भदवा चन्दर, खण्ड-16 / सुरेन्द्र प्रसाद यादव
अभय तेॅ एकदम गदगद छेलै। भदवा चन्दर आरो अनिल खाली मुकुर-मुकुर ओकर्है ताकी रहलोॅ छेलै। अभय कहलेॅ जाय रहलोॅ छेलै, " खगड़िया में अखिल भारतीय साहित्य कला मंच के चौदहवां महाधिवेशन छेलै। महामंत्री गुरेश मोहन घोष सरल आरू उपमाहमंत्री हीरा प्रसाद हरेन्द्र जी के किरपा सें ऊ अधिवेशन में हमर्हौ शिरकत करै के मौका लागलै। जतरा बड़ा मनभावन रहलै।
दू दिनोॅ के रंगारंग झकास, गीत-संगीत के अनेकानेक सुर बिखेरतें अधिवेशन हुलासोॅ सें सम्पन्न होय गेलै। दू राती के थकौनी आरू जगरना नें देह-हाथ तेॅ तोड़ीये देलकै, मतर खुशिये हेनोॅ छेलै कि ऊ मनोॅ में बिलाय गेलै। दोसरोॅ दिन कार्यक्रम रात के बारह बजे तांय चल्लो छेलै; गप्प-सड़क्का नें लोगोॅ केॅ रात के टेरे नै लागै लेॅ देलकै।
एकदम बिहानी सब सामान बान्ही केॅ तैय्यार। हम्मू चुपचाप तैयार भेलां। अबेॅ विचार हुवेॅ लागलै कि गेलोॅ जाय केना? कोय गाड़ी के टेर बतावै तेॅ काय बसोॅ सें जाय के सुझाव दै। अभी बात-चीत चलिये रहलोॅ छेलै कि डॉॉ अमरेन्द्र जी चन्द्रप्रकाश जगप्रिय जी केॅ लैकेॅ हाजिर होय गेलै। हुनका साथें एक-दू टा आरू लोग छेलै। जगप्रिय जी गया के टेकारी थाना मेें दारोगा छेलात। पुलिस सेवा में रहीयो केॅ हुनी साहित्य के अनमोल सेवा करी रहलोॅ छै। सचमुच में ई सौंसे अंगप्रदेश वास्तें गौरव के बात छै। ऐत्हैं डॉॉ अमरेन्द्र बोली उठलै-"की, होय गेल्हौं तैय्यारी? चलोॅ तबेॅ देर कोॅन बात के."
"तैय्यारी तेॅ भै गेलै! मतरकि जैवोॅ केनां! है तेॅ बतावोॅ।" सरल बाबू नें सवाल राखलकै। "बसोॅ सें या गाड़ी संे या आरो कोनो सवारी सें।" ई सवाल के जवाब डॉॉ अमरेन्द्र जी के पास पहिनें सें मौजूद छेलै, "चलोॅ नी। जगप्रिय जी साथें महेश खूँट तांय जावेॅ पारै छी। वहाँ सें बस पकड़ी केॅ भागलपुर पहुँची जैवै।" जगप्रिय जी के नाम सुनत्हैं मोॅन खुशी सें झूमी उठलै। सुनलेॅ छेलियै कि हुनकोॅ व्यक्तित्व ही ऐहनोॅ छै कि आदमी चुम्बक रँ सट्टी जाय। देखवो करलियै, छै तेॅ हुनी पुलिस इंसपेक्टर, मतरकि ऐहनोॅ हंसमुखिया कि हँसैतैं-हँसैतें मोॅन औंट-पौंट करी दै छै! टेरे नै लागै देत्हौं कि हुनी पुलिस अफसर छेकै। नाम तेॅ बहुत पहनें सुनलेॅ छेलियै, मतरकि हुनका देखै के सौभाग्य अधिवेशने में मिललै। साँवला रंग, चौड़ा ललाट, तेज आँख, हट्टा-कट्टा बदन, देखै में सचमुच्चे पुलिस