भदवा चन्दर, खण्ड-15 / सुरेन्द्र प्रसाद यादव

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पता नै, भदवा चन्दर के सम्बंध में आयकल यहू अफवाह केना केॅ फैली गेलोॅ छै कि वैं गाँव के लोगोॅ केॅ हेनोॅ-हेनोॅ किताब पढ़ाय रहलोॅ छै, जे गाँव में दंगा-फसाद करवावै वाला छेकै। अमीर के विरूद्ध गरीब केॅ भड़कावै वाला छेकै।

से अनिल केॅ जेन्हैं मुखिया जीं भदवा के घरोॅ सें ऐतें देखलकै आरो हाथोॅ में एकटा किताब, हुनकोॅ माथोॅ ठनकी गेलै। बगलोॅ में बैठलोॅ ओझा जी केॅ कहलकै, ज़रा अनिल केॅ हिन्नें आवै लेॅ कहौ, घोॅर पीछू ढुकतै।

ओझा जी मुखिया के संकेत पैतें अनिल केॅ हाँक पारलकै आरो बुलाय लेलकै।

ऊ बरन्डा पर जेन्हैं आवी केॅ खाड़ोॅ होलै तेॅ मुखिया जीं आपनोॅ गुस्सा छुपैतें पूछलकै, "ई तोरोॅ हाथोॅ में कोॅन किताब छेकै? के देलेॅ छौ-भदवां?"

"हों, वहीं देलेॅ छै-कहलेॅ छै-रात भरी में पढ़ी लेना छै।"

"ओझा जी, ज़रा किताब लियौ।"

ओझा जी जेन्हैं अनिल के हाथोॅ सें किताब लेलकै तेॅ मुखिया जीं फेनू कहलकै, "किताब के आठ-दस पन्ना ज़रा हमरौ पढ़ी केॅ सुनावौ तेॅ ओझा जी."

हुनकोॅ कहना छेलै कि ओझा जी किताब केॅ बीचोॅ-बीच सें खोललकै आरो पढ़ना शुरू करी देलकै,

" रधिया मझधार में छेकी? ओकरोॅ मनटुन के प्रति प्रेम ज़्यादा उजागर होय गेलोॅ छेलै। मनटुनो नर्सिंग ट्रेनिंग के होस्टल में जाय केॅ भेंट करै छेलै। गंगा केॅ कुच्छू समझ में नै आवै कि ई दुर्निवार आकर्षण के आखिर अन्त की होतै। की समाज एतना बदली गेलोॅ छै? कि मनटुन के मोॅन रधिया के वास्तें ओतने सहै आरू तपै के हिम्मत रखै छै, जेतना रधिया के भीतर छै? मतरकि प्रेम के बेबसी जानी गेला के बाद गंगो जानै छै कि ई सब सवाले व्यर्थ छै आरू वें रधिया केॅ कुच्छू नै कहै छै।

मतरकि होलै वहेॅ, जेकरोॅ शंका गंगा के मनोॅ में उठी रहलोॅ छैलै। मनटुन के बीहा ठीक होय गेलै आरू रधिया लुग मनटुन नें कानी-कानी केॅ आपनोॅ मजबूरी बताय देलकै, "माय जहर खाय के धमकी दै देलेॅ छै आरू वैंनै चाहतेॅ हुएॅ भी ई बीहा के विरोध नै करेॅ पारै छै।" रधिया एकदम्मे सें जेनां सपना सें जागी गेली छेलै। एकरोॅ पहिनें, मनटुन कभियो भी आगू की होतै, एकरोॅ बारे में सोचै नै छेलै।

रधिया गाँव लौटली तेॅ ओकरोॅ टोला के लोगें कुछू उपद्रव करै लेॅ चाहै छेलै। अमंगल के अशंका सें रधिया नें साफ-साफ कही देलकी, "ओकरा मनटुन सें कहियो प्रेम नै छेलै। ओकरा एन्होॅ कमजोर आरू बिन पेन्दी के लोटा सें वैं प्रेम कर्है नै पारै छेॅ।"

