भय / हरि भटनागर
उस लड़के को देखकर मैं यकायक डर गया जो मेरे घर के सामने आ खड़ा हुआ था।
लड़का फटीचर हालत में था। तन पर बहुत ही गंदी, जगह-जगह फटी बनियान थी और पैंट गंदी तो थी ही, इतनी बड़ी थी कि किसी तरह वह उसे सँभाले था। पाँयचे जमीन पर लथर रहे थे और ऐसा लगता था पाँयचों की जगह पन्नी बँधी हो।
उस लड़के को देखते ही मेरे जेहन में एक बात उभरी कि इसे कहीं देखा है। जेहन को कुरेद ही रहा था तो याद आया कि कुछ ही दिन पहले यह लड़का पुल की रेलिंग पर सोया हुआ था। यह कुछ ऐसा निश्चेष्टï और गहरी नींद में सोया पड़ा था कि राहगीरों को भ्रम हुआ कि चल बसा। लोगों की वहाँ भीड़ लग गई थी। एक आदमी ने उसे अपने छाते से कई बार कोंचा तब भी वह निश्चेष्टï और बेहिस ही बना रहा। तभी किसी ने उसके खुले मुँह पर पानी डाला तो वह हाँफता - गाली देता उठ बैठा। थोड़ी देर तक वह आँखें मलता रहा, मच्छरों से घायल गर्दन खुजाता रहा, फिर यकायक उठकर भाग खड़ा हुआ था।
यह वही लड़का था। यही कोई नौ-दस साल का होगा, लेकिन अपनी उम्र से बड़ा लग रहा था। दुबला-पतला हडिय़ल और निहायत ही गंदा था जैसे महीनों से नहाया न हो। सिर के झोंटे उलझे और लटियाए थे जिनमें वह उँगलियाँ फेरता हुआ कुछ सोच रहा था। रहटे की एक लंबी गोदी थी जिसे वह बहँगी की तरह कंधों पर टिकाए था। दोनों हाथ उसके उसी पर झूल रहे थे।
लड़के को देखकर मैं डर गया कि कहीं कुछ गड़बड़ न करे। चुप्पे से फाटक खोले और कुर्सी न उठा ले जाए! सैप्टिक टैंक का ढक्कन ही न पार कर दे! पिछवाड़े सामान पड़ा हुआ है — बर्तन, बाल्टी, पंप, पीतल की टोंटी, तार पर टँगे कीमती कपड़े! क्या भरोसा ऐसे आवारों का जो सड़क पर ही मरते-खपते हों!
हालाँकि मैंने अपने घर की का फी सुरक्षित घेरेबंदी कर रखी है कि कोई पर नहीं मार सकता, बावजूद इसके मैं भयभीत था कि ऐसे नंगों, दुष्टïों का क्या भरोसा, कैसा भी म जबूत, अभेद्य घेरा ये तोड़ दें और कुछ भी उड़ा ले जाएँ! आप क्या कर लोगे इनका? किसी विद्वान ने सही कहा है कि इन आवारों के पास खोने के लिए क्या है जबकि पाने के लिए संसार है!
जोर से चिल्लाकर मैंने लड़के को डपटा ताकि वह भाग जाए। लेकिन मेरे ऐसा करने से लड़का टस से मस न हुआ। बल्कि और इट्टमीनान से, निर्भय-सा सड़क के किनारे खड़ा हो गया जैसे कह रहा हो कि मैं सड़क पर खड़ा हूँ, तुम्हारी जगह नहीं जो डपट रहा है!
पत्नी ने कहा — बड़ा ढीठ है! देखो कैसे देख रहा है, आँखें फाड़कर! अरे, अरे, देखो, रहटा कैसे लहरा रहा है, जैसे नट हो! इसे तो किसी सर्कस में होना चाहिए।
पत्नी जोरों से हँसीं। उनमें जरा भी भय न था जबकि मैं आंदोलित था।
थोड़ी देर बाद पत्नी रसोई के काम में उलझ गईं और मैं ऑफिस जाने की तैयारी में कि —
फाटक बजा।
मैंने देखा, फाटक पर लड़का था।
मैं चीखा - क्या है?
वह बोला - साब, पानी चाहिए!
- नहीं है पानी, भाग यहाँ से! - मैं ची खा — दूर हो गेट से, पीछे हट, नहीं ल_ï बजा दूँगा। पता नहीं कहाँ से कमीने आ जाते हैं... नंगे-भुक्खड़ जैसे लंघन से उठे हों साले! और कोई जगह नहीं, बस यहीं आना है पिट्टïस को। और कहीं खड़ा होता तो अभी जूते पड़ जाते पच्चीसों ... साब पानी चाहिए, होटल है कोई क्या? हरामखोर...
मैं गुस्से में बड़बड़ा रहा था और फाटक का खटका चढ़ाने में लगा था। इस बीच पत्नी रसोई से पानी का जग लिए आईं और लड़के से बोलीं — ले, पानी पी और भाग, फिर दिखना नहीं! नहीं तो पीटूँगी!
