भगोड़ा / मनीषा कुलश्रेष्ठ
जूम ...सर से फिर एक मिग २१ गुज़रा। आकाश साफ था। दोपहर के ११ बजे थे। पास ही में स्थित वायुसेना स्टेशन की मिग २१ की स्क्वाड्रन का दैनिक अभ्यास चल रहा था। समूह से पीछे छूट गयी भेड़ जैसे बसन्त के इक्का दुक्का सफेद बादलों के अलावा आकाश का नीला अथाह विस्तार अलसाया सा पसरा था। उसके सीने पर होकर गुज़रते तेज़ रफ्तार विमान अपनी सीमाओं की रक्षा हेतु सजगता का परचम फहरा रहे थे। प्रशान्त ने सर उठाकर देर तक ऊपर देख कर सर नीचे किया तो उसे लगा जैसे आकाश ने उसे गोदी में लेकर गोल - गोल घुमा कर ज़मीन पर छोड़ दिया है। ये आवाज़ें नयी तो नहीं हैं प्रशान्त के लिये बल्कि रोज़मर्रा का हिस्सा हैं, फिर भी वह हर जहाज़ के गुज़रने पर सर ऊपर उठा कर देख ही लेता है। यह जेल ऐसी ही जगह पर स्थित है कि यहां के कैदियों और यहां के कर्मचारियों को इन लड़ाकू जहाज़ों की आवाज़ अपनी ही आती - जाती सांस की आवाज़ का हिस्सा प्रतीत होती है। सांस अगर जीवन से जोड़ती है, तो ये जहाज़ जेल की ऊंची दीवारों के बीच रहने वालों को बाहर की दुनिया के विस्तार से जोड़ते से लगते हैं। जब भी वह भारतीय वायुसेना के मिग २१ और सू ३० जहाजों की उड़ानें देख रहा होता है, तब वह अनजाने ही अपने पैर के अंगूठे से पैरों के नीचे की नम मिट्टी कुरेद रहा होता है। आंखों में एक पतली पानी की परत तैर रही होती है... मन को जैसे वह अपनी ही मुठ्ठी में भींच रहा होता है।
इस जेल की ऊंची दीवारों के बीच के अहाते में हरी घास उगी हुई है। बीचों - बीच एक पीपल का लम्बा युवा पेड़ है। जिसे बार - बार इस डर से काट दिया जाता है कि कहीं बढ़ कर जेल की दीवारें न फांदने लगें इसकी डालियां। प्रशान्त इस पेड़ की पीड़ा में हर बार तब तक शामिल रहता है जब तक कि फिर से इस पर नये लाल चिकने पत्ते न उग आएं। प्रशान्त ही जानता है कि कैसे ये पीपल चांदनी रातों मेंे सुनहरे - रूपहले पत्तों तथा माणिक - मोती और नीलम - पन्नों के फलों से सजे कल्पतस्र् में बदल जाता है और मरमर की ध्वनि के साथ उसे स्नेह से पुकारता है। इसके नीचे बने गोल चबूतरे पर इसके व अपने अच्छे - बुरे दिनों में बैठना और बैठ कर घण्टों चुपचाप सोचना प्रशान्त का प्रिय शगल है। इस पीपल के सान्निध्य में न जाने कितनी बार उसे लगा कि यह उसका बोधिवृक्ष है। क्योंकि उसके साथ के क्षणों में पवित्र विचारों का उदय होता। घृणा, क्षोभ, हताशा, अपमान, क्रोध जो उसके वज़ू़द को निरन्तर जलाते थे, इसके नीचे बैठ कर तिरोहित हो जाते। पवित्र विचार जो मृगतृष्णा की तरह सूक्ष्म होते...उसके निकट तो आते पर जैसे ही वह उन्हें सहेजता, वे किसी तितली की तरह जाल से निकल भागते। टूटते नक्षत्र की तरह एक पल को सृष्टि को आलोकित कर लुप्त हो जाते और उसकी आत्मा को शांत कर जाते।ऐसे में हृदय पिघलता बूंद - बूंद और कहीं अन्यत्र एकत्र होकर अखण्ड विश्वास बन जम जाता। तब उसका सही चरित्र आकार लेने लगता। बिना असमंजस वाला, जिजीविषा से भरा। जीवन के प्रति उसकी आस्था जागने लगती।
यह यरवदा जेल... उसे याद है, वह बचपन में बाबा के साथ जब सांगली से पूना आया था तब बाबा ने उसे इस जेल में लाकर गांधी और नेहरू जी वाली ऐतिहासिक सेल दिखाई थीं। तब यह जेल कुछ उजाड़ सी थी... पूना शहर से जोड़ने वाले उस पुल के इस तरफ का इलाका भी इतना बसा हुआ नहीं था। अब तो लोहेगांव तक पूरा बस गया है बल्कि आगे भी नई कॉलोनियां बसती जा रही हैं। और यह जेल... अपने हरे भरे विस्तारों के साथ लोगों को आकर्षित करती हुई एक लैण्डमार्क का रूप ले चुकी है।
जिस दिन वह यहां लाया गया था उस दिन अथाह पीड़ा व अपमान के घनत्व के बीच डूबते हुए भी इस शांत जेल और हरे - भरे अहातों ने उसे थोड़ा संभाल लिया था। उसने जेल के भीतर आते हुए स्वयं को समझाने के उ ेश्य सोचा था,... जगह इतनी भी बुरी नहीं है तीन साल काटने के लिये। “तीन सा..ल!” वह बुदबुदाया था।
जेल के गेट पर ही मराठी में बड़े अक्षरों में लिखा था `यरवदा सेन्ट्रल जेल'। इस बड़े फाटक के अगल - बगल में राइफल लिये संतरियों की कतार थी... बगल में केबिननुमा सिक्योरिटी ऑफिस था...आने - जाने वाले लोगों की शिनाख्त़ के लिये। गेट के भीतर बीच में पक्के फर्श वाले अहाते में कुछ ऑफिस और बने थे, जिनमें कैदियों के कागज़ात रहते और जहां क्लर्की व एकाउंट्स का काम होता था। ये पक्का फर्श वाला अहाता... पीछे तक जाते हुए कच्चे हरे भरे मैदान में बदल जाता था... जहां सब्जियों की क्यारियां और फलों के पेड़ दूर तक लगे थे... इस हरे मैदान के एक ओर कैदियों की वर्कशॉप थीं, जहां वे कारपेंटरी का काम, जूट के सामान बनाने का काम सीखा करते थे। एक कंप्यूटर रूम था, जहां बाकायदा `ओ' लेवल की कंप्यूटर शिक्षा की सुविधा कैदियों को उपलब्ध थी। महिलाओं के लिये शिक्षा व्यवस्था और सिलाई का ट्रेनिंग - सेंटर भी था।
उसे वह इंसपेक्टर जिसे एयरफोर्स पुलिस ने उसे लाकर सौंपा था, यह जेल ऐसे घुमा रहा था जैसे वह कैदी न होकर कोई विज़िटर हो। यह उसकी मानवीय संवेदना की पराकाष्ठा थी या प्रशान्त का आभिजात्य कि इंसपेक्टर का मन यह गवाही नहीं दे रहा था कि एयर फोर्स में अफसर रह चुके इस नौजवान को चोर - डकैतों की तरह सीधे ले जाकर उसकी कोठरी में ठूंस दे। उसका मन इस नौजवान इंस्पेक्टर अनिल मोरे के प्रति आभार से भर गया था।
इस बाहरी अहाते की दीवारें अपेक्षाकृत कम ऊंची थीं, हालांकि कंटीले तारों की फेंसिंग पुख्ता थी। इस अहाते केा भीतरी अहाते से अलग करता ऊंची मोटी दीवारों का गोल विस्तार था, इन दीवारों के मध्य ही एक और बड़ा फाटक था, जिसमें एक छोटी खिड़की थी जो भीतरी अहाते में खुलती थी। सही मायनों में यहीं से असली जेल शुस्र् होती थी। यह छोटी खिड़की पार करते हुए एकबारगी उसका दिल दहला था... जेल! हाथ अनायास ही पेशानी पर छलकती बूंदों को पौंछने में व्यस्त हो गये थे, पैर उठ कर फाटक में बनी छोटी खिड़की को पार करने लगे।
छोटी खिड़की पार कर उसके पैर जिस कच्चे हरे - भरे अहाते में उतरे थे, उस अहाते में चारों तरफ इधर - उधर गलियारों और वरांडों की भूलभुलैय्या थी, जिसमें कई तरह की कोठरियां थीं। बायीं ओर फूलों भरी क्यारियों की तरफ जाते साफ - सुथरे सुव्यवस्थित गलियारे में वे प्रसिद्ध ऐतिहासिक सेल थी जहां गांधी व नेहरू तथा अन्य ऐतिहासिक महत्व के राजनैतिक कैदी वर्षों रहे थे। यह सेल पर्यटकों के लिये वर्ष भर खुली रहा करती हैं। पीले रंग से पुती इस जेल की सारी दीवारें और कोठरियां एक अजीब सा अवसाद जगाती थीं। दायीं तरफ जाते गलियारों से पहले बड़ा कुछ कच्चा, कुछ पक्के फर्श वाला आंगन - सा था और उसके एक ओर डोरमेट्रीनुमा वार्ड बैरक्स थीं जिनमें कई कैदी साथ रहते थे और अन्दर बने पलंगनुमा चबूतरों पर सोते थे। इन्हीं गलियारों की भूलभुलैया में अन्दर को अंधेरे की तरफ खतरनाक मुजरिमों की सेल थी। आंगन के पक्के हिस्से में बीचों - बीच एक रसोई थी जो आधुनिक तरह से बनी था, सफेद टाइल्स और बड़े - बड़े सिंक, बड़े गैस बनर्स। परातों में ढेर आटा गुंथा रखा हुआ था। एल्युमीनियम के विशाल भगोनों में दाल और सब्जी।इंस्पेक्टर बता रहा था, खाना कैदी ही बनाते हैं, रविवार या किसी त्योहार के दिन पूड़ी परांठे और खीर - हलवा बनाने की उन्हें इजाज़त होती है। किचन के पीछे की ओर महिला कैदियों के सामूहिक सेल थे।
