भदवा चन्दर, खण्ड-4 / सुरेन्द्र प्रसाद यादव
भदवा चन्दर जबेॅ आपनोॅ गाँव कैचनपुर सें भागलोॅ छेलै, तबेॅ सीधे ऊ सहरसा होलेॅ नेपाल भागी ऐलोॅ छेलै। यहीं महीनो मजदूरी करतें ओकरा मालूम होलोॅ छेलै कि काठमांडू के एक मठ में एक साधू रहै छै, जे ओकरे शहर के छेकै। बस की छेलै, एक दिन वै आपनोॅ मालिकोॅ केॅ कहलकै, "हम्में आबेॅ नौकरी नै करेॅ पारौं। आपनोॅ देश लौटै के बात सोचै छी" आरो यही कही वैनें ऊ लोहा-लक्कड़ के दुकानी संे मुक्ति लै लेॅ छेलै आरो सीधे काठमांडू पहुँची केॅ ऊ साधू के पास पहुँची गेलोॅ छेलै।
जखनी ऊ वहाँ पहुँचलोॅ छेलै, तखनी ऊ साधू प्रवचन करी रहलोॅ छेलै। पचास-साठ आदमी सें कम नै होतै आस-पास बैठलोॅ, जे साधू जी के प्रवचन सुनै में एकदम लीन छेलै। भदवा के वहाँ पहुँचला पर साधू नें ईशारा सें बैठे के संकेत करलकै आरो फेनू आपनोॅ भाव में लीन होतें कहना शुरू करलकै,
तामस केरे तीन गुण, भंवर लेह तँह वास, एके डारी तीन फल, भाँटा, उख, कपास।
तामसी मन, तीन गुण (सात रज तम) रूपी फूल खिललोॅ छै, तहाँ विषय गन्ध के लोलुप जीव भँवरा सदा निवास करै छै, गन्ध लेतें रहै छै आरो विश्व रूप डारी में तीन तरह के फल भी लागलोॅ छै। भाँटा, ऊख, कपास मानें सुख, दुख आरो मोह के अनुभव मन करतें रहै छै। नाना प्रकार के योनि में भ्रमण करतें रहै छै। तरह-तरह के फूल-फल चखतेें रहै छै,
ई माया छै चुहड़ी आरो चुहड़ों की जोय,
बाप पूत भतार के, संग काहू नै होय।
ई माया प्रत्यक्ष में नरक वाहिनी छै आरो हेकरोॅ प्रिय चुहड़ी (नारी) हलाल खोरनी, हरमजादी छै कि यै आपनें बाप-बेटा, भतारोॅ केॅ (ब्रह्म, जीव आरो ईश्वर) प्रपंच फांस में फंसाय लै छै आरो संगे केकरो लै केॅ नै जाय छै, सबकेॅ फसाय केॅ आपनें कर्तारि (स्वामी) बनी जाय छै,
कनक कामिनी देख के तू मत भूल सुरंग,
मिलन-बिछुड़न दुहेलरा, केंचुवा तजै भुजंग।
कबीर साहबोॅ रोॅ कहना छै कि मोक्ष पथगामी पथिक तोंय कनक-कामिनी के चमक-दमक में मत झूलें, यानी होकरोॅ लोभोॅ-मोहोॅ में नै पड़ै। कैन्हेंकि संयोग-वियोग ऐन्होॅ दुखदाय छै, जेना साँप केंचुली तजै में।
चार मास घन बर्सिया, अति अपूर सो नीर,
पहिरे जड़तन बखतरी, चुझै नै एकौ तीर।
वर्षा ऋतु में चार महीना ताँय अट्ट वर्षा भेलै, मतर ईसर भूमि पर होकरोॅ कोय असर नै भेलै। वहाँ उगवो करलै तेॅ बेंत, जैमें फूल, फोॅर कुछ नै। तहीं नाखीं अन्तकरण में जड़ता रूप बखतर (कवच) धारण करनें छै तेॅ हिरदै में गुरु के शब्द नै चुभतै।
साहू चोर चीन्है नहीं, अंधा मति के हीन।
पारख बिना विनाश छै, करि विचार होहु मीन॥
साहू, चोर, विवेकीज्ञान गुरु आरो अविवेकी गुरुवा रूपी चोर साथ छै, मतर मतिहीन नर केॅ पहिचानै नै छै। पारखी गुरु के संगत करोॅ आरो मिथ्या गुरु केॅ छोड़ोॅ।
झुठे गुरु के पक्ष को तजत नै कीजिए बार॥
