भय / राजेन्द्र यादव
‘‘क्यों बे बदरुद्दी, वो रहीम आज भी नहीं आया?’’ वही रूखी-कर्कश आवाज।
‘‘बाबू, वो तो हल्दी-चूना लगा के पड़ा है...।’’ यह आवाज लड़के की थी।
‘‘हल्दी-चूना...!’’ बाबू संतोष से हंसा तो मुझे ऐसा लगा कि अगर यह आदमी अपनी हंसी उधार दे दे, तो शायद सिनेमावाले राक्षसों की हंसी के लिए उसका उपयोग कर सकते हैं। -‘‘साला बहानेबाज...’’
जिस तरफ वॉश-बेसिन लगा है, उसी तरफ वह गैराज है। यहां मोटरों और ट्रकों की मरम्मत होती है। दुनिया-भर का लोहा-लंगड़ भरा है। हमेशा दो-तीन ट्रक और एक छोटी-सी बरसों पुरानी कार पड़ी रहती है। बाकी मोटरों के हिस्से या मरम्मत करने वाली चीजें कुछ ऐसी बेतरतीबी से बिखरी रहती हैं लगता है कि यहां बेकार (स्क्रैप) लोहे का गोदाम हो। असल में यह हमारे फ्लैट के मकान और बगलवाले मकान के बीच खाली पड़ा प्लॉट है, और जब तक यहां कुछ न बने, इसे शायद मरम्मत करने वाले गैराज की तरह उठा दिया गया है। सामने एक सड़ा-गला-शायद कनस्तरों की टीन का फाटक है। उससे लगा ही एक छप्परनुमा टीन का ही निहायत नीचा शेड है-यह ‘आफिस’ है। यहां अक्सर ही टेलीफोन घनघनाया करता है और गैराजवाला चीख-चीखकर बोलता रहता है। आठ-दस आदमी काम करते हैं, सो दुनिया भर की ठोका-पीटी होती रहती है और ऐसा शोर रहता है कि कभी-कभी तो हम लोगों को कान-पड़ी बात नहीं सुनाई देती। टीन या लोहा ठोकने की आवाज से सोते समय ऐसी झल्लाहट होती है, मन होता है कि सीधे पुलिस में रिपोर्ट कर दें। ऐसे गैराज घनी बस्तियों के बीच नहीं होने चाहिए। कभी किसी इंजन को स्टार्ट करके मिस्तरी दस-पंद्रह मिनट उसे बंद करना ही भूल जाता है-कभी सामने काले रंग का चौखटा लगाकर गैस के कइये से झालने की सांय-सांय, नीली-नीली चिनगारियों के साथ लगातार गूंजती रहती है। लेकिन इस सारे शोर-शराबे के ऊपर बिना किसी व्यवधान के जो जोर-जोर से बोलती आवाज सुनाई देती है, वह गैराज के मालिक की है, ‘‘बाबू साहेब, इस बोनेट को उठाते हो या गर्दन तोडूं?’’...‘‘मुंह फाड़कर उधर खिड़की में क्या देख रहे हो? आकर घुमाऊं मुंह में हैंडिल...तभी दिमाग का इंजन र्स्टाट होगा?’’...‘‘नांई, कोई खाने-वाने की छुट्टी नहीं मिलेगी...’’
