भयाक्रान्त / राजकमल चौधरी
ऊपरवाले किराएदार के पास बड़ा सा बेडौल रेडियो है। हरदम शोर मचाता रहता है। विविध भारती...रेडियो सीलोन...कलकत्ता...बी.बी.सी....कहीं-न-कहीं, कोई-न-कोई स्टेशन खुला ही रहेगा। उनके परिवार में ज्यादा व्यक्ति नहीं है। पति-पत्नी हैं, पत्नी की माताजी और तीन-चार बच्चे। सारे बच्चे स्कूल में पढ़ते हैं। पति सेक्रेटेरिएट में अपर डिवीजन का किरानी है। पति दफ्तर जाता है, बच्चे स्कूल चले जाते हैं, माताजी छत पर धूप में शीतलपाटी डालकर लेटी रहती हैं, फिर भी रेडियो गूंजता रहता है। पत्नी कोई फिल्मी पत्रिका पढ़ती-पढ़ती सो जाती है या सिलाई की मशीन पर बैठी रहती है, फिर भी रेडियो गूंजता रहता है।
रेडियो की इस गूंज से सत्यनारायण को नफरत है। उसका दिमाग गर्म होने लगता है। अपनी पत्नी से कहता है, “इन लोगों को दूसरों की सुविधा का जरा भी खयाल नहीं है? रात में बारह बजे तक शोर मचाते रहते हैं। तुम एक बार कहती क्यों नहीं? शायद, कुछ खयाल करने लगें...“
“मैंने कई बार इशारे से कहा है। वे लोग समझते ही नहीं। उलटे कहते हैं, रेडियो के संगीत से तो सबका मनोरंजन होता है,“ वासन्ती ने उत्तर दिया। वासन्ती ने इशारे से ऊपरवाली कमला देवी को बताने की कोशिश की है। सत्यनारायण ज्यादातर तो बाहर ही रहता है। रात में दस-ग्यारह बजे आता है, सुबह आठ-नौ बजे चल देता है। रविवार को भी फुरसत नहीं मिलती। कभी कोई मीटिंग है। कभी किसी दोस्त के साथ कहीं जाना है। जितनी देर घर में रहते हैं, शान्ति चाहते हैं। मगर, कमला देवी समझ ही नहीं पाती कि रेडियो से भला, किसी के चैन में कैसे खलल पड़ सकता है। रेडियो में गाने बजते हैं। नाटक होते हैं। जरूरी खबरें बताई जाती हैं।
बात सिर्फ रेडियो की नहीं है। कमला देवी और माताजी लड़ती रहती हैं। बच्चे स्कूल से आते हैं और तूफान मचाने लगते हैं। छत पर इस तरह दौड़ेंगे कि मकान हिलने लगेेगा। माउथ-ऑर्गन बजाते रहेंगे। मुहल्ले के लड़कों को बुलाकर आंगन में रुमाल-चोर खेलेंगे। और, जब जी चाहेगा बेबी को उठा ले जाएंगे और रुलाते रहेंगे। बेबी सत्यनाराण की लड़की है-ढाई साल की लड़की। बेहद खूबसूरत है। मक्खन के गोले की तरह। देखते ही जी चाहता है, गोद में उठा लें और दुलराते रहें, खेलते रहें, बेबी को हंसाते रहें। मुस्कुराती है, तो और भी ज्यादा प्यारी लगती है।
बेबी के कारण ही मुहल्ले के सारे लोग सत्यनारायण को जानते हैं। सुबह-सुबह सत्यनारायण बेबी को गोद में लिए, या उंगली के सहारे टहलाता हुआ, साग-सब्जी खरीदने निकलता है। सब्जी-बाजार पास ही है। सब्जी और गोश्त खरीदता है। चौराहे पर चायखाने में बैठकर दो कप चाय पीता है, और अखबार पढ़ता है। किसी से बातें नहीं करता। चुपचाप रहनेवाला आदमी है सत्यनारायण। पिछले पांच साल से इस मुहल्ले में रहता है, मगर, किसी से कोई रिश्ता नहीं। वैसे, लोग जानते हैं, सत्यनारायण महाप्रभु किसी विदेशी कंपनी के कारखाने में स्टोरकीपर है और ईमानदार आदमी है। कोई चीज उधार नहीं खरीदता। किसी के घर आता-जाता नहीं। कुल ढाई व्यक्तियों का परिवार है। एक नौकरानी है, सुबह-शाम आती है। मुहल्ले की औरतें पूछती हैं, तो नौकरानी सत्यनारायण की प्रशंसा करते कभी थकती नहीं। कहती है, “शाम-सुबह जाती हूं। मगर बाबू कभी आंख उठाकर मेरी ओर देखते तक नहीं। मालकिन हरदम रसोईघर में रहती हैं। कभी दूध उबाल रही हैं, कभी अंडे, कभी चाय। मगर बाबू, मुझसे बातें तक नहीं करते। और कोई हो, तो अकेले में हाथ पकड़ ले...!“
