भय बिनु होय न प्रीति / जयप्रकाश चौकसे

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भय बिनु होय न प्रीति
प्रकाशन तिथि :10 मार्च 2016


टेलीविजन पर यह स्पष्ट दिख रहा है कि सेना के जवान यमुना के किनारे अस्थायी पुल बना रहे हैं। श्री श्री रविशंकर के होने वाले कार्यक्रम की तैयारी में सेना के जवानों की भागीदारी किसके आदेश से हो रही है, यह पता नहीं चल पा रहा है परंतु रक्षा मंत्री को इस विषय पर बयान देना चाहिए। खबर आई भी है कि रक्षा मंत्री जवाब देंगे। भारतीय सेना हमारी सरहदों की रक्षा के साथ ही राष्ट्रीय संकट के समय बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों में काम करती है, कहीं भूकंप आने पर सेना अवाम की सहायता करती है परंतु एक गैर-सरकारी आयोजन में उसकी भागीदारी हमारी मौजूदा व्यवस्था में संविधान के परे शक्तियों की सक्रियता पर प्रकाश डालती है। हर शहर में विवाह आयोजन पर सार्वजनिक सड़कों पर अवैध कब्जा जमाया जाता है और धर्म अनुप्रेरित देश में शुभ कार्य में दखल नहीं दिया जा सकता।

हर शहर में छुटभैया नेता समानांतर प्रशासन चलाते हैं और कोई राजनीतिक दल इसका विरोध नहीं करता। हमारे देश में अघोषित संविधान के तहत बहुत से काम होते हैं, जिनका प्रभाव जन-जीवन पर पड़ता है, परंतु 'बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे' की प्रवृत्ति के कारण यह सब बेरोकटोक सतत जारी रहता है। 'इंसिडेंट' नामक अंग्रेजी फिल्म में रेल के डिब्बे में दो गुंडे चाकू दिखाकर यात्रियों को कष्ट देते हैं। जब गुंडा एक कमसिन कन्या के साथ अभद्र व्यवहार करता है, तब डिब्बे में बैठा सैनिक अपने प्लास्टर में बंधे हाथ से उसे पीट देता है। डिब्बे में एक वृद्ध बीमार व्यक्ति बैठा है। जैसे ही स्टेशन आता है, यात्री उस वृद्ध के ऊपर से छलांग लगाते हुए बाहर भागते हैं, क्योंकि सैनिक द्वारा पीटे गए गुंडे को लेकर पुलिस पंचनामा करेगी और कोई भी व्यक्ति इस कार्य में अपना समय नष्ट नहीं करना चाहता। इसी प्रवृत्ति के कारण गुंडों की शक्ति में वृद्धि होती है।

अवाम के अनाम अनचिह्ने भय सार्वजनिक जीवन को कष्टमय कर देते हैं। अत: स्पष्ट है कि भय से मुक्ति के बिना कुछ नहीं हो सकता। ज्ञातव्य है कि गांधीजी ने बनारस काशी हिंदू विश्वविद्यालय के उद्‌घाटन अवसर पर इसी अनाम भय की बात की थी। उनका विश्वास था कि स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए सबसे पहले जन-जीवन से इस भय के हव्वे को मिटाना होगा परंतु आज राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त करने के इतने दशक बाद भी समाज में डर मौजूद है। उन दिनों अंग्रेजों से डर लगता था, आज हमारे अपनों से डर लगता है और सत्ता विदेशियों की हो या अपनी हो, यह सार्वभौम अजर-अमर डर ही हमें घेरे रहता है।

बचपन से मृत्यु तक अज्ञात भय ही हमारा शत्रु है। बचपन में दूध पिलाने या खाना खाने के लिए मां किसी अज्ञात का भय पैदा करती हैं और भय सारे जीवन के लिए हमारा हमसाया, हमसफर और हमजाद हो जाता है। सारा दोष मां का नहीं है, क्योंकि उसकी मां ने भी उसे इसी तरह पाला है। भय दिखाए बिना काम नहीं होता, इस भ्रम की स्थापना हुए सदियां बीत गईं। कुछ ऐसी कहावतें भी बनी जैसे, 'स्पेयर द रॉड एंड स्पॉइल द किड' अर्थात डंडा मारना लालन-पालन का हिस्सा बना दिया गया। प्रेम का स्थान जाने कैसे भय ने ले लिया? सरकारें भी डंडा ही चलाती हैं। अवाम में जिन लोगों को डंडा चलाने का अवसर मिलता है, वे विशेष हो जाते हैं।

श्री श्री रविशंकर के इस भव्य आयोजन के लिए धन कहां से आया, अब उस स्रोत की भी पुष्टि होनी चाहिए। जिस देश में अनेक लोगों को पूरे जीवन में एक संपूर्ण आहार नसीब नहीं होता, वहां इस तरह के आयोजन के लिए धन के स्रोत की जानकारी जन-साधारण को मिलनी ही चाहिए। धर्म इस देश के अवाम की सबसे बड़ी शक्ति और सबसे भयावह कमजोरी भी रहा है। हजारों वर्ष में अभावों का जीवन जीते हुए भी हम जीवित रहे, इसका श्रेय भी धर्म को है परंतु हम मर-मरकर कैसे जिएं इसके दोष से भी धर्म के ठेकेदार मुक्त नहीं हो सकते। हर संगठन अंततोगत्वा भय को ही उत्पन्न करता है। प्रेम के ढाई आखर का महिमा गान करते हुए भी हम डर को ही पोषित करते रहे हैं। श्री श्री रविशंकर के आयोजन में भी डर का ही साम्राज्य मजबूत हो रहा है। विदेशी आक्रमण और देशी संकट के समय सेवा करने वाली सेना को भी इस तरह कमजोर बनाने का प्रयास होता है। कोई नया शोशा उठेगा और इससे जुड़े प्रश्न अनुत्तरित ही रहेंगे।