भटकती जिंदगी का नाटक / प्रकाश मनु

Gadya Kosh से
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यह वसंतदेव जी का ही नहीं, पूरे कालीपुर कसबे का सम्मान था। जाने-माने लेखक और समाज-सुधारक वसंतदेव जी को अपनी साहित्य-साधना के लिए सारस्वत सम्मान मिला, तो उनके स्वागत-समारोह में जनता टूट पड़ी। इतने लोग उन्हें सुनने आए थे कि सभा-कक्ष में चप्पा भर जमीन भी खाली नहीं थी। बहुत से लोग बाहर भी खड़े थे और उनकी बातें सुनने के लिए उत्सुक थे। बड़ा अद्भुत दृश्य था। कालीपुर के गाँधी भवन में इतने लोग पहले कभी नहीं जुटे थे। न इतने पत्रकार। कैमरे। टीवी के लोग। कालीपुर की जनता वसंतदेव जी को चाहती थी। चाहती क्या, उन पर जान छिड़कती थी। पर उनका सम्मान समारोह ही पहले कब हुआ था? न वसंतदेव जी ने ही कभी चाहा था, और न किसी और को ही खयाल आया। वसंतदेव जी उनके थे। उन सबके प्यारे थे। उनके घर-परिवार के प्राणी जैसे। क्या यही उनका सबसे बड़ा सम्मान नहीं था? जब वे चाहते दौड़कर उनके पास पहुँच जाते। उनके पास बैठकर हँसते-बतियाते। कभी-कभी उनकी लिखी नई कहानियाँ भी सुनकर आते। कभी-कभी उन्हें घर भी बुला लेते। यही तो था उनका सबसे बड़ा सम्मान...! वसंतदेव जी भी इससे संतुष्ट थे और कालीपुर के लोग भी। और दिन बीतते जाते थे... पर आज...? आज बिल्कुल भिन्न दृश्य था। वसंतदेव जी को एक बड़ा पुरस्कार मिलने पर उनका सम्मान हो रहा था और लोगों के जोश और उत्साह का बाँध टूट गया था। हालाँकि वसंतदेव जी पूरी तरह सहज थे। थोड़ा खुद में खोए-खोए से। थोड़े गंभीर। कभी बाहर देखने लगते, कभी भीतर। जैसे यहाँ हैं और नहीं भी हैं।... शुरू में सभा के संयोजक हरि भाई ने वसंतदेव जी के बहुमुखी व्यक्तित्व और उनके द्वारा रचे गए विपुल साहित्य का परिचय दिया। फिर दो नन्हे-मुन्ने बच्चों ने आकर उन्हें पुष्पमाला पहनाई, गुलदस्ता भेंट किया। इसके बाद सभापति आचार्य सोमेंद्र भट्टाचार्य उठे। उन्होंने सादगीपसंद वसंतदेव जी के सदाबहार व्यक्तित्व की विस्तार से चर्चा करते हुए, उन्हें अपने समय का सर्वाधिक प्रतिनिधि साहित्यकार बताया। फिर उन्होंने बड़े आदर से शाल ओढ़ाकर, माँ सरस्वती की एक भव्य प्रतिमा और मानपत्र भेंट कर वसंतदेव जी का सम्मान किया। पूरा सभागार तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा। वसंतदेव जी के बैठते ही, सभा के संयोजक हरि भाई एक बार फिर से उठ खड़े हुए। बोले, “एक बात मैं बताना भूल गया था।...पता नहीं कि मुझे बतानी चाहिए भी, या नहीं? पर मैं बताए बिना रह भी नहीं पा रहा हूँ। वह यह कि शुरू में हम लोगों ने सोचा था, किसी बड़े राजनेता को बुलाकर वसंतदेव जी का सम्मान करवाया जाए। पर यह बात हम लोगों ने वसंतदेव जी को बताई तो उन्होंने साफ मना कर दिया। बोले, ‘नहीं हरिभाई, नहीं! इससे तो मैं एक बच्चे के हाथ से पुरस्कार लेना ज्यादा पसंद करूँगा।’ फिर कुछ रुककर कहा कि हरि भाई, राजनेताओं के बजाय कोई बड़ा साहित्यकार अपने हाथों से पुरस्कार दें, तो मुझे कहीं ज्यादा खुशी होगी।” कहते-कहते हरि भाई भावुक हो गए। विह्वल स्वर में बोले, “आपको सच बताऊँ, मैंने अपने जीवन में पहली बार ऐसा साहित्यकार देखा, जो इतना सीधा, इतना सादा, लेकिन इतना स्वाभिमानी भी है, कि उसे किसी के आगे झुकना मंजूर नहीं है। फिर चाहे कोई बड़े से बड़ा राजनेता ही क्यों न हो...!” हरि भाई की बात पूरी होते-होते सभा-कक्ष एक बार फिर तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा। बहुत से लोग तो वसंतदेव जी के सम्मान में उठकर खड़े हो गए और खड़े-खड़े तालियाँ बजाने लगे। इसके बाद एक-एक करके वसंतदेव जी के कई मित्रों और