वे दायीं तरफ मुड़े, जहां सामने के ही गलियारे में बी - टायप कैदियों की स्वतन्त्र कमरेनुमा कोठरियां थीं, उसे उसी में रखा जाना तय था। वह इंसपेक्टर मोरे के प्रति सच में कृतज्ञता महसूस कर रहा था कि वह उसे कैदी की तरह न लाकर, एक विज़िटर की तरह सब दिखाता हुआ लाया था।
“बचपन में मैं बाबा के साथ ये जेल देखने आया था... तब यहां हरा - भरा नहीं था... ये सब्ज़ियों की खेती तब नहीं होती थी। तब क्या पता था कि...” कहकर प्रशान्त का गला भर्रा गया। इंसपेक्टर मोरे ने स्नेह से हाथ थाम लिया। वे तीसरे नम्बर की कोठरी के पास आकर स्र्क गये थे।
“ होता है साहब, कभी - कभी किस्मत करवा ही लेती है कुछ ऐसा और ले आती है...अच्छे - भले लोगों को भी ऐसी जगह पर। अब चलूं, कोई ज़रूरत हो तो मुझे बताना।” जेब से चाभियों का मोटा गुच्छा निकाल कर इंस्पेक्टर मोरे मुड़ गया और दरवाज़ा भिड़ा दिया गया। उसी मानवीय संवेदना के तहत उसने बहुत आहिस्ते से दरवाज़े के बाहर के ताले में कुंजी घुमाई, ताकि प्रशान्त को अजीब न लगे। सूने गलियारे में वह ताले में घूमती चाभी की धीमी आवाज़ भी उसके मर्म को चीरती चली गई। वह उस कोठरी की दीवारों का रंग को देखने से पहले ही फफक कर रो पड़ा। एक पल को उसकी स्र्लाई की आवाज़ से इंस्पेक्टर के जूतों की आवाज़ ठिठकी... फिर कुछ पल बाद भारी बूटों की बोझिल आवाज़ उसके कानों से ओझल हाती चली गयी थी। तब से उसका आवाज़ और आहटों से ये जो नाता जुड़ा है वह कभी छूटेगा नहीं। आवाज़ों के प्रति उसका अवचेतन स्थायीरूप से सूक्ष्मग्राही हो चला है।
शुस्र् में वह उस कोठरी में जाने कितने दिनों शांत और अपनी ही पीड़ा से बोझिल, अर्धचेतन - सा पड़ा हुआ, मौसमों को बीतते देखता रहा। वह बस खाने व चाय के लिये कमरे से तीन बार निकलता बाकि समय भीतर से ही बाहर की आवाज़ों से घटनाओं व समय का अन्दाज़ लगाता। सुबह होते ही कौओं की कांव - कांव की आवाज़ के साथ ही जेल की दीवारों पर सूरज शीशे के पिसे चूर्ण - सी रोशनी बिखेर जाता। न जाने कैसे लम्बा दिन आखिरकार अपनी ही सांसे गिनते बीत जाता... सूर्य अस्ताचलगामी होता हुआ महज महसूस भर होता...विदाई में शायद वह आकाश में आग बिखेर देता... जिसके बुझते हुए अंगारे जेल की दीवारों पर लाल - सलेटी राख में फैल जाते। इसके बाद यकायक अंधेरे का परदा फैल जाता। वह आवाज़ की उंगली थाम लेता - दरवाज़ों के पल्ले खुलने - बन्द होने की आवाज़, कैदियों के हिंसात्मक तरीके से देर रात तक लड़ने और फिर कराहने की आवाज़, कभी ठहाकों की आवाज़। किसी महिला कैदी की सिसकियां। कुत्तों की हूक। न जाने कितनी - कितनी आवाजें उसे देर रात तक जगाये रखतीं।
उसके जेल में आने के साथ ही मानसून का मौसम आ गया था। बरसात उस साल पूरे जोश से हुई थी, तूफान और आधिंयों के साथ। ये तूफान जेल के टीन - टप्परों को झिंझोड़ जाते, रसोई की चिमनी से ऐसी आवाज़ आती मानो निर्जन में कोई मातम मना रहा हो। इस अर्धचेतनता में न जाने क्यों उसकी समस्त इन्द्रिया तो सजग हो गयी थीं मगर वह अतीत के घटनाक्रमों व अपने अस्तित्व की ओर से लगभग सुन्न होकर इस कोठरी में जी रहा था।उसकी चेतना को आंधियों - तूफानों ने भी नहीं झिंझोड़ा। वह बस वर्तमान भर महसूस करता अस्तित्वहीन होकर।
तभी न जाने कब शर्मीली चाल से बसन्त आ गया था। वह अपनी खिड़की से उदास आंखों से बाहर झांकने लगा था। छत पर बिल्लियों के झगड़ने के स्वर सुनाई देते। जेल की ऊंची दीवार के उस पार से बसन्त के आगमन के संकेत आने लगे थे। हवा की महक में था बसन्त... बसन्त के साथ ही स्मृतियां जेल के तिलचट्टों की फौज की तरह उसके मस्तिष्क पर घेरा डालने लगी थीं।
वह कोठरी से बाहर जाने को व्याकुल हो उठा। एक दिन जब सुबह की चाय के समय उसका दरवाजा खोला गया तो वह चाय पीकर हमेशा की तरह सर झुकाये कोठरी में लौटा नहीं... पीपल के निकट जा बैठा। अन्य कैदी भी बैठे हुए धूप सेकते बातें कर रहे थे... उसे देख अचानक चुप हो गये। उसने उनकी ओर ध्यान नहीं दिया चुप बैठा रहा। यह उसका जेल के अहातों में बसते जीवन और इस पीपल के पेड़ से पहला परिचय था। उसके मर्म में गूंजती आवाज़ों ने शीघ्र ही इन बाहरी दृश्यों से एक रिश्ता बना लिया... उसे लगा कि इन बाहरी दृश्यों में कुछ तो बोधगम्यता है, कुछ तो रस है...कि उसके दिनों के टूटे पंख स्वस्थ होने लगे हैं और वे धीरे ही सही कुछ तो उड़ने लगे हैं।
अब तो वह इस पूरी जेल के चप्पे - चप्पे से परिचित है। उसके सद्व्यवहार की वजह से एक साल के भीतर - भीतर उसे इतनी आज़ादी मिल गयी थी कि अब वह बिना बंदिशों के जेल के भीतरी अहाते व बाहरी अहाते के वर्कशॉप वाले हिस्से में घूम सकता है। यूं भी जेल के सभी कर्मचारी जानते हैं, प्रशान्त एक चुप्पा, अनुशासित कैदी है। दिन में उसे बाहर निकल कर पेड़ के नीचे बने बैंचों - चबूतरों पर बैठने की इजाज़त तो है ही, ट्रेनिंग सेन्टर और जेल के बाहरी गलियारे में बने ऑफिस तक जाने में भी उसे हथकड़ियों की दरकार नहीं। जेल निदेशक तक उससे स्नेह व सम्मान से बात करते हैं। कैदियों और कांस्टेबलों की कंप्यूटर और अंग्रेजी की कक्षाएं भी वह लेने लगा है। मगर अधिकतर चुप रहता है। चुप्पी मानो उसके व्यक्तित्व का ज़रूरी हिस्सा है। बाहर वह दृश्य - दर - दृश्य बदलते माहौल को घूंट - घूंट पीता है मगर अपने भीतर ही भीतर वह जीवन की नदी के किनारे पसरे कटते कगारों सा खामोशी से नष्ट होता रहता है। अपनी आत्मा से उलझता है और भीतर ही भीतर लहुलुहान होता हुआ कराहता है। चेहरे से उदासी टपकती है टप टप... जिसे वह मुस्कुरा कर पौंछने का प्रयास करता है।
उस बार के बसन्त के बाद जेल का जीवन नीरस नहीं रहा कभी... कितने मीडिया वाले, एन. जी. ओ. वाले, स्कूलों - कॉलेजों के बच्चे आते, कैदियों के साक्षात्कार होते... छब्बीस जनवरी - पन्द्रह अगस्त पर नेता - मंत्री लोग आते, सांस्कृतिक कार्यक्रम होते वह उन सब हंगामों में देह से शामिल होकर भी मन से परे रहता, चुपचाप... कहीं कुछ सोचता सा। लोग उससे कुछ पूछते तो हां - ना या संक्षिप्त उत्तर देता, कोई उसके अतीत को कुरेदने का प्रयास करता तो वह मुड़कर चला जाता।
कल ही तो कुछ ट्रेनी फौजी अफसर जेल की विज़िट पर आये थे, इंस्पेक्टर मोरे द्वारा उसके केस के बारे में जानकर उससे मिलने को उत्सुक हुए तब वह इसी पीपल के नीचे बैठा था पैर लटकाये, अपने में गुम... उसने उठकर सबसे हाथ मिलाया, नम आंखों से मुस्कुराता रहा, पर कुछ बोला नहीं। अतीत की सूखी परत जैसे किसी ने मन के गहरे घाव से छील ली थी। तब से वह बेचैन सा इस पीपल के नीचे बार - बार आ बैठता है, सुबह भी आया था...दोपहर तक बैठा रहा। वर्कशॉप से लौटने के बाद फिर आ बैठा है। बचे खुचे खुरंटों को घावों पर से छीलता हुआ... सामने अनार के छतनार झाड़ के बीच रहता गोरैय्यों का झुण्ड एक खिलन्दड़े अन्दाज़ में चहचहा रहा है, बाबा बताया करते थे, बोगेनविलीया या अनार जैसे छतनार छोटे झाड़ों में समूह में रहने वाली ये चिड़ियां `नॉननेस्टिंग बर्ड्स' हैं, घोंसला बना के प्रजनन की ज़िम्मेदारी खत्म कर चुकी चिड़ियां या फिर प्रजनन करने के लिये साथी ढूंढने की प्रक्रिया में लगी छड़े नरों व मादा चिड़ियों का झुन्ड हैं।
अचानक उसे एक चटकीली धूप भरा दिन याद आ गया जब फ्लायिंग क्लब के इंचार्ज ने एक छोटी सी दिखने वाली प्यारी सी लड़की से मिलवाया था। वह दिव्या थी। सुन्दर की बजाय बहुत
आकर्षक कहना उसके लिये उपयुक्त प्रतीत होता था।
“ तो दिव्या आप छोटा जहाज उड़ाना सीखना चाहती हैं?”