नौकरानी अकेले में हाथ पकड़ने लायक है, इसलिए सत्यनारायण उसे रखना नहीं चाहता था। मगर वासन्ती ने कहा, “जवान औरत है, मेहनत से काम-धाम करेगी। बूढ़ी औरत रखोगे, तो हदरम बक-बक करेगी और चीजें इधर-उधर किया करेगी।“ बेबी के जन्म के बाद सत्यनारायण के स्वभाव में थोड़ा परिवर्तन हुआ। वह पहले से अधिक स्वस्थ और स्फूर्तिवान दिखने लगा। छुट्टी का दिन घर में ही बिताता और हर दिन बेबी के लिए कुछ-न-कुछ जरूर लाता था। और कुछ नहीं, तो प्लास्टिक का कोई सस्ता खिलौना। नमकीन बिस्किट के पैकेट। कृष्णनगर की मिट्टी में ‘पुतुल‘। रबड़ के कुत्ते। रुई की सफेद बिल्लियां। वासन्ती के लिए सत्यनारायण ने कभी कोई चीज लाई हो, वासन्ती को याद नहीं। चार-छह महीने में कभी एक बार वासन्ती सत्यनारायण के साथ बाहर निकलती हैं। साड़ियां, ब्लाउज-पीस, सत्यनारायण के लिए पैंट-कमीज के कपड़े, चूड़ियां और ज्यादा पैसे रहे, तो कोई हल्का सा जेवर खरीद लेती है। सत्यनारायण अपनी इच्छा से कोई चीज नहीं लाता है-हेयरपिन तक नहीं। मगर सत्यनारायण को इस छोटी सी बेबी ने कोमल बना दिया है... कोमल और हृदय के किसी कोने में स्नेहमय।
सत्यनारायण का परिचय किसी से नहीं है। बेबी को सभी लोग जानते हैं। इतनी प्यारी लड़की मुहल्ले में और नहीं है। परिचित- अपरिचित सभी के पास चली जाती है और मुस्कुराती रहती है। हंस देती है। अकारण शरमाने लगती है। कभी रोती नहीं। भूख लगती है, तभी चीखती है। और, कोई रुला दे, कान खींच ले, गोद से गिरा दे, तभी चीखती है। सत्यनारायण अपनी पत्नी से कहता है, “मेरी लड़की बहादुर है! कभी रोती नहीं! ‘क्राई-बेबी‘ होती, तो मैं इसे कभी गोद में नहीं लेता...“
मगर अब ढाई साल की बेबी ‘क्राई-बेबी‘ हो गई है। सुबह सत्यनारायण उसे बाजार नहीं ले जाए, तो रोने लगती है। शाम को सत्यनारायण उसके लिए नमकीन बिस्किट नहीं लाए, तो रोने लगती है। सत्यनारायण घर में हो और बेबी को अपने पास नहीं रखे, उससे खेलता नहीं रहे, तो रोने लगती है। बेबी हरदम अपने पिता के पास रहना चाहती है .... हरदम। साथ सोएगी। साथ नहाएगी। साथ खाना खाएगी। और सत्यनारायण दफ्तर के लिए तैयार होने लगेगा, तो बेबी इशारे से समझाएगी, “मुझे भी कपड़े पहना दो।“ सत्यनारायण बेबी को बाबा-सूट पहना देता है। बालों में कंधी कर देता है। बेबी-शू पहना देता है। तब बेबी सत्यनारायण की बांहों में मचलने लगती है और हाथ उठाकर दरवाजे की ओर इशारा करती है, ‘चलो...चलो...‘ और रोने लगती है। यानी सत्यनारायण के साथ वह भी बाहर जाएगी।
वासन्ती बेबी को अपने पति की बांहों से खींच लेती है और राह-खर्च के पैसे सत्यनारायण की जेब में डालती हुई कहती है, “तुमने बेबी की आदत बिगाड़ दी है। अब इसे साथ दफ्तर ले जाओ!“