ओकरोॅ बाद सें रधिया बांका के एक छोटोॅ टा अस्पतालोॅ में रही गेली। नै भागलपुर आवै लेॅ चाहै आरू नै गाँव। पनरह बरस के साथ आरू बचपन के खेलथैं-खैथैं जे प्रेम उगलै, वहेॅ जीवन ओकरोॅ आँखी के सामनें आवी रहलोॅ छेलै। गंगा ओकरोॅ मन के दुख समझी रहलोॅ छेली आरू मनटुन ओकरोॅ भाय लागै छेलै, जैसें गंगा के अन्दर कुच्छू अपराधो बोध जगी रहलोॅ छेलै। वैं नें पुरुष होय के अहम में ही एक लड़की के साथ खाली यै लेली छोड़ी देलकै कि ऊ ओकरोॅ जात, दहेज सिनी के कसौटी पर खरोॅ नै उतरी रहलोॅ छेली। गंगा लुग जबेॅ रधिया ऐली तेॅ दुन्हू एक दोसरा सें आँख चोरैत्हैं रहली। मतरकि जबेॅ गंगा नें आपनोॅ आरू प्रशान्त के बीच आपनोॅ सम्बन्ध के बात बताय केॅ प्रशान्त के बदली होय गेला के बात बतैलकै तबेॅ रधिया फूटी-फूटी केॅ कानेॅ लागली। कहेॅ लागली, "तोहें तेॅ प्रशान्त केॅ बतैवे नै करलौ, मतरकि हम्में तेॅ मनोॅ के एक-एक टा बात मनटुन केॅ बताय देलेॅ छेलियै, तहियो हम्में हारी गेलियै। तोरा ठुकराय के दरद तेॅ नै भोगै लेॅ पड़लौं। नारी मोॅन घायल केना होय छै, यहेॅ दरद आज तक भोगी रहलोॅ छी।"

गंगा नें गम्भीर होय केॅ कहलकी, "सच्चे रधिया, आपने दरद बेसी बड़ोॅ लागै छै। जेकरा मोॅन चाहै छै, मुँहोॅ सें ओकरा बताना की ज़रूरी होय छै, की वैं प्रेम के भाषा नै बुझेॅ पारै छै। हमरा विश्वास नै होय रहलोॅ छै कि प्रशान्त केॅ प्रेम समझ में नै ऐलोॅ रहै, यहो तेॅ ठुकरैवे होलै नी।"

रधिया गंगा के तकलीफ समझी केॅ ही दोसरोॅ सिनी गप्प करेॅ लागली। आरो फेनू दुनो नें आपनोॅ काम के गप्प शुरू करी देलकी।

बादोॅ में एक दिन रधिया ऐली तेॅ थोड़ोॅ टा प्रसंग चलत्हैं गंगा मुसकाय केॅ बोलली, "छोड़ रधिया और भी गम है जमाने में मोहब्बत के सिवा, तोहें अस्पतालोॅ में सेवा करी केॅ बड़का काम करी रहलोॅ छैं आरू हम्में जिनगी के अधूरा खाता आपनोॅ बैंकोॅ में खोली केॅ राखलेॅ छियै।" गंगा के मनोॅ पर पड़लोॅ बोझ केॅ जानी केॅ ही रधियां निवेदिता के बारे में पूछेॅ लागली। गंगा के चेहरा चमकी गेलै, "बहुत अच्छा करी रहली छै, पत्रकारिता रोॅ संसार के बारे में चिट्ठी लिखनें छै।"

गंगा दुनिया भर सेें आपनोॅ तकलीफ छिपाय केॅ रात के सन्नाटा में सोचेॅ लागै कि सचमुच प्रशान्त ओकरोॅ प्रेम सें अनजान छेलै आकि मनटुन नाँखि वहू ओकरोॅ साथ नै दिएॅ पारतियै, यही लेली मूँ नै खोललकै, "तोहें हमरोॅ जीवन में कैन्हें ऐलोॅ प्रशान्त, हम्में आपनोॅ जीवन में जेना छेलां, ठीक्के छेलां।"