“ हाँ! सैस्ना।”
“रजिस्ट्रेशन करवाया? कल से हमारा नया बैच शुस्र् हो रहा है।”
“ हां, वहां डैड ऑफिस में यही सारी फॉर्मेलिटीज़ पूरी कर रहे हैं।”
“ आपका कोई फ्लायिंग एक्सपीरियंस? जैसे ग्लायडर फ्लायिंग, माइक्रोलाइट?”
“ नहीं।”
“ ज़ीरो से!”
“ हां।”
“ साहस है?”
“ हां क्यों नहीं?”
“ हमारा क्वेश्नेयर तो भरा होगा फार्म के साथ?
“ हां भरा है।”
“ दिव्या, जहाज उड़ाने के लिये जितनी इन्द्रियां भगवान ने दी हैं कम पड़ती हैं। कुछ अलग से जगानी पड़ती हैं। तो कल से शुस्र् करेंगे। एक पूरा सप्ताह पहले सिमुलेटर( जहाजनुमा एक इलेक्ट्रोनिक उपकरण, जिसमें हवाई जहाज जैसी ही जॉयस्टिक होती है और स्क्रीन होती है जिस पर दृश्य वैसे ही बदलते हैं जैसे आकाश में और ठीक वैसी ही कृत्रिम परिस्थितियां उत्पन्न की जाती हैं जो कि जहाज उड़ाने में प्रस्तुत होती हैं। इसे ज़मीन पर प्रशिक्षण के लिये काम में लाया जाता है।)पर।
“ आज से क्यों नहीं?”
“ क्योंकि ये ढीले सलवार कुर्ते में जहाज नहीं उड़ाया जाता। कल से टाइट ट्राउज़र्स और टी शर्ट में आएंगी आप।”
जहां सैस्ना जैसा छोटा विमान पहली बार उड़ाना दिव्या के लिये एक चुनौती था, वहीं एक जीवन्त और साहसी लड़की को यूं सिखाना, प्रशान्त के लिये एक नितान्त नया अनुभव था। ट्राउजर्स और टी - शर्ट में वह बिलकुल बच्ची लगती। सिमुलेटर पर सीखने में ही उसके धैर्य की पूरी परीक्षा ले डाली थी दिव्या ने पर वह उसे कभी डांट ही नहीं पाता, कोई गलती करके खुद ही मासूम सा चेहरा बनाती और उसकी ओर से कोई प्रतिक्रिया न पाकर खिलखिला कर हंस देती। वह उसका उद्भासित चेहरा देखता रह जाता। कितनी अच्छी है दिव्या। जब बोलती है तो ऐसा लगता है, एक - एक शब्द मिठास में पगा हुआ है, हर शब्द फूल की तरह खुशनुमा और रसीला। मुस्कुराती तो काली आंखों की पुतलियां फैल जातीं और उनमें एक अवर्णनीय चमक दिखाई देती। मुस्कुराते समय जो दांतों की उजली पांत उभरती... तो वह देखता ही रह जाता।
पहला दिन, इस बैच की उड़ान का। यूं ब्रीफींग सिमुलेटर चलाने पर भी होती थी, पर आज सचमुच का ट्रायल था। सबके दिल धड़क रहे थे। एयर ट्रेफिक , आर. टी. और मौसम तीनों की ब्रीफिंग शुस्र् हुई।
“ ग्रेवी ( इंर्धन) एज़ पर द प्रोफाइल से... थ्री हण्डरेड। अवर प्रोफाइल इज़ हैण्डलिंग सोर्टी।
दिव्या... लिसन केयरफुली। द फर्स्ट सोर्टी इज़ योर्स। टेक ऑफ, टर्न राइट... हेडिंग ज़ीरो सिक्स ज़ीरो। क्लाइम्ब टू लेवल जीरो थ्री जीरो। गो आउट बाउण्ड ट्वेन्टी नॉटिकल माइल्स। कम बैक हैडिंग टू फोर ज़ीरो... ओवर हैड... सर्किट एण्ड लैण्डिंग।
“ आल द बेस्ट। हैप्पी लैण्डिंग्स।” उसके बैच के पांच सदस्य एक साथ चिल्लाये।
पहली सोर्टी पर वह दिव्या के साथ था। टेकऑफ ठीक तरह से कर लिया था दिव्या ने, दोनों सैस्ना जहाज के परों पर उड़ते हुए आकाश में थे। आकाश एकदम साफ और चटक रोशनी से भरा था।
“ कमोन दिव्या, हाऊ यू आर हैण्डलिंग द जॉयस्टिक? यू आर टू हार्ड ऑन इट। यह कोई ट्रैक्टर का गियर नहीं है।”
“ दिव्या, थ्रोटल इज़ एट नाइन्टी परसेन्ट, मेक इट सिक्सटी, इट इज़ टू फास्ट टू हैण्डल।”
“कन्सन्ट्रेट ऑन रडर्स... और माय डियर आर. टी. कॉल्स पर ध्यान दो...और गिव रिटर्न काल्स...आल्सो।”
“ क्या - क्या करूं? कहां - कहां कन्सन्ट्रेट करूं?” दिव्या अब घबरा रही थी।
“ मैं ने तो पहले ही कहा था।”
दिव्या ने थ्रोटल सिक्सटी पर लाकर स्पीड लिमिट में की और एयर ट्रेफिक कन्ट्रोल को कॉल दी
“ सैस्ना फोर्टी नाइन ऑप्स नार्मल...रीचिंग ज़ीरो थ्री ज़ीरो।” और प्रशान्त की ओर मुस्कुरा कर देखा।
“ कीप आईज़ ऑन होराइज़न... अदरवाइज़ वी विल हिट द ग्राउण्ड। चैक होराइज़न... अदरवाइज़ यू विल सिंक योरसेल्फ अलोंग विद मी टू...।” वह चीखा।
दिव्या को सीखते हुए चार महीने हो गये थे और उनके सम्बन्ध अनौपचारिक़ हो चले थे, मगर वह इन्स्ट्रक्टर ही बने रहना चाहता था और दिव्या दोस्ताना बेतकल्लुफी से आगे बढ़ना चाहती थी। निसंदेह वे दिन सुन्दर थे। वह अपने भीतरी डरों से उबर रहा था। उसे नहीं पता था क्यों और कैसे वह लड़की उसके मन में घर बनाने लगी थी। यह भी पता नहीं था कि वह उसके और अपने बीच कैसा रिश्ता बुनना चाह रहा था...पर कुछ था ` सलोना - सा' जो पनपता ही जा रहा था उनके बीच। बर्फ की पतली दीवार दोनों में से कौन तोड़ता? बहुत दिन बीतने पर दिव्या ने यह प्रयास किया, वह यह तो जान गयी थी कि चुप्पा प्रशान्त ऐसा कोई दु:साहस नहीं करेगा लेकिन वह यह नहीं जानती थी कि ...प्रशान्त के अवचेतन में तैरते कुछ स्वप्न चेतन से टकरा कर लहुलुहान हो चुके हैं।
“प्रशान्त सर, मि. राव का आपके बारे में ख्याल है कि आप अब तक के इंस्ट्रक्टर्स में बेहतरीन हैं उनके शब्दों में ` वण्डरफुल फ्लायर' हैं। फ्लायिंग भी आपकी बहुत सधी हुई है। कहां से सीखा?”
“मुम्बई के एक फ्लायिंग क्लब से।”
“ फिर किसी एवियेशन कंपनी में पायलट क्यों नहीं बने?” दिव्या आश्चर्य से पूछती।
“ नौकरी में ही बंधना होता तो...”
“ तो...”
“ नहीं बंधना चाहता।”
“ तभी शादी भी इसीलिये नहीं की।”
“ हां एक तरह से।”
“ अभी तो वक्त है...”
“ ज़रूरी तो नहीं...”