अँजुरी जोड़े वह पानी पी रहा था, आँखें पानी की धार को देख रही थीं। पानी अँजुरी में कम मट्टथे पर ज्यादा गिर रहा था जो उसके गंदे चेहरे को भिगो रहा था — मुझे पत्नी पर गुस्सा आ रहा है, जबरन पानी पिला रही हैं, कुछ समझती नहीं, कैसी नालायक हैं! — बड़बड़ाता मैं बाथरूम में घुस गया।
थोड़ी देर बाद जब मैं रोटी खा रहा था, फाटक फिर बजा।
देखा तो वही लड़का।
आग बबूला होते मैंने पूछा, क्या है?
- रोटी दे दो साब! भूख लगी है!
- नहीं है रोटी, भगो यहाँ से!
- तुम तो खा रहे हो, मुझसे कहते हो कि नहीं है! दो ना साब!
बात तो उसने सच कही थी। मेरे गुस्से से रिक्तम चेहरे पर मुस्कुराहट की लालिमा तैर गई। बावजूद इसके मैंने गुस्से को बनाए रखा। चीखा - जाते हो कि दूँ एक लात!
- मार दो साब! खड़ा हूँ।
- भाग यहाँ से!
- साब एक रोटी!
पत्नी ने रोटी लाकर दी। लड़के ने मुझे कनखियों से देखा, हल्का-सा मुस्कुराया जैसे कह रहा हो कि कैसे हो साब! रोटी को मना करते हो!
लड़के ने रोटी ली जैसे झपट्टïा मारा हो और समूची रोटी मुँह में रख ली और चबाने की िजल्लत उठाए बिना वह उसे गटक गया। ऐसा करते हुए मुझे लगा कि रोटी उसके हलक में फँस गई है! तभी उसकी साँस भी रुक रही है। उसे बेचैनी हो रही है जिस वजह वह छाती पीटने-सा लगा जिसका असर आँखों पर भी था। आँखों में पानी तैर गया था।
मुझे घबराहट-सी हुई। पत्नी पानी के लिए रसोई की तर फ दौड़ीं।
लड़के को पानी पीने की जरूरत नहीं पड़ी। पल भर में रोटी हलक के नीचे उतर गई थी और वह मुस्कुरा रहा था!
पत्नी ने नारा जगी जताई और उसे बरजा।
जब मैं कपड़े पहन रहा था, ऑफिस जाने को था, फाटक फिर बजा। देखा तो वही लड़का फिर खड़ा था जो कुछ देर पहले रफूचक्कर हो गया था।
मुझे यह भाँपते देर न लगी कि लड़का कुछ न कुछ जरूर गड़बड़ करेगा! तभी यहीं मँडरा रहा है!
- अब क्या है? — मैं तिड़का।
जवाब में लड़के ने फटी बनियान उतारी और इंधौरी भरे शरीर पर हवा करता बोला
— साब, बुश्शट दे दो! आज तक मैंने कभी बुश्शट नहीं पहनी।
आपे से बाहर होता मैं बोला — नहीं है बुश्शर्ट, तुम जाओ नहीं तुम्हारी पिटाई लगाऊँगा, बहुत हो गई शैतानी...
- साब, शैतानी कहाँ कर रहा हूँ? — मुस्कुराता वह बोला - एक बुश्शट दे दो न साब! आपके पास तो...
- ह जारों हैं, तो क्या लुटा दूँ? — मैं बोला
- साब! आपकी छत झाड़ दूँ तब दे दोगे?
मैं सावधान हुआ। यह इसकी चाल है! बोला — नहीं, छत नहीं झड़वानी है, भाग यहाँ से, नहीं कुंदी करूँगा तेरी!
जब सीधे से वह नहीं माना तो मैं कर्रा हुआ और उसे धकेलकर घर से दूर किया और ऑफिस के लिए रवाना हुआ!
मैं ऑफिस तो जरूर आ गया लेकिन मन घर में लगा हुआ था। वह नाकिस लड़का था जो कुछ न कुछ गड़बड़ करने पर उतारू था। सामान तो जाए, कहीं पत्नी पर हमला न कर बैठे!
दिन भर ऑफिस के काम में मन नहीं लगा। आशंका ही आशंका। कई बार पत्नी को फोन किया तो उनकी मुस्कुराती आवा ज से थोड़ा आश्वस्त हुआ लेकिन फोन रखते ही फिर वही आशंका! वही डर! वही भय!
ऑफिस छूटने से दो घंटे पहले ही मैं घर आ गया।
पत्नी ने मुस्कुराते हुए फाटक खोला तो जान में जान थी।
स्कूटर टिका रहा था वह लड़का गली के छोर से लचका-सा खाता, आता दिखा— इस वक्त वह मेरी बुश्शर्ट पहने था!
पत्नी उसे देख मुस्करा रही थीं और मैं फिर आशंका के घेरे में था।