मां की गोद में बेबी छटपटाती रहती है। चीखती रहती है। सत्यनारायण तेज कदमों में बाहर निकल जाता है। चौराहे पर आकर ट्राम पकड़ लेता है। ट्राम की भीड़ में शामिल हो जाता है। अपने-अपने घरों से निकलर दफ्तरों की ओर जानेवालों की भीड़। मर्द अपनी बीवी और बच्चों को छोड़ आए हैं। औरतें अपने बच्चे और पति छोड़ आई हैं। ट्राम धीमी चाल में खिसक रही है। रासबिहारी एवेन्यू। कालीघाट भवानीपुर। चौरंगी रोड। एस्प्लेनेड। ट्राम चल रही है। भीड़ बढ़ती जा रही है। दफ्तर करीब आता जा रहा है। और अपनी मां की गोद में छटपटाती हुई ढाई साल की एक बच्ची रो रही है। रोती जा रही है। बात बहुत मामूली है। सत्यनारायण महाप्रभु, ब्रिटिश इंडिया इंजीनियरिंग कंपनी का स्टोरकीपर, सोचता है, बात बहुत मामूली है। बेबी नासमझ है, रोएगी ही। धीरे-धीरे बड़ी होगी और समझदार हो जाएगी। तब रोएगी नहीं। हंसती रहेगी। तंग नहीं करेगी। अपनी किताबें पढ़ेगी। मां के पास रहेगी। स्कूल जाएगी। क्लास में अव्वल आएगी। खेल-कूद में अव्वल आएगी। प्राइज पाएगी। मेडल पाएगी। अभी बेबी रोती है, रोना ही चाहिए।
सत्यनारायण भावुक व्यक्ति नहीं है। भिखारियों को भीख नहीं देता। भिखारियों की ओर देखता तक नहीं। अपनी राह से निकल जाता है। उस दिन ट्राम में बड़ी भीड़ थी। तीन-चार ट्रामों में कोशिश करके भी वह फुटबोर्ड पर अपने लिए पांव रखने की जगह नहीं बना सका। कलकत्ते में क्यू-सिस्टम नहीं है। ट्राम-बस में चढ़ना शारीरिक शक्ति पर निर्भर करता है। दफ्तर से लौटती हुई एक कमउम्र लड़की ने किसी तरह भी भीड़ में घुसना ही चाहा। एक पांव रख लिया। एक हाथ से हैंडल थाम लिया। ट्राम खुल गई और तिनकों के सहारे लटकी हुई उस दुबली-पतली सलोनी-सी लड़की को दफ्तर से लौटते हुए थके-मांदे और नाराज मर्दों ने चारों ओर से दबा लिया। लड़की चीखी, “ट्राम थामा न... आमि नेमे जाबो। ट्राम थामा न...मांगो! मां गो!“ ट्राम रोको। मैं उतर जाऊंगी। ट्राम रोको। ओ मां! ओ मां! लड़की की टांगें अलग-अलग मर्दों की जांघों में दबी है। कमर और छाती की हड्डियां चूर-चूर हो रही हैं। मगर उपाय नहीं है। ट्राम-स्टॉप पर खड़े रहकर चलती हुई ट्राम और चीखती हुई लड़की और धीरे-धीरे घिर आए अंधेरे को देखता हुआ सत्यनरायण तय करता है, उपाय नहीं है। अंधेरे से पहले अपने घर पहुंच जाने का उपाय नहीं है।
अतएव वह चौरंगी रोड के किनारे-किनारे चलने लगता है। ‘टाइगर‘ सिनेमा के पास रुककर एक अदद ‘क्रेवेन‘ सिगरेट खरीदता है - शायद सिगरेट की सुगंध में उसके मन में फैलता हुआ अंधेरा मिलकर अच्छा लगने लगे। थिएटर रोड के पास एक नई बिल्डिंग बन रही है। ऊंचा क्रेन अंधेरे में बड़ा भयावह दिखता है। स्टील का भीमकाय फ्रेम खड़ा किया जा रहा है। - और इसी फ्रेम के साए में एक भिखारिन ईंटों की कुरसी पर बैठी है और अपने बड़े बच्चे को लगातार पीट रही है। गोद का बच्चा धरती पर पड़ा चीख रहा है, जैसे जंगल के अंधेरे में अजनबी पक्षी चीखते हैं। बर्फ से ठिठुरती हुई कोई अकेली चिड़िया। और, भिखारिन पांच-छह साल के बड़े बच्चे को पीटती जा रही है। माया-ममता नहीं, सिर्फ एक वीभत्स क्रोध। तमाचे मारती है, बाल नोचती है। बच्चा गिर पड़ता है, तो पांव से कुचलने लगती है। और, हिन्दी में गालियां बकती जाती है, “तुमको बोला, छोटा बच्चा को लेकर मैदान में बैठो! साला, तुम इधर काहे को करने आया? काहे को आया? साला, बाबू लोग तो दो पैसा नहीं देगा, तो हम क्या खाएगा? तुम क्या खाएगा? क्या खाएगा बोल? हरामी का पिल्ला! बोल क्या खाएगा?“ बड़ा बच्चा रोता नहीं, पिटता रहता है। चुपचाप पिटता रहता है। सत्यनारायण मिनट-भर खड़ा रहकर यह दृश्य देखता है और आगे बढ़ जाता है। उसे लगता है कि स्काई स्क्रेपर बिल्डिंग का यह ऊंचा स्टील फ्रेम हिलने लगा है। हिलने लगा है और अब दो सेकंड बाद उसके माथे पर आ गिरेगा। अपना प्राण बचाने के लिए वह भागता है, तेजी से चलने लगता है। भिखारिन की गांलियां, छोटे बच्चे की चीख, बड़े बच्चे का पिटना, थिएटर रोड के अंधेरे में इस भिखानि को रुपए-आठ आने देनेवाले लोग, सभी कुछ पीछे छूटने लगा है। छोटा बच्चा अब तक चीख रहा है।