प्रसिद्ध साहित्यकारों ने उनसे जुड़े आत्मीय संस्मरण सुनाए। कुछ खट्टे, कुछ मीठे। कुछ दिल को छूने वाले भावनात्मक पल तो कुछ विनोद भरे प्रसंग। इनमें वसंतदेव जी के खुशदिल और हरफनमौला चरित्र का बखान था। इतने बड़े साहित्यकार होकर भी वे धधाकर आम लोगों से मिलते हैं। अपनी साहित्यिक महत्ता का जरा भी अभिमान उनमें नहीं है। यह बात ही कई वक्ताओं ने अपने-अपने ढंग से कही। साथ ही वसंतदेव जी के साहित्यिक तप और लंबी साधना का स्मरण किया गया। उनके कुछ-कुछ खुरदरे, औघड़ व्यक्तित्व की भी चर्चा हुई। कुछ ने वसंतदेव जी की कालजयी साहित्यिक कृतियों के महत्त्व को दर्शाते हुए पत्र-वाचन किया।...यह अपने आप में बड़ा दुर्लभ अनुभव था। सब मुग्ध होकर सुन रहे थे। पर वसंतदेव जी...? वे तो कहीं और खोए हुए थे। जैसे यहाँ हैं और नहीं भी। इसे सभी ने लक्षित किया। बात थी ही हैरानी की। अपने सम्मान-समारोह में भी वे कुछ उखड़े-उखड़े से रहें। क्यों भला? क्या वे एक साहित्यकार के सम्मान से जुड़े इस समारोह के आडंबर से दुखी थे। पर सच तो यह है कि यह सम्मान समारोह एकदम सादा था। अपने नायक की ही तरह। तो फिर...? बहरहाल, कुछ समय बाद वसंतदेव जी से कहा गया कि वे अपने पचास बरस लंबे साहित्यिक सफर के बारे में कुछ कहें। इस पर वसंतदेव खड़े हुए तो उनके होंठ हलके से कँपकँपाए। जैसे कुछ कहना चाहे हों और कह न पा रहे हों। कुछ हलकी बुदबुदाहट सी भी उन होंठों से निकली शायद। फिर चुप।... लोग अचरज से उन्हें देख रहे थे। आज वसंतदेव जी को हुआ क्या है? वे कुछ बोल क्यों नहीं रहे? और वसंतदेव...? वे कभी भीतर होते, कभी बाहर। जैसे अपने को सँभालने के लिए उन्हें बहुत जोर लगाना पड़ रहा हो। उनकी आँखें भरी हुई थीं। बोले, “माफ करें, इस मौके पर क्या कहूँ, क्या नहीं, मुझे तो कुछ सूझ नहीं रहा। हाँ, मुझे बस एक चीज याद है, मेरी माँ की वे डबडबाई आँखें! बस, वहीं से मुझे राह मिली। मैं तो एकदम आवारा लड़का था, पढ़ने-लिखने से मेरा वैर था। किताबें देखते ही दूर भागता था, पर मेरी माँ...!” कहते-कहते वसंतदेव जी रुके, जैसे उन्हें शब्द न मिल पा रहे हों। उनका स्वर कुछ भीग सा गया था। फिर कुछ सोचते हुए बड़े अंतर्लीन स्वर में उन्होंने कहा, “अच्छा तो सुनिए, मैं आपको एक कहानी सुनाता हूँ। सच्ची कहानी। एक शरारती बच्चे वसंत की कहानी। अब यह बताने की तो जरूरत तो नहीं कि वह शरारती बच्चा कोई और नहीं, मैं ही था जो आज वसंतदेव बना बैठा हूँ और जिसे आप जैसे लोगों का इतना प्यार मिल रहा है। तो ठीक है, सुनिए यह कहानी...!” सभा में इस कदर चुप्पी थी कि साँस की आवाज भी सुनाई देती थी। इधर वसंतदेव की कहानी शुरू हो चुकी थी— कालीपुर के एक बड़े जमीदार का बेटा था वसंत, इसीलिए मारे लाड़ के कुछ बिगड़ भी गया था। सारे दिन दोस्तों के साथ खेलकूद, तमाशे, आवारागर्दी। सुबह का गया कब घर लौटेगा, किसी को पता नहीं। कई बार वसंत के पिता गदाधर बाबू इस बात से परेशान हो उठते। उन्हें यह चिंता खाए जा रही थी कि वसंत अगर पढ़ेगा-लिखेगा नहीं, तो भला कालीपुर की इतनी लंबी-चौड़ी जमीदारी कैसे सँभालेगा? उन्होंने एकाध बार वसंत को डाँटा, फटकारा और चेताया भी। पर हमेशा वसंत की माँ सीतादेवी बीच में आ जाती थीं। वसंत को छाती से लगाकर कहतीं, “बस, बस...अब रहने भी दीजिए। अभी तो खेलने-खाने और शरारतें करने के दिन है मेरे लाल के। अभी से इसे...!” इस पर गदाधर बाबू क्या कहते? वे चुप हो जाते, पर अंदर ही अंदर घुलते जाते थे। उन्हें उम्मीद थी कि वसंत पढ़-लिखकर, दूर-दूर तक फैली यह जमींदारी बहुत अच्छी तरह सँभालेगा। साथ ही सभी किसानों के सुख-दुख की परवाह करेगा। एक अच्छे और नेक मुखिया की तरह। सबको प्यार से अपनाएगा और सभी का विश्वास जीतेगा। पर...