“ मेरे ख्याल में ज़रूरी है... न सही शादी कोई सोलमेट तो...”
“ मैं ने ज़िन्दगी में ऐसे कॉलम रखे ही नहीं, कुछ जीवन स्वतन्त्र, निरुद्देश्य भटकने के लिये भी होने चाहिये न इस समाज में ...किनारे बैठ कर तल का बहाव देखते हुए।”
“ झूठ है आपका यह फलसफा! खुद को बरगलाने का एक तरीका। अच्छा एक बात कहो प्रशान्त... जब मैं नहीं आती तुम पूरे बैच के सोर्टीज़ कैन्सल क्यों करवा देते हो?”
“ किसने कहा?”
“ राधिका ने।”
“ बेवकूफ है वह...दैट इज़ शीयर कोइन्सीडेन्स...।”
“ तो क्या हमारे बैच की फेयरवेल ट्रीट भी कोइन्सीडेन्टली उसी दिन आपने तय की है जिस दिन मेरा जन्मदिन है?” दिव्या ने आंखें बड़ी - बड़ी करके पूछा।
“ शायद!” प्रशान्त मुंह फेर कर मुस्कुरा दिया।
दिव्या ने उसकी आंखों में गहरे झांक कर देखा फिर मुस्कुरा कर अपना बैग उठा कर ` गुड डे सर' कह कर मुड़ गयी। वह देर तक उसकी जाती हुई आकृति देखता रहा। दूर जाकर उसने भी मुड़कर देखा और दोनों मुस्कुरा दिये थे।
दिव्या का फ्लायिंग का शौक और कोर्स दोनों पूरे हो गये थे। फिर भी वह और प्रशान्त मिलते रहे। प्रेम जगा और अपने पूरे त्रिआयामी विस्तार के साथ दोनों के वज़ूदों पर छा गया। कभी दोनों शहर के खूबसूरत स्थानों पर मिलते...खुले आकाश के नीचे तो कभी दैहिक आकर्षण के वशीभूत प्रशान्त के फ्लेट की बन्द नीली जादुई दीवारों के बीच गायब हो जाते। कभी उस फ्लेट की छत पर दोनों समानान्तर लेट संध्या और रात्रि के बीच का संक्रमणकाल निहारा करते। शून्य के नीचे लेटे हुए तारों को एक - एक कर निकलता हुआ देखने में अनूठा सुख मिलता। प्रत्येक सितारा उदित होते हुए अथाह गगन में गहराई के नये विस्तार का संकेत करता। ये गहराइयां अदृश्य हाथों से उन्हें गोद में उठा लेतीं और तब यह कहना कठिन हो जाता कि धरती सिकुड़ कर उनके आकार व देह में आ गई है या वे ही विस्तृत हो इस जगती से एकाकार हो गये हैं।
प्रशान्त फ्रीलान्स इन्स्ट्रक्टर के तौर पर फ्लायिंग सिखाता रहा और दिव्या ने बतौर सेल्स एक्जीक्यूटिव एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में नौकरी कर ली। प्रशान्त के लिये दिव्या जीवन भर के लिये सबसे निकट और सबसे प्रिय हो गयी थी। उसके जीवन्त प्रेम ने उसके जीवन को नवीन प्रेरणा से भर दिया था... उसे लगने लगा था कि वह अब भविष्य की दुर्गमतम अड़चनों का सामना हंस कर कर जायेगा।
प्रेम उनके बीच पूरे वेग के साथ बह रहा था, दिव्या के किनारों पर पूरी पारदर्शिता के साथ और प्रशान्त के किनारे अब भी कहीं धुंधला जाते थे, जब भी कभी दो प्यार करने वाली बेचैन रूहों से साथ जीवन जीने की बात उठती। शादी!
शादी के नाम पर प्रशान्त ठहरना चाहता था। तीन - चार साल और।
“कैसे प्रशान्त... मैं २४ की हो चुकी हूं। पापा कब तक मानेंगे?”
“तो पापा को गुडबाय कर कर, यहां मेरे साथ रहने चली आओ। अब तुम पचास फेरे लगा लो या एक भी मत लगाओ हो तो मेरी ही ना।”
“सो तो है।”
“ देखो दिवी, मेरी कुछ व्यक्तिगत परेशानियां हैं जिनसे में कुछ सालों में उबर आऊंगा, फिर अमेरिका चल कर सैटल होंगे।”
“क्या? प्रशी, परेशानियां तुम मुझे तो बता ही सकते हो।तुम्हीं कहते हो मैं सोलमेट हूं तुम्हारी।”
“बताऊंगा दिवी वक्त आने दो।जल्दबाज़ी मत करो।”
प्रशान्त के साथ जीवन बिताने के निर्णय में दिव्या को कोई अड़चन नज़र नहीं आती थी। सांवला सलोना आकर्षक व्यक्तित्व, संतुलित व्यवहार, परिवार एक आम उच्च मध्यमवर्गीय ढांचे का, पूना शहर के बीचों - बीच अपना बड़ा सा पुराना घर जहां उसके आई - बाबा रहते हैं। सांगली के आस - पास अंगूरों और आमों के कुछ बाग जिन्हें प्रशान्त के बड़े भाई संभालते हैं, बड़ी बहन की शोलापुर में शादी हो चुकी है। कहीं कुछ भी तो उलझन नहीं।
उसे यह समझ नहीं आता था कि क्यों अपने माता - पिता को शहर में अकेला छोड़ प्रशान्त ने शहर से बाहर फ्लायिंग क्लब के पास, अपना वन बेडरूम फ्लैट ले रखा था। शायद दूरी की वजह से, पर फ्लायिंग क्लब की नौकरी तो अस्थायी थी, सालाना कान्ट्रेक्ट पर। हर साल उसका कॉन्ट्रेक्ट नया बनता। अब बहुत हो गया, किसी एविएशन कंपनी में पायलट के पद पर आवेदन करने के लिये उसे मनाना ही होगा। फ्लायिंग उसके लिये उसका पैशन है, यह बात वह अच्छी तरह जानती थी।
एक रात दोनों प्रशान्त के फ्लैट की टैरेस पर बैठे थे, नि:सीम आकाश को निहारते। मिग २१ विमानों का अभ्यास जारी था। जू...म ...धरा से उठते... अपने पीछे ज्वालापुंज लिये उड़ते विमानों की गति मोह रही थी...। दोनों चित्रलिखित से उस रात्रिकालीन अभ्यास को देख रहे थे।
“प्रशांत, तुम फ्लायिंग क्लब छोड़ कर एयरफोर्स क्यों नहीं जॉइन कर लेते? मैं देखती हूं कि तुम बड़ी हसरत से इन जहाजों को देखा करते हो। मेरे ख्याल में तुम उड़ा ही लोगे ये मिग्स।”
एक पल प्रशान्त चुप रहा...दिव्या की सुघड़ कोमल उंगलियां उसके हाथों को सहला रही थीं। कहीं उसका अहं पिघला और उसके मन के ताले अचानक टूट गये।
“दिवी, ये जहाज... ये मिग २१ ...मैं उड़ा चुका हूं।” प्रशान्त ने आकाश में देखते - देखते ही कहा। जैसे एक सम्मोहन के तहत कोई पिछले जन्म की बात याद आई और अचानक बिना सोचे समझे कह दी हो।
“ हँ...कैसे?” दिव्या हैरत से उसका चेहरा देख रही थी। रात की नीली - काली परछांई में जो एक रहस्य से चमक रहा था।
“ एयरफोर्स में रहा हूं एक साल मैं। अपने कोर्स का टॉपर था मैं।” निगाहें आसमान में ही टंगी थीं और एक गर्व आंखों में विमानों के ज्वालापुंज सा ही धधक रहा था। उसी तरह बैठे हुए उसने गहरी सांसे लीं, उसके चौड़े कन्धे उत्तेजना से ऊपर नीचे हो रहे थे।
“झूठ!” दिव्या की आंखें फैल गयी थीं आश्चर्य से।
उसने चेहरा नीचे किया, दिव्या के चेहरे पर रेत की तरह किरकिराते संशय पर खिसियाते हुए बोला। “ तो झूठ ही सही।”
“ प्रशान्त! क्या कह रहे हो तुम... मुझे समझ नहीं आ रहा... फिर एयरफोर्स छोड़ी क्यों? यहां इस प्राइवेट फ्लाइंर्ग क्लब में छोटे जहाज उड़ाना सिखा रहे हो ... एयरफोर्स छोड़कर?”
“...।” प्रशान्त चुप हो गया।
“ बोलो ना!”
“ क्या बोलूं। झूठ ही ...तो। मैं गप्प मार रहा था।”
दिव्या के चेहरे पर हैरत, अविश्वास, परेशानी न जाने क्या - क्या नहीं था कि प्रशान्त सहम गया कि कहीं गलत तो नहीं किया दिव्या को यह सब बता कर?
“ छोड़ो न...मज़ाक कर रहा था मैं।”
“ कैसे छोड़ूं प्रशान्त... कितनी गंभीर बात कह गये तुम मज़ाक में?”
दिव्या उसी उलझन में कॉफी जल्दी जल्दी खत्म कर, स्वयं से उलझती - सोचती सी वहां से चलने को उठी तो प्रशान्त ने उसका हाथ पकड़ कर फिर बिठा दिया।
“ बैठो न...।”
“ नहीं देर हो गयी प्रशान्त। पापा डांटते हैं, दस बजे के बाद बाहर रहने की इजाज़त नहीं मुझे, तुम जानते तो हो।” झुंझला कर वह बैग समेटने लगी।
“ सुनो... दिवी वह कोरा मज़ाक था। किसी से कहना मत। पापा से भी...