हेतना समझैला के बादो नै समझै छै, गुरु की करतै।
मुरख के समझाईयै, ज्ञान गाँठ नैं जाय।
कोयला होय नै उजला, सौ मन साबुन खाय।
ऊपर माया-मोह के सम्बंध में कत्तेॅ सिनी साखी राखलोॅ गेलै। आबेॅ ज्ञान गुरु के हीरा बेशकीमती वस्तु सें तुलनात्मक शब्द के व्यवहार करनें छै। मतर गुरु के ज्ञान होकरौ सें अमोल रतन छेकै,
हीरा सोई सराहिये, सहे घनेरी चोट,
कपट कुरंगी मानवा, परखत निकरौ खोट।
हीरा के प्रशंसा बड़ी छै, मतुर परीक्षा तेॅ तभै होतै, जबेॅ आगिन में धिपाय केॅ घनेरी चोट हथौड़ा सें मारतै, असली नै टुटतै आरो नकली हीरा टुटी-फुटी केॅ चूर-चूर होय जैतै। तहीना कपटी-कुत्सित विचारोॅ के मानवोॅ के पहिचान निरख-परख बोल-व्यवहार सें जानलोॅ जाय छै। सत्य-असत्य के परख वेष सें नै, बल्कि ज्ञान विवेक सें होय छै।
हीरा परा बाज़ार में रहे छार लिपटाय,
केतिक मूरख चल दियें, पारख लेई उठाय।
संसार रूपी बाज़ार में चैतन्य रूप हीरा पड़लोॅ छै, धूल सें लपेटलोॅ छै। पारखहीन लोगोॅ केॅ की मतलब, छोड़ी देलकै। मतर पारखी समझदारें झट सें अंग लगाय लेलकै, यानी साँचा ज्ञान केॅ हिरदै में बैठाय लेलकै।
हीरा के बोरी नहिं मलयगिरी नहिं पात,
सिघों के लेहड़े नहिं, साधु नै चलै जमात।
हीरा बोरी भरी-भरी केॅ पत्थर के तरह मकान बनावै के काम में नै आवै छै, नै पाषाणमय पत्थर पर मलयगिरी नांखी पंक्ति होय छै, नै भेड़-बकरी नांकी शेर घुमै फिरै छै आरो हीरा रूप पारखी नै गाँव-गाँव घुमलोॅ-फिरलोॅ मिलै छै।
हरि हीरा जन जौहरी सबन पसारी हाट,
जब आबै जन जौहरी, तब हीरौ की साट।
कपटी, कुरंगी मनुवां हरि नाम-ईश्वर-देव-खुदा केॅ बाज़ार में सजाय केॅ बैठलोॅ छै। हरिजन जौहरी कीमत भी करै छै आरो खरीद-बिक्री भी करै छै। मतर असली हीरा के पहिचान तेॅ पक्का जौहरी करतै आरो सही कीमत आंकतै।
हीरा तहां नै खोलिये, जहाँ खोटी छै हाट,
कस कर बांधौ गाठरी, उठकर चालौ वाट।
सदगुरू कबीर के कहना छै-जहाँ हीरा लेली गाहक नैं छै, संत गुरु बनियां केॅ तहां पसारा उपाख्याण, सत्संग के चर्चा ही नैं करना चाहियोॅ। हरिचर्चा, सदुपदेश जौनें सुनें, होकरै सुनावोॅ, नै तेॅ अविवेकी के पास मौन होय जा अथवा वहाँ सें हटी जा।
मूरख सों क्या बोलिये, शठ सों काह बसाय। पाहन में क्या मारिये, चोखा तीर नसाय। संसारी जीव देखा-देखी भक्ति उपासना में लगी गेलोॅ छै। जेना भेड़िया जों गड्ढा में गिरै छै तेॅ पिछला सब के सब झुण्ड सहित गड्ढा में गिरी जाय छै। आय संसार में भक्तोॅ के टोली यहेॅ रं बिना सोचे-विचारे झूठा भक्ति में बझी गेलोॅ छै।
मारग तौ वह कठिन छै, वहाँ कोय मत जाय।
गयो तौ उबरै नहिं, कुशल कहै को आय॥