और यह सब चिल्लाने-डांटने तक ही सीमित नहीं है, इस बात का पता हमें इस फ्लैट में आने के दूसरे दिन ही लग गया। पीछे से बहुत जोर-जोर से रोने की आवाज आई तो हम लोग भागकर जंगले पर आए। देखा, एक लंबा-चौड़ा काला-सा आदमी हाथ में मोटी रस्सी लिए बारह-तेरह साल के लड़के को सड़ाक्-सड़ाक् मार रहा है, ‘‘बाबू साहेब, चाय पीने जाओे, फिर जाओ। अभी क्यों आए...? आज हम तुम्हारा मोबिल-ऑयल बना देंगे।’’
तेल और कालिख से चीकट जांघिया-बनियान पहने लड़का उस व्यक्ति के पैरों के पास दुहरा होकर बैठा था और ‘हाय-हाय, अब नहीं करूंगा बाबू...अब नहीं जाऊंगा,’ दुहराता हुआ बुरी तरह से रो-रिरिया रहा था। दोनों पांव रोपे खड़ा दुलंघी धोती और कमीज पहने गुस्से से चिल्लाता आदमी ही मालिक है, यह समझते देर नहीं लगी। उसके काले चेहरे पर लाल-लाल आंखें और बिखरे बाल-सारी मुद्रा, सभी ने उसे बहुत भयानक बना दिया था।
दर्द से लड़के का शरीर मिर्गी के रोगी की तरह ऐंठ उठा। एक बार उसे और उठने को कहकर वह रस्सी झुलाता हुआ पास पड़ी खाट से सिगरेट और दियासलाई उठाकर इतमीनान से सिगरेट फूंकने लगा। पहले कश का धुआं निकालते हुए बहुत स्वाभाविक स्वर में आज्ञा दी, ‘‘अभी उठे, या और पेच कसूं...’’
बड़े-से तसले में मोटर का कोई पुर्जा रखे, उसे कीचड़ जैसे मिट्टी के तेल से धो-धोकर साफ करते किसी भी छोकरे की पीठ पर-उसकी सुस्ती दूर करने के लिहाज से एकाध रस्सी फटकार देना उसका स्वाभाविक अंदाज था। जितनी भी बार पीछे से सड़ाक्-सड़ाक् के साथ-‘हाय-हाय, मर गया...’ की कराहती-रोती आवाज आती, मेरा हाथ रुक जाता और पत्नी से खाना नहीं खाया जाता। पूछतीं, ‘‘जब इतनी बेदर्दी से मारता है तो ये लोग काम करने ही क्यों आते हैं?’’
‘‘आएं नहीं तो क्या करें? ये नहीं आएंगे तो और आ जाएंगे...’’ मैं बताता।
‘‘लेकिन कानून से भी, कोई मार थोड़े ही सकता है?’’
‘‘कौन देखता है कानून?’’ मैं गुस्से से भन्नाकर बोला, ‘‘कानून तो आठ घंटे काम कराने का है...लेकिन यह तो रात को भी जाने कब तक लालटेनें जलवा-जलवाकर काम कराता रहता है...’’
‘‘इन्हें उसके बदले में ओवर-टाइम थोड़े ही देता होगा...।’’ पत्नी ने कहा, ‘‘सच, ऐसी बेरहमी से मारता है कि आज तो मुझे रोना-रोना आता रहा। वो चीकट-सी बनियान पहने जो छोटा-सा लड़का है न, उसी को मार रहा था। उसके मुंह से खून जाने लगा, सारे शरीर पर रस्सियां उपट आईं। कहीं इतना मारा जाता है! इन लड़कों के मां-बाप नहीं हैं क्या?’’
‘‘पता नहीं...’’
‘‘फिर भी इतना तो नहीं मारना चाहिए। मैंने यहां खड़े-खड़े रोका तो क्या कहता है : ये लोग तो बहाने करते हैं। इनके लगता-लगाता नहीं है, लेकिन रोते बहुत जोर-जोर से हैं। मेरे मन में तो हुआ कि कह दूं कि दो-चार रस्सियां खुद भी तो खाकर देख...। कोई पुलिस में रिपोर्ट नहीं करता...?’’
मैंने कुछ कहा नहीं, सिर्फ मन में सोचा : पुलिस में आदमियों पर नहीं, जानवरों पर अत्याचार करने की रिपोर्ट की जाती है। बंदर-कुत्तों पर अत्याचार देख-देखकर रोनेवाले अपना संघ बना लेते हैं। वह भद्र लोगों का धार्मिक फैशन है। आदमियों के लिए इस तरह कुछ करने को राजनीति कहा जाता है। खैर...
