचने के लिये उन्हें एक ही उपाय सूझा कि वे भी ऋषि-मुनियों की तरह हिमालय की निर्जन गुफाओं में समाधि लगाकर बैठ जाये।

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उन्हें समाधिस्थ हुए सदियों बीत गये हैं लेकिन किसी को कुछ भी पता नहीं है कि वे किस जगह पर, किस हाल में हैं। धरती के प्रभावशाली, साधन-संपन्न और पुजारी-पंडे लोग, जो श्री विष्णु को ढूँढ सकते थे, जो श्री विष्णु के बिना पहले पल भर भी नहीं रह सकते थे, अब उन्हें पूरी तरह भूल चुके हैं। अब तो वे बड़ी लगन और भक्ति भाव से महाबलशाली महाभ्रष्टशाली की चापलूसी में लगे हुए हैं।

गरीब और दीन-दुखियों की आवाजें न तो पहले ही उन तक पहुँच पाती थी और न ही अब उन तक पहुँच पा रही है। पहुँचती भी होगी तो श्री विष्णु जी उसे अनसुना कर जाते होंगे। महाबलशाली महाभ्रष्टशाली को दिये वरदान का उन्हें आज भी स्मरण है। गरीबों और निर्बलों की करुण-क्रन्दन सुनकर उसकी समाधि और भी गहरी हो जाती होगी।

परन्तु लोगों में यहाँ अफवाह फैली हुई है कि भगवान श्री विष्णु अपनी निराशा, हताशा, कुण्ठा और लाचारी के कारण आत्महत्या कर चुके हैं।