ऑफिसर। मतरकि स्वभाव हुनकोॅ एकदम उल्टा पर्वत में पानी के हिलोल कोय कहवे नै करतै कि हुनी पुलिस ऑफिसर होतै। हुनी आपनोॅ जीप लेनंे टेकारी सें सीधे खगड़िया पहुँचलोॅ छेलात। जबेॅ तांय हुनी रहलै। हों तेॅ सबकेॅ हँसैथैं-गुदगुदैथैं रहलै, हुनकोॅ जीपोॅ में जाय के खबर सुनी एकबारगीये मोॅन चहकी उठलै, हुनकोॅ साथें तेॅ पूरा रस्ता हँसी-ठहाके में कटी जैतै, सोचलियै।
सरसराय केॅ सबठो छत्तोॅ सें नीचें उतरी गेलाँ आरू दनदनाय केॅ सब जीपोॅ में बैठी गेलाँ। जेकरा जहाँ जग्घोॅ मिल्लै, आसन जमाय लेलकै। सरल बाबू, हीरा बाबू, दिनेश बाबू, डॉॉ अमरेन्द्र, प्रदीप प्रभात, जगप्रिय जी और हुनकोॅ ड्राइवर, देखत्हैं-देखत्है जीप ठस्सम-ठस भै गेलै। किरण फूटला के पहिनें जीप चली देलकै सीधे पूरब दिश। हिन्नें जीपोॅ के रफ्तार बढ़लै आरू हुन्नें गप्प-सरक्का शुरू। गूंजेॅ लागलै हँसी-ठहाका। चुटकी लेथैं डॉॉ अमरेन्द्र जी जगप्रिय जी सें बोली उठलै-"जगप्रिय जी, जबेॅ है रं हंसी-मजाक करी कविता बाँचलोॅ फिरवौ तेॅ फेनू कोय चोर-उचक्का केनां डरथौं। केनां पकड़वौ होकरा।" "से सारोॅ कोॅन खेतोॅ के मूली छेकै, जे हमरा बगाही दै केॅ फरार होय जैतै। बुझै न हमरा साहित्यकार। कविते सुनाय केॅ होकरा दाबी-मोचारी देवै।" बड़ा करारोॅ सें जगप्रिय जी नें जोड़लकै। सुनत्हैं एक बार फेनू सब्भे ठहाका लगैलकै। हुनकोॅ ड्राइवरो आपनोॅ हँसी केॅ नै रोकेॅ पारलकै। हँसी ठहाका के दौर काफी देर तांय चलते रहलै। जगप्रिय जी नें आपनोॅ जीवन के रोचक प्रसंग सुनाय-सुनाय केॅ सबके मनोॅ में गुदगुदी लगाय देलकै। एक प्रसंग छेलै-" जगप्रिय जी के घरोॅ में इमरजंसी बुलावा आवी गेलै। हुनकोॅ बाबूजी आपनोॅ विश्वासी खबरिया केॅ खबर दै वास्तें भेजलकै। हिन्नें खबरिया विदा होलै आरू हुन्नें कुच्छू घंटा बादें हुनी दाखिल होय गेलै। बाबूजी केॅ अचरज होलै कि एत्तेॅ जल्दी केनां उड़ी केॅ ऐलै! हुनी बतैलकै कि हमरा तेॅ बड़का साहबें वायरलेस सें खबर देलकै। बादोॅ में पता चललै कि खबरिया खबर दै लेॅ जाय रहलोॅ छेलै कि हुन्नें सें बड़का साहब आवी रहलोॅ छेलै। अनचोके खबरिया जीप रोकवाय लेलकै आरू जगप्रिय जी केॅ दै वाला खबर सुनाय देलकै। बड़का साहब खबर केॅ महा इमरजेंसी समझलकै आरू जगप्रिय जी केॅ खबर दै देलकै। सचमुच में ई प्रसंग बड़ी रोचक छेलै, जे जगप्रिय जी के मुँहोॅ सें सुनला पर ही गुदगुदी दिएॅ पारेॅ, कैन्हेंकि खबरिया के भोला-भाला व्यवहार के वर्णन बचले रही गेलोॅ छै।
