भदवा चन्दर, खण्ड-1 / सुरेन्द्र प्रसाद यादव

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भादोॅ रोॅ महीना छेलै। चारो ओहारी बरसी रहलोॅ छेलै। कै दिनोॅ सें ही बरसा होय रहलोॅ छेलै। बीचोॅ-बीचोॅ में हेना केॅ बरसा रुकियो जाय छेलै, मतरकि क्षण्हैं में फेनू होन्हे मेघ घिरी आवै आरो फेनू होन्है केॅ झमाझम। ठनका के जोरोॅ सें सौंसे धरती दहली उठै। दिन जे कारोॅ-कारोॅ मेघ के कारणें रात हेनोॅ लागै छेलै, ठनका के चमकतैं, धरती चांदी हेनोॅ चमकी उठै। ठीक हेनोॅ दिनोॅ में भदवा चन्दर के जनम होलोॅ छेलै। भादो के रात छेलै। माय नें ठनका के रौशनी में बच्चा के मूँ देखनें छेलै, चांदे हेनोॅ सुन्दर। एकदम गोरोॅ-गोरोॅ दिप-दिप। बापें देखलकै तेॅ ओकरोॅ उछाह के कोय ठिकाने नै रही गेलै नाम राखी देलकै भदवा चन्दर। भादो के रात में चांद हेनोॅ दिप-दिप दिखै वाला भदवा चन्दर नै छेकै तेॅ आरो की।

धन्य धन्य राज अयोध्या कि धन्य राजा दशरथ हे
ललना रे, धन्य रे कौशिल्या जी के भाग कि रामजी
जनम लेल हे
ऐला जे पंडित पुरहित बैठला पलंग चढ़ी हे
ललना रे गुनि दियौ नुनुआ के दिन कि कौन तिथि
जनमल हे
नवमी तिथि नुनुआ जनम लेल चैत मास बीतै हे
ललना रे बारहे बरष जब होयतै वनहि चलि जायत हे
एतना वचन जब सुनलनि अहो राजा दशरथ हे
ललना रे धरती खसल मुरूछाइ कि अब केना जीवत हे
सोइरी से बोलली कौषल्या रानी सुनु राजा दशरथ हे
ललना रे, कहौं जिए मोरा बेटा बांझी पन छूटल हे