भदवा चन्दर, खण्ड-14 / सुरेन्द्र प्रसाद यादव
"अनिल, तोहें गाँव लौटी ऐलैं, ई अच्छा करले। साधुगिरी में गृहस्थ केॅ नै पड़ना चाहियोॅ। केन्हौं केॅ शांति नै मिलेॅ पारेॅ। हम्मू देखी चुकलोॅ छियै।"
" मजकि जे कहैं, वहू एक अजीब दुनिया छै। तोहें गाँव छोड़लेॅ होवैं, तखनिये हम्मूं गाँव छोड़ी देलियै। एक दिन चानन नद्दी किनारा में बैठलोॅ छेलियै, आरो नै जानौं की मनोॅ में उठलै कि वहीं सें चली देलियै...गाड़ी, ट्रेन में टिकट चेकर हमरा साधूवेष में देखौ, तेॅ दिकटो नै माँगै। कहाँ-कहाँ नै घुमलियै दोस्त, काशी, मथुरा, चित्रकूट, केदारनाथ सब जग्घोॅ में। अजीब-अजीब साधू सें भेंट भेलौ। आपनोॅ ई देश अजीब छै। तोरा की बतैय्यौ-१९८२ के अक्टूबर महीना रहै। गया आरो राजगीर में दू सप्ताह भटकला के बाद बनारस पहुँचलोॅ रिहै। तखनी लाल वस्त्रा सें शरीर ढकै रिहै। दाढ़ी के बाल लम्बा रहै आरो छाती तक झूलै रहै। हों, आजकल रं सफेद नै रहै।
बनारस के गली-कुची में चक्कर लगाय केॅ थकी गेलोॅ रहियै। एक धुन रहै कि सच्चा साधक केॅ ढूढ़ी केॅ गुरु बनैवै।
कैक औघड़ आरो साधू भेशधारी भिखारी सें बतियाय केॅ मोॅन भिन्नाय गेलोॅ रहै। साधना के ढोंग करै वाला के पास कुछ नै रहै।
आठमा दिन रहै। काशी प्लेटफार्म पर रात गुजारी केॅ अन्हरगरे डोम सरदार घाट पहुँचलोॅ रिहै। नित्य क्रिया सें निवित्त होय केॅ एक नाव पर बैठी गेलोॅ रिहै। दोसरा पार बालू पर उतरी केॅ उत्तर दिस चली देनें छेलियै। रेत समाप्त होलै आरो आगू काशोकाश झलकै रहै। बीच सें एकपड़िया रास्ता रहै। वही रास्ता पर बढ़ी गेलोॅ रिहै। रास्ता के अंतिम सिरा पर एक झोपड़ी मिललै। आगू एक औघड़ आग जलैनें चीलम भरी रहनें छेलै।
भीतर सें धिक्कार के भाव उठलै-'नसेड़ी! बाबा के नाम पर नशा में जीवन गारत करैवाला जीव। ठग!' गोस्सा सें एक नजर ओकरा पर डाललियै। "बड़ी जरलोॅ छैं? आव...आव! आँखी नें जे-जे देखै छै ओकरो पार दुनिया में बहुत कुछ छै। बहुत कोयला टटोलला आरो हाथ-मूँ रंगैला के बाद हीरा मिलै छै। ऊ भी हरि कृपा होला के बादे। काँटा सें हाथ छिदवैनें बिना कमलदल पावै लेॅ चललोॅ छैं?"
हम्में हतप्रभ। की कहै छै? की यें हमरोॅ भटकन जानै छै?