जीप खगड़िया शहर केॅ पाछू छोड़ी चुकलोॅ छेलै। एकाएक डॉॉ अमरेन्द्र जी नें सबके ध्यान तोड़लकै-"तोहें सब जानै छौ, यहीं ठिंया बन्नी गामोॅ में गदाधर अम्बष्ठ रहै छेलात, जौनें अंगिका साहित्य वास्तें आपनोॅ सब्भे कुच्छू समर्पित करी देलकात। तेॅ कहिनें नी ऊ माटी के दर्शन करी लेलोॅ जाय, जौंने ई रं के सपूत केॅ जनम देलेॅ छेलै। चलियैं नी। जबेॅ हिन्नें ऐलोॅ छियै तेॅ ऊ माटी के दर्शनो करी लेनां चाहियोॅ।" सब्भे नें प्रफुल्लित होय केॅ डॉॉ अमरेन्द्र जी के हाँ में हाँ मिलैलकै आरू बन्नी गाँव के तलाश में जीप आगू बढ़ी गेलै। बन्नी गाँव जाय के खबर नें तेॅ हमरोॅ खुशी दुगुना करी देलकै। हम्में आपना केॅ बड़ा सौभाग्यशाली समझलियै कि ऐहिनोॅ विद्वान सबके साथें एक गौरवशाली ऐतिहासिक स्थल के दरशन लेली जाय रहलोॅ छियै। नरम-नरम धूप आरो फुर्र-फुर्र बहलोॅ हवा नें मौसम केॅ बड़ा सुहानोॅ बनाय देलेॅ छेलै।
नवम्बर महीना छेलै, बेसी ठंडा नै। कुच्छू लोगोॅ के देखी केॅ एक चौराहा पेॅ जीप रुकी गेलै। "की हो। यहाँ पेॅ एक बन्नी गाँव छै; जानै छौ!" अमरेन्द्र जी नें पूछलकै। सुनत्हैं सबके होश गुम। इधर-उधर ताकेॅ लागलै। कोय जीप केॅ देखै तेॅ कोय जीपोॅ में बैठलोॅ सवारी केॅ। एक छवारिक नें बड़ी हिम्मत करी केॅ जवाब देलकै-"आगू बढ़ी केॅ देखोॅ नी। हमरा सबकेॅ कोय जानकारी नै छौं।" गाड़ी आगू बढ़ी गेलै। रास्ते में एकटा जनानी भेटी गेलै। देखत्हैं जगप्रिय जी बोली उठलै-"हे गे दइया। बतावै तेॅ बन्नी गाँव जाय के रस्ता किन्नें छै?" 'दइया' शब्द सुनी हमरो सिनी हतप्रभ। केकरो नौड़ी-दाय कही केॅ बोलैला पेॅ होकरा तकलीफ तेॅ होवे करतै, शायद होकर्हौ बुरा लगलोॅ होतै। ऊ बेचारी सबकेॅ टुकुर-टुकुर मुँह देखेॅ लागली। फेनू ऊ कहलकै-"हमरा नै मालूम छै बाबू" कही केॅ आपनोॅ रस्ता पकड़ी लेलकी। बादोॅ में अमरेन्द्र जी ने जगप्रिय जी सें पूछलेॅ छेलै तेॅ मालूम होलै कि गंगा-पार में खास करी खगड़िया में बहिन केॅ दइया कही केॅ ही बोललोॅ जाय छै। सबके मोॅ शांत होलै।