पुलिस में रिपोर्ट करने की बात मेरे मन में भी कई बार आई, लेकिन व्यर्थ के झंझट और पड़ोस से दुश्मनी मोल लेने के डर से चुप हो गया।
‘‘बच्चों को इस तरह की कच्ची उम्र में मारने से उनके ऊपर बहुत खराब असर पड़ता है। अक्सर वे अपराधी बन जाते हैं।’’ पत्नी नारी के साथ-साथ बी.टी. भी हैं।
‘‘और तुमने देखा होगा कि बच्चों को ही बहुत मारता है। ये जो मिस्तरियों की मदद करने या सामान इधर-उधर उठाने-रखने के लिए तीन-चार लड़के हैं, उन्हीं पर रस्सी फटकारता है...’’ मैंने दुःख से कहा।
‘‘तभी तो बेचारे पिट लेते हैं। किसी बड़े पर हाथ उठाकर देखे न, पलटकर वहीं दो झापड़ देगा और दूसरे दिन से काम पर नहीं आएगा।’’ पत्नी ने पलटकर झापड़ देने की बात को दांत पीसकर कहा, और उस सुख की कल्पना करके बोली, ‘‘किसे फाडूं, किसे खाऊं करता हुआ राक्षसों-जैसा घूमता है। भगवान करे, किसी दिन इंजन उतारते वक्त पांव पर इंजन ही आ गिरे...तब पता लगे।’’
‘‘लेकिन वो तो हाथ ही नहीं लगाता...’’
‘‘तुम देख लेना, किसी दिन ऐसा होगा कि सारी नानी याद आ जाएगी। बेचारे मासूम बच्चों की हाय असर दिखाए बिना थोड़े ही रहेगी...’’ पत्नी को जैसे कुछ याद आ गया हो इस तरह पूछा, ‘‘इसके अपने बाल-बच्चे नहीं हैं क्या?’’
‘‘क्या पता...? यह तो रात को यहां रहता नहीं है। रात को तो दरबान ही अकेला पड़ा-पड़ा सोता रहता है।’’ मैं बोला।
दिन बरसात के हैं, सो उसने बीच-बीच में बांस खड़े करके बड़ा-सा किरमिजी त्रिपाल लगा रखा है। रात में जब कभी वॉश-बेसिन के पास जाता हूं तो पीछे का सारा गैराज सड़क की धुंधली रोशनी में ऐसा लगता है, मानो लड़ाई के मैदान में किसी सोते हुए फौजी दस्ते पर बम गिरे हों और सब टूट-फूट गया हो। स्टेज पर पहाड़ों का प्रभाव देने के लिए ताने गए कपड़े-सा एक ओर को झुका और बीच-बीच में बांसों में उठाया हुआ त्रिपाल, कहीं चमकता ट्रक का विंड-स्क्रीन, कहीं स्टीयरिंग का पहिया, कहीं मडगार्ड और फुटबोर्ड और टायर-जड़े पहिए...खाट पर बीच में पड़ा खर्राटे लेता दरबान। कभी हल्की-सी चांदनी में लगता, जैसे चंगेज खां के जमाने का कोई फौजी डेरा पड़ा हो और शराब में घुत् होकर सब लोग सोए पड़े हों-जागता हुआ मंडरा राह हो बस, एक खौफ...चंगेज खां की तलवारों का खौफ...। रात में भी लगता, जैसे यह रस्से का टुकड़ा लेकर हुंकारता हुआ घूम रहा हो, और बच्चे डर के मारे इधर-उधर छिप गए हों...
एक दिन जाना कि सबसे ज्यादा जो लड़का पीटा जाता है, उसका नाम है रहीम...
सुबह-सुबह मैं वॉश-बेसिन पर खड़ा-खड़ा ब्रश कर रहा था कि सड़ाक्-सड़ाक् के साथ हूं-हूं करके रोते हुए लड़के की आवाज आई। लड़का मोटरों और ट्रकों के आसपास भाग रहा था और पीछे-पीछे गोफन की तरह रस्सा झुलाता हुआ मालिक। जैसे दोनों कोड़ा-जमालशाही खेल रहे हों, ‘‘भागो मत...भागो मत बाबू साहेब, चुपचाप ऊपर चढ़ जाओ, वरना आज जिंदे घर नहीं लौटोगे...’’ मालूम नहीं काहे पर चढ़ने को कह रहा है। हो सकता है कोई ऐसी खतरनाक चीज हो, जहां खुद न चढ़ना चाहता हो और जान के डर से लड़का भी न चढ़ रहा हो।
फिर देखा, हमारे फ्लैट की ओर जो ट्रक खड़ा था, लड़का उस पर चढ़ रहा है और नीचे से खड़ा-खड़ा मालिक रस्सा फटकारता जाता है, ‘‘चढ़ो...चढ़ो...जल्दी चढ़ो बाबू साहेब,’’ ड्राइवर के बैठने वाली जगह की छत पर जब लड़का आ बैठा तो नीचे मालिक बोला, ‘‘बस, अब खूब आराम कर लो। कल इसी वक्त उतार लिया जाएगा...खाना-पीना बंद, हवा खाओ...’’