सत्यनारायण महाप्रभु को भ्रम होता है। लगता है, भिखारिन के बच्चे की चीख और उसकी अपनी बेबी की चीख में कोई फर्क नहीं है। स्वर एक ही है। करुणा एक ही है। उसे लगता है कि बेबी चीख रही है और अब बेबी की चीख से उसके कानों के परदे फटे जा रहे हैं। ढाई साल की उसकी अपनी बेबी। वासन्ती क्या इसी तरह बेबी को पीटती होगी? इसी तरह? एक रात बेबी की नींद खुल गई थी। वासन्ती ने स्टोव पर दूध गर्म किया और बेबी को दूध-बिस्किट खिलाया। बेबी सोना नहीं चाहती थी, मसहरी के बाहर और कमरे के बाहर आकर खेलना चाहती थी। सत्यनारायण थका हुआ था। बेबी को वासन्ती की गोद में डालकर सो गया। सर्दी ज्यादा थी। वासन्ती ने बेबी को बहलाकर सुलाना चाहा। बेबी चीखने लगी, ‘चलो...ले चलो...चलो‘, और दरवाजे की ओर उंगली से बताने लगी। अंत में ऊबकर वासन्ती ने बेबी को एक तमाचा जड़ दिया। बेबी और तेज रोने लगी। सत्यनारायण उठकर बेबी को अपने पास ले आया। बोला कुछ नहीं। बोलने की उसे आदत नहीं है। चुप रह जाता है। गुस्सा होता है और गुस्सा पी जाता है। क्योंकि उसके गुस्से में केवल गुस्सा ही नहीं है, उसी मात्रा में भय भी है। वह डरता है। वह डरता है, इसीलिए अपने आप पर और सारे संसार पर नाराज होता है। नाराजगी जाहिर नहीं करता। छिपा लेता है। अपनी घनी मूंछों और मोटे फ्रेम के चश्मे में वह अपनी सारी भावुकता छिपा लेता है। भावुक है। मगर समय ने उसे भावुकता के भ्रूण की हत्या कर देना सिखाया है।
उसका भय मिट जाए, तो वह ऊपरवाले किराएदारों के बच्चों को सामने के बड़े तालाब में फेंक दे। उनका रेडियो तोड़ दे। अपने दफ्तर के मैनेजर का सिर तोड़ दे, जब मैनेजर कारखाने के स्टोर से सीमेंट की बोरी उठा ले जाता है। सत्यनारायण का भय मिट जाए, तो वह शराब पिए और अपने शरारती दोस्तों के साथ वेलेस्ली और रिपन की स्ट्रीट की गलियों में जाए। जाना वह चाहता है, मगर जा नहीं पाता। डरता है। और गुस्से में जलता रहता है। भय और क्रोध भय। मन में और कोई उत्ताप नहीं।
सत्यनारायण अखबार पढ़ रहा था। मुंगेर के पास पैसेंजर ट्रेन उलट गई है। अखबार में तस्वीरें निकली है। जैसे ट्रेन नहीं हो, कोई छोटा सा खिलौना हो, जिसे किसी नादान बच्चे ने खेल-खेल में पटक दिया है। और अखबार में सूचना निकली है कि शहर में चेचक का प्रकोप बढ़ गया है। पिछले सप्ताह तीस पुरुष, बारह स्त्रियां और तिरपन बच्चे चेचक से मरे हैं। हर आदमी को तुरंत टीका लगा लेना चाहिए। अखबारों में अब ऐसी ही खबरें निकलती हैं। कांगों में युद्ध होता है। अल्जीरिया में युद्ध होता है। क्यूबा में युद्ध की तैयारियां होती है। लोग कुतुबमीनार, ईफेलटॉवर और लंदन के पुल से कूदकर आत्महत्या करते हैं। पत्नियां अपने शौहर और बच्चों को जहर देती हैं। चावल और गेहूं का दाम बढ़ता जाता है। पैसे की कीमत घटती जाती है। और चीन की नीली वर्दीवाली फौज समूचे हिमालय पर चींटियों की तरह रेंगने लगी है।