गाड़ी फेनू आगू बढ़ी गेलै, रस्ता में डॉॉ अमरेन्द्र जी कहै छै-"शायद पुलिस-गाड़ी समझी केॅ सब हड़की जाय छै। यही लेली कोय बढ़ियां जवाब नै दै छै।" "हाँ सच्चे कहै छौ।" सबनें हुँकारी भरलकै। जगप्रिय जी केॅ फेनू चुहलबाजी सुझलै। एक बुढ़ोॅ केॅ देखत्हैं बोली उठलै-"हे हो बूढ़ा झामलाल।" सुनत्हैं जीपोॅ में बैठलोॅ सब्भे ठहाका लगैलकै। हम्मू आपनोॅ हँसी नै रोकेॅ पारलियै। बूढ़हो खाड़ोॅ होय केॅ सबकेेॅ कोन्हराय कॅ घूरेॅ लागलै-"बन्नी गाँव जानै छौ?" जगप्रिय जी नें सीधा सवाल दागलकै, "जहाँ गदाधर अम्बष्ठ जी नें जनम लेलेॅ छेलै।" बूढ़ा नें दिमाग पेॅ जोर लगैलकै।
"हुनी अंगिका साहित्य के अच्छा लिखवैय्या छेलै।" प्रदीप प्रभात जी नें जना हुनका याद दिलाय के कोशिश करलकै। बूढ़ा बोललै-"बन्नी गाँव तेॅ बहुत्ते बड़ोॅ छै। सात टोला के गाँव छेकै। हुनी कोॅन टोला के छेकात, नै बतावेॅ पारौ। हुनी कायथ छेलात। हुनकोॅ डीह तेॅ कायथैं टोला में होतै।"
"कायथ टोला किन्नेॅ छै? यहेॅ टा बताय दियै।" सरल बाबू नें हुनका खुरदलकै, तेॅ बूढ़ा बोललै-"जा नी आगू बजरंगवली चौंकोॅ सें दाहिना दक्खिन मुड़ी जैहियोॅ। सीधें बन्नी गाँव पहुँची जैभौ।" कही केॅ हुनियो आपनोॅ रस्ता नाँपी लेलकै। बन्नी गाँव सात टोला के छेकै। हुनकोॅ घोॅर कोॅन तरफ होतै? घोॅर होतै की नै होतै, कहना मुश्किल, कोय टेर-पते नै-हेकरोॅ बावजूद अनजान बनलोॅ जीप अन्हारोॅ में तीर छोड़लेॅ आगू बढ़ी गेलै। ऐहिनोॅ भटकाव में तेॅ आदमी ओकताय जाय छै मतरकि साहित्यकारोॅ के जोश आरो संकल्प के दाद देना चाहियोॅ। हुनकोॅ इरादा अभियो तांय अटल छेलै। "पाताल पुरियो में बन्नी गाँव होतै तेॅ होकरा खोजी निकालवै।" जगप्रिय जी कहलेॅ छेलै। हमरोॅ खुशी रोॅ तेॅ ठिकाने नै छेलै। भोर के ललकी किरनियां में नया-नया गाँव-टोला देखै के मजे कुच्छू दोसरे छै। जीप चौराहा सें सीधे दक्खिन मुड़ी गेलै आरो टेढ़ोॅ-मेढ़ोॅ रस्ता नाँपलें आगू बढ़ी गेलै। सड़क किनारी के लम्बा-चौड़ा खेत-पथार, बाग-बगीच्चा आरो सटले बाँस-बीट्टा नें मोॅन मोही लेलकै। जीप कुच्छू दूर आगू बढ़ी केॅ एक जग्घा पर अचानके रुकी गेलै। जीप जाय के आगू रस्ते नै। अबेॅ की करलोॅ जाय? पंक्ति याद आवी गेलै-"पास आकर जो लौट जाये वह सच्चा शूर नहीं है।" फेनू की छेलै, हमरा सब जीपोॅ सें उतरी गेलां आरू जीपोॅ केॅ ड्राइवर के भरोसा छोड़ी सिधियाय गेलियै गामोॅ दिश। खोजला सें की नै मिलै छै। अन्हारोॅ में सूइयो मिली जाय छै। आखिर पुछतें-पुछतें, खोजतेॅ-भटकतेॅ बन्नी गामोॅ के ऊ टोला पहुँचीे गेलियै, जहाँ गदाधर अम्बष्ठ जी के टेर-पता दै केॅ एक छवारिक सें पूछलोॅ गेलै तेॅ हुनी एक परती खेत के तरफ ईशारा करलकै। हमरोॅ सिनी