भेड़ियाधसान मार्ग कठिन छै। नासमझ रास्ता केॅ नै पकड़ोॅ, अंधविश्वासी नै बनोॅ। हौ रास्ता केॅ जौनें धरलकै, सब्भे बुड़ी मरलै आरो लौटी केॅ कोय कुशल मंगल कहै वाला नैं ऐलै। जब तांय प्रत्यक्ष अनुभव ज्ञान नै होतै, सही धाम पर नैं पहुँचेॅ पारतै। बात है छै-
घाट भुलाना वाट बिनु, भेष भुलाना कान
जांकी माड़ी जगत में, सो नै परा पहचान।
जबेॅ ब्रह्म ज्ञान के उपज होय छै तेॅ मन विकल्प रहित होय केॅ शांत होय जाय छै। हेकरै नाम योगी जनें समाधि कहै छै। यहेॅ अचल पद परमपद मोक्ष गति कहै छै।
हम तो लखा तिहूँ लोक में, तू क्यों कहै अलेख।
सार शब्द जाना नहिं धोखे पहिरा वेष॥
कबीर साहब के कहना छै कि हौ सर्वव्यापी परमात्मा केॅ सब्भे जगह में देखै छियै, फेनू कोय केना केॅ अलख बतावै छै। कारण छै कि सार शब्द केॅ नै जानै छै आरो धोखा वेषधारी गुरुवा के फेरोॅ में पड़ी गेलोॅ छै। ज्ञान दृष्टि सें अलख पुरुषोॅ के पहचान होय छै, नै कि है चर्म चक्छु सें।
हेकरा लेली दिव्य नेत्र शिव नेत्र सद्गुरु के द्वारा प्राप्त होय छै, तबेॅ बाहर-भीतर सगरो झलकै छै।
राम नाम मणि दीप धरुं, जीह देहरी द्वार,
तुलसी बाहर भीतरौ जौ चाहेॅ उजियार।
अंतरात्मा की बात छै
बाहर के सब बाद।
भदवा चन्दर साधू महाराज के प्रवचन सुनियो केॅ कहाँ सुनी रहलोॅ छेलै। बस रही-रही केॅ ऊ आपनोॅ गाँव पहुँची जाय। गाँव में ठीक हेन्है केॅ ओकरोॅ बाबू सौ-पचास लोगोॅ के बीच भक्ति के पद कहै, मायने समझावै आरो ऊ एक कोना में बैठी केॅ आपनोॅ बाबूजी केॅ टुकटुक देखतें रहै, सुनतें रहै।
आय अनचोके भदवा केॅ आपनोॅ गाँव आरो बाबू जी के याद आवी गेलै।
प्रवचन खतम होला के बाद आरो सब आदमी एकेक करी केॅ चली देलकै, मतरकि भदवा बैठले रहलै।
सबके गेला पर साधू नें भदवा केॅ आपनोॅ नगीच बुलैलकै आरो माथा पर हाथ फेरतें बोललै, "युवक, तोरोॅ यहाँ तक आवै के मकसद?"
पहलंे तेॅ भदवा कुछ नै बोललै। की बोलतियै ऊ आखिर? साधू के फेरू पुछला पर आखिर भदवा नें बिना कुछ छुपैलें ही सब बात कही देलकै। गाँव सेें नेपाल तक भागै के कथा।
"तोरोॅ बाबूजी के की नाम छेकौं?" साधू नें पुछलेॅ छेलै।
"धनुक लाल महतो।"
"तबेॅ तेॅ तोरोॅ ननिहर पंजवारा होथौ?"
साधू के बात सुनी केॅ तेॅ भदवा चन्दर एकदम सन्न। भला साधू ई बात केना केॅ जानलकै। वैंनें निरयासी केॅ साधू केॅ देखलकै, मतरकि बोललै कुछ नै। सोचलकै-साधू छेकै आरो साधू की नै जानी लिऐॅ। तीनो काल केॅ जानै छै सच्चा साधू-महात्मा। तबेॅ ननिहर-ददिहर परिवार केॅ जानना कोॅन बड़ोॅ बात।
साधू भी कुछ आगू कुछ नै पुछलकै। बस एतन्हैं कहलकै, " भादो, आयसें तोहें यही मठ में रहवा। कोय चिन्ता के बात नै। हम्में आय सें तोरोॅ वास्तें साधू-महात्मा नै। आय सें हम्में तोरोॅ वास्तें बाबा। तोहें हमरा लाल बाबा कहलोॅ करोॅ।
भदवा चन्दर कुछ नै बोलेॅ पारलोॅ छेलै। कुछ बोलै लेॅ चाहै छेलै, मतरकि सबटा बात कंठे में लसकी केॅ रही गेलै।