भदवा चन्दर, खण्ड-7 / सुरेन्द्र प्रसाद यादव
पता नै भदवा के मोॅन आय कैन्हें बड़ी उदास छै। बिहानै सें ही कुछ करै के मोॅन नै करी रहलोॅ छै राती वैनें एक अजीब सपना देखलेॅ छै। आरो जखनी सें आँख खुललोॅ छै, वही सपना आँखी में रही-रही केॅ आवी जाय छै-यशोधरा एक छोटोॅ रँ सिंहासन पर बैठली छै उदास-उदास। नीचेॅ घुटना बलोॅ बैठलोॅ छन्दक व्याकुल होय केॅ बोली रहलोॅ छै, " हमरा क्षमा करी देवौ महादेवी. राजकुमार जी नें
बितलोॅ रात हमरा जगैलकै आरो कहलकै-उठ छन्दक, हमरा मृत्यु पर विजय पावै लेली जाना छै, आजके घोर अन्हरिया हमरोॅ वास्तें प्रभात बनतै। हम्में राजकुमार के आदेश केना उठावेॅ सकै छेलियै। से हम्मेें रथ पर सवार करी हुनका नगर सें दूर ऊ छोर पर छोड़ी ऐलियै, जहाँ सें नगर रोॅ सम्बन्ध टूटी जाय छै। हमरा क्षमा करवै कल्याणी। "
यै पर यशोधरा कहै छै, "जा छन्दक, तोरोॅ ई में की दोष छै।"
भदवा चन्दर केॅ लागै छै कि छन्दक पीठे दिश सें पीछू हटै छै आरो फेनू लौटी जाय छै।
कि तभिये यशोधरा छंदक के हठतैं उसाँस लेतें कही उठै छै, "प्रियतम, तोहें श्रुति द्वार सें हमरोॅ हृदय प्रदेश में ऐला, हम्में चाहलियै कि सब द्वार बन्द करी तोरा मोह-विलास सें भरी दियौं, मतरकि तोहें आँखी के मार्ग होय केॅ निकली गेला।"
भदवा के आँखी के सामना नाटक के दृश्य घूमी रहलोॅ छै। एक सखी प्रवेश करी केॅ यशोधरा के नगीच बैठी जाय छै, आरो ढाढ़स देतें कहै छै, "धीरज धरोॅ सखी। दुख में धैर्य सबसें बड़ोॅ सम्पत्ति होय छै। आखिर राजकुमार जी गेलौ भी छै तेॅ दूसरा के कल्याणे लेॅ। सिद्धिये वास्तें।"
मतरकि यशोधरा आपनोॅ दुख व्यक्त करतें कहै छै, "हुनी सिद्धि लेॅ गेलै, हमरा ई बातोॅ के दुख नै छै, लेकिन हुनी बिना हमरा कहलेॅ, चोरी-चोरी गेलै, हमरो तेॅ एकरे दुख छै। सखी जों हमरा सें कही केॅ जैतियै तेॅ हम्मी हुनका सुसज्जित करी केॅ विजय वास्तें भेजी देतियै-क्षत्रणी होय के नाते। मतरकि हुनी हमरा पर अविश्वास करलकै, यहेॅ भारी दुख के बात छेकै। आर्य सिद्धि पावै लेॅ गेलोॅ छै, हुनी आबेॅ पाविये केॅ लौटेॅ। हम्में कोय शिकायत नै करेॅ पारौं। गेलोॅ छै तेॅ हुनी ज़रूर कुछ महान चीज पावीये केॅ ऐतै। सखी इखनी हमरा अकेला छोड़ी दा तेॅ अच्छा।"
भदवा चन्दर देखै छै कि सखी उठी केॅ चललोॅ गेलोॅ छै, आरो यशोधरा आपनोॅ आँखी के लोर पोछतें हुएॅ गीत गावेॅ लागलोॅ छै,
नाथ तोहें जा
लेकिन ऐवा, ऐवा, ऐवा, ऐवा
नाथ तोहें
अपराधे बिना छोड़ी केना केॅ हमरा तोहें जैवा
नाथ तोहें
सौंसे जग अपनाय केॅ तोहें हमरा नै अपनैवा
नाथ सुनोॅ
कुछ हमरोॅ वै में होतै जे तोहें पैवा।