वसंत को तो जैसे कोई परवाह ही नहीं। ऐसे ही रहा तो एक दिन यह सब कुछ चला जाएगा, सब कुछ। और फिर...? आगे का दृश्य उन्हें विचलित कर देता। और वे अपनी छाती पकड़कर खाँसते हुए, बुरी तरह हाँफने लगते। निराशा के बोझ से दबे गदाधर। दिनोंदिन उनकी तबीयत बिगड़ती जाती थी। खाँसी का वेग इतना कि छाती फटने को होती। मुँह लाल सुर्ख हो जाता। दवाओं का कुछ असर ही नहीं। वे ऊपर आसमान की ओर देखते और हाथ जोड़ देते, जैसे कह रहे हों, प्रभु, अब तू ही सँभालना...! और फिर एकदम पस्त से चारपाई पर लेट जाते। जैसे उनमें जान ही न हो। सच तो यह है कि पिछले एक-डेढ़ साल से गदाधर बाबू की मुसीबतें लगातार बढ़ती ही जा रही थीं। उनकी उम्र ढल रही थी और शरीर अब साथ नहीं देता था। उनका इकलौता बेटा था वसंत, जिस पर उनकी सारी उम्मीदें टिकी थी। सोचते थे, वसंत लायक बनेगा और कुल का नाम ऊँचा करेगा। पर उसकी आदतों में जरा भी सुधार नहीं हुआ। उलटे बड़े होने के साथ उसकी आवारागर्दी बढ़ती गई। माता-पिता के पास बैठना तो दूर, उनकी दो बातें सुनने का भी उसके पास समय नहीं था। घर में आँधी की तरह आता और तूफान की तरह जाता। न उसके आने का कोई समय था और न जाने का। अब तो माँ सीतादेवी भी परेशान थीं और कभी-कभी वसंत को टोककर कहतीं, “बेटे, जरा अपने पिता की भी चिंता कर। वे रात-दिन तेरे दुख में घुलते जा रहे हैं।” आखिर गदाधर बाबू इस बुरी तरह बीमार पड़े कि शरीर अंदर ही अंदर गलने लगा। हाथ-पैरों में विचित्र कँपकँपी। चारपाई पर पड़े-पड़े सोचते, “वसंतदेव कुछ सयाना होता तो मुझे चिंता किस बात की थी? पर अब तो शायद मरकर ही चैन पड़े।” सीतादेवी उन्हें बहुत समझातीं। तरह-तरह की पुरानी कथाएँ सुनातीं। हर तरह से उन्हें खुश रखने की कोशिश करतीं। पर दुनिया में कोई चीज नहीं थी जो बेचैन गदाधर बाबू के दिल पर मलहम लगा सके। आखिर दुख से जर्जर हो चुके गदाधर बाबू कुछ ही दिनों में चल बसे। माँ सीतादेवी की हालत भी अब खराब थी। कई बार वे खुद को ही पति की मृत्यु के लिए जिम्मेदार ठहरातीं। सोचतीं कि आखिर मेरे ही कारण उनका दुख बढ़ा। मुझे वसंत को शुरू से ही समझाना चाहिए था। ओह, मेरे ज्यादा लाड़-प्यार ने उसे तो बिगाड़ा ही, पूरे घर का सर्वनाश कर दिया।...


कहते-कहते वसंतदेव जी थोड़ी देर साँस लेने के लिए रुके। एक पल सामने बैठे लोगों पर नजर डाली। फिर बरसों पहले के अतीत में खो गए। उसी तरह खोए-खोए स्वर में चल पड़ी उनकी कहानी— अब तक वसंत के दोस्तों का अच्छा-खास गुट बन गया था। उनका बस एक ही काम था। सुबह से शाम तक यहाँ से वहाँ घुमक्कड़ी करना। ऊधम, गपबाजी और मसखरापन। कभी तीतर लड़ाने का खेल चलता, कभी पहलवानी तो कभी पतंगबाजी। कभी सब दिन ढोल की ताल पर नाचते-गाते और हाहा-हूहू कर शोर मचाते बीतता तो कभी बड़े-बड़े मुखौटे पहन, विचित्र आवाजें निकालकर लोगों को तंग करने का खेल चल पड़ता। कभी मिलकर किसी की खिल्ली उड़ाई जाती, तो कभी किसी का मजाक। कभी किसी दुकानदार का पूरा सामान ही गायब कर दिया जाता। किसी की गाय-भैंस खोलकर तमाशा देखना भी उनकी रोज की शरारतों में शामिल था। पूरा-पूरा दिन बिना बात हँसी-ठिठोली और दिल्लगी में बीत जाता। एक बार तो वसंत और उसकी चंडाल चौकड़ी अपने मुँह-हाथ कालिख से पोतकर और काले कपड़े पहन, शाम के समय एक गाँव में पहुँच गई और वहाँ भूत बनकर ‘हू-हू’ करते हुए गाँव वालों को इतना डराया कि वे भय से काँपते, थर-थर करते यहाँ-वहाँ भागते फिरे। कोई घबराकर किसी नाली में गिर पड़ा, तो कोई गड्ढे में। देखते ही देखते चिल्ल-पों मच गई। औरतों और बच्चों की हालत तो और