भदवा चन्दर, खण्ड-13 / सुरेन्द्र प्रसाद यादव
"धनुक लाल, तोरा बोलैलेॅ छौं" वीरो कहलकै।
"के?"
"मुखिया जी."
"से की?"
"हमरा नै मालूम।"
"कुछ तेॅ भनक लागले होतौ।"
"भनक के बात बोलै छोॅ तेॅ।"
"अरे चुप कैन्हें होय गेलैं?"
"बात ई छै धनुक लाल कि।"
"लागै छै कुछ भांगटोॅ वाला छै। की?"
"बस हेने समझोॅ।"
"अरे कुछ तेॅ बताव मित्र।"
"मुखिया जी, भदवा चन्दर पर गुस्सैलोॅ छै।"
"से कैन्हें?"
"मंदिर वाला पंचकठिया जमीन केॅ लै।"
"की होलै ऊ जमीन पर?"
"आयकल सुनै छियै बच्चा-बुतरू।"
"हों, ओकरा सें की भेलै?"
"मुखिया जी केॅ मालूम होलोॅ छै।"
"की मालूम होलोॅ छै?"
"मालूम होलोॅ छै कि भदवां वहाँ इस्कूल खोलै लेॅ चाहै छै।"
"ई एकदम झूठ बात छेकै।"
"मुखिया जी केॅ यहेॅ मालूम छै।"
"के कहलकै?"
"के कहलकै-के जानें।"
"तेॅ आबेॅ जानलियै कि मुखिया जी आयकल खिंचलोॅ-खिंचलोॅ कैन्हें रहै छै।"
"वीरो।"
"बोलोॅ।"
"तोहें हमरोॅ साथ वहाँ चलवे?"
"नै, ठीक नै होतै।"
"कैन्हें?"
"बस ऐन्हैं केॅ। हमरा वैमें सानला सें की फायदा?"
"तेॅ ठीक छै, हम्मेें अकल्ले जैवै।"
तखनिये भदवा चन्दर वही पर कहीं से आवी केॅ पहुँची गेलै। बाबू के सामना वीरो केॅ देखलकै तेॅ गोड़ छूवी केॅ प्रणाम करलकै आरो पूछलकै, "आय भोरे-भोर काका?"
"तोरा संे छिपाना की भादो!"
"की बात छेकै काका?"
"मुखिया जी नै चाहै छै..."
"की नै चाहै छै?"
"कि तोहें बच्चा सिनी के खेल के मैदान बनावोॅ मन्दिर वाला जमीन केॅ।"
"तबेॅ?"
"यही कहै लेॅ मुखियां तोरोॅ बाबू केॅ..."
"बोलैनें छै। की?"
"हों।"
"तेॅ बाबू नै, हम्में मुखिया लुग जैवै।"
"नै, तोरोॅ जाना ठीक नै होतै।" धनुकलाल कहलकै।
"नै बाबू जी, हम्मी जैवै।" आरो ई कही भदवा चन्दर बाहर निकली गेलै। ओकरोॅ बाहर निकलना छेलै कि धनुक लाल असगुन सोची केॅ काँपी उठलै। वीरो भी निकली गेलै तेॅ धनुक लाल धीरें-धीरें भगवान केॅ सुमिरे लागलै-
काली माय के नाम हो सुमरी
दैछी महाजालबा हो
होई गेलै भगता ऊपर हो
औंगरी चिरीये कालिका माय
अमरित निकालल हे
भगता के दिहले हे पिलाय हे
भगता जे उठी हो बैठलै
पिथैं अमरित बून्द हो
लई लेलकै भगता के जिलाय हे
एतना करीये कालिका माय
डोलिया फन्हैलकी हे
चली भेलै भगता के दुआर हे
एके कोसें गेली कलिका माय
गेल्है दूही कोसबा हे
तेसर कोसें भगता के दुआर हो
कहाश् गेलै किये हे भेलै
भगता के मैया हे
आपनोॅ दुलरुवा के गोदी लै सटाय हे
जैसें घुरल्हैं कालिका माय
हमरो दुलरुवा हे
वैसें दुनियाश् के दिहो घुराय हो।