के जेरोॅ झट पहुँची गेलै, ऊ डीहोॅ पर आरो निहारेॅ लागलियै-एक-एक चीज। ई ंट-पत्थर, गाछ-बिरिछ, परती खेतोॅ के माँटी. जेन्हां लागै-हेरैलोॅ बेसकीमती चीज के निशानी मिली गेलोॅ छै। हुनकोॅ यादगारी केॅ समेटलेॅ खेत के ई ंट-पत्थर-बेसकीमती थाथी ही तेॅ छेकै। साहित्यकार केॅ आरो की चाहियोॅ? तब तलक अगल-बगल के ढेरी लोग जेरोॅ बान्ही केॅ पहुँची गेलोॅ छेलै। सबकेॅ आश्चर्य। ई सब के छेकै? आरो कथी लेॅ पहुँचलोॅ छै? एके नें तेॅ पूछिये देलकै-"आपनें सब के छेकियै? कथी लेॅ ऐलोॅ छियै?" सुनी केॅ हमरा सब केॅ लागलै कि गांव वाला डरी रहलोॅ छै। गाँववाला केॅ आश्वस्त करतें जगप्रिय जी कहै छै-"हमरा सब खुफिया पुलिस के आदमी नै छेकियै। हम्में सब साहित्यकार छेकियै आरो गदाधर अम्बष्ठजी के बारे में कुच्छू जानै लेॅ चाहै छियै।" फेनू हुनी एक-एक करी केॅ सबरोॅ परिचय करैलकै। शायद गाँव के ऊ आदमी अम्ब्ष्ठ जी के बारे में जानै छेलै, हुनी बतैलकै-"हुनकोॅ आबेॅ यहाँ कुच्छू नै रहलै। हुनकोॅ बेटा-परिवार पटना में रही रहलोॅ छै। हम्मीं तेॅ हुनकोॅ ई डीह खरीदलेॅ छियै।" हुनी अम्बष्ठजी के बेटा-परिवार के टेर-पता देलकै आरो बतैलकै-"आबेॅ यहाँ कोय नै आवै छै।"
आखिर की करलोॅ जाय? फेनू तय करलोॅ गेलै-सब्भें यहाँ खाड़ोॅ होय केॅ फोटो खिचवाय लौं। कम-सें-कम माटी के निशानी तेॅ रहतै। फेनू की छेलै? हमरा सब बगीच्चा, खेत आरो आरी पर बारी-बारी सें ठाड़ोॅ होय गेलियै। साथोॅ में कुछ ग्रामीणोॅ केॅ राखलियै, यादगारी वास्तें। फटाफट दिनेश बाबा आरो प्रदीप प्रभात जी के कैमरा चमकी उठलै। फेनू जबेॅ लौटेॅ लागलियै तेॅ हमरा सब के पाछू गांववाला के एक झुण्ड पड़ी गेलै, जेनां कोय नेता, अभिनेता के पाछू पब्लिकोॅ के भीड़ उमरलोॅ रहै। तब तलक गदाधर अम्बष्ठ जी के बारे में बताय वास्तें बहुत्ते रोॅ मुँह खुली गेलै। दस आदमी, दस तरह के बात। प्रफुल्लित होय डॉॉ अमरेन्द्र जी कहै छै-"तोरा सब केॅ गर्व करना चाहियोॅ कि ई माटी में एक ऐहनोॅ लाल पैदा होलै, जौनें नै सिर्फ़ अंगिका साहित्य के मान बढ़ैलेॅ छै, बल्कि आपनोॅ करमोॅ सें ई माटी केॅ भी धन्य-धन्य करी गेलै।" गामोॅ के सीमाना पेॅ पहुँचत्हैं एक ग्रामीण नें चहकी केॅ एक पत्रकार केॅ बोलाय आनलकै। हुनी दैनिक जागरण के संवाददाता छेलात। परिचय-पाती के बाद हुनका गदाधर अम्बष्ठ जी के बारे में बतैलोॅ गेलै आरो हुनका सें अनुरोध करलोॅ गेलै कि हुनी आपनोॅ पत्र में अम्बष्ठ जी के बारे में बहुत कुछ लिखेॅ ताकि बन्नी अमर रहेॅ।