“ प्रशान्त, मैं ने बहुत लड़के देखे हैं, बोस्टिंग करते, अपनी उपलब्धियों का सच - झूठ बखानते। पर तुम... तुम तो अपना बड़ा से बड़ा गुण, उपलब्धि भी छिपाकर रखते हो। आज से पहले झूठ बोलते हुए मैं ने तो तुम्हें नहीं देखा। वह भी ऐसे...अपने पहले प्यार, अपने पैशन फ्लायिंग को लेकर।या तो तुम झूठ नहीं कह रहे थे, और झूठ था तो उसके पीछे कोई सच ज़रूर होगा।” दिव्या कुछ नाराज़ लगी। पर वह महज नाराज़गी नहीं थी उसके स्वरों में एक तटस्थ शंका थी, जिसने प्रशान्त को ठण्डे पसीनों में डुबो दिया।
घर पहुंच कर, रात भर दिव्या परेशान रही। सुबह जब रहा नहीं गया तो नाश्ते की टेबल पर उसने अपने रिटायर्ड सेनाधिकारी पिता से तफसील से बात की।
“ पापा ऐसा हो सकता है कि कोई ट्रेनिंग के बाद एक ही साल में एयरफोर्स छोड़ कर आ जाये।”
“ नहीं दिव्या, ट्रेनिंग के एक साल के भीतर यूं फौज से निकल आना आसान नहीं है। पेपर्स डालने होते हैं। फौज आसानी से एक ट्रेन्ड पायलट को नहीं छोड़ती। मुआवज़ा देना होता है ट्रेनिंग के दौरान हुए खर्चे का तीस से चालीस लाख के करीब।”
“ यूं ही बैठे बिठाये ऊपर से मिग २१ जहाज के गुज़रने पर कैसे अचानक किसी के मुंह से निकल सकता है कि - उसने ये मिग्स खूब उड़ाए हैं बल्कि वह अपने बैच का टॉपर था।” दिव्या बुदबुदाते हुए गहरी सोच में डूबी थी।
“ कहीं कुछ गड़बड़ है, दिव्या। जिस प्रशान्त के शांत - रहस्यमय, चुप्पे से व्यक्तित्व से तुम यूं प्रभावित हो उसके पीछे कोई हिस्ट्री ज़रूर है। लेट मी फाइन्ड इट आउट। आफ्टर ऑल इट इज़ द मैटर ऑफ योर लाइफ।”
दिव्या के पापा का फौजी दिमाग और सम्पर्क काम कर रहे थे, जल्द ही उन्हें पता चल गया कि दो साल पहले तेजपुर से तीन नये - नये पदस्थ युवा फ्लायिंग ऑफिसर्स रातों - रात गायब हो गये थे। उनमें से एक था पी.प्रसून जोशी, महेश राव, सुजॉय बनर्जी... हो न हो प्रशान्त जोशी ही प्रसून है। लफ्टिनेंट कर्नल एस. के. रावत की सूचना पर वायुसेना सजग हो गयी।
प्रशान्त को यह आशंका उसी दिन हो गयी थी जब अपने सवालों में उलझ कर दिवी जल्दी ही उसके पास से लौट गयी थी। उसके बाद फ्लायिंग क्लब या उसके फ्लैट पर आना तो दूर वह ऑफिस में भी नहीं मिली, उसने छुट्टी ले ली थी सप्ताह की। उसी रात मां का बी. पी. हाई हो गया और उन्हें नर्सिंग होम में दाखिल करना पड़ा। वह उसकी बीमार मां से अस्पताल तक मिलने नहीं आयी जबकि उसकी सहकर्मी दीपाली को वह फोन पर सूचित कर चुका था। स्वयं से उलझता हुआ वह हॉस्पीटल की भागदौड़ में व्यस्त हो गया। उसे विश्वास था कि दिवी उसकी आत्मा का हिस्सा है ... वह ऐसा कभी नहीं करेगी और कभी नहीं चाहेगी कि उसका प्रशान्त किसी परेशानी में फंसे। प्रशान्त उससे उसी शाम, इस विषय पर विस्तार से बात करना चाहता था, किसी को न बताने के लिये आगाह करना चाहता था... लेकिन वह घर पर फोन पर भी नहीं मिली, फोन सर्वेन्ट ने उठाया और कह दिया ` घर पर कोई नहीं है।' कहां गई होगी अचानक दिव्या अपने पापा के साथ उसे बिना सूचित किये। आखिर क्या हुआ होगा कि उसे सूचित करने का समय नहीं मिला होगा!
सप्ताह भर ही हुआ था, मां उसी दिन ही तो नर्सिंगहोम से घर लौटी थी। बाबा अस्पताल की भागदौड़ से निढाल पड़े थे। बड़ा भाई सांगली से अपनी पत्नी के साथ आ गया था।
सुबह - सुबह एयरफोर्स पुलिस उसके घर के सामने थी। वह हतप्रभ था। दो बरस पुराना उसका दु:स्वप्न सच बन कर सामने खड़ा था। प्रशान्त का चेहरा भय से विकृत और पीला हो गया। एयरफोर्स पुलिस की जिप्सी में बैठते हुए उसका अस्तित्व रक्तहीन, संज्ञाहीन हो गया था।उसे द्वार पर खड़े बाबा, बड़े भैया और भाभी किसी का चेहरा दिखाई नहीं दे रहा था। अन्दर से आती आई की आवाज़... “कहां हो तुम सब? बाहर क्या हो रहा है?” भी नहीं सुनाई दे रही थी। उसके आगे दिव्या का चेहरा अपनी क्रूरता के साथ मुस्कुराता दिखाई दे रहा था।उसने निचला होंठ कस कर काट लिया और बुदबुदाया - “ तुमने सब बरबाद कर दिया दिव्या! क्या तुम समझ सकीं थीं सोलमेट का मतलब?”
उस वक्त उसका मन कर रहा था कि सामने होती तो खींच कर चांटा ज़रूर मारता... और कहता कि कुछ दिन इंतज़ार कर लेतीं यह सच मैं स्वयं तुम्हें बताता।शादी की जल्दी तो तुम्हें ही थी न दिवी... फिर यह क्या हुआ बीच में? प्रेम, विश्वास सब पल भर में ढहा दिये? यू ब्लडी दिव्या... बिच!
बीमार मां को तो बाबा और भाई ने भनक ही नहीं लगने दी। बाहर से बाहर ही प्रशान्त प्रसून जोशी को ले जाया गया पहले लोहेगांव फिर उसी रात चेतक हैलीकॉप्टर से शिलांग। जहां उसका कोर्टमार्शल होना था। कोर्टमार्शल संक्षिप्त ही रहा क्योंकि उसने अपने हिस्से का सच स्वीकार कर लिया था और उसे भगोड़ा साबित कर दिया गया। तीन साल की जेल की सज़ा के तहत उसने पूना यरवदा जेल में भेजे जाने के लिये प्रार्थना की जो बिना हील - हुज्जत के स्वीकृत हो गई।
उसे अच्छी तरह याद है, उसके यूं एयरफोर्स छोड़कर चले आने को बाबा ने कभी स्वीकारा नहीं, वह सीधा बाबा के पास पहुंचा ही कहां था? दो महीने सांगली के पास के गांव में बुआ के ससुराल में छिप कर रहा। किन्तु फूफा जी की ज़िद पर उसे बाबा को फोन करना ही पड़ा। बाबा तुरंत पूना से सांगली आये, बुरी तरह आहत, क्रोधित... बाबा का सामना होते ही उसके कान गर्म और भारी हो गये, सिर में अप्रिय शोर गूंज रहा था...वह शर्म से जलता हुआ पिता के सामने खड़ा था और आंखों में फैली एक पनीली परत के धुंधलके से उसने देखा कि निराशा, क्षोभ व दुख से उनका चेहरा कैसा काला पड़ गया था। होंठ भिंच गये थे और माथे पर बल पड़ गये थे। बाबा ने कमरे से बुआ और फूफा जी को बाहर कर दिया था।
कितनी बहस हुई दोनों के बीच उसी विषय पर, उन्हीं दलीलों के साथ बारम्बार। आखिर बाबा ने हथियार डाल दिये।
“बेटा कोई सही तरीका भी तो हो सकता था एयरफोर्स छोड़ कर चले आने का।”
“ चालीस लाख की ट्रेनिंग कॉस्ट... और फिर बाबा, तब कितना वक्त बरबाद होता। एक ट्रेण्ड किये हुए पायलट को वह सहज ही थोड़े ही छोड़ देते।”
“ और अब?” बाबा गुस्से में गुर्राये थे... अब नहीं होगा वक्त बरबाद? यूं छिपे घूमोगे? दो बार मेरे पास और तुम्हारे बड़े भाई के पास सांगली तक में फोन आ चुका है। वे स्वयं भी आयेंगे। क्या उत्तर दूंगा मैं? चाहो तो सरेण्डर...”