भी अजीब थी। सबके सब बदहवास।... बाद में वसंत और उसके दोस्त अपनी इस नायाब सूझ पर खूब हँसे और देर तक ठहाके लगाते रहे। इसके अलावा नदी किनारे खेतों के बीच रोज पिकनिक मनती और उसके लिए न जाने किन-किन किसानों की फसलें बर्बाद हो जातीं। ढेर सारे फल-सब्जियाँ बेरहमी से तोड़ ली जातीं। फिर उन्हें यहाँ-वहाँ फेंका जाता। कभी-कभी तो नदी के पानी में भी। उनमें से जितनी खाई जातीं, उनसे ज्यादा बर्बाद होतीं। किसान शिकायत करने की बात करते तो उलटे उन्हें धमकी मिल जाती। फिर भी सीतादेवी तक यह बात जैसे-तैसे पहुँच ही जाती और उनका दिल टूक-टूक हो जाता। सोचतीं, ‘हाय, विधाता ने यह कैसा बेटा मुझे दिया, जिसने मेरा सारा सुख-चैन हर लिया!’ वे किसानों के नुकसान की भरपाई कर देतीं। पर अपने बिलखते दिल को कैसे समझाएँ? आखिर उन्होंने थोड़ी कड़ाई शुरू की। वसंत को बुलाकर सीधे-सीधे कहा, “अब तुम बड़े हो गए हो बेटे, मेरी सारी आशाएँ तुम पर टिकी हैं। तुम खेलो-घूमो, सब करो, पर पढ़ाई-लिखाई का भी खयाल करो।” “पढ़ाई...? करूँगा माँ, करूँगा ना!” वसंत किसी फर्ज अदायगी की तरह कहता, और फिर बाहर का रास्ता देख, दौड़ पड़ता। “वसंत...वसंत....वसंत...!” सीतादेवी पुकारती रह जातीं। पर वसंत को भला इसकी क्या परवाह? अब वसंत को घर पर पढ़ाने के लिए एक बुजुर्ग अध्यापक सुधाकर जी भी आने लगे थे। सुधाकर जी बड़े गुणी और धीरज वाले अध्यापक थे। दूर-दूर तक उनका नाम था। लोग उनकी योग्यता का सम्मान करते। उनका सबसे बड़ा गुण तो यह था कि जो बच्चे पढ़ाई से जी चुराते थे, उन्हें भी वे इतने प्रेम से पढ़ाते कि धीरे-धीरे उन्हें पढ़ाई में रस आने लगता और वे लायक बन जाते। सुधाकर जी ने सोचा था, वसंत खासा बिगड़ा हुआ बच्चा है, फिर भी महीने-दो महीने में तो मैं उसे राह पर ले ही आऊँगा। पर उन्हें नहीं पता था कि वसंत घर बैठे या बाहर घुमक्कड़ी कर रहा हो, उसका मन तो शरारतें करने में ही लगता है। और पढ़ाई उसके लिए किसी सजा से कम नहीं है। यही वजह थी कि रोज शाम के समय सुधाकर जी पढ़ाने आते, तो वसंत कभी घर के बाहर वाले बगीचे में छिप जाता, तो कभी छत पर जाकर खरगोश की तरह पड़छत्ती पर रखे अटरम-पटरम सामान के पीछे दुबक जाता। कभी किसी पेड़ की ऊँची डाली पर जा बैठता और उल्लुओं या तीतर जैसी आवाजें निकालने लगता। या फिर कभी बिल्ली की तरह ‘म्याऊँ-म्याऊँ’, कभी गधे की तरह ‘ढेंचू-ढेंचू’।... सुधाकर जी सब समझ जाते और वसंत की शैतानियों पर मन ही मन हँसते। फिर उसे प्यार से पढ़ाने की कोशिशों में जुट जाते। वसंत कुछ देर तो पढ़ता, फिर ‘अभी आया’ कहकर उड़न-छू…! सुधाकर जी बेचारे इंतजार करते रहते। फिर थक-हारकर घर चले जाते। एकाध बार तो यह भी हुआ कि जैसे ही सुधाकर जी पढ़ाने के लिए कमरे में आए, वसंत झट चारपाई के नीचे जा दुबका। सुधाकर जी थोड़ी देर हैरानी से इधर-उधर देखते रहे, कि अरे, वसंत कहाँ गायब हो गया? अभी तो थोड़ी देर पहले यहीं था। कहीं वह किसी खिड़की से तो नहीं कूद गया? तब उसके साँस लेने और खुदर-खुदर हँसने से पता चला कि अरे, वह तो चारपाई के नीचे छिपा हुआ है। उसे प्यार से पुकार-पुकारकर चारपाई के नीचे से निकालने में सुधाकर जी की साँस फूल गई। फिर पढ़ाने का धैर्य और हिम्मत ही नहीं रही।