कैन्हें रही-रही केॅ यशोधरा सरबतिया बनी जाय छै आरो ऊ सिद्धार्थ। हों सिद्धार्थ। हों सिद्धार्थ रं ही हम्में सरबतिया केॅ छोड़ी केॅ। यहाँ जंगल पहाड़ चल्लोॅ ऐलोॅ छियै। फर्क छै तेॅ बस एतने टा कि यशोधरा सिद्धार्थ के कनियैन छेलै। लेकिन की होय जाय छै। जहाँ तक मानै के सवाल छै-हम्में सिद्धार्थ सें कहाँ कम मानै छियै-अपनी यशोधरा। हम्में तेॅ यहूँ जंगल-पहाड़ में ओकरा याद करी रहलोॅ छियै। कि हठाते भदवा के आँखी में सरबतिया यशोधरा बनी केॅ तैरी आवै छै, जे कही रहलोॅ छै-है रात के घना अन्धकार, सब जगह एकदम शांति, जेना समस्त प्राणी-जगत के चेतना ही सुती गेलोॅ रहेॅ। सुख-दुख सें विरक्त सृष्टियो आपनोॅ सुध-बुध खोय रहलोॅ छै। एक हम्में छी, जे जागी रहलोॅ छी आरो लोरोॅ सें आँखी केॅ धोय रहलोॅ छी। हे नाथ, देखी जा, रात के ई केन्होॅ घोर अन्धकार छै आरो हम्में अदृश्य के हाथोॅ में पड़लोॅ असकल्ले यहाँ छी। आवेॅ ई कानवे में की राखलोॅ छै। आबेॅ ई कानवे में की राखलोॅ छै। यशोधरा आबेॅ तोरा जत्तेॅ कानना छौं, कानोॅ। हे नाथ हमरोॅ मरवोॅ भी तोरा अच्छा नै लगलौं, मतरकि तोहीं सोचोॅ है विरही जीवन जीविये केॅ हम्में की करवै? प्र्रिय, लौटी आवोॅ। नाथ, तोहीं सोचोॅ, जे जेकरोॅ भाग छेकै, ऊ ओकरा सें भला कैन्हें छललोॅ जाय? हम्में तोरोॅ बाँही पर आपनोॅ सर राखी केॅ शयन चाहै छी। कहै छै, ओकरोॅ सब भला, जेकरोॅ अन्त भला।
आरो फेनू भदवा के कानोॅ में एक गीत गैनें छै। पकड़ै के कोशिश करै छै, केकरोॅ ई गीत छेकै-के गावी रहलोॅ छै,
भले तोहें सम्बंध नै मानोॅ,
स्वामी! लेकिन नै टुटतै
ई तोहें कत्तो तानोॅ।
पैहलेॅ छेकौ यशोधरा रोॅ
पीछू होवौ कोय परा रोॅ
झुट्ठे भय छौं जन्म ज़रा रोॅ
ई नै वै में सानोॅ
भले तोहें सम्बंध नै मानोॅ।
देखवै असकल्लें की लेभौं?
गोप्हौं लेती जब तोंय देभौ
हमरे छेकौ हमरे होभौ
भुललोॅ छोॅ पहचानोॅ
भले तोहें सम्बंध नै मानोॅ।
वधू हम्में छी आपनोॅ वर री
पर की पूर्त्ति वासना भर री?
तोहें आपने टा कुल-धर्म री
जननी हमरा जानोॅ
भले तोहें सम्बंध नै मानोॅ।
भदवा एकदम सें ओझराय जाय छै-के गावी रहलोॅ छै ई गीत-सिद्धार्थ लेॅ यशोधरा, की भदवा लेॅ सरबतिया?
नैं-नैं ई पुकार सरबतिया के ही हुएॅ पारेॅ। हम्में बेकारे सब छोड़ी ऐलियै-गाँव दुआर संगी साथी आरो सरबतिया। हमरा लौटी जाना चाहियोॅ। सिद्धार्थो तेॅ लौटलोॅ छेलै।
तबेॅ हुनी सन्यासी बनी केॅ लौटलै, हम्में गृहस्थ बनी केॅ लौटवै। ई सन्यासी जीवन में की राखलोॅ छै, जबेॅ ई जिनगी के सब सुक्खे हमरा सें छिनी जाय। की होतै-कुछ तकलीफ आरो बढ़ी जैतै, मतरकि गाँव-घर तेॅ मिली जैतै-ई धरती पर गाँव-घर तेॅ स्वर्ग होय छै। सोचतें-सोचतें भदवा चन्दर के चेहरा एकदम सें खिली उठलै। शरत के चनरमा नाँखी। पता नै, वैं मनोॅ में की-की सोचलकै आरो झुमलोॅ-झुमलोॅ सरोवर लगां बनलोॅ छोटोॅ रँ शिवाला दिश बढ़ी गेलै।