बन्नी में कुछ विशेष हाथ नै लगला के कारण सब साहित्यकार गाड़ी में गुमसुम बैठी रहलोॅ छेलै। खाली गाड़ी चलै के आवाजे होय रहलोॅ छेलै। साहित्यकार सिनी के मायूसी केॅ बुझी केॅ ही जगप्रिय जीं ध्यान खींचतें एकटा संस्मरण सुनाय छै कि केना एक दिन ओकरोॅ थाना के मुंशी नें एक दिन पूछलकै कि है जे तोहें कवि सम्मेलन के पीछू बौव्वैलोॅ फिरै छौ, वै में कत्तेॅ पैसा मिलै छौं। हम्में कहलियै, धुर पैसा की मिलतै, काँही चार सौ, काँही पाँच सौ। तेॅ हमरोॅ मुंशी, पता नै की सोची केॅ कहलकै-आय सें तोहें कवि-सम्मेलन में नै गेलोॅ करोॅ। हजार टका तेॅ हम्में केकर्हौ से वसूली केॅ तोरा दै देवौं, एकरा लेली कविता पढ़ै के परेशानी की उठैवोॅ।
जगप्रिय जी सें ई संस्मरण सुनत्हैं सब साहित्यकार ठहाका में डूबी गेलै। ड्रायवर भी संस्मरण के बीच छुपलोॅ रहस्य केॅ समझी केॅ गुदगुदाय उठलोॅ छेलै। देखलियै, वहू हाँसवोॅ करी रहलोॅ छै। जगप्रिय जी नें लगले दोसरोॅ संस्मरण सुनैलेॅ छेलै-एकबार 'उत्तरांगी' लै केॅ बड़ी खुश होलेॅ हम्में आपनोॅ गाँव गेलां, ई दिखावै वास्तें कि देखोॅ, हम्मूं साहित्यकार सें संपादक होय गेलोॅ छियै। गाँव में हमरोॅ पहुँचथैं, गाँव-टोला के लोग जुटी ऐलै, गाँव के बेटा भतीजा इन्सपेक्टर ऐलोॅ छै-बड़का बात छेलै, यही सोची केॅ। हम्मू खुश होय केॅ सबके हाथोॅ में पत्रिका देलां। सबनें कुछ देर लेली उलटैलकै-पलटैलकै। फेनू हम्में देखलियै कि गाँव के छोटका चाचा एक आदमी के कानोॅ में समझाय रहलोॅ छेलै-"लागै छै, चन्दो के निसपेक्टरी आयकल नै चलै छै, यही लेली आयकल ई किताब छापी केॅ बेचेॅ लागलोॅ छै।"
फेनू की बात छेलै-जीप ठहाका सें हेनोॅ गूंजलै कि मत पूछोॅ। हेना केॅ तेॅ रास्ताहै हेनोॅ छेलै कि गाड़ी ऊँच-नीच होय रहलोॅ छेलै। मतरकि लागलै हेने कि गाड़ियो केॅ हौ संस्मरण सें गुदगुदी लागी गेलोॅ रहै। जगप्रिय जी रस्ता भर संस्मरण सुनैथैं रहलै-केना केॅ जबेॅ कॉलेज में नाम लिखैलियै तेॅ गाँव के सब आदमी आवी-आवी केॅ माय के देलोॅ महीना भरी के राशन के पाँचे रोज में उड़ाय दै...केना कथाकार रेणु के चाचा रेणु सें परेशान रहै, आरनी-आरनी। हमरा सिनी तेॅ अम्बष्ट जी के परिवार सें नै मिलेॅ पारेॅ कि दुक्खे भुलाय गेलोॅ छेलियै। हम्में देखलियै कि डॉॉ अमरेन्द्र जी चन्द्रप्रकाश जगप्रिय जी के बारे में जतना टा बतावै छेलै, ऊ तेॅ सच सें आठ आरो बारह आना कम्में रहै। असली चन्द्रप्रकाश तेॅ ऊ दिन हमरोॅ साथ छेलै।