वसंत की शरारतें रोज-रोज बढ़ती ही जा रही थीं। आखिर एक दिन सुधाकर जी इतने परेशान हो गए कि बोले, “अच्छा, रहने दो वसंत। नहीं पढ़ना चाहते तो न सही, लेकिन कम से कम मुझे देखकर चारपाई के नीचे तो मत छिपो। यह मेरा ही नहीं, विद्या का भी अपमान है।” वसंत बोला, “मास्टर जी, सच्ची कहूँ? पढ़ना मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लगता। पर हाँ, अगर आप रोज कहानी सुनाएँ, तो मैं जरूर सुनूँगा।” अब सुधाकर जी को नया तरीका मिल गया। उन्होंने सोचा, ‘वसंत को रोज नई-नई कहानियाँ सुनाऊँगा। कहानियों में ही कुछ ऐसी अच्छी बातें भी सिखा दूँगा कि धीरे-धीरे इसका मन पढ़ाई में लगने लगेगा।’ इसके बाद तो यही होता कि रोज सुधाकर जी आते और एक से एक दिलचस्प कहानियाँ सुनाते। हर बार अपनी कहानी में वे कोई ऐसी बात बताते जो जीवन में काम आती। एक बार उन्होंने आसमान के तारों की कहानी सुनाई तो सोचा कि इसी बहाने थोड़ा गणित का जोड़-बाकी भी सिखा दिया जाए। उन्होंने कहा, “सुनो वसंत, एक था पुनपुन। बड़ा सीधा सा, भोला सा लड़का। फिर एक दिन की बात, वह अपने आँगन में लेटा था। उसने आसमान में देखा, दो तारे थे। अँधेरे में झलमल, झलमल करते तारे। पुनपुन को वे बड़े अच्छे लगे। थोड़ी देर बाद दो तारे और उग आए। पुनपुन उन्हें देख रहा था और मन ही मन कह रहा था, अरे वाह, ये तो दो और दो, यानी चार तारे हो गए। अगर दो तारे और उग आए तो...” कहानी सुनते-सुनते वसंत कुढ़कर बोला, “मास्टर जी, यह तो आप गणित पढ़ा रहे हैं। मैं पढ़ूँगा नहीं, आप तो बस कहानी ही सुनाइए।” और खिड़की से छलाँग लगाकर बाहर भाग गया। इस पर सुधाकर बाबू इतने दुखी हुए कि उसी दिन उन्होंने सीतादेवी के पास जाकर कहा, “माफ कीजिए, मैं अपनी हार मानता हूँ। मैंने एक से एक बिगड़े बच्चों को सँभाला है और उनमें पढ़ने-लिखने की लौ पैदा की है। ऐसा कभी नहीं हुआ कि मुझे हार माननी पड़ी हो। पर वसंत जैसा बच्चा मैंने कोई और देखा नहीं। मुझे नहीं लगता कि यह कभी सँभल पाएगा। अब आप मुझे इजाजत दीजिए, कल से मैं इसे पढ़ाने नहीं आऊँगा।” कहते हुए सुधाकर जी के चेहरे पर इतनी पीड़ा थी कि सीतादेवी स्तब्ध रह गईं। उनके मुँह से कोई बोल तक नहीं निकला। पर तभी से खुद सीतादेवी की यह हालत हो गई कि जैसे अंदर ही अंदर कोई घुन उन्हें खा रहा हो। उनकी हालत बिल्कुल बीमारों जैसी हो गई। मुँह पीला पड़ गया। धीरे-धीरे शरीर सूखता हुआ, हड्डियों के ढाँचे में बदल गया। वसंत माँ की यह हालत देखता, पर अनदेखा कर देता। एक दिन शाम के समय वह बाहर से आया तो घर के पुराने नौकर रामदीन ने बताया कि “बाबू, अम्माँ जी बुला रही हैं।” वसंत के हाथ-पैरों में मिट्टी लगी थी। आज कुश्ती लड़ने की प्रतियोगिता में उसने कई पहलवानों को पछाड़ा था। कई नए दाँव-पेच आजमाए थे। अगली बारी में लौटकर उसे कुछ और दाँव आजमाने थे। वह जल्दी से माँ के पास गया और बोला, “अम्माँ, क्या बात है...?” सीतादेवी बहुत कुछ कहना चाहती थीं। वे सोच रही थीं, क्या कहूँ, क्या नहीं? पर वसंत को जल्दी थी। उतावलेपन से बोला, “जल्दी कहो न माँ, क्या बात है?” सीतादेवी चुप, एकदम चुप। जैसे सारे शब्द चुक गए हों। वे अपलक बेटे को देखे जा रही थीं, जिसने उनकी सारी आशाओं को धूल-धूल कर दिया था। फिर भी यह नहीं समझ पा रहा था कि उसके कारण माँ कैसा पहाड़ जैसा दुख झेल रही हैं। आखिर कुछ न कहा गया, तो उन्होंने बड़ी निरीह दृष्टि से वसंत को देखा और रो पड़ीं। रोते-रोते बोलीं, “अरे वसंत, मेरे लाल, तू पढ़ता क्यों नहीं है, बेटे? क्या तू बिल्कुल नहीं पढ़ेगा, कभी नहीं? तेरे पिता तो इसी चिंता में घुल-घुलकर मर गए। लगता है मैं भी...