अब पता चला कि लड़के को सजा देने के लिए यहां चढ़ाया गया है। ट्रक की छत हमारे फ्लैट की ऊंचाई से पांच-सात फुट ही नीचे रह जाती थी। लड़का बंदर की तरह चढ़कर बैठ गया। उसके मैल और कालिख लगे चेहरे पर आंसुओं की धारियां बनी थीं।
संध्या को देर से लौटा। मुंह-हाथ धोने गया तो देखा, लड़का रोते-रोते गिड़गिड़ा रहा था, ‘‘बाबू, अब उतार लो...अब नहीं करूंगा बातें...’’
‘‘नहीं बेटे, आराम कर लो जरा-सा...’’ रस्सा हिलाते हुए घूमना छोड़कर वह चिढ़ाने लगा।
तब क्या लड़का सुबह से ही बैठा है? बीच में तो पानी भी आया था।
‘‘यह तो अत्याचार की हद है।’’ चाय पीते समय मैंने पत्नी से कहा, ‘‘मैं आज ही मुहल्लेवालों से बातें करूंगा।’’
‘‘हद तो है ही। कसाई है कसाई।’’ फुफकारकर पत्नी बोलीं। फिर बताने लगीं, ‘‘पहले तो यह लड़का चोट से रोता रहा, फिर लेटकर आसमान को ताकता रहा। और सचमुच इतना शैतान है कि क्या बताऊं...मालिक खाना खाने उधर गया कि और लड़कों को दिखाकर ही ऊपर से खड़ा-खड़ा धार बांधकर पेशाब करता रहा...अब फिर रो रहा है।’’ पत्नी ने सारे दिन की रिपोर्ट दी।
‘‘शैतान है तो क्या हुआ? बच्चा ही तो है बेचारा।’’ मैंने दया से कहा, ‘‘सुबह से यों ही भूखा बैठा है क्या?’’
‘‘उस राक्षस ने तो कुछ दिया नहीं है। मैंने ही कागज में लपेटकर डबलरोटी के स्लाइस फेंके थे, सो पहले तो खा ही नहीं रहा था...पूछा तो कहता था कि मालिक मारेगा। मैंने समझाया कि इतने ऊपर से मालिक को दिखाई नहीं दे सकता। सो छत से छिपकर बड़ी मुश्किल से खाए...फिर सारे दिन पानी के लिए खुशामद करता रहा।’’ उन्होंने अपनी दिनभर की जानकारी बताई, ‘‘नाम है रहीम बख्श। दो बहनें हैं, बाप है। कहीं मजदूर है। मैं दोपहर में खड़ी-खड़ी बड़ी देर तक पूछती रही। कहता था कि रात को अम्मा राह देखेगी...’’
मेरा मन सचमुच खराब हो गया। सारे बच्चे उससे कांपते थे और जिधर वह निकल जाता था, सब इस तरह सांस रोक लेते थे, जैसे भेड़ों में भेड़िया आ गया हो।
एक दिन सूखता हुआ कोई कपड़ा गैरेज में जा गिरा तो मुझे नीचे जाना पड़ा। पता चला कि मालिक किसी की बिगड़ी गाड़ी देखने कहीं गया है। रहीम एक दांतेदार पहिए की जंग छुड़ा रहा था। मैं हल्के परिहास से बोला, ‘‘कहो रहीम, उस दिन तो ट्रक की छत पर बैठकर खूब आराम किया...’’