ओझाजी बीचे में रुकी केॅ तीन-चार पन्ना उलटैतें फेनू पढ़ना शुरू करलकै,

"दुर्गापूजा नगीच आवी गेलोॅ छेलै, मतरकि धूप में वहेॅ रँ तेजी छेलै। गरमी सें पस्त होली गंगा जल्दी घोॅर आवी रहलोॅ छेली। रिक्शा आय चौराहा पर नै छेलै तेॅ गंगा वहीं ठां रुकै के बदला पैदले चली देलकै। तखनिये रस्ता में एक आदमी ओकरा छेकी केॅ खाड़ोॅ भै गेलै। गंगा नें आँख उठैलकी तेॅ ऊ अनजान आदमी के चेहरा एतना नगीच सें देखी केॅ डरी गेली। ऊ कुच्छू बुझतियै तब ताँय एकदम्में उजड्ड रँ आवाज में बोलेॅ लागलै," सोझें-सोझें कही दै छियौं कि ऊ घोॅर सें दोसरा जग्घोॅ भागी जा, नै तेॅ एक दिन तोरा उठवाय लेभौं। लोगें कहतौं, कोय यार जोरें भागी गेली होतै। " असभ्य चेहरा, असभ्य व्यवहार आरू असभ्य भाषा। गंगा के देहोॅ में एक सिहरन रँ जागी गेलै।

आय ताँय आपना पर बड्डी भरोसा छेलै, भला आरू पढ़लोॅ-लिखलोॅ लोगोॅ के बीचोॅ में आपनोॅ बातो जोरदार ढंगोॅ सें राखै लेॅ जानै छेली। कम उमर में बहुत्ते कुच्छू झेली केॅ बुद्धि सें परिपक्व होय गेली छेलै, मतरकि सुनसान रस्ता में ऊ प्रस्ताव आरू धमकी सुनी केॅ वैं एतना भर कहलकी, "ई कोय जबरदस्ती छेकै। ई सब बात मकान-मालिकोॅ सें करना चाहियोॅ।"

"ज्यादा चपड़-चपड़ नै करवैं, एखनिये मजा चखाय देभौं तोरा आरू तोरोॅ यार तपनो केॅ।" एतना आमना-सामनें सें अभद्र भाषा सें ओकरा पाला नै पड़लोॅ छेलै। ऊ चुप रही गेली। सामन्हैं वाला छौड़ा आपनोॅ साथी साथें मदमस्त हाथी नाँखि झूमी रहलोॅ छेलै आरू एक हाथ सें चाकू केॅ दोसरा हाथोॅ में लोकी रहलोॅ छेलै, फेनू ओकरा जेब में रखी देलकै। सामने वाला सड़क पेॅ कुच्छू आदमी केॅ ऐतैं देखी केॅ फेनू ऊ दोनों छौड़ा टरकी गेलै।

काँपली-हफसली गंगा घोॅर ऐली तेॅ दुआरी पर कत्तेॅ नी कूड़ा-कर्कट राखलोॅ छेलै। पैरोॅ सें टारी केॅ दरवाजा खोललकी आरू बिछौना पर गिरी केॅ कानेॅ लागली। कपसी-कपसी केॅ माय-बाबुजी केॅ याद करे ंॅ लागली। हुनकोॅ रहतें कोय पड़ोसी ओकरा रण्डी, कसबी तेॅ नहिये बोलेॅ पारतियै। मतरकि माय बाबुजी कत्तेॅ दिन साथ रहेॅ पारतियै। फेनू जेना अन्हारोॅ में बिजली चमकलोॅ रहै, प्रशान्त के याद आवी गेलै-जबेॅ देवघर जाय के रस्ता में ऊ डरी रहलोॅ छेली आरू प्रशान्त नें ओकरा विपत्ति सें उबारी लेनें छेलै। यहो सोचेॅ लागली कि आखिर प्रशान्त ओकरोॅ जीवन में ऐलै कथी लेॅ-एक्के आदमी जे मनोॅ केॅ अच्छा लागलै ओकरा, मजकि कतना कम समय तक के साथ मिललै, तहियो कत्तेॅ मर्यादित, कत्तेॅ संतुलित। ऊ चांदनी रात में मनोॅ के जे गाँठ खुलतें-खुलतें रही गेलोॅ रहै, आय वही सम्पत्ति बनी केॅ हमरोॅ पास राखलोॅ छै। "

ओझा जी केॅ लागलै, मामला आगू गहरैतै, से दस-ग्यारह पन्ना आगू बढ़ैतें फेनू तेजी से पढ़ना शुरू करलकै,