अब मैं भी नहीं बचूँगी। फिर याद करते रहना माँ को। बड़ा आया माँ का लाड़ला...!” कहते-कहते माँ की आँखों से धाराधार आँसू बहने लगे। इन दिनों चिंता-फिक्र के मारे वे इतनी कमजोर हो गई थीं कि लगा, अभी बेहोश होकर गिर पड़ेंगी। वसंत को अब समझ में आया कि कितना बड़ा अनर्थ उससे हुआ है। माँ जिन्हें वह सबसे ज्यादा प्यार करता है, वे भी शायद उसे छोड़कर चली जाएँगी। और उसका सब कुछ नष्ट हो जाएगा, सब कुछ। उसकी हँसी-खुशी की सारी दुनिया भरभराकर गिर पड़ेगी। “माँ-माँ, मैं पढू़ँगा...! माँ, मैं अब तुम्हें कभी शिकायत का मौका नहीं दूँगा। मुझे माफ कर दो माँ!” कहकर आगे बढ़कर उसने माँ को सहारा दिया। दुर्बल माँ की आँखों में एक क्षीण सी चमक दिखाई पड़ी, जैसे वे धीरे से मुसकराई हों। पर वे इतनी कमजोर हो गई थीं कि एकाएक चारपाई पर गिर पड़ीं। उनकी साँस जोर-जोर से चल रही थी। वसंत ने जल्दी से दौड़कर माँ को पानी पिलाया और उनका माथा दबाने लगा। इतने में रामदीन दौड़कर वैद्य सोनाराम जी को बुला लाया। वैद्य जी ने आकर नब्ज देखी। फिर दवा देकर कहा, “कोई गहरा सदमा लगा है इन्हें। खुश रहेंगी और ठीक से खाने-पीने लगेंगी, तो ठीक हो जाएँगी। पर अभी इन्हें दो-तीन महीने सेवा की बड़ी जरूरत है, वसंत बेटे।” अब तो वसंत का एक ही काम था। माँ की इच्छा को दौड़-दौड़कर पूरा करना। कभी उन्हें दवा पिला रहा है, कभी उन्हें खुद अपने हाथ से काटकर फल खिलाकर रहा है, कभी उनके मन बहलाव के लिए बातें कर रहा है। माँ कुछ ठीक हुईं तो वसंत ने कहा, “माँ-माँ, मैं सुधाकर जी के घर जाऊँ? उनसे जाकर माफी माँगूँगा।” माँ को हैरानी हुई। पर अंदर ही अंदर वे खुश थीं और बड़ी राहत महसूस कर रही थीं। बोलीं, “जा बेटा, जा, अभी चला जा। अच्छे काम में देरी कैसी? तूने उनका बहुत दिल दुखाया है। अच्छी तरह पैरों पर पड़कर उनसे माफी माँगना।” उसी समय वसंत दौड़ा-दौड़ा सुधाकर जी के घर पहुँचा। और जैसे ही सुधाकर जी घर से बाहर आए, वह उनके पैरों पर गिर पड़ा। बोला, “क्षमा करें गुरु जी, मैं अब पढू़ँगा। आपको कोई शिकायत का मौका नहीं दूँगा। आप पहले की तरह पढ़ाने के लिए मेरे घर आएँ। अगर मेरी कोई भी बात आपको बुरी लगे, तो आप चाहे जो सजा दें।” सुधाकर जी हैरान, ‘अरे, क्या यही वह वसंत है, जिसके बारे में उन्होंने कहा था कि कभी सँभल नहीं पाएगा?’ अगले दिन सुधाकर जी वसंत को पढ़ाने घर आए तो वसंत तो खुश था ही, उसकी माँ सीतादेवी उससे भी अधिक खुश थीं। और खुद सुधाकर बाबू! वे तो जैसे अचंभे में थे कि यह जादू हुआ कैसे? पर सुधाकर जी जब वसंत को पढ़ाने बैठे तो उन्हें लगा, कि यह वह पहले वाला वसंत हरगिज नहीं है। उनके सामने तो एक अलग ही वसंत बैठा हुआ है। एकदम विनीत और जिज्ञासु छात्र, जिसमें पढ़ने की बड़ी गहरी ललक है। और आँखों में सम्मान। सुधाकर जी पढ़ाते हुए जल्दी ही रम गए। इसलिए कि वसंत उनकी एक-एक बात बड़े ध्यान से सुन रहा था। वे समझ गए थे कि वसंत शरारती भले ही हो, बुद्धू हरगिज नहीं है। सुधाकर जी जो कुछ बताते, उसे वह एक बार में ही इस कदर दिल में बैठा लेता कि फिर उसे दोबारा पढ़ने की जरूरत न होती। फिर साहित्य, कला और इतिहास की तो उसे अच्छी-खासी जानकारी भी थी। हाँ, गणित और विज्ञान में वह ज्यादा होशियार नहीं था। पर सुधाकर जी विज्ञान को भी रोचक कथाओं की शक्ल में सुनाते। बड़ी-बड़ी वैज्ञानिक खोजें कैसे हुईं और उसके लिए वैज्ञानिकों ने कितनी तकलीफें सहीं। कितने जतन किए और आखिर अपनी मंजिल पाकर ही रहे। सुधाकर जी इतना रस लेकर बताते कि वसंत हैरान सा सुनता, और गुनता भी। कई बार तो यह सब सुनकर वसंत एकदम रोमांचित सा हो उठता। उसके मन में भी कुछ नया करने और कुछ बनने की ललक पैदा हो गई थी। उसकी आँखों की चमक बता देती कि उसके भीतर क्या चल रहा है। इसी तरह सुधाकर जी गणित को भी बड़े रोचक अंदाज में, छोटे-छोटे सवालों और मजेदार पहेलियों के रूप में सिखाते, तो वसंत को बड़ा मजा आता। झटपट इन सवालों का जवाब देते-देते उसका दिमाग इतना तेज हो गया कि गणित के बड़े-बड़े सवालों को भी वह मुँहजबानी हल कर देता। फिर कहता, “अभ्यास के लिए कुछ मुश्किल सवाल दे दीजिए, गुरु जी। आपके जाने के बाद मैं उन्हें खुद-ब-खुद हल करने की कोशिश करूँगा।” सुनकर सुधाकर जी की आँखों से स्नेह छलकने लगता।


