भय बिन होय न प्रीति? / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :18 अगस्त 2015
टेलीविजन पर एपिक चैनल पर भारतीय संस्कृति, इतिहास,पाक-शास्त्र इत्यादि पर ज्ञानवर्द्धक एवं मनोरंजक कार्यक्रम प्रस्तुत किए जाते हैं। प्राय: संस्कृति व इतिहास के प्रति अनेक लोगों का संकुचित और प्रचारात्मक दृष्टिकोण होता है परंतु एपिक ने उदात्त संस्कृति के खुलेपन और उसमें निहित वैचारिक स्वतंत्रता को कायम रखा है। उनके एक कार्यक्रम में ध्वस्त हालत में पड़े एेतिहासिक स्थानों का वर्णन किया जाता है। पाक-शास्त्र के कार्यक्रम 'राजा, रसोई और कहानियां' में भोजन की विधि के साथ उसका इतिहास भी बताया जाता है। मसलन, दालचीनी श्रीलंका से पुर्तगाली लोग भारत लाए और आज कितनी दालचीनी का हम निर्यात करते हैं। पिसी हुई दालचीनी का प्रयोग मधुमेह व ब्लडप्रेशर के रोगियों की इतनी मदद करता है कि स्वयं मेरा इंसुलिन का प्रयोग समाप्त हो गया है परंतु एक गोली आज भी लेनी होती है। एपिक में दो कार्यक्रमों के बीच के दो मिनिट में महाभारत की कथा सुनाई जाती है और उन्हीं दो मिनिटों में कोई स्त्री हाथ सुनाए जा रहे प्रकरण के रेखाचित्र बनाता है। पार्श्व में बोले गए शब्दों पर परदे पर उतनी ही तेजी से रेखाचित्र बनाना कोई आसान काम नहीं है।
महाभारत में महारानी सत्यवति विवाह पूर्व ऋषि पाराशर के सहयोग से प्राप्त अपने प्रथम पुत्र वेदव्यास की सेवाएं लेती हैंं। अपने पुत्र विचित्रवीर्य की मृत्यु के बाद और अपनी दोनों बहुओं व वेदव्यास की मदद से नियोग विधि से तीन संतान प्राप्त करती है। वेदव्यास की लंबी दाढ़ी और वन में साधना के कारण वे थोड़े डरावने लगते थे, अत: एक बहू ने सहवास के समय आंखें मूंद ली तो शिशु जन्मना अंधा हुआ, दूसरी भय से कांप रही थी तो शिशु थोड़ा पीला और कमजोर हुआ! अपनी जगह दासी को भेजने के कारण दासी की कोख से जन्मा वेदव्यास का पुत्र विदुर विद्वान व न्यायप्रिय तथा साहसी हुआ। इसका निष्कर्ष यह निकलता है कि डर सबसे भयावह है। इसीलिए गांधीजी ने भारत में दिए प्रथम भाषण में भी यह कहा कि भय से मुक्त होना ही स्वतंत्रता की ओर पहला कदम होगा! गौरतलब है कि हर काल खंड में आम व्यक्ति का पूरा जीवन भय के कब्जे में ही बीत जाता है और संसार के सारे तानाशाह एवं संगठित अपराध सरगना यह जानते हैं कि डर पैदा करके ही वे अपना साम्राज्य स्थापित कर लेंगे। गौरतलब है कि 21वीं सदी के इस दूसरे चरण में भी समाज भयग्रस्त है और विचित्र बात यह है कि जो संस्थाएं इस भय को फैला रही हैं वे अपने को उसी संस्कृति का रक्षक भी मानती हैं। संस्कृति के उदात्त भवन को किसने अलसभोर में देखा है, किसने दोपहर में और किसने रात में देखा है- यह मनुष्य का दृष्टिकोण बनाता है। मानसरोवर का जल भी अलग-अलग समय पर अलग रंग का नज़र आता है। सारा मामला नज़र का नहीं नज़रिये का है।
राजकुमार संतोषी की 'घातक' का खलनायक कहता है कि उसे वर्षों लगे भय का साम्राज्य बनाने में और नायक ने दो घंटों में उसे ध्वस्त कर दिया। नायक की अनेक परिभाषाएं हैं और 'एनाटमी ऑफ ए हीरो' नामक किताब भी छपी है। अब प्रेमकथाओं का नायक और देश-प्रेम कथाओं का नायक, साहस कथाओं का नायक, जासूसी किताबों का नायक, इतिहास का नायक इन सभी ने अलग-अलग काम किए हैं परंतु इनमें एक मात्र समानता भयरिहत होना है। फरहद का पहाड़ काटना, सोनी का कच्चे घड़े को लेकर पानी में कूदना, ये सब भयरहित होना है। कुछ ही दिनों में केतन मेहता की 'मांझी- द माउंटेन मैन' प्रदर्शित होने वाली है। मांझी की पत्नी को लंबे रास्ते से जाकर पानी लाना पड़ता था। वह अकेला 21 वर्षों तक पहाड़ काटकर एक शार्टकट बनाता है। इस भूमिका को नवाजुद्दीन ने अभिनीत किया है। हाल ही में प्रदर्शित 'बजरंगी भाईजान' में समानांतर भूमिका में उसे खूब सराहा गया है। उसने अनेक सार्थक फिल्मों में काम किया किंतु सितारा हैसियत उसे कबीर खान की 'बजरंगी' ने ही दिलाई है।
समाज में अनेक शिक्षा संस्थाएं भी परोक्ष रूप से डरना सिखाती हैं। कई बार आदर देने के पाठ में ही डरना सिखा देते हैं। सवाल पूछने वालों को उद्दंड कहा जाता है- यह सब डर का ही महिमा गान है। अजीब बात है कि सबसे अधिक डर सबसे स्वाभाविक पावन भाव प्रेम में पैदा किया गया है। आश्चर्य है कि पति-पत्नी, प्रेमी-प्रेमिका, माता-पिता सभी रिश्तों के बीच अदृश्य डर की दीवार है। पहले रिश्तों को ही भयहीन कर लें।