" राधा बौंसी सें एक महिला मरीज साथें ऐली रहै। डिलेवरी केस छेलै। थोड़ोॅ जटिल होय गेलोॅ रहै आरू घरोॅ में कोय जनानी नै रहै तेॅ ओकरोॅ तकलीफ देखी केॅ साथें चल्ली ऐलै। राधा केॅ बौंसी में मोॅन लागी गेलोॅ छेलै। जखनी वैं कोय माय केॅ नवजात शिशु ओकरा थमाय दै तेॅ जेना ओकरोॅ मातृत्वो तृप्त होय जाय, नै तेॅ विधना नें तेॅ जेना दूनो सक्खी के कपारोॅ में एक्के रँ दुख लिखी देनंे छै। शुरू-शुरू में बड्डी उखड़लोॅ रँ मोॅन लागै, परेशानियो रहै, डरो लागै, आबेॅ एकदम्मंे सें स्थिर मोॅन होय गेलोॅ छै। वाँही छोटोॅ रँ घर बनाय लेलेॅ छै। समाजोॅ में इज्जत छै, गरीब-गुरबां भगवाने मानै छै।

बौंसी के ऊ अस्पताल तेॅ बस नामे के छेलै, पाँच ठो बेड छोड़ी केॅ आरू कोय सुविधा नै, जंग लगलोॅ सब्भे औजार, ज़रूरी जीवन-रक्षक दवैय्यो नै। एक ठो डॉक्टर कहियो कदाल आवी जाय छेलै। एक ठो किरानी बैजनाथ महतो आरू एक ठो सिस्टर राधा-साधनहीन लोगोॅ के दुख-तकलीफ सुनै वाली आरू लोगोॅ के शक्ति भर मदद करै वाली रहै। राधा लुग व्यस्क शिक्षा के सुपरवाइजर जनानियो आवै छेली। पचीस बरस के विधवा छेली। पढ़ली-लिखली आरू दोसरा जग्घोॅ के होला के कारणें बौंसी ऐला पर ऊ सिस्टर राधा के अस्पताल के पासे आवी जाय। अस्पताले के बरण्डा पर पढ़ाय-लिखाय के कामो होय छेलै।

मरीजो साथें भागलपुर ऐला के बादे सें ऊ लगातार गंगा सें मिलै के कोशिश करी रहलोॅ छेली, मतरकि समय नै मिली रहलोॅ छेलै। बौंसी सें चलै वक्ती रेवती वाँही छेली, ओकर्है कही केॅ ऐली छेलै कि बैजनाथ बाबु केॅ बताय देतै कि स्थिति गंभीर देखी केॅ जाय रहली छै। पता नै, वैं कहलकै कि नै, की वहो वहेॅ दिन लौटी गेली।

राधा कहियो-कदाल रेवती सें पूछै छेलै, "की खेती, सरकारें एक तरफ अस्पताल रँ जीवन दै वाला जग्घोॅ में पैसा दै में नतीजा पुराय दै छै, डीॉ-डीॉ टीॉ आरू ब्लीचिंग पावडर तक लेली महीनो करै लेली पढ़ै छै। दोसरी तरफ व्यस्क शिक्षा के नामो पर अन्धेर मचाय रहलोॅ छै। सन्तोखी बाबु के भुसखारी घरोॅ में किताब-कॉपी ठुँसलोॅ छै, वैशाली कॉपी तेॅ दुकानी में बिकिये जाय छै। पढ़वैया के ठिकाने नै, खेतोॅ के टूटलोॅ-हारलोॅ मजूरोॅ केॅ पकड़ी-पकड़ी दू अक्षर पढ़ाय केॅ खाना पूर्त्ति होय रहलोॅ छै, की ई अन्याय नै छेकै।" रेवती खाली चुप्पेचाप सुनै, कहियो-कहियो मुस्की केॅ कहै, "दीदी यहाँ तेॅ कहियो-कदाल आठ-दस आदमी पढ़ियो रहलोॅ छौं, परियोजना पदाधिकारियो देखै-सुनै लेली आवी जाय छौं, मतरकि बगल वाला ब्लाकोॅ में तेॅ देखभौं नी तेॅ कारोॅ कौवो नै आरू रजिस्टर पर पचपन आदमी भरलोॅ रहै छै।"