उसके मैले चपटे-मुंह पर हंसी दौड़ गई। भीगा कपड़ा हाथ में लिए ही कुहनी से माथे के ऊपर खुजाकर उसने लापरवाही से सिर झटक दिया। दूसरे लड़के ने कहा, ‘‘बाबू जी, यह बड़ा शैतान है। बहुत पिटता है...अपने से बड़े-बड़े लोगों को मालिक की तरह डांटकर कहता है, ऐ, पिलास इधर लाओ...।’’
‘‘और उस दिन अगर रात भर बैठा रहता तो...?’’ मैंने पूछा।
‘‘तो क्या...? वहीं आराम से सो जाता।’’ इस बार वह हंसकर बोला।
‘‘हूं, बड़ा सो जाता!...साले की डर के मारे तो नानी मरती है।’’ दूसरे लड़के ने बताया।
मैं समझ तो गया, लेकिन फिर भी पूछा, ‘‘डर काहे का?’’
अपने हाथ का काम छोड़कर लड़के ने रहीम की फटी, चीकट बनियान को गले पर से जरा-सा खींचकर बताया, ‘‘देखिए न, गले में कितनी बड़ी ढोलकी बांधे फिरता है, पीर जी की। इसे भूत से बहुत डर लगता है।’’
‘‘भूत से?’’ मैं थोड़ा अचकचाया। मालिक भी तो भूत जैसा ही दिखाई देता है।
मेरे अविश्वास को देखकर इस बार वह लड़का बोला, ‘‘हां बाबू जी, यहां रात में भूत आता है। आप इस दरबान से पूछना...कभी घुंघरुओं की आवाज आती है, कभी रोने की...’’ ‘‘यहां क्या पहले कोई कब्रिस्तान था?’’ मैंने बात को और कुरेदा।
‘‘नहीं जी, यहां पहले पुकुर (पोखर) था। उसमें बहुत आदमी डूब गए थे।’’ इस बार भय और उत्साह से रहीम ने बताना शुरू कर दिया था, ‘‘और कल तो सफेद कपड़ों में एक भूतनी आकर दरबान को जगा रही थी। कहती थी, खाना बनाकर रख आई हूं, चलकर खा लो। खा लेता बेटा, तो जाने कहां होता अब...’’
‘‘तूने खुद देखा है?’’ मैंने गौर से उसके चेहरे को देखते हुए पूछा।
‘‘हां, देखा है। एक दिन रात को देर तक काम हुआ था। बाबू ने हमको रोक लिया, सो हम यहीं सो गए। जागे तो देखा, वो बड़ा वाला ट्रक स्टार्ट हो गया है। हमारी तो सांस रुक गई वहीं-क्योंकि उसका तो इंजन कल ही उतरवाकर रखवाया था हमने। सारा खुला पड़ा था। इंजन चलने की आवाज आती थी ट्रक में से। फिर देखते हैं कि ट्रक कभी आगे जाता है, कभी पीछे...हमने आंख फाड़-फाड़के देखा...।’’
दोनों तेल-भीगी उंगलियों से गालों की खाल नीचे खींचकर आंखें फाड़ते हुए वह बोला, ‘‘एक सफेद-सफेद आदमी एक ही डग में दीवार फांदकर बाहर चला जाता है। हमारी तो घिग्घी बंध गई...’’
‘‘हमें दिखाएगा...?’’
‘‘अब तो कोई हमको दस हजार रुपये दे, तो भी हम रात में यहां नहीं रहेंगे...’’ वह इस तरह काम में लग गया, मानो उसे बेकार की बातें करने की फुरसत नहीं है।
मैंने चलते-चलते फिर जानना चाहा, ‘‘क्यों रे, रात की बात तो समझ में आई, लेकिन तुझे दिन में इस मालिक से डर नहीं लगता? इतना मारता है...।’’
‘‘मालिक से क्यों डरेंगे...? काम नहीं करेंगे तो मारेगा ही...’’
लेकिन उसकी बात अधूरी ही रह गई। बाहर से सुनाई दिया, ‘‘बाबू साहेब सफार्ह हो गई या...’’
मैं जल्दी-जल्दी वहां से चला आया।