“नहीं बाबा वह न हो सकेगा अब... अब कोई फायदा नहीं... मान भी लूं आपकी बात तो... वही कोर्टमार्शल की जलालत... पनिशमेन्ट तो है ही। मेरी आपसे विनती है कि अब फोन आये तो हो सके तो कह दीजियेगा कि मैं आपके पास आया ही नहीं...बाबा, मैं अकेला नहीं मेरे २ और साथी भी छोड़ आए हैं।अरे, बंधुआ थोड़े ही थे एयरफोर्स के... “
“ बंधुआ नहीं थे...पर तुम्हारी ट्रेनिंग में जो लाखों में सरकारी रूपया बरबाद हुआ उसका क्या? वह बिना भरे तुम छूट जाओगे? फिर भी तुम स्वयं को अपराधी नहीं मानते? तुम एयरफोर्स के अपराधी हो प्रशान्त। जल्द ही भगोड़े करार कर दिये जाओगे।”
प्रशान्त मायूस होने लगा था। किन्तु वह अपने फैसले को गलत नहीं मानने को तैयार था, उसे लगता था कि अपनी प्रतिभा और सूझबूझ के चलते, वह बेहतर कैरियर का अधिकारी है और एयरफोर्स उसके लिये सही जगह नहीं थी। पर फिर वह बेहतर और सपनीली जगह क्या होती, इसका भी उसे ठीक - ठीक नहीं पता था... कोई अन्तर्राष्ट्रीय एवियेशन कंपनी!
“ वह फैसला भी तुम्हारा था, अब यह फैसला भी तुम्हारा है। जो हुआ सो हुआ मि. प्रशान्त प्रसून जोशी... अब तो तुम्हें तुम्हारी रैंक के साथ... फ्लायिंग ऑफिसर जोशी कह कर पुकार भी नहीं सकता, जिससे गर्व से सर उंचा होता था... हां तो मि. जोशी, तुम किसी से कोई भी, किसी भी तरह का संपर्क मत रखना। न चिट्ठी, न फोन! हमसे नहीं, उन दो और साथियों से भी नहीं। बस हो सके तो यहां बुआ - फूफा जी की खेती में मदद करना। यहां इनका एक बागीचा है अलफांसो आमों का... उसका हिसाब - किताब देखना। अगले छ: महीने पूना नहीं आना है यह याद रखना। हममें से तुमसे मिलने भी कोई नहीं आयेगा... कुछ महीनों की बात है। बस उम्मीद ही है कि फिर मामला ठण्डा हो जायेगा... पर मुझे तो यह समझ नहीं आता कि उसके बाद भी फिर तुम करोगे क्या?
“ पता नहीं बाबा...”
“ छोड़ने से पहले नहीं सोचा था? मुझे डर है प्रशान्त कि तुम यह अपराध करके बच सकोगे...भगवान करे बच जाओ। भगवान तुम्हें क्षमा करे।” बाबा बड़बड़ाते हुए बुआ के कमरे में चले गये थे।
उनकी वह टूटती - बिखरती आकृति आज जेल में भी प्रशान्त के मर्म को आहत कर जाती है। आखिरकार वह उनके वयस्क बेटे का लिया गया फैसला था तो उन्हें अन्त तक विवशता में उसकी सहायता करनी ही पड़ी। तब भी जब वह सांगली में तीन माह ही बिता कर, अधीर हो मुम्बई चला गया था और एक अर्न्तराष्ट्रीय स्तर के फ्लायिंग क्लब से ट्रेनिंग ले विमानचालक बनने की दिशा में शून्य से एक नयी शुस्र्आत करने जा रहा था। तब उसकी मोटी फीस के लिये उन्होंने एक अंगूर का छोटा बागीचा बेच कर उसके हाथ में एकमुश्त पैसा रखा था। दो वर्ष में उसकी ट्रेनिंग पूरी हो गयी थी। हालांकि फिर भी बाबा लगातार डरते रहे थे। वह एक भारतीय एवियेशन कंपनी में आवेदन करने ही जा रहा था कि सुजॉय बनर्जी के पकड़े जाने की खबर समाचार पत्रों में आ गयी थी। वह मुंबई छोड़ कर फिर पूना चला गया और बाबा की रज़ामन्दी से शहर से बाहर एक फ्लैट लेकर रहने लगा। जल्दी ही उसने एक फ्लायिंग क्लब में सालाना कान्ट्रेक्ट पर फ्लायिंग इन्स्ट्रक्टर का काम पकड़ लिया। अपना असली परिचय छिपा कर वह यह काम करता रहा।
बाबा के डर हमेशा सही ही साबित हुए हैं... और उसके फैसले गलत। गलत फैसलों की एक श्रृंखला ही थी कि वह आज इस यरवदा जेल की रौनक बढ़ा रहा है। वह हंसा स्वयं पर। जेल का वह पीपल भी थरथराया... “ यू टू ब्रूटस...” कह कर वह बुदबुदाया।
१७ वर्ष उम्र थी जब उसका एन. डी. ए. में चयन हुआ था। बाबा नहीं चाहते थे उसे फौज में भेजना।
“ तेरा मिजाज़ अलग है रे प्रशान्त... फौज के लिये नहीं बना तू, बहुत रगड़ाई होती है वहां। मैं और तेरी आई तुझे दूर नहीं भेज सकते। इतना होशियार है आई.आई. टी. कर। “
“रगड़ाई... अब मैं बड़ा हो गया बाबा... कौन डरता है रगड़ाई से? अब तो एन.डी. ए. ही जॉईन करना है... आई तू समझा न बाबा को... सांगली से पूना दूर कितना है? मैं सनडे के सनडे आऊंगा न...” मां के गले से लिपट कर कहा था उसने।”
“ किस होश में है रे, तू? एन. डी. ए. से ऐसे नहीं आने दिया जाता अब तो तू साल भर के बाद ही मुंह दिखाएगा।” बड़े भैया हंस कर उसके सर पर चपत मार कर बोले थे।
वह बड़े भैया के साथ जोश से भरा हुआ, नेशनल डिफेन्स अकादमी के द्वार पर खड़ा था। उसे छोड़ने बाबा भी आते पर आमों की कलम लगनी थी बरसात की शुस्र्आत के दिन थे। वे गांव में व्यस्त थे।
आज सोचता है तो उसे लगता है कि जब वह एन. डी. ए. की तीन वर्ष की उस कड़ी हाड़ - तोड़ ट्रेनिंग और अनुशासन से नहीं भागा, उसके बाद ए. एफ. ए. की एक वर्ष की फ्लाइंर्ग की ट्रेनिंग भी कम दुश्कर नहीं थी। तब वह किस चीज़ से भागा था? जहाज उड़ाना उसका एकमात्र सपना और पागलपन की हद तक पहुंची कामना था ... जिसकी वजह से वह इतना लम्बा सफर पार करके आया था। सच ही तो है, अनुशासन और कड़ी मेहनत से वह कब भागा? उसने तो अपने कोर्स में प्रथम स्थान प्राप्त किया था। आई - बाबा, भैया - भाभी गर्व से भर गये थे पासिंग आऊट परेड में जब वे सब आये थे, और कोर्स के टॉपर के तौर पर उसका नाम पुकारा गया था। कितने जोश में उसने अपने साथियों के साथ टोपियां उछाली थीं।
उसकी पहली पोस्टिंग तेजपुर, आसाम में हुई थी।
यकायक कड़ी ट्रेनिंग का मार्गदर्शन छूट गया था और वह अकेला था, स्वतन्त्र वायुसेना अधिकारी था। फ्लायिंग ऑफिसर पी.प्रसून जोशी। पैर ज़मीन पर पड़ते ही नहीं थे। अब लड़ाकू जहाज़ उड़ाने के दिन थे... अभी मिग २१ की स्क्वाड्रन में वह अपना अच्छा स्थान बनायेगा, फिर बाद में जांबाज़ मिराज विमानों की स्क्वाड्रन में ज़रूर जायेगा। या फिर हवा में अठखेलियां करते पूरे भारत में भारतीय वायुसेना को आमजन से जोड़ते, जगह - जगह एयर शो करते सूर्यकिरण की युनिट में शामिल होगा। कितना रोमांचक लगता है जब हवा में में दो विमान गुलाबी धुंआ छोड़ते हुए एक दूसरे को क्रॉस कर दिल का आकार बनाते हैं और तीसरा विमान ज़ू....म से आकर उन दिल की आकृति बनाते विमानों के बीच से तीर की आकृति बनाता हुआ निकल जाता है।
सपने ही सपने लेकर उसने तेजपुर पहुंचने के दूसरे दिन सी. ओ. को जाकर रिपोर्ट किया। एक शुष्क सा गंजा सा व्यक्ति था वह। उसे यहां बहुत तवज्जोह नहीं मिली, एक शुष्क औपचारिकता भरा रवैय्या। अलबत्ता पहले दिन के उसकी टांग खींचने के प्रयोजन से उसके सीनियर्स और साथियों द्वारा किये गये नाटक और फिर मज़ेदार पार्टी ने गुदगुदाया तो था ही साथ ही उस नाटक ने उसके व साथी अफसरों के बीच की अजनबियत की दीवार ढहा दी थी। खासतौर पर फ्लाइट कमाण्डर उसे मित्रवत व जीवन्त व्यक्ति लगा। वह एक क्रोनिक बैचलर(चिरकुमार) था।