सत्यनारायण अखबार पढ़ रहा था। वासन्ती ने चाय का प्याला उठाया और टी-टेबल पर शेव का सामान रखने लगी, फिर बोली, “कल शाम को रमेश बाबू की लड़की दोमंजिलेे से नीचे गिर पड़ी, सख्त चोट आई है। शायद नहीं बचेगी। करनानी अस्पताल में हैं। अभी तक होश में नहीं आई। तुम दफ्तर से लौटते हुए अस्पताल चले जाना। बड़ी प्यारी लड़की...“
वह कांप गया। वह आकस्मिक भय से कांप गया। अपना भय छिपा लेने के उद्देश्य से बोल पड़ा, “कौन रमेश बाबू? कितनी बड़ी लड़की है?... बेबी कहां है? ऊपर गई है?“
बेबी सी ढ़ियों से चढ़कर अकेली ऊपर जाती है। ऊपर रेडियो बजता रहता है। बेबी रेडियो के पास खड़ी तालियां बजाती रहती है। नाचती रहती है। वासन्ती नहीं चाहती है कि बेबी ऊपर जाए। ऊपर की छत खुली है। ढाई साल की बच्ची रेलिंग के सहारे खड़ी होकर नीचे झांक सकती है। नीचे गिर सकती है। सत्यनारायण दोबारा पूछता है, “बेबी कहां है?“
बेबी कमरे में फर्श पर बैठी प्लास्टिक की गुड़ियों को अपने रैपर में लपेटकर सुला रही है। पिता की आवाज सुनकर कहती है, ‘का? का!‘ ‘क्या‘ के बदले कहती है - ‘का‘? और बाहर चली आती है। सत्यनारायण शेव करता है। बाथरूम में नहाने जाता है। बेबी को नहलाता है। कपड़े बदलता है। बेबी को कपड़े पहनाता है। खाने के टेबल पर चला आता है। बेबी टेबल पर बैठती है और मुस्कुराती है। सत्यनारायण के साथ खाना खाती हुई बेबी मुस्कुराती रहती है। और सत्यनारायण दफ्तर के लिए तैयार होता है, तो बेबी मचलने लगती है। वासन्ती उसे गोद में उठा लेती है, मगर संभाल नहीं पाती। बेबी फर्श पर गिरकर पांव पटकने लगती है। चीखती रहती है। और सत्यनारायण को थिएटर रोड की भिखारिन का छोटा बच्चा याद आता है। वही स्वर। वही करुणा। दफ्तर जाना जरूरी है। देर हो रही है। वह चुपचाप जूते पहनकर दरवाजे से बाहर निकल जाता है। बेबी की ओर देखता तक नहीं, देख ले, तो नहीं जा सकेगा। चौराहे तक बेबी की चीख उसका पीछा करती है। बेबी की चीख ओर ऊपरवाले किराएदार का रेडियो। रेडियो पर सन्ध्या मुखर्जी गा रही है रवीन्द्रनाथ का वह प्रसिद्ध गीत जिसका अर्थ है-भय की इस विषाक्त रात्रि को बीतना ही होगा और अकेलेपन की इस विषाक्त रात्रि को बीतना ही होगा। - सत्यनारायण स्वयं से पूछता है, “किस बात का भय? और कैसा अकेलापन?“ कारखाने में तीन हजार आदमी काम करते हैं। दफ्तर में डेढ़ सौ आदमी हैं। स्टोर में पच्चीस आदमी। अकेलापन कैसे है? ट्राम-बस में भीड़ है। घर में खूबसूरत बीवी है, प्यारी बच्ची है। दफ्तर का मालिक दयालु व्यक्ति है। साथ काम करने वाले लोग दुश्मन नहीं हैं। सेविंग बैंक एकाउंट में हजार से ऊपर रुपए हैं, बीवी के शरीर पर गहने हैं। घर का स्टोर दाल-चावल आटे से भरा हुआ है। किस बात का भय? लेकिन ऊपरवाले किराएदारों का रेडियो चीखता रहता है-भय की यह रात्रि...अकेलेपन की यह रात्रि और जब सत्यनारायण महाप्रभु ट्राम-स्टॉप पर आकर खड़ा होता है, भवानीपुर से वापस आती हुई ट्राम से रमेश बाबू उतरते हैं, सिर झुकाए हुए। रमेश बाबू की पत्नी उतरती है रोती हुई। आंखें रोते-रोते सूज गई हैं। लेकिन ओठों से कोई आवाज नहीं। रमेश बाबू की मां और छोटी बहन उतरती हैं-चीखती चिल्लाती हुईं। ट्राम चली जाती है। रमेश बाबू अपने परिवार के साथ अपने मकान की गली में समा जाते हैं। सत्यनारायण दूर खिसकती हुई ट्राम को और सिर झुकाए चले जाते हुए रमेश बाबू को देखता रहता है, जैसे डरा हुआ कोई अबोध शिशु सामने से गुजरते हुए पागल हाथी को देख रहा हो। आतंकित।