कुछ समय बाद सुधाकर जी ने सीतादेवी को सलाह दी कि अब वसंत का स्कूल में नाम लिखवा दिया जाए। शुरू में वसंत को इस पर झेंप आई। उसकी उम्र काफी अधिक हो गई थी। इस उम्र में छोटे-छोटे बच्चों के साथ पढ़ना उसे शर्म की बात लगती थी। पर फिर उसने सोचा, ‘अगर स्कूल में जाकर ज्ञान मिलता है, तो फिर इस बात की ज्यादा परवाह क्यों की जाए?’ और वाकई यही हुआ। शुरू में बच्चे अपने से काफी बड़ी उम्र के वसंत को अपने बीच बैठा हुआ देखकर हँसते। खूब छेड़छाड़ और दिल्लगी करते। किसी-किसी ने लंबू या लमढींग कहकर उसका मजाक उड़ाया। कोई पीठ पीछे गर्दभराज कहता और ठठाकर हँसता। कोई ‘अरे, अरे, ऊँट आ गया ऊँट..!’ कहकर जोर से हँस पड़ता। अकसर क्लास के बच्चे टोली बनाकर वसंत को घेर लेते और तरह-तरह से खिल्ली उड़ाकर उसे तंग करते। ऐसी-ऐसी बातें कहते, जिस पर किसी को भी गुस्सा आ जाता।... पर वसंत अब बदल चुका था। पहले वाला वसंत यह नहीं था। तो उसने किसी बात का बुरा नहीं माना और न किसी के मजाक या दिल्लगी का पलटकर जवाब दिया। फिर धीरे-धीरे वसंत के व्यक्तित्व का कुछ ऐसा असर पड़ा कि सभी उसका आदर करने लगे। वह मेहनती था और रात-दिन पढ़ने-लिखने में लीन रहता। तो बच्चों को जो भी मुश्किल आती, उसके बारे में वे अकसर वसंत से ही पूछ लेते। वसंत अकसर किताब का अगला पाठ घर से पढ़कर और बहुत कुछ याद करके आता था। इसलिए अध्यापक के हर सवाल का जवाब वही देता। इससे उसकी अच्छी-खासी धाक जम गई थी। बच्चे मन ही मन उसे प्यार करने लगे थे। इसके बाद स्कूल के सालाना जलसे में कविता सुनाने और नाटक का प्रोग्राम हुआ, तो वसंत की प्रतिभा का कमाल सबने देखा। वह गाकर बड़ी सुंदर लय में कविता पढ़ता तो जादू सा हो जाता। हर काम में वह सबसे अव्वल था। और खासकर उसका हास्य नाटक ‘कंजूस लच्छूमल’ तो ऐसा जमा कि हर घड़ी लोग ठहाके लगाते। नाटक में खुद वसंत ही लच्छूमल बना था। उसने खूब बड़ी सी तोंद वाले कंजूस सेठ लच्छूमल का चरित्र थोड़े ही समय में मंच पर साकार कर दिया था। नाटक के संवाद ऐसे मजेदार थे कि लोग पेट पकड़कर हँस रहे थे। खासकर बेटे की शादी में दिए गए भोज के समय उसकी हड़बड़ाहट तो बड़ी मजेदार थी। उसने जितने लोगों का सोचा था, उससे ज्यादा दावत में आ गए। सेठ लच्छूमल की हालत ऐसी, जैसे नानी मर गई हो। तो मारे घबराहट के उसने नौकरों से चिल्ला-चिल्ला कर कहना शुरू किया, “अरे, सबको लस्सी पिला दे रे, पानी घोल के। लस्सी पिला पानी घोल के...!” नाटक का यह डायलॉग इतना मशहूर हुआ कि लोग इसे दोहराते और हँसते। हँसते-हँसते पागल हो जाते। फिर वसंत की कविताओं का भी अपना अलग रंग था। उनमें देश और समय की पुकार थी, जनता का सच्चा दर्द था। खासकर ‘मेरा देश पुकारता है’ कविता में उसने अपने देश के लोगों के दुख-तकलीफों के साथ-साथ उनकी खुद्दारी का वर्णन किया, तो सब झूम उठे। एक के बाद एक उसने तीन कविताएँ सुनाईं। सभी को खूब पसंद किया गया। पहली बार वसंत को लोगों की इतनी तारीफ मिली थी। हर होंठ पर उसका नाम था। वसंत ने दिखा दिया कि उसके भीतर बहुत कुछ है, जो सामने आए तो हर किसी को हैरान कर देगा। अब तो स्कूल के बच्चे ही नहीं, अध्यापक भी उसे बेहद प्यार करने लगे थे। उसमें कुछ अलग सी बात थी। एक विलक्षण प्रतिभा थी। बड़ी दुर्लभ। इसलिए मन ही मन सब उसका आदर करते। फिर एक बार की बात, स्कूल में एक बड़े स्वाधीनता सेनानी देवधर जी को आना था। प्रधानाचार्य ने वसंत को बुलाकर कहा, ‘इस मौके पर तुम कोई