आरंभ के दिनों में उसे अकेले जहाज उड़ाने के मौका ही नहीं मिलता था। छ: महीनों में तो उसकी पहली एकल उड़ान हो सकी थी। सोलह जहाजों की स्क्वाड्रन में दस जहाज खराब पड़े थे। छ: जहाजों से वरिष्ठ अधिकारी अपने उडाऩ घण्टे बढ़ाने की जुगाड़ में लगे रहते थे। कमाण्डिंग अफसर का दबाव इस हद तक बना रहता कि... आरंभ ही से उस पर हताशा तारी होने लगी थी। उसकी स्पष्टवादिता, उसका टॉपर होना उसके कमाण्डिंग ऑफिसर के अहम् के लिये कष्टकारी होने लगा था। वह तटस्थ रहा करता था, जबकि उसके अन्य कोर्समेट्स या उसके सीनीयर कोर्स के अफसर सी. ओ. के आगे झुके रहते और उसके घर आया - जाया करते। एक वर्ष के भीतर ही वह यह महसूस करने लगा था कि अब वह अपनी काबिलियत और अनुशासित व्यवहार के बल पर नहीं, चापलूसी से ही बढ़ सका तो आगे बढ़ सकेगा। उसने देखा कि उसके सीनीयर्स सपत्नीक अपने सी. ओ. की चापलूसी में लगे रहते थे। औपचारिकताओं और कृत्रिमता की कोई सीमा ही नहीं। उसका दम घुटने लगा था। उसके आदर्श और सहजता कुण्ठित होने लगे थे। उसने अतिआधुनिक जहाज़ उड़ाने की कल्पना की थी और वह मिग २१ उड़ाता था जिन्हें मीडिया ने फ्लायिंग - कॉफीन का नाम दे रखा था।
उस दिन वह, उसका रूममेट और दो और साथी जो तकनीकी अधिकारी थे, चारों बार में बैठे हुए थे। उसी दिन उसकी सी. ओ. से किसी बात पर बहस हुई थी। वह हताशा के घेरे में मन में गुस्सा दबाये बैठा था। बियर का दौर चल रहा था। चारों बार के लम्बे स्टूलों पर बैठे थे। धीमे स्वर में कोई ग़़जल चल रही थी। बार के काउन्टर के पीछे मिराज लड़ाकू जहाज का बहुत सुन्दर चित्र टंगा था। प्रशान्त उसी को घूर रहा था।
“हं टच द स्काय विद ग्लोरी... हंसी आती है इस वाक्य पर। आधे से ज़्यादा जहाज तो साल में खराब रहते हैं।”
“जो'( प्रशान्त प्रसून जोशी का लघुकरण), तुझे पता है अमेरिकन एयरफोर्स का भी यही हाल है यहां साठ प्रतिशत खराब रहते हैं तो वहां चालीस। यार मशीनरी है। पुराने जहाज हैं जिन्हें चलाये रखना है... हन्टर्स ने रिटायर होने में लम्बा समय लगाया है तो अब मिग्स को भी अपना समय तो पूरा करने दे।” यह उसका तकनीकी अधिकारी मित्र था।
“स्टिल यार वेरी फ्रस्ट्रेटिंग... एक साल हो जायेगा... मैं अभी `डे ऑप्स' भी नहीं हुआ।”
“ अभी वक्त है जो'... हो जायेंगे।” यह उसका रूममेट था, जो बहुत देर से चुप बैठा था।
“ तू हो जायेगा... तू पार्टीज़ में सी. ओ. के बच्चों की बेबी सिटिंग करता रहना। उसकी वाइफ को शॉपिंग कराते रहना... जल्द ही `डे ऑप्स' होकर `नाइट फ्लायिंग' किया करना।”
“ क्या बकवास कर रहा है यार तू।”
“ सही कह रहा हूं। बाकि सब यही तो कर रहे हैं।” प्रशान्त ने सिगरेट सुलगा ली।
“ न करो ये सब पर तेरी तरह भी नहीं कि हर वक्त शर्ट की बांह चढ़ा कर लड़ने पर ही उतारू रहो। व्यवहारिकता भी कोई चीज़ है। मनमानी तो नहीं कर सकते ना। सुननी पड़ती है, यार सीनीयर्स की।”
“ क्या सुननी पड़ती है गालियां? मां - बहन से नीचे उतरता ही नहीं...साला गंजा। तू सुन... सुन सुन कर बन जाना एक दिन टॉप नॅाच। मुझे तो एक ही साल में पता चल गया कि हम एक केंकड़ों से भरी बाल्टी में बैठे हैं... एक ऊपर चढ़ता है दूसरा उसे नीचे खींचने में लग जाता है बजाय इसके कि अपनी मेहनत से ऊपर जाये। प्रमोशन्स में...इतने फेक्टर्स काम करते हैं कि आपकी काबिलियत वहां दम तोड़ देती है। सी. ओ. की ज़्यादतियों पर जिसे देखो मुंह पर कार्क लगाये अन्दर तक भरा बैठा है, लेकिन ऊपर से `सर, यू आर द बेस्ट , वी हैव एवर सीन'।” प्रशान्त का चेहरा उत्तेजना से तमतमा रहा था।
“ जो' यार, अब ये तो तू फ्लाइट कमाण्डर के डायलॉग्स बोल रहा है। यह भाषा उसी की है जो तेरे मुंह से निकल रही है।तू उसकी बातों में मत आया कर वह तो छोड़ रहा है एयर फोर्स और जा रहा है सहारा में बढ़िया तनख्वाह पर।” प्रशान्त का रूममेट बोला।
“ बढ़िया तनख्वाह! अरे तनख्वाह तो हमारी भी ठीक - ठाक ही है... सिविल सर्विसेज़ के अफसरों जितनी ही पर उनका स्तर और हमारा स्तर कहीं मैच करता है?” यह महेश राव था।
“... कई मायनों में हम सिविल सर्विसेज़ के अधिकारियों से बेहतर हैं... वे पांचवी पास नेताओं की गालियां खाते हैं।” उसके रूममेट ने दलील दी।
“ हां उस हिसाब से हमारा स्तर अच्छा है। खाते हम भी गालियां हैं लेकिन सोफेस्टिकेटेड लोगों के मुंह से।” यह तकनीकी अधिकारी था।
“ उनके पास पावर है, पैसा है। और जितने सालों में हम यहां प्रमोशन पाकर कोई स्तर पाते हैं वे उतने सालों में दस बार प्रमोट हो जाते हैं।
“ दस बार प्रमोट होते हैं तो बीस बार ट्रान्सफर भी तो हो जाते हैं उनके। कुछ नहीं फेन्स के बाहर की ग्रीनरी देख रहे हो तुम वहां भी वही हाल है। बल्कि ज़्यादा बुरा हाल है।” उसके रूममेट ने कहा।
“ तब भी बाहर जाकर ही चरेंगे हम तो।” प्रशान्त बुदबुदाया।
प्रशान्त की हताशा का आवेग अपने चरम पर था। बहस के दौरान ही उसके संक्रामक विचारों और इरादों ने उसके साथियों को भी अपनी लपेट में ले लिया था। चारों बार से उठ कर कमरे पर आ गये थे। प्रशान्त की नसों में खून सरपट दौड़ रहा था। एक घूंट बियर का लेकर प्रशान्त ने एक गहरी सांस ली - “ तंग आ गया मैं इस डॉमिनेशन से। खोखली पार्टियों से। अंग्रेजों की छोड़ी हुई बेजा कवायदों को ये बंदरिया के मरे बच्चे सा चिपकाये अब तक डोल रहे हैं जबकि वक्त कितना बदल गया है। समय की बर्बादी से मुझे बहुत गुस्सा आता है। अब तक मैं ने बाहर सिविल एवियशन में अपना मुकाम बना लिया होता। और तू सुजॉय इंजीनियर है... यहां क्या कर रहा है? एयरफोर्स की पुरानी गाड़ियों की मेन्टेनेन्स में एक मैकेनिक की तरह लगा है। और यार महेश हम यहां क्या कर रहे हैं?”
“ यार प्रशान्त, तेरा कहना ठीक है...लेकिन... अब क्या किया जाये? अभी छोड़ना है तो दो एयरफोर्स को चालीस लाख का मुआवज़ा। पेपर्स डाल कर एयर फोर्स छोड़ने में पांच साल और बरबाद होंगे और फिर शून्य से शुस्र् करना कठिन होगा।” महेश राव ने विवशता जाहिर की।
“ अरे क्यों पेपर्स डालने का। सीधे निकल जाओ। कोई जबरदस्ती है क्या? प्रशान्त सही कह रहा है।” सुजॉय चहका।
“ जबरदस्ती तो कोई नहीं है। हम कोई बंधक हैं क्या, नहीं रास आई एयरफोर्स, छोड़ दिया।” प्रशान्त फिर तमतमाया।
“ क्या फालतू बातें कर रहे हो तुम तीनों? भूल कर भी मत चले जाना।ऐसे नहीं जा सकते डेज़र्टर घोषित कर दिये गये तो मुंह छिपाते फिरोगे।” यह हर्ष था, प्रशान्त का रूममेट।
वे दोनों उसके कमरे से चले गये तब हर्ष देर तक प्रशान्त को समझाता रहा।
“एयरफोर्स का अपना गौरवशाली - संर्घषमय अतीत है, एक प्रभावशाली वर्तमान है और भविष्य में अपरिमित संभावनाएं हैं। जल्दी ही हमारे पास अच्छे आधुनिक विमानों की कमी नहीं रहेगी। सुखोई - ३० तो आ ही गये हैं। किस संस्थान में भीतर जाकर देखने पर कमियां और राजनीति नहीं होती या चापलूसी नहीं चलती? तू ने इसके सकारात्मक पहलू भी अच्छी तरह देखे हैं। क्या तूने इस वर्दी को पहन कर सुख अनुभव नहीं किया है?”