राधा आपनोॅ अस्पतालोॅ के दुर्दशा सें भन्नैली रहै, यै लेली अक्सरे टोन मारै छेली, "हम्में तेॅ तपन बाबु केॅ कहवै, जनता के पैसा की हलवा-पूरी खाय लेली छै।" राधा आपनोॅ कुरसी छाया तरफ करी केॅ बैठली छेलै, रेवतियो झोला धरी केॅ नजदीक बैठी गेली, "हमरोॅ तेॅ यहेॅ रोजी-रोटी छेकै, गरीब बेसहारा के एक नौकरी मिली गेलोॅ छै बड़का बात। मतरकि तोरोॅ शिकायत करला सें कुच्छू नै होतै। बड़का सें बड़का आदमी कानोॅ में तेल डाली केॅ सुतलोॅ छै तेॅ कोय बात ज़रूरे होतै।"

राधा केॅ मसखरी सूझी गेलै, "सुनै छिहौं कि तोह्रोॅ विभागें किरासन तेलो खूब पीवी रहलोॅ छौं।" रेवतीं मूड़ी झुकाय लेलकी, "हों गाँव में लालटेन आरू किरासन तेल के नामोॅ पर ढेरे पैसा आवै छै। आबेॅ आगू की कहियौं, छोड़ोॅ यहो कथा।" तखनी तेॅ राधां चुप्पी लगाय गेली, मतरकि जबेॅ राधा के ढेरे कोशिश के बादो बच्चा केॅ नै बचावेॅ पारलकी तेॅ राधा केॅ बड्डी दुख होलै। यदि बौंसी में सुविधा रहतियै, आय ऊ जनम लै सें पहिनें नै मरी जैतियै। रोगी के शरीर मेें खून नै छेलै, बच्चा हृस्ट-पुष्ट छेलै, मतरकि समय पर आपरेशन नै करला सें बच्चा पेट्हैं में दम तोड़ी देलकै।

राधा जबेॅ गंगा सें भेंट करै लेली गेली तेॅ ओकरोॅ आँख भरी-भरी आवै। ओकरोॅ झमान मोॅन देखी केॅ गंगा कहलकै, "तोहें कैन्हें दुखी होय छोॅ राधा, तोहें माय केॅ तेॅ बचाय लेल्हौ नी, नै तेॅ ओकरोॅ की हालत होतियै?"

"हौं गंगा, माय केॅ तेॅ बचाय लेलियै, मतरकि भविष्य केॅ तेॅ मारी देलियै नी। की व्यवस्था छै आय, जेकरोॅ पास पैसा छै, ओकर्है पास ज़िन्दगी छै। जानै छौ, ऊ लड़की पहली बेर माय बनी रहली छेलै। ओकरा पता चललै तेॅ एकदम्में सें फक्क पड़ी गेलै। कानै के तेॅ ओकरा ताकते नै छेलै। ओकरोॅ आदमी खेतोॅ में मजूरी करै छै, ऊ वाँही कानी रहलोॅ छेलै। हमरा पर बड्डी विश्वास छेलै। दुख मनावै के अधिकारो तेॅ गरीबो केॅ नै होय छै, काम नै करतै तेॅ खैतै की?" भारी मनोॅ सें राधा बताय रहली छेलै। "

जे बात मुखिया जी आरो ओझा जी सोचलेॅ छै, ऊ बात तेॅ ई किताबोॅ में काँहीं नै छेलै। तेॅ की भदवा बारे में जे बात कहलोॅ जाय छै, ऊ ग़लत छै? मुखिया जीं मने-मन सोचलकै, पर बोललै कुछ नै।

किताब केॅ लौटाय के संकेत करतें हुनी अनिल सें कहलकै, "खाली उपन्यास पढ़ला सें जीवन नै कटै वाला छै। साधूगिरी में कुछ हासिल होलौ नै, आबेॅ ई उपन्यास पढ़ी केॅ की मिलतौ। घोॅर लौटी गेलोॅ छैं तेॅ खेती-गृहस्थी देखें, जेकरा सें घोॅर आरो संसार चलै छै।" यही कही केॅ मुखिया जी उठी गेलै। ओझा जी नें ऊ किताब अनिल केॅ थमैलकै आरो एक दिश चली देलकै।