दफ्तर में सत्यनारायण अपनी कुरसी पर आ बैठता है। कारखाने को माल सप्लाई करने वाले कई ठेकेदार उसका इंतजार कर रहे हैं। बैरा टेबल पर पानी का गिलास ले आता है। पूछता है, ‘चाय पिएंगे?‘ सत्यनारायण सामने बैठे हुए लोगों की ओर देखता है। फिर कहता है, ‘थोड़ी देर बाद ले आओगे?‘ और उन लोगों से बातें करने लगता है। बैरा दो मिनट इंतजार करने के बाद ले आओगे?‘ और उन लोगों से बातें करने लगता है। बैरा दो मिनट इंतजार करने के बाद कहता है, “प्रभु साहब, बड़े साहब की स्टेनो है, मिस सूबेदार, बिचारी कल से आपको ढूंढ़ रही है। कल आप सबेरे चले गए...।“
मिस सूबेदार। बड़े साहब की स्पेशल स्टेना। मोटी सी सांवली लड़की। सूर्ख लिपस्टिक। हैंडबैग में हमेशा दो-चार जाूससी किताबें। मामूली सी आंखें--बुझी-बुझी सी। हर वक्त किसी-न-किसी बैरे को पुकारती रहेगी, किसी-न-किसी पियून को डांटती-फटकारती रहेगी। बड़े साहब की स्टेनो होने का नाजायज फायदा उठाती है। मिस सूबेदार। कोई क्लर्क या टाइपिस्ट हल्का सा मजाक भी करे तो सीधे दफ्तर के सुपरिटेंडेंट के पास स्लिप भेज देती है। इसके लायक वह नहीं है। ‘काली मेमसाहब‘--दफ्तर के लोगों ने उसे यही नाम दिया है।
बड़े साहब टिफिन में चले जाते हैं। सत्यनारायण अपनी सीट से उठकर साहब के चेंबर में चला जाता है। मिस सूबेदार अकेली है-टाइपराइटर पर झुकी हुई। घूमकर कहती है, “आपको हम कल से ढूंढ़ता है प्रभु साब, हम बहुत मुसीबत में हो गया है!“ लगभग दस मिनट तक सत्यनारायण काली मेमसाहब की कहानी सुनता रहता है। मिस सूबेदार को तीन सौ रुपए कर्ज चाहिए। वह गर्भवती हो गई है। एबार्शन करवाना ही होगा। तीन सौ रुपए चाहिए। लेडी डाक्टर पूरे तीन सौ मांगती है। सत्यनारायण आश्चर्य में डूबता हुआ अपने टेबल पर चला आया। थोड़ी देर चुपचाप बैठा रहा। फिर बाहर मैदान में आकर चहलकदमी करने लगा। सर्दियों की यह धूप बड़ी प्यारी लगती है। अच्छा लगता है खुली हवा में अपने को स्वाधीन अनुभव करना। तभी उसका असिस्टेंट सीताराम शर्मा सीढ़ियों से उतरता हुआ आता है, “सर, अभी दो बजे रेडियो से खबर आई है, लंदन में इतनी बर्फ गिरी है कि लगभग पांच सौ लोग मर गए हैं। ईस्ट एंड में एक पूरा मकान ही बर्फ में दब गया और कई परिवारों के लोग खत्म हो गए।“
सत्यनारायण ने कहा, “इसमें चीखने की क्या बात है? लोग तो ऐसे ही मरते रहते हैं! ये घटनाएं तो मौत का एक बहाना है! जिसकी मौत लिखी है, वक्त-बेवक्त चली ही आएगी।“ और मैदान में टहलता हुआ अपनी ही कही बात पर गौर करने लगा। लोग मरते ही रहते हैं! वह चौंक पड़ा। उसके भावहीन चेहरे की सफेदी बढ़ने लगी। वह सिर झुकाए दफ्तर के हॉल में चल आया। अपनी कुरसी पर बैठ गया। सोचने लगा, वह मिस सूबेदार को तीन सौ रुपए कर्ज क्यों दे? रुपए तो लौटकर आएंगे नहीं। फिर क्यों दे? और देकर एक बच्चे की हत्या का जिम्मेदार क्यों बने? उस बच्चे का क्या अपराध? उसे क्यों जन्म लेने के पहले ही मौत की, मौत की सजा मिले? वह रुपए नहीं देगा।
