भड़भूँजिया / अन्तरा करवड़े

Gadya Kosh से
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बाबा अपने जमाने में थोड़ा बहुत आयुर्वेद पढ़े हुए थे। घर गृहस्थी के चक्कर में ऐसे उलझे कि बस पिसते ही रहे। हाँ! बीच बीच में अपना शौक पूरा करने की खातिर अपने मित्र के पास जो कि पेशे से वैद्य थे¸ जाकर बैठा करते थे। उनसे बतियाकर तो कभी उनकी मरीजों को जाँचने की विधि देखकर अपना ज्ञान बढ़ाया करते। उन्हीं से पूछ ताछकर कुछ बड़े बड़े ग्रंथ भी मँगवाए थे उन्होंने। समय मिलने पर पढ़ा करते थे। अपने बेटे में यह रूचि पैदा करना चाहते थे वे लेकिन वह ये सब कुछ छोड़कर एक नामी न्यूज एजेन्सी में रिपोर्टर बन गया था।


रिटायरमेंट के बाद अब बाबा के पास भरपूर समय था। उन्होने अपने कमरे के एक कोने को साफ करवाकर वहाँ अलग - अलग खाने वाली एक अलमारी लगवा ली थी। वहाँ अपनी मोटी किताबें रखते। अलग अलग आसव¸ बूटियाँ¸ चूर्ण जाने क्या क्या लाकर रखा था वहाँ उन्होंने। दिन रात वे या तो अपनी पुस्तकों में मगन रहते या बोतलों में से कुछ यहाँ तो कुछ वहाँ किया करते।


उनका ये नया शौक घर में मजाक का विषय बना हुआ था। "सठिया गये है" से लेकर "बुढ़ापे का चस्का" जैसे जुमले अप्रत्यक्ष रूप से उनके कानों तक पहुँचे थे। ये सब कुछ अनसुना करके वे अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते रहे। उनका लक्ष्य था बुढ़ापे में शरीर की हड्डियों को कमजोरी से बचाने के लिये एक विशेष औषधि का निर्माण। और वे इसका प्रयोग स्वयं पर और अपने एक सहयोगी मित्र पर कर रहे थे।


परिवार के लोगों को इस बात की कोई जानकारी नहीं थी। उन्हें दिन रात इन औषधियों के साथ काम करते देख उनका बेटा कहता¸ "क्या बाबा आप भी! बुढ़ापे में क्या नया शौक चर्राया है आपको? घूमना फिरना¸ पूजा पाठ¸ आराम छोड़कर फालतू भाड़ झोंका करते है।"


बाबा तिलमिलाकर रह जाते। बेटा यह जुमला अक्सर दोहराता। किसी के उनके विषय में पूछने पर कहता¸ "अपने कमरे में बैठे भाड़ झोंक रहे होंगे।"


लेकिन वे तटस्थ होकर अपने काम में मग्न रहते। और फिर लगभग दो वर्षों की कड़ी मेहनत के बाद वह शुभ दिन आ ही गया था। उनकी नवीन औषधि अपना असर दिखा रही थी। और इस उपलब्धि के लिये उन्हें एक आविष्कारक की मान्यता के रूप में एक भव्य समारोह में सम्मानित किया जाने वाला था।


इस शुभ अवसर पर उन्हें लगा जैसे उनकी जीवन भर की साध पूरी हो गई थी। स्वयं का मकान बनाकर या बच्चों की शादी करके भी वे इतना आनंदित और संतुष्ट नहीं हो पाए थे जितने कि आज थे।


उनका घर पत्रकारों¸ न्यूज चैनलों के कैमरों से दिन भर अता पड़ा रहा। वे सहज ही उनके सभी प्रश्नों का समाधान करते हुए किसी अभ्यस्त चिकित्सक की भाँति व्यवहार कर रहे थे।


उनका बेटा भी अपने व्यवहार में बिना किसी पुरानी झिड़की या कटु शब्दों को बीच में न ला¸ एक सामान्य रिपोर्टर की हैसियत से उनका इंटरव्यू अपनी न्यूज एजेन्सी के लिये ले गया था।


उस शाम बाबा के मित्र मण्डल ने उनके सम्मान में एक भोज रखा। सभी खुश¸ प्रसन्नचित्त। उनमें से एक बुजुर्गवार¸ इधर उधर की बातों के बीच ही बाबा से उनके बेटे के विषय में पूछने लगे। यह सुनने के लिये कि स्वयं के विषय में बाबा क्या कहते है¸ बेटा उनके पीछे ही खड़ा था।


बाबा ने कहा¸ "मेरा बेटा? अरे वह तो बड़ा उम्दा रिपोर्टर है। तड़क - भड़क नहीं। जमीन से जुड़े मुद्‌दों पर ही अपनी कलम चलाता है। आप यकीन नहीं करेंगे¸ आज ही वह एक भड़भूँजिये का इंटरव्यू लेकर गया है।"


अब बेटे के चेहरे पर ऐसे भाव थे जैसे उसने कुछ सुना ही न हो...