“किस जगह असंतुष्टी नहीं होती? मनपसंद कैरियर चुनने के बाद भी मैं ने बहुतों को पछताते देखा है। नौकरी मिल जाने से पहले वह एक सपना होती है। क्योंकि कल्पना और सच्चाई के बीच की खाली जगह में एक समय बाद असंतुष्टी अपनी जड़ जमाती ही है। मुझे पता था तू सूर्य किरण में जाना चाहता था। वह अब भी जा सकता है। सुपीरियर्स से मिल... इस दिशा में काम कर।कल तूने देखा है क्या? तू काम कर ना! तुझे क्या करना इस सी. ओ. से उसका टैन्योर पूरा हुआ और वह चला जायेगा।”
प्रशान्त चुप था। प्रतिक्रिया विहीन। फिर भी हर्ष ने सोने से पहले खिड़की खोलते हुए कहा, “ प्रशान्त चुपचाप छोड़ कर जाने की सोचना भी मत। जाना ही है तो प्रॉपर चैनल से...”
दूसरी मीटींग एक सप्ताह बाद महेश राव के कमरे में हुई थी।
“ यार मेरे पापा ने तो कह दिया कि आ जाओ, हम तुम्हें सीधे देश से बाहर भेज देते हैं । बहुत लोग हैं हमारे बाहर लन्दन में, अमेरिका में, आस्ट्रेलिया में। जहां का भी वीज़ा मिल जाये दो वीक में।” महेश सैटी पर जमते हुए बोला था।
“ तेरा क्या है? तेरे पापा के बढ़िया सम्पर्क सूत्र हैं, राजनीति में।”
“ ... मेरे बाबा को तो मेरा यह फैसला नामंजूर होगा। पर मैं ने सोच लिया है फ्रेश स्टार्ट करना ही है। कहीं बाहर जाकर फ्लाइंर्ग क्लब जॉईन करके रिक्वायर्ड आवर्स पूरे करके किसी सिविल एवियेशन कंपनी में जॉईन करना है। कितनी नई प्राइवेट कंपनियां इस क्षेत्र में आ रही हैं।”
“ हमारा तो अभी भी मामला ऐसे ही है। नहीं मालूम किधर जायेगा, क्या करेगा पर प्रशान्त एयरफोर्स छोड़ना ही है। तेजपुर में ही दिल घबरा गया था फिर अब ये नलिया जैसा उजाड़ प्लेस का पोस्टिंग हमसे नहीं झेला जायेगा। समुद्र के किनारे एक गांव जिसके अस्सी किलोमीटर आगे तक कोई दूसरा गांव नहीं। मैं नहीं जॉइन करने वाला। और ये एयरफोर्स में एक जगह नहीं है ऐसा... कई स्टेशन हैं...। डेज़र्ट से लेकर कालेपानी में, लेह में...आसाम में... ऐसा जगह पर भटकने के लिये तो जॉइन नहीं किया था एयरफोर्स सच्ची अगर पता होता तो कि ऐसा - ऐसा पोस्टिंग होता है ...” सुजॉय सचमुच अपनी नलिया पोस्टिंग हो जाने की वजह से बहुत आहत था। कहां कलकत्ता कहां नलिया। घर पहुंचने में ही आधी छुटि्टयां बीत जायेंगी।
“ लकी है तू कि आर्मी में नहीं है... वहां तो इससे भी उजाड़ पोस्टिंग मिलती है... और नेवी... वहां तो जहाजों पर ही साल दर साल निकालने होते हैं ज़िन्दगी के... तब तक अगर शादी हो गई हो तो ... एक साल ही में बीवी भी भाग जाये किसी के साथ।” महेश ने खिसियानी हंसी हंस कर कहा।
“ बात पोस्टिंग की नहीं है, यारों। संतोषजनक रूप से कैरियर बन रहा हो और काम करने की स्वतन्त्रता हो तो मैं रेगिस्तान में टैण्ट में रह सकता हूँ। बल्कि यही ट्रेनिंग हमें दी गई है। बात व्यक्तिगत असंतुष्टि की है। मेरे लिये फ्लाइंग पैशन है, और मैं यहां उससे मरहूम कर दिया गया हूँ... सी. ओ. की मनमानी के चलते।...”
“छोड़ो बेकार की बातें... प्रशान्त यहां से निकलने की सोचो।”
“ सोचना क्या है कल ही एप्लीकेशन डालो... एनुअल लीव की... दो महीने की पे उठाओ...सामान है ही कितना ... लो और घर के अलावा कहीं भी जाओ। फिर इधर का स्र्ख ही मत करना। चालीस दिनों की छुट्टियों में काफी वक्त मिल जायेगा एक बार और सोचने का और आगे की जिंदगी प्लान करने का। साल भर छिप कर रहना होगा फिर... बस। एक नयी शुरुआत।”
“ और क्या, कौन पूछता है? तीन अफसर इतनी बड़ी एयरफोर्स से चले गये तो कौन ढूंढने बैठता है। दुनिया कितनी बड़ी है, साल भर पूछताछ फिर छुट्टी।”
“ हां अपन तो सीधे विदेश की तरफ उड़ जायेगा।”
“ यू लकी बास्टर्ड!”
तीनों के अन्दर एक पिघली हुई धातु ...चट्टान में बदल गयी, मन, बुद्धि, आत्मा तीनों एक हो संकल्प में बदल गये। तीनों ने वही किया जो तय हो चुका था। अलग - अलग दिन, अलग - अलग दिशा की अनजानी ट्रेनों में तीनों चले गये। बिना एक दूसरे को बताये कि पहले वे कहां जायेंगे...फिर कहां... क्योंकि यही तय हुआ था तीनों के बीच कि... यही ठीक है...अगर एक पकड़ा जाये तो टूटने पर भी...दूसरे के बारे में पुलिस को पता न दे सके।
महेश राव सच में `लकी बास्टर्ड ' रहा। उसका आज तक पता नहीं चला है। सुजॉय तो तभी पकड़ा गया था जब प्रशान्त मुंबई में था। बेवकूफ, अच्छा भला बैंगलोर की एक मल्टीनेशनल कंपनी में काम कर रहा था। न जाने किस झौंक में एयरफोर्स वाला ही क्रेडिट कार्ड इस्तेमाल कर बैठा था। मुंह टेढ़ा करके प्रशान्त बुदबुदाया - “ हँ...यहां भी स्साला वही गर्लफ्रेण्ड का किस्सा!”
गिफ्ट दिला रहा था, तानिष्क की डायमण्ड रिंग।गर्लफ्रेण्ड के चक्कर में भूल गया कि एयरफोर्स उस क्रेडिटकार्ड पर ट्रेक रखे हुए है। पर क्रेडिटकार्ड तो बेजान था, पकड़वा दिया... लेकिन वह बिच दिव्...अगर उस दिन उसने भावुक होकर उसे न बताया होता तो? हंह... छोड़ो...लेकिन क्या वह महेश सच में उड़ गया, बच निकला...? उसे याद आया कि उसने कोर्टमार्शल के दौरान एक बात सुनी थी। कोई जांच अधिकारी दूसरे अधिकारी को बता रहा था, “ एक आर्मी का भगोड़ा अफसर था। दस साल कनाडा रह कर लौटा...इस इत्मीनान से कि अब कौन पूछता है। पर दस साल बाद भी...एयरपोर्ट पर ही धर लिया गया।”
लगता है,महेश का भी यही हश्र होगा। उसे एक क्रूर सुख मिल रहा था यह कल्पना करके कि एक दिन महेश लौटे और एयरपोर्ट पर ही धर लिया जाये।
प्रशान्त के सिर पर तना छतनार पीपल चांदनी में झिलमिला रहा है।पत्ते मरमर की आवाज़ में गुनगुना रहे थे।
“स्साला फिर बढ़ गया... इसके भी फिर से पर कटने के दिन आ गये हैं।” प्रशान्त झुंझलाया। सुखोई विमानों का रात्रि अभ्यास आरंभ हो गया है। वह आकाश में टकटकी लगा कर देख रहा है। न जाने कब कान्स्टेबल राजाराम उसके पास आ खड़ा हुआ है।
“ जयहिन्द सर जी। आज खाना खाने का मूड नहीं क्या? आज डी सैल के कैदियों ने आलू के परांठे बनाये हैं सबके लिये। आज आप शिकायत नहीं कर सकेंगे खाने की।”
“ आज क्या तारीख होगी राजाराम?”
" तीन अगस्त... अरे....सर जी... बस दो महीने की और जेल है फिर तो आप को जाना ही है। सब लोग बहुत याद करेंगे आपको... ।”
“हां राजाराम, यह जेल तो कट जायेगी लेकिन बाद की जेल किसने देखी है?”
“ हां सर जी, भले मानुस की जिंदगी पर तो जेल की परछांई हमेशा बनी रहती है।”
राजाराम और प्रशान्त के बीच राजाराम का जीवन अनुभव से रचा - बसा वाक्य थरथरता रहा। भविष्य की चिंता, सामाजिक बहिष्कार की शंका ... वह कब तक इन से मुंह छिपाकर अतीत की ओट में छिपा रहेगा? मृत सपनों, अतीत के अधजले टुकड़ों को कब तक कुरेदेगा?
अब तो पंखनुचे भविष्य को ही सहला कर, ताकत समेट कर जीवन की दिशा में उड़ना ही है। अचानक पीपल तेज़ हवाओं से झूमने लगा और कुछ ही पलों में मूसलाधार बारिश शुरु हो गयी थी... वे दोनों दौड़ कर ओट की ओर भागे।