यही तय करके सत्यनारायण मिस सूबेदार से बिना मिले अपने घर वापस चला आया। चाय पीने के वक्त वासन्ती ने कहा, “रमेश बाबू की लड़की नहीं बच सकी। उसकी मां तो सुबह से अपना कमरा भीतर से बंद किए बैठी है। दरवाजा ही नहीं! बिचारी!“ और इतना कहते-कहते वासन्ती की आंखें भर आईं। वह टेबल से उठ गई। सत्यनारायण ने अकेले चाय पी। बेबी हाथों में बिस्किट का पैकेट लिए हुए बरामदे में नाच रही थी। चाय के बाद सत्यानारायण ऊनी चादर डालकर बाहर जाने लगा। रात में बेबी की नींद खुल जाती है, तो अंधेरे में डरकर रोने लगती है। जब तक रोशनी न की जाए, चीखती रहती है। एक बेड स्विच लाना होगा। बिस्तर से उठे बगैर बिजली जलाई जा सकेगी।
सत्यनारायण बरामदे से नीचे उतरा भी नहीं था कि बेबी दौड़ती हुई उसकी ओर आने लगी, “पापा...पापाजी...पापा!“ सत्यनारायण रुक गया। वापस आकर उसने बेबी को गोद में उठा लिया, “चलो, तुम भी साथ चलो! मगर भाई, यह रोना-धोना बंद करो!“ वासन्ती आंगन में खड़ी तीज के चंद्रमा को प्रणाम कर रही थी। वहीं से बोली, “नहीं, बेबी नहीं जाएगी। बाहर बहुत सर्दी है। बच्ची बीमार हो जाएगी।“ सत्यनारायण रुक गया। बेबी को गोद से उतारने लगा। बोला, “तुम्हीं इसे संभालो। मैं बाहर जा रहा हूं।“ लेकिन फिर वही चीख। वही करुणा। वही विकराल... बेबी रोने लगी। सत्यनारायण ने किसी तरह बहलाने की कोशिश की, मगर वह पांव पटकती हुई चीखती ही रही, “ले चलो... चलो...“ और सत्यनारायण को गुस्सा आने लगा। उसने ढाई साल की बेबी के गाल पर एक तमाचा जड़ दिया। बेबी तमाचा खाकर सन्न रह गई, जैसे बेहोश हो जाएगी। क्षण-भर आंखें फाड़कर सत्यनारायण को देखती रही, फिर बड़े ही डरावने स्वर में, जैसे भूखी बिल्लियां सुनसान रात में रोती हैं, बेबी रोने लगी। सत्यनारायण आतंकित हो गया। बेबी का चेहरा काला पड़ता जा रहा है, उसे ऐसा लगा। वासन्ती दौड़ी हुई आई और बेबी को गोद में उठाकर सत्यनारायण को बड़ी ही जहरीली निगाहों से देखती हुई अंदर कमरे में चली गई। सत्यनारायण चुपचाप खड़ा रहा। फिर धीमें कदमों से बाहर चला गया। ट्राम स्टॉप पर आकर जो पहली ट्राम मिली, उसी में बैठ गया। कालीघाट आने पर ट्राम से उतर गया और यहां-वहां चक्कर काटने लगा। ‘बसुश्री‘ सिनेमाघर में कोई हिन्दी फिल्म चल रही है। हाउसफुल! टिकट नहीं मिलती। क्या किया जाए? किसी रेस्तरां में चाय पी जाए? हरी साड़ी वाली उस औरत के पीछे-पीछे कुछ दूर तक चला जाए? कानों में रेंगती हुई बेबी की चीख-पुकार को कैसे भूला जाए? अपनी अजन्मी बेबी को मारने के लिए मिस सूबेदार तीन सौ रुपए चाहती है। कुल तीन सौ रुपए! फ्री डेथ!
फ्री डेथ! ऐसी ही बातें सोचता हुआ सत्यनारायण पता नहीं किस तरह कालीघाट ट्राम डिपो के पास ट्राम-लाइनों के शतरंज के बीच में फंस गया। दो ट्रामें सामने दो लाइनों से आ रही थीं, दो ट्रामें पीछे की दो लाइनों पर। सत्यनारायण बीच में घिर गया। इस चक्रव्यूह से निकलने का उपाय नहीं है। ट्रामें एकदम करीब आ गई हैं। ट्रामें और मौत...मुफ्त की मौत! फ्री डेथ! सत्यनारायण ने उछलकर ट्राम-लाइनें पार कर जाना चाहा। शायद वह उछल भी गया। शायद चुपचाप खड़ा रहा। पांव बर्फ बनकर जम गए। उसे लगा कि जैसे उसने मौत को देख लिया है-धुएं जैसी हल्की और धीरे-धीरे फैलती हुई मौत! अचानक सामनेवाले एक ड्राइवर ने अपनी ट्राम रोक दी। सत्यनारायण उसी लाइन पर खड़ा था। और उसकी दोनों बगल से दो ट्रामें घंटियां बजाती हुई चली गईं। सत्यनारायण लाइनें पार करके फुटपाथ पर आ गया। फुटपाथ पर चलते हुए उसे लगा कि उसने एक क्षण में मौत को छू लिया था-बर्फ जैसी ठंडी और सफेद मौत!