"राती हरिश्चन्द्र घाट पर आव। साध पूरा होतौ। लेकिन खबरदार! करेजा मजबूत छौ तभिये आव, नै तेॅ लौटी जो। ई दुनिया सबके लेली नै छै।" कही केॅ वें मूँ में चिलम लगाय देलकै।
'पर उपदेश चतुर बहुतेरे' मनोॅ में गूंज उठलै। आँख तरेरी केॅ ओकरोॅ आँख में देखलियै। यही गलती भै गेलै-गोस्सा के अगिनी पर घड़ो पानी पड़ी गेलै। पता नै ओकरोॅ आँखी में की रहै। हमरोॅ चेतना लुप्त हुवेॅ लागलै।
जबेॅ चेत भेलै-धूप तपी रहलोॅ रहै। आस-पास कोय नै रहै। खाली झोपड़ी में दू टा मुंडा, एक चिमटा आरो बाहर बुझलोॅ चूनी रहै।
उठी केॅ चुपचाप वापस चली देलियै। मनोॅ में दृढ़ निश्चय रहै-राती हरिश्चन्द्र घाटोॅ पर देखना छै।
सांझ होथैं हरिश्चन्द्र घाट पर-पर मंदिर के सीढ़ी पर बैठी रहलोॅ रिहै। दाह कम। चली रहलोॅ रहै। तरह-तरह के आवाज आरो गंध सें वातावरण रहस्यमय रहै।
सन्नाटा में कुत्ता-सियार के आवाज सें डोॅर लागेॅ लागलै। मोॅन हुवै-लौटी जाँव। तभी गीदड़ के तेज आवाज सें चौंकलियै। सामनें वही औघड़ रहै। मूँ पर संतोष-चलोॅ पहिला परीक्षा में खरा उतरलै।
"आव...चल साथ।" कही केॅ ऊ एक दिस चली देलकै। पीछू-पीछू हम्में। कुछ देर गेला के बाद ऊ ठिठकी गेलै। मूड़ी घुमाय केॅ हमरोॅ दिस देखलकै-क्रोध में फंुफकार जकां शब्द मूँ सें निकललै-"कथी लेॅ भटकै छैं? फुटलोॅ पात्र में अमृत नै देलोॅ जाय छै, चल भाग यहाँ सें। नै तेॅ राख में मिलवैं।"
हम्में चुप। ऊ आगू बढ़लै। पीछू हम्में। कुछ दूर गेला के बाद ऊ फेनू मुड़लै। कुछ देर हमरा गौर सें देखलकै, फनू कहलकै-"अच्छा बैठ।"
ऊ बालू पर पदमासन पर बैठी गेलै। हम्में सामनें झोला-झक्कर फेंकी केॅ पदमासन लगैलियै।
"हम्में जे-जे करै छियै-ऊ-ऊ करी केॅ देखाव।" कही केॅ वें आसन बदली-बदली केॅ शरीर के साधना प्रदर्शित करेॅ लागलै। हम्में क्रिया दोहरैनें गेलियै। मतरकि जल्दीये महसूस हुवेॅ लागलै-शरीर टूटी रहलोॅ छै। समुद्र के थाह नै छै। हम्में रुकी गेलियै।
ओकरोॅ मूँ पर मुस्कान ऐलै।
"चल ध्यान योग में आव।" कही केॅ ऊ ध्यान में ऐलै।
हम्में चेतना समेटलियै...आकाश...चाँद...तारा...शून्य...
सिर पर कुछ रेगै रहै, फनू कुछ नै रहलै। जब चेत भेलै-भोर के लाली फैली रहलोॅ रहै। औघड़ के चिलम सुलगी रहलोॅ रहै। वें स्मित मुस्कान सें हमरा दिस देखलकै-"जो हठयोग छोड़ी केॅ। ध्यान योग ही तोरोॅ साध्य छौ। प्राप्त निधि के दुरुपयोग नै करिहैं। परोपकार करै सें पहिनें पात्र के परीक्षा करी लिहैं। प्रयास में अष्टभुजी के मंदिर में प्रतीक्षा करिहैं। मार्गदर्शन करायवाला वहीं खोजला पर तोरा मिलतौ।"
कही केॅ ऊ उठी गेलोॅ रहै। प्रयाग के श्मशान तक बनारस श्मशान के गंध समान प्रतीत होलोॅ रहै। "
ई कही केॅ अनिल एकदम सें चुप होय गेलोॅ छेलै। भदवो कुछ नै बोललै।
अनिल मुखिया जी के रिश्तादारी में पड़ै छै। मुखियौं जी जानै छै कि अनिल भदवा चन्दर के पकिया दोस्त छेकै, यै लेली हुनी अनिल केॅ बचपन्हैं सें नै रोकलकै-भदवा सें मिलै-जुलै सें। आबेॅ तेॅ खैर दोनों एकदम अभिन्न दोस्त छेकै।
बात तेॅ यही सही छेकै कि जेन्हैं अनिल केॅ मालूम होलै कि भदवा चन्दर गाँव लौटी ऐलोॅ छै, तेॅ वहू गाँव लौटी ऐलै। अनिल केॅ ई खबर लाल बाबा सें ही मिललोॅ छै-बाते-बात में। अनिल लाल बाबा सें पहिलोॅ दू दाफी मिली चुकलोॅ छेलै आरो एकरोॅ बारे में बाबा केॅ सब मालूम छेलै।
जखनी उठी केॅ अनिल जावेॅ लागलै तेॅ भदवां ओकरोॅ हाथोॅ में एकटा उपन्यास थमाय देलकै।
"ई की?"
"उपन्यास छेकै, अनिल। मृदुला दी के लिखलोॅ। सौंसे पढ़ी जइयैं। जीवन में लड़ै के शक्ति देतौ। आयकल हेनोॅ उपन्यास के कत्तेॅ ज़रूरत छै, आरो दुर्भाग्य ई छेकै कि हेनोॅ साहित्य के बदला में समाज केॅ जड़ सें कमजोर करैवाला साहित्य लिखलोॅ जाय रहलोॅ छै। पढ़ियैं ज़रूर। हमें तेॅ ई उपन्यास केॅ आपनोॅ आदर्श बनाय लेनें छियै।"
"जबेॅ हेनोॅ बात छै, तेॅ अइये पढ़वै। ई उपन्यास के चर्चा सुनलेॅ छियै।" आरो ई कही केॅ अनिल घरोॅ दिश बढ़ी गेलै।