भय / ओशो
प्रवचनमाला
महावीर ने पूछा है : श्रमणो, प्राणियों को भय क्या है?
कल कोई यही पूछता था और कोई पूछे या न पूछे, प्रश्न तो यही प्रत्येक की आंखों में है। शायद यह सनातन प्रश्न है और शायद यह अकेला ही प्रश्न है, जो पूछना सार्थक भी है।
प्रत्येक भयभीत है। ज्ञात में, अज्ञात में भय सरक रहा है।
उठते-बैठते सोते-जाते भय बना हुआ है। प्रत्येक क्रिया में, व्यवहार में, विचार में भय है। प्रेम में, घृणा में, पाप में सब भय है। जैसे हमारी पूरी चेतना ही भय से निर्मित है। हमारे विश्वास, धारणाएं, धर्म और ईश्वर भय के अतिरिक्त और क्या हैं? यह भय क्या है? भय के अनेक रूप हैं, पर भय एक ही है। वह मृत्यु है। यह मूल भय है। मिटने की, न जाने की संभावना ही समस्त भय के मूल में है। भय अर्थात न हो जाने की, मिटने की आशंका। इस आशंका से बचने का प्रयास पूरे जीवन चलता है। सब प्रयास इस मूल असुरक्षा से बचने को हैं।
पर पूरे जीवन दौड़कर भी 'होना' सुनिश्चित नहीं हो पाता है। दौड़ हो जाती है, समाप्त-असुरक्षा वैसी ही बना रहती है। जीवन हो जाता है, पूरा और मृत्यु टल नहीं पाती है। तब ज्ञान होता है कि जीवन जैसा था ही नहीं, केवल मृत्यु विकसित हो रही थी। जन्म और मृत्यु जैसे जीवन के ही दो छोर थे।
यह मृत्यु का भय क्यों? मृत्यु तो अज्ञात है। वह तो अपरिचित है। उसका भय कैसे होगा? जो ज्ञात ही नहीं है, उससे संबंध भी क्या हो सकता है?
वस्तुत: जिसे हम मृत्यु का भय कहते हैं, वह मृत्यु का न होकर, जिसे हम जीवन जीवन जानते हैं, उसके खोने का डर है। जो ज्ञात है, उसके खोने का भय है। जो ज्ञात है, उससे हमारा तादात्म्य है। वह हमारा होना बन गया है। वही हमारी सत्त बन गयी है। मेरा
शरीर, मेरी संपत्ति, मेरी प्रतिष्ठ, मेरे संबंध, मेरे
संस्कार, मेरे विश्वास, मेरे विचार-यही मेरे 'मैं' के प्राण बन गये हैं। यही 'मैं' हो गया है। मृत्यु इस 'मैं' को छीन लेगी। यही भय है। इस सबको इकट्ठा किया जाता है, भय से बचने, सुरक्षा पाने को और होता उलटा है- इसे खोने की आशंका ही भय बन जाती है। मनुष्य साधारणत: जो भी करता है, वह सब जिसके लिए किया जाता है, उसके विपरीत चलता है।
आज्ञान से आनंद के लिए उठाये गये सब कदम दुख में ले जाते हैं। अभय के लिए चला गया रास्त और भय में ले जाता है। जो 'स्व' की प्राप्ति मालूम होती है, वह 'स्व' नहीं है। यदि इस सत्य के प्रति जागना हो जाये- यदि मैं यह जान सकूं कि जिसे मैंने 'मैं' जाना है, वह 'मैं' नहीं हूं और इस क्षण भी मेरे तादात्म्य से मैं भिन्न और पृथक हूं, तो भय विसर्जित हो जाता है। मृत्यु में जो 'पर' है, वही खोता है।
इस सत्य को जानने के लिए कोई क्रिया, कोई उपाय नहीं करना है। केवल उन-उन तथ्यों को जानना है, उन-उन तथ्यों के प्रति जागना है, जिन्हें मैं समझता हूं कि 'मैं' हूं- जिनसे मेरा तादात्म्य है। जागरण तादात्म्य तोड़ देता है। जागरण 'स्व' और 'पर' को पृथक कर देता है। 'स्व' और 'पर' का तादात्म्य भय है और उनका पृथक बोध भय-मुक्ति है-अभय है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)