अच्छा सा नाटक दिखाओ।” वसंत ‘हाँ’ कहकर घर चला आया और सोचने लगा कि आखिर कौन सा नाटक दिखाया जाए? काफी सोचकर उसने खुद ही एक नाटक लिखा, जिसका शीर्षक था, ‘माँ की आँखें’। इसमें वसंत ने नाटक के रूप में अपनी ही कहानी लिख दी थी, जिसका अक्षर-अक्षर उसके आँसुओं में डूबा हुआ था। उस नाटक का नायक एक ऐसा आवारा किस्म का बच्चा था, जो इतना बिगड़ा हुआ था कि उसके कारण पूरा घर परेशान था। पिता गुजर गए, माँ भी बदहाल थीं। अच्छी-खासी जमींदारी बर्बादी के कगार पर आ गई, पर उस आवारा लड़के को परवाह ही नहीं थी। लेकिन एक दिन रोती हुई माँ की आँखों में उसने ऐसी करुणा देखी कि वह दहल गया।... उन आँखों ने ही उसे भटकाव से बचाकर रास्ता बता दिया। वह बच्चा बड़ा होकर लेखक बना, पर जीवन भर माँ की उन आँखों को नहीं भूल पाया। सचमुच बड़ा करुण नाटक लिखा था वसंत ने। जिसने भी देखा, उसकी आँखें नम हो गईं। दर्शक समझ गए थे कि वसंतदेव की असली जिंदगी ही उनके सामने नाटक की शक्ल में आ रही है। वे अभिभूत थे। नाटक खत्म हुआ तो खुद देवधर जी ने उठकर वसंत के सिर पर हाथ फेरा और उसे बड़ा होकर नामी लेखक होने का आशीर्वाद दिया। उस दिन पहली बार उसे लगा कि उसकी भटकती आवारा जिंदगी को अब राह मिल गई है। सचमुच पहली बार... कहते-कहते वसंतदेव एक पल के लिए रुके। एक बार फिर गर्दन घुमाकर फूरे सभा-कक्ष पर नजर डाली, जिसमें कई बड़े साहित्यकार भी थे। सब बड़ी उत्सुकता से उनका एक-एक शब्द सुन रहे थे। लग रहा था, वसंतदेव अपनी कहानी नहीं सुना रहे, बल्कि सामने कोई नाटक चल रहा है। खुद वसंतदेव जी की अजीब हालत थी। वे जैसे अपने आपे में नहीं थे। कुछ देर बाद खुद को थोड़ा सँभालते हुए बोले, “हाँ तो साहिबान, यही मेरा पहला नाटक था। मेरी पहली रचना, ‘माँ की आँखें’ और यही मेरे लिखने की शुरुआत थी। यही मेरी कहानी थी, यही मैं हूँ, जो आज वसंतदेव बनकर आपके आगे खड़ा हूँ...!” एक पल के लिए वे रुके, फिर बड़े डूबे-डूबे स्वर में कहा, “सचमुच माँ की आँखें ही थीं, जिन्होंने मुझे जीवन का सही अर्थ बताया और सही राह दिखा दी। माँ ही मेरी सच्ची गुरु थीं, जिन्होंने मेरे मन के अंधकार को दूर करके ज्ञान का पहला दीया जलाया। उसके बाद तो मैं लिखता गया और बढ़ता गया। धीरे-धीरे मेरी किताबें छपीं, बड़ा नाम हुआ। और आज मुझे पता नहीं क्यों, कैसे एक बड़ा पुरस्कार मिला और आप सब मेरा सम्मान करने के लिए यहाँ आए।... “पर यह सब कुछ न होता...कतई न होता, अगर उस दिन माँ की आँखों ने मुझे जीवन का सच्चा पाठ न पढ़ाया होता। वे आज भी मेरे भीतर जस की तस गड़ी हुई हैं। लिहाजा इस पुरस्कार पर मेरा नहीं, मेरी माँ का हक है जो चाहे अनपढ़ सही, पर मुझसे ज्यादा जिन्होंने जीवन के मर्म को समझा है। यह पुरस्कार मैं अपनी उन्हीं माँ को समर्पित करता हूँ जिनके कारण एक बिगड़ा हुआ बच्चा वसंत आखिर आप सबका लाड़ला वसंतदेव बन गया।...” कहकर वसंतदेव उठे और सभा की अगली कतार में बैठी अस्सी बरस की बूढ़ी माँ सीतादेवी की झोली में मानपत्र रख दिया। बोले, “माँ, तुमने उस दिन रोते-रोते कहा था न कि बेटा, तू पढ़ता क्यों नहीं है? मैं कभी तेरी वे डबडबाई आँखें नहीं भूल पाया और आज तक जो कुछ मैंने लिखा, उसके पीछे तेरी उन्हीं आँखों का गहरा दर्द है।” कहते-कहते उन्होंने माँ के चरणों की धूल सिर पर लगा ली। सभा-कक्ष तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा। सीतादेवी की आँखों में उस समय अनोखी चमक थी। उन्होंने बड़े प्यार से बेटे के सिर पर हाथ फेरकर आशीर्वाद दिया। कुछ ही देर में वसंतदेव उन्हें सहारा देकर सभा से बाहर ले जा रहे थे। और सारी सभा आदर से भरकर अपलक उन्हें देख रही थी।