सत्यनारायण महाप्रभु का गला सूख गया था, जैसे होठों पर बर्फ की परतें जम गई हों। होठ खुल नहीं रहे थे। एक रेस्तरां में बैठकर उसने बैरे को बुलाना चाहा, तो उसके गले से आवाज नहीं निकली। धीरे-धीरे पास आती हुई ट्राम की तस्वीर उसकी आंखों पर जम गई थी।
रात में वह देर से घर लौटा। वासन्ती बेबी के साथ सो गई थी। दरवाजा अंदर से बंद था। कॉल बेल से वासन्ती की नींद खुली। दरवाजा खोलकर किनारे हट गई और अंगड़ाइयां लेने लगी। फिर बोली, “पिक्चर चले गए थे? कितना बज गया?... जानते हो, बेबी को हल्का-हल्का बुखार है। तुम्हारे जाने के बाद रोती ही रही। अभी-अभी सोई है। मैंने गर्म दूध पिला दिया है। सुबह ठीक हो जाएगी।“
“कितना बुखार है?“ सत्यनारायण ने घबराकर पूछा। वासन्ती ने बताया, “नॉर्मल है। निन्यानबे से थोड़ा कम।“ सत्यनारायण कपड़े उतारने लगा। कपड़े बदलकर बेबी के बिस्तर में गया। बेबी नींद में बेहोश थी। नहीं, बुखार ज्यादा है। सौ से कम क्या होगा! वासन्ती छिपा रही है। सत्यनारायण ने पूछा, “थर्मामीटर कहां है? बुखार ज्यादा लगता है।“
बुखार ज्यादा नहीं था। वासन्ती ने कहा, “तुम यों ही घबरा रहे हो। हल्का सा बुखार है। सुबह तक बेबी ठीक हो जाएगी!“
सत्यनारायण ने अपनी चिंता छिपाने की कोशिश की। बोला, “क्या सब्जी बना रही हो? अंडे हों, तो अच्छी सब्जी बनाओ। मुझे बड़ी भूख लगी है।“
सत्यनारायण खाने-पीने के बारे में कभी कोई फरमाइश नहीं करता। कभी शिकायत भी नहीं। वासन्ती बेहद खुख हुई। अंडे घर में हैं। आलू और टमाटर भी हैं। वासन्ती ने कहा, “तुम बेबी के पास बैठकर कोई मैगजीन पढ़ो। मैं पांच मिनट में सब्जी बना लेती हूं।“ वासन्ती टेबल पर खाना लगा रही थी। बेबी की नींद खुल गई। सत्यनारायण ने उसे गोद में उठा लिया। और मसहरी से बाहर निकलकर कमरे में टहलने लगा। बेबी ने कहा, “पानी! पानी लाओ!“ वासन्ती बोली, “जरा रुको। तुरन्त स्टोव पर पानी गर्म करती हूं।“ मगर, बेबी रोने लगी। सत्यनारायण की ओर आंखें फाड़-फाड़कर देखती हुई बेबी रोने लगी और गोद से उतरने के लिए मचलने लगी। बेबी डर गई थी... सत्यनारायण से डर गई थी।
वह बेबी को अपने कंधे पर संभालता हुआ कमरे से बाहर जाने लगा। वासन्ती ने पूछा, “बाहर इतनी सर्दी है। कहां जा रहे हो? देखते नहीं, बेबी को बुखार है?“
“बेबी को चौराहे तक ले जाता हूं। मिठाईवाली दुकान जरूर खुली होगी। रसगुल्ले लेता आऊंगा। बेबी को बेहद पसंद हैं। बेबी मुझसे डर गई हैं। मैंने तमाचा मार दिया था। वह बाहर जाना चाहती थी। मेरे साथ घूम आएगी, तो डर खत्म हो जाएगा। चलो बेबी, चलो।“ सत्यनारायण बाहर सड़क पर चला गया। वासन्ती कहती ही रही, “उसे मत ले जाओ। उसे बुखार है। मत ले जाओ।“ मगर सत्यनारायण वापस नहीं लौटा। बेबी को एक गीत सुनाता हुआ वह चौराहे की ओर चला ही गया। उसकी बाहों में मचलती हुई ढाई साल की बेबी शायद मुस्कुराने लगी थी।
सारिका, अप्रैल, 1963