रास्ता भर वहेॅ रँ हँसतेॅ-चहकतेॅ, ठहाका लगैतेॅ महेशखूँट पहुचलियै। आबेॅ तेॅ 'जगप्रिय' जी सें अलग होय के बेरा छेलै। मोॅन व्यथा सें भरी उठलै। एहनोॅ हँसमुखिया पुलिस अफसर सें फेनू कहाँ भेंट होतोॅ, मतरकि हुनका ज़्यादा देर रोकोॅ तेॅ नै पारौं। हुनका घरो तेॅ जाना छै। बागमती पार करी केॅ आपनोॅ गाँव खरैता जाय बेरी हुनी सबकेॅ ताजा जलेबी खिलाय केॅ मुँह मीट्ठा कराय देलेॅ छेलै। फेनू सबसें विदा लैकेॅ ड्राइवर साथें चौथम दिश मुड़ी गेलै मने-मन हुनका कोटि-कोटी धन्यवाद देलां। " अभी अभय आरो कुछ कहतियै कि तखनिये एक दिशोॅ सें सरबतिया के चीख उठलै, जेकरोॅ कारण सबके ध्यान हुन्नें दिश चललोॅ गेलै। भदवां आरनी देखलकै कि सामन्है में एकटा विलामोॅ भैसा गाड़ी के पीछू दौड़लोॅ चल्लोॅ जाय रहलोॅ छै, जेकरा देखी गाड़ी में जुतलोॅ दोनों भैसा गाड़ी लेलेॅ सड़कोॅ सें नीचें खेतोॅ-मेड़ोॅ दिश भागेॅ लागलोॅ छै।
गाड़ी पर सवार टप्पर केॅ पकड़लेॅ जोर-जोर से चीखी-चिल्लाय रहलोॅ छै तै पीछू एक दिशोॅ सें सरबतिया।
भदवा केॅ सब बात समझै में कुछुवे देर नै लागलै आरो ऊ सरपट विलामोॅ दिश दौड़ी पड़लै। विलामोॅ तेॅ फों-फों करी रहलोॅ छेलै। लेकिन भदवो वहा रं तनफनाय गेलोॅ छेलै। ऊ उछली-उछली केॅ गोड़ोॅ सें विलामोॅ के मुँह पर मारै आरो झट सें उठी केॅ खाड़ोॅ होय जाय।
पहिलें तेॅ हेने लागलै कि विलामेें भदवा केॅ खूची-खूची केॅ राखी देतै, लेकिन भदवा के सामना आखिर ऊ पस्त होय गेलै आरो घूमी केॅ बहियारी दिश चली देलकै। बस घूमी-घूमी केॅ ताकी लै।
लेकिन ताकलै सें की। आबेॅ नै तेॅ वहाँ भैंसा गाड़ी छेलै, नै भदवा चन्दर ही।
विलामोॅ केॅ रोकै में भदवा के देह-हाथ में भारी चोट आवी गेलोॅ छेलै आरो ओकरोॅ दोस्त अनिल आरो अभय ओकरा ढोय-ढाय केॅ ओकरोॅ घोॅर दिश बढ़ी गेलोॅ छेलै।
मुखिया जी के बड़की भौजाय छेलै गाड़ी पर। घोॅर पहुँचतैं जबेॅ मुखिया भौजाय के हालत देखलकै आरो इस्थिर होला पर जबेॅ सब जानलकै तेॅ सीधे गाँव दिश झपटलोॅ बढ़लै।
रास्ते में भोला महतो मिली गेलै। पूछला पर पता चललै धनुक लाल के बेटा भदवा केॅ विलामां हुरलेॅ छै।
"की हाल छै?" मुखियां विशेष जानै लेॅ चाहलकै।
"कोय खतरा वाला बात नै छै।"
"शहर सें डॉक्टर बोलाय के ज़रूरत?"
"नै, हेनोॅ बात नै छै। सरफराज हकीम आवी गेलोॅ छै।"
"की कहलकै?"
"कहलकै, कोय घबराय के बात नै, आठ-दस रोजोॅ में ठीक होय जैतै।"
"अभी कहाँ छै चन्दर?"
"घरे पर छै, वहीं से तेॅ आवी रहलोॅ छियै।"
"के-के छै वहाँ पर?"
"लगभग सौंसे गाँव के जनानी समझोॅ।"
' हम्मूं वहीं जाय रहलोॅ छियै। "
"सुनलियै मुखिया जी, ऊ भैसा गाड़ी पर सवार जनानी आपने के घोॅर के कोय सबंधी छेलै।"
"हों भोला, हमरी बड़की भौजाय ही छेलै। जों चन्दर नें ऐन मौका पर आवी केॅ नै संभाली लेतियै तेॅ नै जानौं की होतियै।"
"जे कहोॅ मुखिया जी, होना केॅ तोहें मुखिया छेका, मजकि दुसरोॅ मुखिया समझोॅ भदवा चन्दर केॅ। एकेक आदमी के सुख-दुख के ख्याल रक्खै छै वें। केन्होॅ हँसमुखिया बनलोॅ रहै छै आरो सबकेॅ हँसैतें रहै छै। भगवान नें बेचारा के हाथोॅ में दू पैसा नै देलेॅ छै, नै तेॅ वें आपनोॅ बापोॅ के अरमान आरो सरबतिया के किंछो पूरी देतियै।"
' भोला, एक बात कहै छियौ..."
"की मुखिया जी?"
"चन्दर के यहू सपना पूरा होतै आरो चार-पाँच महीना में नै, एक-दू महीना में। एक विशाल शिवाला बनतै धनुक लाल के सामनाहैवाला परपट जमीनोॅ पर, ओकर्है संे लगले, पाँच कोठरी वाला इस्कूल। जेकरोॅ मास्टर बनतै चन्दर आरो सरबतिया। सरकारीकरण तेॅ बाद में होतें रहतै।"
सुनी केॅ भोला महतो के मोॅन तेॅ लावा रं खुशी संे फूटी रहलोॅ छेलै। रहलोॅ नै गेलै तेॅ वैं मुखिया के गोड़ छूवी लेलकै आरो कहलकै, "धन्य होय जैतै धनुक लाल आरो भदवा चन्दर। वही दोनों कैन्हें-सौंसे गाँव के लोग, जेकरोॅ बच्चा केॅ गर्मी-ठण्डा में ओत्तेॅ दूर इस्कूल जाय लेॅ लागै छै।"
"सब दुख दूर होतै भोला। आरो सरबतिया के भी।"
मुखिया जी के ई बातोॅ पर जबेॅ भोला महतो लिहारी केॅ देखलकै तेॅ गंभीर होतें मुखियां कहलकै, "भोला, सरबतिया के मनोॅ के बात हम्मूं जानै छियै, तहूँ जानै छैं, आरो सौंसे गाँव के लगभग सब्भे जनानी-मरद जानै छै। कुछ हमरोॅ रीति-रिवाज के भी कारणें आरो कुछ आर्थिक वज्हौं सें, आय तक सरबतिया के हाथ चन्दर के हाथोॅ में नै पड़लै। आबेॅ पड़तै आरो हम्में बेटी के बाप बनी केॅ ई करवै-सौंसे गाँव के सम्मुख। चन्दर नें हमरोॅ घरोॅ के रौशनी बचैनें छै, ओकरोॅ घोॅर-द्वार अन्हार नै रहेॅ देवै भोला।"
आरो ई कही मुखिया जी एक दिश बढ़ी गेलै। भोला महतो के तेॅ गोड़े नै उठी रहलोॅ छेलै खुशी सें। ऊ कुछ देर लेली होन्हें मूर्ती बनलोॅ खाड़े रही गेलै।